
यज्ञोपैथी एक विज्ञानसम्मत चिकित्सा-प्रणाली
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अथर्ववेद के काण्ड-3, सूक्त-11 में उल्लेख है-
यदि क्षितायुर्यदि वा परे तो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव।
तमा हरामि निऋतेरुपस्थादस्पार्शमेनं शतशारदाय॥
अर्थात् रोगग्रस्त मनुष्य यदि मृत्यु को प्राप्त होने वाला हो या उसकी आयु क्षीण हो गयी हो, तो भी मैं इसे विनाश के समीप से वापस लाता हूँ। इसे सौ वर्ष की पूर्ण आयु तक के लिए सुरक्षित करता हूँ।
अथर्ववेद के इसी काण्ड में यज्ञीय चिकित्सा द्वारा रोग-निवारण तथा जीवनी-शक्ति के संवर्द्धन का सुविस्तृत उल्लेख है। वस्तुतः यज्ञ एक महत्वपूर्ण विज्ञान है, जिसमें औषधिस्वरूप हव्य होमे जाते हैं, जो बिना नष्ट हुए सूक्ष्मीकृत होकर परिवर्तित स्वरूप में उच्चारित वैदिक मंत्रों की सम्मिलित एवं प्रभावपूर्ण शक्ति से पूरित होकर आकाशमण्डल अर्थात् वातावरण में छा जाते हैं। इनकी सूक्ष्म वैद्युतीय तरंगें एक ओर जहाँ वातावरण का परिशोधन करतीं और प्राणपर्जन्य की अभिवृद्धि करती हैं, वहीं दूसरी ओर मानवी मन में संव्याप्त ईर्ष्या, द्वेष, कुटिलता, पाप, अनीति, अत्याचार, वासना, तृष्णा आदि मानसिक विकारों तथा विविध प्रकार की शारीरिक व्याधियों को नष्ट करती हैं। आयुर्वेद ग्रंथों में भी उल्लेख है कि जब रोगनाशक वनौषधियाँ विधिपूर्वक यज्ञाग्नि में होमी जाती हैं, तो उनसे जो सुगंधित वायु निकलती है, वह श्वास तथा रोम छिद्रों द्वारा रोगी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करती है और रोग के साथ-साथ रोगोत्पत्ति के कारणों को ही समाप्त कर देती है।
चिकित्सा जगत में अनेकों अनुसंधान हुए हैं और नयी-नयी जीवनदायी औषधियाँ खोज निकाली गयी हैं। यह क्रम अनवरत रूप से चल रहा है। इतने पर भी बीमारियाँ नये-नये रूप धारण कर प्रकटतीं और अपनी चपेट में लेकर लोगों को व्यथित करती रहती है। इसे वातावरण का प्रदूषण कहा जाय अथवा मनुष्य का विचार-प्रदूषण भाव-प्रदूषण दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही क्षेत्रों में संव्याप्त विषाक्तता के निवारण के लिए अलग-अलग उपाय उपचार ढूँढ़ने और करने की अपेक्षा कोई ऐसा कारगर एवं प्रभावी निदान खोजना होगा जो वातावरण समेत मानवी चिन्तन चेतना में छायी विषाक्तता का भी निवारण एक ही साथ कर सके और जिसे एक समग्र उपचार की संज्ञा दी जा सके। ऐसा समग्र उपाय उपचार एक ही हो सकता है, जिसकी पहुँच दोनों ही क्षेत्रों में गहराई तक है और वह है-यज्ञ चिकित्सा। यज्ञ-हवन या अग्निहोत्र एक समग्र उपचार प्रक्रिया है, जो शरीर ही नहीं, मन और अन्तःकरण का भी उपचार करती है। इसमें प्रयुक्त होने वाले हव्य एवं मंत्रों के प्रकंपन मानवी मन-मस्तिष्क एवं वातावरण को प्रदूषण से मुक्त करते हैं।
