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Magazine - Year 1998 - Version 2

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स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन की महत्ता का प्रतिपादन शास्त्रों में विस्तारपूर्वक किया गया है। मनुस्मृति 3-75 में उल्लेख है-स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्।” अर्थात् स्वाध्याय में नित्य तत्पर रहना चाहिए, क्योंकि इससे सद्विवेक-सद्बुद्धि का विकास होता है और उससे समस्त समस्याओं का समाधान मिलता है। प्राकृत-उत्तराध्ययन (26-10) भी इसका समर्थन करते हुए कहता है। “सज्झाएवा निउत्तेण, सव्वदुक्ख विमोक्खणे।” अर्थात् स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुखों से मुक्ति मिलती है। इसी ग्रंथ के अगले सूत्र (26-37) में इससे मिलने वाले सत्परिणाम का उल्लेख है। “सज्झायं च ताओ-कुज्जा सव्वभावविभावणं।” अर्थात् स्वाध्याय सभी प्रकार के भावों का प्रकाश करने वाला है।

स्वाध्याय की इस महत्ता को जानते हुए प्रायः लोग अच्छी पुस्तकें पढ़ते भी हैं, परन्तु जो पढ़ा गया है, उस पर चिन्तन, मनन और वार्तालाप नहीं करते। यही कारण है कि उस अध्ययन का प्रभाव जीवन में स्थायी नहीं हो पाता। यदि पुस्तकों-शास्त्रों के सारे जीवन में उतारने की प्रक्रिया लोग सीख जाएँ तो सामान्य-सी परिस्थितियों में ही हर व्यक्ति उत्कृष्टता के चरम बिन्दु तक पहुँच सकता है। अच्छी पुस्तकें, महापुरुषों की जीवन-गाथाएँ गोघृत एवं दुग्ध के समान पौष्टिक आहार हैं, जो मन-बुद्धि आचार-विचार तर्क व विवेक को परिपुष्ट करके आत्मोत्थान का उज्ज्वल पथ प्रशस्त करती हैं।

बात उन दिनों की है, जब गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे। उन्होंने बहुचर्चित नेता ग्लैडस्टन की जीवनी पढ़ी थी। उसमें एक प्रसंग ऐसा था, जिसमें गाँधीजी के जीवन की एक धारा को उलट कर रख दिया। “एक दिन एक आम सभा हो रही थी। उसमें ग्लैडस्टन के साथ उनकी धर्म-पत्नी भी थीं। ग्लैडस्टन को चाय पीने की आदत थी। चाय बनाने का कार्य उनकी धर्म-पत्नी ही करती थीं। आम सभा के बीच ग्लैडस्टन ने चाय पीने की इच्छा की तो श्रीमती ग्लैडस्टन ने बिना किसी झिझक, लज्जा या संकोच के अपने हाथ से वहीं चाय बनायी, पति को पिलायी और कप-प्लेट स्वयं अपने हाथ से साफ किये। ऐसा उन्होंने कई स्थानों में किया।”

इस घटना को पढ़कर गाँधीजी के जीवन में जो प्रतिक्रिया हुई, उसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इन शब्दों में किया है-पत्नी के प्रति वफादारी मेरे सत्य के व्रत का अंग थी, पर अपनी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, यह बात दक्षिण अफ्रीका में ही स्पष्ट रूप से समझ में आयी।”

गाँधी जी ने उक्त प्रसंग जब रामचन्द्र भाई को बड़े कुतूहल के साथ सुनाया, तो उन्होंने कहा-बापू इसमें आश्चर्य की क्या बात है? अब आप बताइये अपनी बहिनें-बेटियाँ और छोटे-छोटे बच्चे क्या ऐसे कार्य कहीं भी नहीं कर सकते? बड़ों की आज्ञापालन में तो उन्हें प्रसन्नता ही होती है। पत्नी के इस व्यवहार को असामान्य मानने का एक ही कारण हो सकता है, पत्नी से कोई आकांक्षा। साधारण लोग अपनी धर्म-पत्नी को कामवासना की दृष्टि से, भोग-विलास की दृष्टि से देखते हैं। उसमें नारी के प्रति हीनता का भाव आता है। यही भाव हम उसके साथ प्रत्येक कार्य में आरोपित करते हैं। पत्नी उसे ही बुरा मानती है। यदि उसे हीनता या कामुकता की दृष्टि से न देखा जाए, तो सचमुच प्रत्येक स्त्री ग्लैडस्टन की धर्म-पत्नी की तरह ही बहिन-बेटियों की सी सेवा बिना लज्जा या संकोच के कर सकती है।”

