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Magazine - Year 1998 - Version 2

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तैत्तरीय ब्राह्मण की एक श्रुति है-यह विश्व किससे उत्पन्न हुआ, यह कौन जानता है? इसके रहस्यों को कौन कह सकता है? देवता भी तो पीछे जन्मे हैं, वे अपने उद्भव से पूर्वकाल का वृत्तान्त कैसे जान पायें? जिसका एक फल यह पृथ्वी है, उस ब्रह्माण्ड-वृक्ष का जन्म किस आरण्यक में हुआ, इसे कौन जानता है? इस सबका जो अधिष्ठाता है, उसे कौन जानता है? वह अधिष्ठाता भी अपने विस्तार का संपूर्ण रहस्य जानता है या नहीं, इसे कौन जाने?” वस्तुतः चेतना का यह वह गूढ़तम रहस्य है, जिसके संबंध में वेद, वेदांत, पुराण, उपनिषद् आदि समस्त आर्षग्रंथों ने नेति-नेति कहकर इसे इन्द्रियों की पकड़ से बाहर बताया है। इसे जानने, समझने और अनुभूति स्तर तक खींच लाने और तदनुरूप दिव्यजीवन जीने-जीवन मुक्त होने के लिए ही अध्यात्मशास्त्र का समस्त कलेवर गढ़ा गया है। गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन-चरित्र व्यवहार को परिष्कृत किये बिना, उत्कृष्टता उभारे बिना चेतना का गूढ़ रहस्य समझना और अलौकिक विभूतियाँ, सिद्धियाँ अर्जित कर सकना कठिन है।

स्थूल दृष्टि से समझ में आने वाले दृश्यों को लौकिक और समझ में न आने वालों को अलौकिक कहा जाता है। प्रकृति की समस्त अबूझ पहेलियाँ इसी अलौकिक शब्द के अंतर्गत समेट ली गयी हैं। यद्यपि विज्ञान की पहुँच प्रकृति तक ही सीमित है, जो जड़ पदार्थों का अन्वेषण करती है। चेतना को चेतना द्वारा ही खोजा और उसकी उपलब्धियों-विभूतियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है। यद्यपि भौतिक विज्ञान के सिद्धान्त भले ही इस बात से सहमत न हों, फिर भी उक्त तथ्य को समझना ही होगा।

प्रकृति और विज्ञान के अजूबों-चमत्कारों को न समझ पाना हमारे मस्तिष्क का सीमाबंधन है। हमारे मस्तिष्क का अधिकाँश भाग अंधकारमय माना गया है, जो अलौकिकताओं, अतीन्द्रिय क्षमताओं, पूर्वजन्मों के संस्कारों का भाण्डागार है। इस संदर्भ में डॉ. विल्डरपेनफील्ड ने गहन अनुसंधान करके बताया है कि इंच के दसवें भाग जितनी मोटी लगभग पच्चीस वर्ग इंच क्षेत्रफल की मस्तिष्क में काले रंग की दो पट्टियाँ होती हैं, यह पूरे मस्तिष्क को ढके रहती हैं। मनुष्य जब पुरानी बातें याद करने का प्रयत्न करता है तब तंत्रिका-तंतुओं स्नायुओं से निकलती हुई विद्युत-धाराएँ इन पट्टियों से गुजरती हैं ओर वह घटनाएँ याद हो जाती है। सामान्य स्थिति में मनुष्य अपनी मानसिक विद्युत को न तो इतना प्रखर बना पाता है और न ही एकाग्र हुए बिना किसी मदद से इस काली पट्टी के संपूर्ण इतिहास का पता लगा सकता और यह जान सकता है कि वह पूर्व जन्मों में कब क्या था, पर वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस भाग में जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार, स्मृतियाँ अलौकिक क्षमताएँ विद्यमान हैं। इतना ही नहीं, यह चेतना का वह केन्द्र भी है, जो कभी मरता नहीं, वरन् अपनी वासना और कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है।

