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Magazine - Year 1998 - Version 2

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अपनों से अपनी बात- - अपने अन्दर सोये देव को जगाने आया यह गुरुपर्व

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गुरुतत्व को जीवंत एवं प्रभावी बनाए रखना जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। जो इतना नहीं कर पाते उनकी नाव बिना पतवार एवं बिना डाँड की रहने पर प्रवाह में बहती और लहरों के साथ अनिश्चित दिशा में छितराती रहती है। भँवर-तूफान में कभी भी उसके टकराने-डूबने का खतरा बना रहता है। बुद्धिमत्ता इस संदर्भ में सतर्क रहता है और गुरुतत्व का आश्रय अपनाने-अवलंबन पकड़ने और श्रद्धा की सघनता में उसे सींचने में प्रमाद नहीं बरतती।

गुरुपूर्णिमा पर्व इसी प्रयोजन के लिए है। इस अवसर पर इस पर्यवेक्षण का अवसर मिलता है कि विवेक और अनुशासन के रूप में सद्गुरु का अनुग्रह कितना प्राप्त है, कितना नहीं? गुरुतत्व की अभ्यर्थना एक ही हो सकती है-श्रद्धा की अभिव्यक्ति। इसी को श्रद्धांजलि भी कहते हैं। श्रद्धांजलि का प्रत्यक्ष रूप है-परमार्थ-प्रयोजनों के लिए उदार अनुदान। इसी आधार पर कृपणता के अवरोध को हटाने-हल्का करने की बात बनती है। व्यवहार में ऐसा कुछ न हो-मात्र वाचालता और नाटकीयता से काम चलाया जाता रहे, तो थोड़ी विडंबना ही पल्ले पड़ती है। उतने भर से किसी प्रयोजन की पूर्ति नहीं होती।

बीते दिनों जो पत्र आए हैं, उसके अनुसार इस वर्ष गुरुपूर्णिमा पर्व मनाने की तैयारियाँ पहले की अपेक्षा अधिक उत्साह के साथ की गयी हैं। सभी शाखाओं में उस दिन अखण्ड-जप गायत्री-यज्ञ भजन, कीर्तन-प्रवचन दीपदान का पूर्ण निर्धारण समारोह प्रक्रिया का निर्वाह भलीप्रकार किया जाएगा। पर्व-समारोहों के स्थान अब प्रायः निश्चित से हो गए हैं, वहीं मनाए जाते हैं।

इन दिनों प्रत्येक प्रज्ञापुत्र की अपने अंतःकरण में बड़ी सघन अनुभूति हो रही है कि परमपूज्य गुरुदेव की, स्वयं भगवान महाकाल की आकांक्षा क्या है? उन्होंने अपने शिष्यों-शिष्यायों से सामयिक श्रद्धांजलि के रूप में समयदान एवं अंशदान की याचना की है। नवयुग के पगों की आहट जितनी तीव्र होती जाती है, उतना ही इसका मूल्य एवं महत्व बढ़ता जाता है। गुरुपूर्णिमा पर कोई शिष्य कृपणता नहीं बरतता। श्रद्धा को सींचने के लिए किसी न किसी रूप में अपने अनुदान प्रस्तुत करता है, ताकि उसके उदार एवं उदात्त व्यवहार पर नई धार रखी जा सके और नई तेजी लाई जा सके। पूजा-उपकरणों के रूप में परमपूज्य गुरुदेव को कोई कुछ देना चाहता हो, तो वह एक ही वस्तु है-निर्माणाधीन देवसंस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना में अपना भावभरा सहयोग। गुरुपूर्णिमा से लेकर वसंत पर्व के छह महीने हैं। इस अवधि में जो जितना अर्पित कर सकें, उतना इस पुण्य-प्रयोजन के लिए देना चाहिए। यह प्रेरणा इन दिनों सभी परिजनों के अन्तःकरण में उठ रही है। अब तक आए उनके पन्नों से यही झलक मिलती है, यही मन्तव्य स्पष्ट होता है।

जिन दिनों हम अपना जीवनयापन कर रहे हैं, वह अतिविशिष्ट समय है। इसमें मानवजाति की दुर्गति का अगति का, सद्गति में परिवर्तन का प्रयास हो रहा है। दूसरे शब्दों में, इसे मनुष्य के भाग्य-निर्माण की बेला कहना चाहिए। पिछले अंधकार युग की विकृतियाँ इन दिनों वैज्ञानिक, बौद्धिक और आत्मिक प्रगति का ईंधन पाकर दावानल की तरह भड़क उठी हैं। ज्वालामुखी विस्फोटों की तरह ऐसे संकट उभर रहे हैं, जिनके समाधान सूझ ही नहीं पड़ते। एक जगह से सीना जब तक पूरा नहीं हो पाता, तब तक दूसरी दस जगह चादर फट जाती है। सड़े-गले को गलाने की, गले हुए को ढालने की इन घड़ियों में परमपूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मचेतना इन दिनों क्रमशः अधिकाधिक प्रखर होती चली जा रही है। जिनकी आँखें हों, आज ही परमपूज्य गुरुदेव के सूत्र संचालन में हो रहे इस महान परिवर्तन के पुण्यपर्व का माहात्म्य और महत्व देख सकते हैं, अन्यथा इतिहासकार तो इस परिवर्तनकाल के घटनाक्रम का उल्लेख करेंगे ही और भावी पीढ़ियाँ उसे रुचिपूर्वक पड़ेंगी ही।