गाँधीजी को यह बात बड़ी महत्वपूर्ण लगी। ग्लैडस्टन के जीवन-चरित्र को पढ़ने से जिस मर्म को वह नहीं भेद पाये थे, वह वार्तालाप से खुल गया। तब तक कस्तूरबा और उनमें प्रायः अनबन हो जाया करती थी। उस दिन से बापू ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और इतिहास जानता है कि इसके बाद कस्तूरबा गाँधी ने गाँधीजी को सच्चे मित्र की भाँति खुलकर कंधे-से-कंधा मिलाकर सहयोग प्रदान किया। उन्होंने उनके साथ जेल जाने तक में भी झिझक या संकोच नहीं किया।

स्वाध्यायशीलता और पढ़े हुए को जीवन में रचाने-पचाने के अभ्यास ने गाँधी जी को महान बना दिया। महान मनीषी रस्किन की लिखी पुस्तक- अन टू दिस लास्ट’ के अध्ययन ने तो गाँधी जी के सारे जीवन को ही बदल दिया। यह पुस्तक जीवन भर उनकी मार्गदर्शिका रही।

एक बालक को दस वर्ष की आयु में स्कूल जाना छुड़ा दिया गया, क्योंकि पिता गरीब था। प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने पर भी वह कुछ-न-कुछ पढ़ने का अवसर निकाल लेता और प्रत्येक पढ़े हुए पर विचार किया करता और उन्नति के अनेक मनसूबे बनाया करता। इस बालक की जीवनी से पता चलता है कि उसकी क्रियाशीलता व प्रतिभा विलक्षण थी। पुस्तकें पढ़ने का उस पर तुरन्त प्रभाव होता और वह प्रभाव उसके जीवन में कोई-न-कोई परिवर्तन ही लाने वाला होता। व्यापार में ईमानदारी, समाजसेवा और राजनीतिक धड़ेबाजी से संघर्ष करने की हिम्मत भी उसे ऐसे ही मिली, पर मुसीबत यह थी कि वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था।

एक दिन वह फ्रेंकलिन की जीवनी पढ़ रहा था। फ्रेंकलिन को भी दस वर्ष की आयु में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी पर उसने अपने अध्यवसाय से स्वतः ही दुनिया की पाँच भाषाएँ सीखीं और एक साथ वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं राजनैतिक के रूप में विश्वविख्यात हुआ। यह पढ़कर उस युवक ने विचार किया कि क्या वह दूसरा फ्रेंकलिन नहीं बन सकता? बन सकता है, उसके मन ने कहा, अध्यवसाय से क्या संभव नहीं? वह उस दिन से पढ़ने लगा। अंग्रेजी, चिली, फ्रेंच आदि कई भाषाएँ उसने सीखी और राजनीति में भाग लेने लगा। इस पर उसे देशनिकाला दे दिया गया। बहुत दिनों तक चिली में रहकर वह देश में चल रहे स्वार्थवादी राजनीति के विरुद्ध संघर्ष करता रहा। उसने पत्रकार के रूप में अर्जेण्टाइना निवासियों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध संगठित कर दिया और एक दिन विद्रोह की ज्वाला फूट ही पड़ी। वह युवक अपने देश लौटा और एक दिन अर्जेण्टाइना का उपराष्ट्रपति बना। इस महत्वपूर्ण पद पर पहुँचकर भी उसने जनसेवा का मार्ग न छोड़ा। उसने अर्जेण्टाइना को साक्षर बनाने का अभियान चलाया और उसे इतना तीव्र किया कि आज अर्जेण्टाइना विश्व के देशों में सबसे अधिक शिक्षित देश है। अमेरिका तक ने उसकी सेवाएँ कीं। एक पुस्तक की प्रेरणा ने उस युवक को ‘डोर्मिगो फास्टिनो सारमिन्टो’ के नाम से विश्वविख्यात कर दिया।

वर्मा की क्लंग घाटी पर आजाद हिन्द फौज का मुकाबला अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी से हो गया। आजाद हिन्द फौज के कुल तीन जवान और अँगरेजों की 169 सैनिकों की भारी-भरकम टुकड़ी। इस भीषण परिस्थिति में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस बैठे स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक पढ़ रहे थे। पुस्तक के इस अंश ने-जब संकटों के बादल सिर पर मँडरा रहे हों, तब भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। धैर्यवान् व्यक्ति भीषण परिस्थितियों में भी विजयी होते हैं।” नेताजी को प्रकाश प्रेरणा से आलोकित कर दिया।

घाटी से खबर आयी कि क्या तीनों सैनिक पीछे हटा लिये जाएँ? नेताजी के हृदय में छुपे विवेकानन्द के विचार फूट पड़े। वे बोले-प्रातः काल तो वे स्वयं मुठभेड़ की लड़ाई के लिए चढ़ दौड़े। जब उस चौकी पर पहुँचे तो देखा कि अंग्रेजी सेना के कुछ सिपाही तो मरे पड़े हैं, शेष अपना सामान छोड़कर भाग गये हैं।

