
अन्तरंग की उपासना सिखाती है भारतीय संस्कृति
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भारतीय संस्कृति की जय।
भारत भूमि की जय॥
जय-जयकार के इन दिगन्तव्यापी स्वरों के साथ ही भारतीय सैनिक विजय के उत्साह में नाचने लगे। ग्रीक स्कन्धावार में सफेद ध्वज फहराया जा चुका था। सफेद ध्वज फहराने का अर्थ था-ग्रीक सम्राट सेल्यूकस द्वारा पराजय स्वीकार करना। इस सफेद ध्वज को ही निहार कर सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना में विजय का उत्साह छा गया था।
कुछ ही क्षण बाद यवन स्कन्धावार की ओर से दो व्यक्ति आते हुए दिखाई दिए। थोड़ी देर में अपने एक सेनानायक के साथ समीप आकर अपनी तलवार दोनों हाथों में थाम, उसे घुड़सवार की ओर बढ़ाते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा-नहीं इसकी आवश्यकता नहीं, ग्रीक सम्राट! इसे अपने पास ही रखिए। आपका यहाँ आ जाना ही पर्याप्त है। हम भारतवासी केवल मानवीय विश्वास और शान्ति की स्थायी भावना को ही जीतना चाहते हैं और सम्राट चन्द्रगुप्त ने उनकी तलवार उन्हें वापस थमा दी।
सेल्यूकस विस्मय-विमुग्ध भाव से देखते रहे। फिर मात्र इतना ही कह पाए-धन्य हैं भारतीय संस्कृति।
हम भारतवासी शत्रुता से अधिक मित्रता निभाने पर विश्वास रखते हैं, ग्रीक सम्राट। सम्राट चन्द्रगुप्त ने शान्तभाव से निर्दम्भ स्वर में कहा।
भारतवर्ष की शिक्षा और संस्कृति इतनी महान है, कभी सोचा भी न था। विस्मय-विभोर होते हुए कहा सेल्यूकस ने। दो क्षण बाद वे फिर बोले-शत्रुता निभाने की भूल करने के बाद अब हम उसका सुधार करना चाहते हैं, भारत सम्राट! आप लोग शत्रुता से अधिक मित्रता निभाने पर विश्वास रखते हैं। हम उसके लिए भी तैयार हैं...........।
आप अपने शिविर में पधारें ग्रीक सम्राट। वह सब हमारे आचार्यश्री स्वयं आकर निर्धारित करेंगे।..........आप चलिए। सम्राट चन्द्रगुप्त का संकेत पाकर सेल्यूकस अपने स्कन्धावार शिविर की ओर लौट गए।
अगली सुबह आचार्य चाणक्य, सम्राट चन्द्रगुप्त, सेनापति सिंहरण, अक्षय, मालव गण प्रमुख उदयन आदि के साथ जब यवन स्कन्धावार के समीप पहुँचे तो सम्राट सेल्यूकस और उनके सेनानायक आदि द्वार पर ही उनके स्वागतार्थ प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी विशेष रूप से सज्जित शिविर में ले जाए गए। वहाँ की व्यवस्था देखने में सेल्यूकस की बेटी राजकुमारी कार्नेलिया पहले ही व्यस्त थी। सबके पहुँचने पर पहले उसने ग्रीक ढंग से सभी का अभिवादन किया, फिर भारतीय ढंग से हाथ जोड़-मस्तक झुकाकर भारतीय भाषा में स्वागत करते हुए बोली-मैं ग्रीक सम्राट सेल्यूकस की कन्या कार्नेलिया ग्रीक अरस्तू से भी महान आचार्य श्री विष्णुगुप्त चाणक्य, भारत सम्राट और इनके साथ सभी महानुभावों को हार्दिक नमन करती हूँ.......स्वागत करती हूँ। पधारिए..........विराजिए........।
सुनकर आचार्य चाणक्य, सम्राट चन्द्रगुप्त और सभी ने उस भव्य व्यक्तित्व वाली ग्रीक सुन्दरी की तरफ देखा और बस कई क्षणों तक देखते ही रह गए। आचार्यश्री की उत्सुकता को भाँपकर सेल्यूकस ने बताया-मेरी बेटी कार्नेलिया अपने देश में महान अरस्तू की भक्त थी, यहाँ आकर आचार्य चाणक्य की भक्ति उनसे भी बढ़कर करने लगी है। सिंधु के उस पार पहुँचते ही इसने यहाँ की भाषा सीखनी शुरू कर दी थी। यहाँ की स्त्रियों की वेषभूषा, यहाँ की प्रकृति, नदियों, पहाड़ों से भी बहुत प्रभावित है।
बहुत अच्छी बात है। कहकर सबके साथ निर्दिष्ट स्थान पर बैठते हुए आचार्य चाणक्य कुछ देर के लिए विचारमग्न हो गए और फिर सबकी सहमति से मैत्री सन्धि पर बातचीत होने लगी। काफी देर विचार-विमर्श के साथ ही आचार्य चाणक्य की सभी बातें ग्रीक सम्राट ने मान लीं।
सन्धिवार्ता के पश्चात् सभा का वातावरण प्रसन्नता की तरंगों से स्पन्दित हो उठा। आचार्य चाणक्य ने कार्नेलिया की जिज्ञासु निगाहों को भाँपते हुए पूछा कोई जिज्ञासा है क्या बेटी कार्नेलिया?
अपनत्व भरे सम्बोधन ने कार्नेलिया का रहा-सहा संकोच भी समाप्त कर दिया। वह बोल पड़ी-आचार्य श्री हम भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य को जानना चाहते हैं?
बड़ा ही सरल है बेटी, भारतीय संस्कृति रूप का नहीं, गुणों का सम्मान करती है। आचार्यश्री ने अपनी बात कह तो दी, पर उन्हें लगा कि ग्रीक राजकुमारी उनके कथन को ठीक से समझ नहीं सकी है। उन्होंने पानी से भरे दो गिलास मँगवाए और उनमें से एक राजकुमारी की ओर बढ़ा दिया।
राजकुमारी ने पानी पिया। पर उनका मन तृप्त नहीं हुआ। आचार्यश्री ने दूसरा गिलास भी उनकी ओर बढ़ा दिया। दूसरे गिलास के पानी से उन्हें तृप्ति हुई और चेहरे पर संतोष के भाव नजर आए।
अब आचार्यश्री ने मुसकराते हुए कहा, पहले वाला गिलास का पानी स्वर्णकलश का था। स्वर्णकलश का रूप देखते ही बनता है, मगर उसका पानी आपको बेस्वाद एवं अतृप्तिदायक लगा। दूसरे गिलास का पानी मिट्टी के घड़े का था। कलश के सामने कहीं नहीं टिकता, मगर उसका शीतल, सुस्वाद जल पीकर आपका मन तृप्त हो गया।
बस यही अन्तर है-पश्चिमी संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति में। पश्चिमी संस्कृति बाहरी रूप को मान एवं महत्व देती है, जबकि भारतीय संस्कृति आंतरिक गुणों को, विभूतियों को श्रेष्ठ मानती है।
कार्नेलिया को अपनी जिज्ञासा का समाधान मिल गया। भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य से प्रभावित होकर उसने हमेशा के लिए भारतीय हो जाने का निश्चय किया। आचार्य चाणक्य के आशीर्वाद से सम्राट चन्द्रगुप्त की पत्नी और भारत की महारानी बनी। उसका सारा जीवन भारतीय संस्कृति का पर्याय बन गया।