स्थूल इन्द्रियों की अपनी सीमा है। उदाहरण के लिए हमारे नेत्रों की क्षमता लगभग 400 से 700 नैनोमीटर तक देखने की है। एक औसत आयु के व्यक्ति के कानों की ध्वनि-श्रवण-क्षमता 20-20000 हर्ट्ज है। हमारे नेत्र एक्स-किरणों को नहीं देख सकते, किंतु मधुमक्खी के लिए यह दृश्य देख पाना अत्यंत सुगम है। हमारे कान जिन ध्वनियों को सुन-समझ नहीं सकते, कुत्ते और चमगादड़ के लिए यह सब संभव है।

भारतीय धर्मग्रंथों में जिन आठ सिद्धियों का उल्लेख है और जिन्हें योगसाधना से प्राप्त करने की विधि-व्यवस्था भी है, उनके नाम इस प्रकार हैं-(1) अणिमा-लघु शरीर, (2) महिमा-शरीर को विशालकाय बनाना, (3) लघिमा-शरीर को प्रकाश के सदृश बना लेना, (4) गरिमा-शरीर को अधिक भारी बना लेना, (5) प्राप्ति-शरीर को ब्रह्माण्ड के किसी कोने तक पहुँचाना, (6) प्राकाम्य- पानी के भीतर रहना, जमीन के भीतर कई दिनों तक बैठे रहना, आयु को न बढ़ने देना आदि। (7) वाशित्व- लोगों को प्रभावित एवं नियंत्रित करने की क्षमता का विकास, पशु-पक्षी तथा निर्जीव जड़-पदार्थ तक को भी अपनी इच्छानुसार बनाना, (8) ईशित्व- भगवान की शक्तियों-विभूतियों को अर्जित कर लेना। इनके अतिरिक्त भी अनेक ऐसी सिद्धियाँ हैं, जिनका विकास योग-साधनाओं एवं तप-साधनाओं द्वारा होता है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

(1) भूख-प्यास पर नियंत्रण, (2) ताप-शीत से मुक्ति, (3) राग-द्वेष से रहित, (4) दूर-दर्शन (5) दूर-श्रवण (6) मस्तिष्क का नियंत्रण, (7) शरीर का स्वेच्छा से परिवर्तन, (8) परकाया प्रवेश, (9) इच्छा-मृत्यु (10) देवताओं से वार्तालाप, (11) इच्छानुसार वस्तुओं की प्राप्ति, (12) त्रिकाल ज्ञान, अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान, (13) वासनाओं के जाल-जंजाल से मुक्ति, (14) भविष्यवाणी करने की क्षमता का विकास-वाक्सिद्धि बहुशरीर-कायाभ्यास (16) एक पदार्थ से दूसरे में स्थानान्तरण, (17) ऊपर उछलने हवा में तैरने की क्षमता, (18) बीमारी और कष्टों को दूर करने की पाताल-सिद्धि (19) भूतकालीन ज्ञान की प्राप्ति, (20) विभिन्न निहारिकाओं-मंदाकिनियों ग्रह-गोलकों और ब्रह्माण्ड की जानकारी, (21) भूतजय-प्राणजय, (22) थोड़े समय के लिए किसी भी स्थान पर ठहरना, (23) सर्वज्ञता, (24) गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध ऊपर उठना, (25) छिपी हुई वस्तुओं को खोज निकालना आदि।