सुभाषचन्द्र बोस हैं नहीं, पर स्वतंत्रता का सबसे पहला आनन्द उन्होंने ही लिया। मातृभूमि पर अपना सर्वस्व निछावर करने वाले अमर सेनानी के बारे में यदि यह कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि स्वामी विवेकानन्द के साहित्य ने उन्हें चिरमुक्त बना दिया था। उनमें अगाध निर्भयता, धैर्य और साहस था। यह सब गुण उन्हें विवेकानन्द साहित्य से विरासत में मिले थे। उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा, उसके एक-एक वाक्य को अपने जीवन का एक-एक चरण बना लिया। उसी का प्रतिफल था कि वह जापान, सिंगापुर और जर्मनी जहाँ कहीं भी गये, उनका स्वागत उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द का अमेरिका और इंग्लैण्ड में। भारतीय जनमानस में अभी भी वे जीवन्त व्यक्तित्व के रूप में रचे-बसे हैं और प्रकाश एवं प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। वस्तुतः यह श्रेय स्वाध्याय को ही है, जो सुभाष की जीवनशिला पर क्रियाशीलता बनकर खुद चुका था।

सात वर्ष के एक बालक में पढ़ने की अभिरुचि जाग गयी। जब उसके दोस्त मटरगस्ती कर रहे होते, तब वह कोई कहानी, कविता, नाटक और धार्मिक पुस्तकें पढ़ रहा होता। हर्बर्टस्पेन्सर, स्टुअर्टमिल और टिंडल की पुस्तकों ने उसे बहुत प्रभावित किया। फिर उसने बेकार किस्म के उपन्यास, कहानियाँ पढ़ना छोड़ दिया और रचनात्मक निर्माणात्मक साहित्य ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। वह एक स्टेट एजेण्ट के यहाँ नौकरी कर रहा था, तब भी अच्छी पुस्तकें पढ़ने का चाव उसने न छोड़ा। इससे उसके जीवन में पाश्चात्य बुराइयों का समावेश न हो सका। पश्चिम में जन्म लेकर माँसाहार का कट्टर विरोधी यही बालक एक दिन जॉर्ज बर्नार्डशा के नाम से दुनिया में विख्यात हुआ। उसने जब लेखनी उठाई तो संसार के

सर्वश्रेष्ठ नाटककारों की श्रेणी में जा विराजा। एक फटी-सी पुस्तक मेरे हाथ लगी। आरम्भ के कुछ पृष्ठ फटे थे। पर प्रत्येक पुस्तक से कोई-न-कोई अच्छी बात सीखने का मुझे व्यसन हो गया था। इस पुस्तक को पढ़ने से मुझे बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ हाथ लगीं। उन्हें मैंने अपनी डायरी में नोट कर लिया। वह पंक्तियाँ एक कहानी की थीं और इस तरह थीं-मैं किसान हूँ, मुझे किसान होकर जीने दो और वैसे ही मरने दो। मेरा पिता किसान था, अतः उसके पुत्र को भी वैसे ही होने दो।” मुझे दस वर्ष बाद पता चला कि यह शब्द जॉर्ज ए. ग्रीन के थे।

“इन पंक्तियों में परिश्रमशीलता के भाव थे। डायरी में नोट इन शब्दों ने मुझे निरन्तर परिश्रम करने की प्रेरणा दी। मैंने बहुत-सी पुस्तकें पढ़ी हैं। प्रत्येक पुस्तक से मैंने अनीति के विरुद्ध संघर्ष, मानव-जाति से प्रेम के पाठ पढ़े और सीखे। यों कहूँ कि पुस्तकों का साराँश ही उतर कर मेरे जीवन में समा गया है और जो कुछ भी सफलता दिखायी दे रही है, वह उनका ही आशीर्वाद है।” यह शब्द मैक्सिमगोर्की के हैं, जिन्होंने मानवता की सेवा को ही अपना जीवनव्रत बना लिया था और जीवनपर्यन्त उसी में संलग्न रहे।

विश्व की अधिकाँश प्रतिभाएँ पुस्तकों से निकली हैं। पढ़ते तो सभी हैं, पर पढ़कर अपने जीवन को महान बनाने का जो अवसर सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, मैक्सिमगोर्की, मार्क्स, स्टालिन, माइकलफैराडे, डार्विन, लूथरबरबैक आदि ने प्राप्त किया, उस रहस्य को हम कहाँ जान पाए? हम भी यदि इन्हीं महामानवों की तरह पढ़े हुए आदर्शों को अपने जीवन में उतार सकें, तो हमारी भी गणना गाँधी, गोर्की जैसे महान पुस्तक-प्रसूत पुत्रों में हो सकती है।

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