शास्त्रों में यज्ञ से प्राणपर्जन्य की वर्षा होने का उल्लेख है। प्राण और मन अन्योन्याश्रित है। प्राणशक्ति की अभिवृद्धि से मनःसंस्थान सशक्त बनता है। प्रतिदिन नियमित रूप से सुगन्धित द्रव्यों एवं वनौषधियों से हवन करने पर व्यक्ति को उस प्राणसंवर्द्धक ऊर्जा से अनुप्राणित होने का लाभ सहज ही मिल जाता है। हवन में विलक्षण हीलिंग पॉवर एवं स्वास्थ्य-संवर्द्धन क्षमता है, उस संदर्भ में हुए आधुनिक अनुसंधानों ने अब इस तथ्य की पुष्टि कर दी है। यूरोप, अमेरिका एवं एशिया के कई देशों में यज्ञ या अग्निहोत्र से उपचार की अनेक विधियाँ चिकित्सा क्षेत्र में प्रयुक्त की जा रही हैं और उनके परिणाम भी उत्साहवर्द्धक रूप से सामने आये हैं। पोलैण्ड, ब्राजील, पेरू, आस्ट्रेलिया एवं अफ्रीका के वैज्ञानिक इस क्षेत्र में गहन दिलचस्पी दिखा रहे हैं और अनुसंधान कर रहे हैं। देखा गया है कि हवन करते समय हवनकुण्ड के चारों ओर एक विशेष प्रकार की ऊर्जा प्रवाहित होती है। यही ऊर्जा अपने आसपास के वातावरण में फैलकर निषेधात्मक प्रकार की ऊर्जा को निष्क्रिय बनाती एवं विधेयात्मक ऊर्जा की अभिवृद्धि करती है। इसी तरह मंत्रोच्चारपूर्वक किया गया हवन विभिन्न स्तरों पर ऊर्जा का परिवर्तन करता है, जिसका उच्चस्तरीय प्रभाव वृक्ष-वनस्पतियों सहित जीव-जन्तुओं एवं मनुष्यों पर पड़ता है।
इस संदर्भ में पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ के मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. रामप्रकाश ने यज्ञीय हवन प्रक्रिया का आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर गहन अध्ययन व विश्लेषण किया है। उनका निष्कर्ष है कि यज्ञ-धूम रोगनाशक व पर्यावरण-परिशोधक है। उन्होंने अपनी कृति हवन-यज्ञ और विज्ञान’ में यह सिद्ध किया है कि कुछ मात्रा में निकलने वाली हानिकारक गैसें-जैसे कार्बन मोनोक्साइड आदि किस प्रकार सूर्य किरणों, वायु एवं वृक्ष-वनस्पतियों से मिलकर रासायनिक प्रक्रिया द्वारा आक्सीजन में परिवर्तित होकर स्वास्थ्य संवर्धन का कार्य करती हैं। सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. कुन्दनलाल अग्निहोत्री ने लगातार सैंतालीस वर्षों तक यज्ञ के अद्भुत चिकित्सकीय प्रभाव पर न केवल अनुसंधान किया था, वरन् इसके द्वारा वे टी. बी. क्षय रोग जैसी प्राणघातक बीमारियों का उपचार करने में भी सफल रहे थे। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘यज्ञ चिकित्सा’ में उनने इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. डब्लू सेल्वामूर्ति ने अपने शोधपत्र ‘फिजियोलॉजिकल इफेक्ट्स ऑफ मंत्राज ऑन माइण्ड एण्ड बॉडी’ में लिखा है कि अग्निहोत्र-मंत्र का मनुष्य की फिजियोलॉजी-कार्यिकी तथा नर्वस सिस्टम-तंत्रिका तंत्र पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसे उन्होंने न्यूरोफिजियोलॉजिकल प्रभाव की संज्ञा दी है। उनने कहा कि अग्निहोत्र करने से शरीर का तापमान सामान्य से एक डिग्री सेंटीग्रेट कम हो जाता है। इससे मानसिक शाँति मिलती है, तनाव दूर होता है और मस्तिष्क विश्रान्ति की अवस्था में पहुँच जाता है, जिसे विज्ञानवेत्ता ‘अल्फा स्टेट’ के नाम से संबोधित करते हैं। यज्ञ से अल्फा तरंगों में बीस प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गयी है।