पाश्चात्य देशों में इन अलौकिक क्षमताओं के अनुसंधान-अन्वेषण हेतु विज्ञान की एक नवीनतम शाखा पैरासाइकोलॉजी-परामनोविज्ञान प्रकाश में आयी है। सन् 1930 में परामनोविज्ञानी जे. बी. राइन ने मनुष्य के भीतर अतीन्द्रिय सामर्थ्य का पता लगाया ओर सात वर्ष बाद ‘जनरल ऑफ पैरासाइकोलॉजी के नाम से नयी शाखा की स्थापना की। इन अतीन्द्रिय सामर्थ्यों को उनने ‘साइकोकीनेसिस’ और ‘साई’ के नाम से सम्बोधित किया है। ई. एस. पी. अर्थात् एक्स्ट्रा सेन्सरी परसेप्सन उन्हीं की खोज है। यों तो ‘साइको’ शब्द का प्रादुर्भाव ग्रीक शब्द ‘सोल’ से हुआ है। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के आर. एच. थालेस ने इसे सिक्स्थ सेन्स-छठी इन्द्रिय की संज्ञा दी, जिसे आठ प्रमुख भागों में विभक्त किया गया। ये हैं-(1) क्लेयर वाएँस-दूरदर्शन (2) क्लेअर आॅडिऐंस-दूरश्रवण (3) टेलीपैथी-मानसिक संप्रेषण, (4) प्रीकाग्नीसन-पूर्वज्ञान (5) रेट्रोकाग्नीसन-पीछे का ज्ञान, (6) साइकोमैट्री-मानसिक शक्ति का प्रमापन, (7) रेडेस्थेसिया जमीन एवं पानी के भीतर की वस्तुओं का पता लगाना, (8) साइकोकीनेसिस-मनः गतिशास्त्र।

मनोविज्ञानी जे. बी. राइन ने उक्त अतीन्द्रिय क्षमताओं को मनः चेतना का खेल बताते हुए उसे पराजागतिक और पराभौतिक की संज्ञा दी है। वे चेतना का स्वरूप विद्युतीय एवं चुंबकीय स्तर की ऐसी स्वतंत्र इकाई के रूप में मानते हैं, जो मरने के बाद भी अपनी सत्ता बनाये रहता है। उसमें इतने प्रबल संकल्प भी जुड़े रहते हैं, जिनके सहारे पुराने स्तर की तथा नये प्रकार की किसी आकृति का सृजन कर सके। उनकी दृष्टि में यह स्थिति में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रहने में पूर्णतया समर्थ है।

वस्तुतः यह सारी सृष्टि चेतना का ही खेल है। इस तरह की मान्यता गणितज्ञ ओस्पेन्स्की और भौतिकविद् रॉबर्ट मायर जैसे मूर्धन्य विज्ञान विशारदों की है। ‘इन सर्च ऑफ मिरेकुलस लाइफ’ ‘टर्टियम आर्गेनम थ्योरी ऑफ इंटरनल लाइफ’ जैसे ग्रंथों में ओस्पेन्स्की ने जहाँ चेतना के व्यापक अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, वहीं रॉबर्टमायर ने ऊर्जा के दर्शन पर जो खोजें की हैं, वे बताती हैं कि उसकी अधिकाधिक सूक्ष्म स्थिति में जो तत्व शेष रह जाता है, उसे चेतना की संज्ञा दी जा सकती है। सुप्रसिद्ध जीवविज्ञानी रूपर्ट शैलड्रेक ने अपनी पुस्तक ‘ए न्यू साइन्स ऑफ लाइफ’ में लिखा है कि कोई भी जीवित प्राणी ‘मार्फिक रिजोनेन्स’ के कारण संसार में कुछ सीखता है। उनके अनुसार मानवी मस्तिष्क में मार्फोजेनिक फील्ड का एक विशेष स्थान है। मैस्मर ने इसी को ‘सटल फ्लूड’ कहा है। येल यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ शरीरशास्त्री प्रो. हैरोल्ड सैक्टनबर में इसी को लाइफ फील्ड की संज्ञा प्रदान की है। वाइटल फोर्स, लाइफ एनर्जी आदि सभी नाम प्राणचेतना के ही हैं। सभी प्राणियों की आँतरिक एकता-चेतनात्मक एकरसता इसी ब्रह्माण्डव्यापी तत्व से जुड़ी हुई है। जुंग जैसे मनोवेत्ता इसे सामूहिक अचेतन के नाम से संबोधित करते हैं। भारतीय ऋषियों ने इसे ‘यूनिवर्सल माइण्ड’ अर्थात् ब्रह्माण्डव्यापी मनः चेतना नाम दिया था।

जिन अतीन्द्रिय क्षमताओं की आज सर्वत्र चर्चा की जाती है, उनमें प्रमुख हैं-दूरदर्शन और दूरश्रवण। इस संदर्भ में कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के स्टैनफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट के अग्रणी अनुसंधानकर्ताओं आर. ट्रेग और एच. पुथाप ने गंभीरता पूर्वक खोजें की हैं। विभिन्न प्रयोग परीक्षणों के आधार पर उनने निष्कर्ष निकाला है कि दूरदर्शन और दूरश्रवण जैसी अतीन्द्रिय सामर्थ्य के प्रकट होने में मानवी मस्तिष्क की अल्फा तरंगें एक साथ सक्रिय हो उठती हैं। इन वैज्ञानिकों की खोजों ने महर्षि पातंजलि की भारतीय प्रयोग विद्या की पुष्टि की है। शोध का आधार भी इन्होंने इसे ही बनाया है।

जो घटनाएँ अभी घटित नहीं हुई हैं, वरन् प्रकृति के गर्भ में छिपी हुई हैं, उनकी पूर्व जानकारी को पूर्वज्ञान यानी प्रीकाग्नीसन कहते हैं, अर्थात् घटनाओं के संबंध में पूर्व चेतावनी, खतरा, संकट, आपदा, विनाश और दुर्भाग्यसूचक संकेतों की जानकारी ‘प्रीमाॅनीशन’ अर्थात् पूर्व सूचना भी लगभग वैसी ही अनुभूति है। महर्षि व्यास ने अपने इसी अतीन्द्रिय ज्ञान के आधार पर अभिमन्यु की मृत्यु के संबंध में उत्तरा को पहले ही अवगत करा दिया था। महाभारत युद्ध में वैसा ही हुआ। अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक घटना का अंकन ब्रह्माण्डीय मस्तिष्क ‘कास्मिक माइण्ड’ में पहले ही हो जाता है। कभी-कभी ‘इण्डीविजुअल माइण्ड-व्यक्तिगत मस्तिष्क की तरंगों का सामंजस्य कास्मिक माइण्ड से होने लगता है, तो दोनों की तरंगों के मिलने पर इस तरह के पूर्वानुमान होने लगते हैं। उदाहरण के लिए, कई महिलाएँ-पुरुष एक कमरे में सोये हुए हों और एक बच्चा रोने लगता है, तो ऐसे अवसर पर प्रायः बच्चे की माँ ही जगेगी, न कि अन्य महिलाएँ। यह दोनों की मानसिक तरंगों के जुड़ने का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है।

भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को ‘रेट्रोकाग्नीसन’ कहते हैं। क्या हो चुका, इसकी जानकारी भी इसके अंतर्गत आती है। कुछ पाश्चात्य परामनोविज्ञानियों ने इस तरह के अलौकिक दृश्यों को ‘ईथरिक इमेज’ के नाम से संबोधित किया है। अमेरिका के चिकित्साविज्ञानी जोसेफ रोहोड्स बुचमैन साइकोमैट्री का अभिप्राय ‘सोल मेजरमेंट’ बताते हैं। आत्मा के प्रमापन की विधा उन्होंने इसे ही माना है। बोस्टन के भूगर्भविज्ञानी प्रो. विलियम डैण्टन का कहना है कि दस प्रतिशत पुरुषों और चार प्रतिशत महिलाओं में इस तरह की संवेदनशीलता देखने को मिलती है। इसे योग-साधनाओं द्वारा सुविकसित करके न केवल पूर्वाभास, पूर्वानुमान, पूर्वज्ञान, दूरश्रवण, दूरदर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमताएँ अर्जित की जा सकती हैं, वरन् ओजस-तेजस का धनी भी बना जा सकता है। परिष्कृत चेतना ही परमात्मा है। अपनी आत्मचेतना को विकसित करके हर कोई इस स्तर को प्राप्त कर सकता है और अलौकिक विभूतियों, ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन सकता है।

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