यज्ञ का हम पर प्रभाव - एक प्रयोग-परीक्षण के लिए आठ स्वस्थ व्यक्तियों का चयन किया गया और उन पर दो दिन अग्निहोत्र का प्रयोग किया गया। प्रथम दिन बिना मंत्र के तथा दूसरे दिन सस्वर मंत्रोच्चार के साथ यज्ञ संपन्न किया गया। इस बीच आठों व्यक्तियों के विभिन्न कायकीय परिवर्तनों, जैसे-हृदयगति ई. ई. जी, ई. सी. जी., रक्तचाप, जी. एस. आर. आदि का सम्बन्धित अत्याधुनिक मशीनों-उपकरणों से जाँच पड़ताल व प्रमापन किया गया। इन परीक्षणों में पाया गया कि यज्ञीय वातावरण, सूक्ष्मीकृत एवं वायुभूत वनौषधियों एवं मंत्रोच्चार के प्रभाव से हृदयगति कम हो गयी। त्वचा का तापमान एक डिग्री सेंटीग्रेट कम हो गया। जी. एस. आर. भी उस समय बढ़ा हुआ पाया गया। ई. सी. जी. का झुकाव ‘बेसलाइन’ की तरफ था। ई. ई. जी. में भी परिवर्तन मापा गया। ‘डेल्टा’ मस्तिष्कीय तरंगों में कमी तथा ‘अल्फा’ तरंगों में अधिकता देखी गयी। इसी तरह ‘थीटा ब्रेन वेव्स’ प्रत्येक परीक्षण में पन्द्रह मिनट तक स्थिर अवस्था में देखी गयी। ‘अल्फा स्टेट’ के कारण मानसिक शाँति व स्थिरता इस प्रयोग परीक्षण में विशेष रूप से पाये गये।
यज्ञ की प्रभावी क्षमता का प्रमुख कारण यह है कि यज्ञाग्नि में मंत्रोच्चार के साथ जो हव्य पदार्थ, वनौषधियाँ आदि आहुति के रूप में डाली जाती हैं, वे सूक्ष्मीकृत होकर लयबद्ध मंत्रोच्चार से उत्पन्न उच्च आवृत्ति की ध्वनि तरंगों के साथ मिल जाते हैं। इस प्रकार उत्पन्न उच्चस्तरीय संयुक्त ऊर्जा तरंगों का प्रभाव स्थायी व दीर्घकालिक प्रभाव उत्पन्न करता है। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हार्वर्ड स्टिंगुल ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि अकेले गायत्री महामंत्र में ही इतनी प्रचण्ड सामर्थ्य है कि उसके सस्वर उच्चारण से मानसिक विक्षोभों-दुर्भावनाओं का शमन किया जा सकता है। उन्होंने गायत्री महामंत्र के सस्वर उच्चारण के एक सेकेण्ड में 1,10,000 तरंगें उत्पन्न होने का मापन करके यह रहस्योद्घाटन किया है।
‘ड्रग एडिक्शन’ आज चिकित्सा विशेषज्ञों एवं समाजशास्त्रियों के लिए एक विकराल एवं विश्वव्यापी समस्या बनकर सामने आयी है, जिसका परिणाम लोगों के आचरण से लेकर व्यवहार तक में परिलक्षित हो रहा है। इसके कारण संगठित अपराध बढ़े हैं। नशेबाजी एवं ड्रग एडिक्शन की बुरी लत छुड़ाने के लिए अग्निहोत्र का प्रयोग बहुत सफल रहा है। इस संदर्भ में ‘साइकिएट्री ऑफ इण्डियन आर्मी’ के वरिष्ठ चिकित्सा विज्ञानी लेफ्टिनेन्ट कर्नल जी. आर. गोलेछा ने अपने सहयोगियों के साथ गंभीरतापूर्वक अध्ययन-अनुसंधान किया है। उन्होंने ‘अग्निहोत्र, ए यूजफुल एडजंक्ट इन रिकवरी ऑफ ए रेसिस्टैण्ट स्मैक एडिक्ट’ नामक अपने एक शोधपत्र में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि वर्षों से स्मैक, हिरोइन जैसी नशीली वस्तुओं का सेवन करने वाले व्यक्तियों का जिन्हें, मनोचिकित्सक भी इस कुटेव से विरत नहीं कर पाये थे, यज्ञ-चिकित्सा के माध्यम से उपचार किया गया तो एक सप्ताह के भीतर ही उनमें परिवर्तन आने लगा। चार दिन तक केवल उन्हें अग्निहोत्र के समय उपस्थित रहने के लिए कहा गया था, पीछे पाँचवें दिन से वे स्वयं यज्ञ करने लगे। तीन माह तक उन्हें इस उपचार प्रक्रिया से गुजारा गया, जिससे उन्हें न केवल नशेबाजी से छुटकारा मिल गया, वरन् बुरी आदतें जो स्वभाव का अंग बन गयी थीं, उनसे भी छुटकारा मिल गया और वे शारीरिक, मानसिक रूप से पूर्णतया
स्वस्थ हो गये।
ड्रग एडिक्शन के साथ ही दूसरी सबसे बड़ी सामाजिक समस्या है-मद्यपान की। संसार में शराब की बुरी लत छुड़ाने के जितने भी प्रचलित चिकित्सकीय एवं मनोवैज्ञानिक तरीके हैं, उनमें यज्ञ या अग्निहोत्र को सबसे उपयुक्त, सरल व प्रभावी पाया गया है। देखा गया है कि नियमित रूप से हवन करने वाले मद्यपियों की मानसिक स्थिति में प्राकृतिक रूप से परिवर्तन आने लगता है और क्रमशः शराब के प्रति उनकी अभिरुचि समाप्त हो जाती है। इस संबंध में श्री गोलेछा ने अपने एक अन्य शोधपत्र ‘अग्निहोत्र इन दि ट्रीटमेण्ट ऑफ अल्कोहलिज्म’ में लिखा है कि अग्निहोत्र एक वैदिक कर्मकाण्डपरक किन्तु एक विज्ञानसम्मत प्रक्रिया है। इसमें सूर्योदय या सूर्यास्त के समय विशेष मंत्रों के साथ सुगंधित औषधीय द्रव्यों का हवन किया जाता है। मानवी मन-मस्तिष्क पर इसका न्यूरोफिजियोलॉजिकल प्रभाव पड़ता है। कम्प्यूटरीकृत ई. ई. जी. अध्ययनों में देखा गया है कि मानव मस्तिष्क से निकलने वाली डेल्टा तरंगें यज्ञीय प्रभाव से कम हो जाती हैं और अल्फा तरंगें अधिक मात्रा में निकलने लगती हैं। इस तरह मन को शाँत एवं स्थिर बनाने में यज्ञीय ऊर्जा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अठारह शराबियों पर किये गये यज्ञीय परीक्षणों में पाया गया कि दो सप्ताह के नित्य नियमित अग्निहोत्र से इनकी शराब पीने की आदत छूट गयी। यह भी देखा गया है कि बीच-बीच में हवन बन्द कर देने से नशे की ओर दुबारा झुकाव बहुत ही कम रह जाता है। लगातार नियमित रूप से हवन करते रहने से न केवल नशेबाजी की आदत से छुटकारा पाया और खोया हुआ शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य दुबारा प्राप्त किया जा सकता है, वरन् इसके द्वारा ब्रह्माण्डव्यापी प्राणचेतना से भी संपर्क साधा व उससे लाभान्वित हुआ जा सकता है।