ऐसी संधि वेला में ईश्वर के विशिष्ट प्रतिनिधि के रूप में आकर पूज्य गुरुदेव ने अपने अंतरंगों को पुकार लगाई है। सद्गुरु के रूप में उन्हें सामयिक कर्तव्य का बोध कराया है। आपत्तिकाल में सामान्य नियम नहीं चलते। उन दिनों विशेष निर्धारण होते हैं और विशेष क्रिया−कलाप चलते हैं। गाँव आग से जल रहा हो, तो सामान्य दैनिक कृत्य नहीं किये जाते। उस समय विशिष्ट परिस्थितियों का सामना करने के लिए जाग्रतों को जुटना होता है-भले ही इसमें हानि की असुविधा सहनी पड़े।

ब्रज के ग्वाल-बाल स्कन्धा के रीछ-वानर इन्द्रप्रस्थ के पाण्डव, बुद्ध के परिव्राजक, गाँधी के सत्याग्रही युगधर्म को समझ सके थे। उनने ईश्वरीय आवाहन को सुना था। तदनुरूप उनने अपने विशेष स्तर को समझा। विशेष उत्तरदायित्व को अनुभव किया और लोभ-मोह को, कृपणता को छोड़कर महामानवों की परंपरा अपनाकर युग-साधना के निर्वाह में जुट गए। चतुरों ने इसमें घाटा बताया और हानि सुझायी, किन्तु भावनाशीलों ने समय की माँग को सद्गुरु-विश्वगुरु के रूप में आए ईश्वर का आमंत्रण माना और इसे प्राणपण से स्वीकार कर लिया।

इतिहास साक्षी है कि उस समय की उनकी भावनाशीलता के पीछे चरमस्तर की दूरदर्शिता सिद्ध हुई। वे स्वयं धन्य बने, भगवान को प्रिय लगे। असंख्यों ने उनका अनुकरण किया। इतिहास ने उन्हें सराहा। पीढ़ियाँ उनके चरणों पर भाव भरी श्रद्धांजलियाँ चढ़ाती रहीं। इतनी उपलब्धियों को प्राप्त करने में उन्हें कृपणता के परित्याग का मूल्य तो चुकाना ही पड़ा है। जो अवतार के शिष्य-सहचर बने हैं उन्हें सदा ही ऐसे दुस्साहस भरे निर्णय करने पड़े हैं। परिस्थितियों की रट लगाए रहने वालों को अभीप्सित अनुकूलता न कभी आयी है और न कभी आ ही सकेगी। सच्चे शिष्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए परिस्थितियों की प्रतिकूलता नहीं, मनःस्थिति की कृपणता ही सबसे बड़ा व्यवधान है, जो उसे हटा फेंकने का साहस करेंगे, वे हर तरह से युग-साधना का पालन करने में सफल होंगे।

परमपूज्य गुरुदेव ने अपने प्रिय-परिजनों को उच्चस्वर से पुकारा है। नवयुग के अरुणोदय ने उन्हें जाग्रति का संदेश भेजा है। ऊषा की अग्रिम किरणें करवटें बदलते रहने से विरत होकर अँगड़ाई लेने और उठ खड़े होने की चुनौती प्रस्तुत कर रही हैं। इस पुण्यवेला में हमें सिद्ध करना होगा कि हम सब सामान्य गुरु के नहीं, विश्वगुरु के शिष्य, सेवक एवं सहचर हैं अवतार के सहचरों को तुच्छताग्रस्त प्राणियों जैसी गतिविधि नहीं अपनानी चाहिए।

पूज्य गुरुदेव की युगान्तरीय चेतना को जन-जन तक पहुँचाने का ठीक यही समय है। इन दिनों हमारी भूमिका ईश्वरीय दूतों की है। इन दिनों हमारे प्रयास संस्कृति का सेतु बाँधने वाले नल-नील जैसे होने चाहिए। रावण की लंका में अपना पाँव जमाकर सबको दहला देने वाले अंगद की तरह-पर्वत उठाने वाले हनुमान की तरह यदि पुरुषार्थ न जगे, तो भी गिद्ध-गिलहरी की तरह अपने तुच्छ को महान के सम्मुख समर्पित कर सकना तो सम्भव हो ही सकता है। गोवर्द्धन उठाते समय यदि हमारी लाठी भी सहयोग के लिए न उठे, तो भी गुरुदेव का ईश्वरीय प्रयोजन पूर्णता तक रुकेगा नहीं। हाँ, हमें ही पश्चाताप का घाटा सहना पड़ेगा।

सच्चे शिष्यों एवं साहसिक शूरवीरों की तरह अब नवयुग के अवतरण में अपनी भागीरथी भूमिका आवश्यक हो गयी है। इसके बिना तपती भूमि और जलती आत्माओं को तृप्ति देने वाली गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतरने के लिए सहमत न किया जा सकेगा।

विनाश का सरंजाम जुटाने वाली असुरता प्रबल है या फिर ईश्वर के शिष्य-सेवक-सहचर अधिक शक्तिशाली हैं? यह प्रश्न वाणी से नहीं व्यवहार से, उत्तर से नहीं उदाहरण से अपना समाधान माँगता है। यह देवत्व की प्रतिष्ठा का सवाल है। हमें पूज्य गुरुदेव के शिष्य होने की सार्थकता इन्हीं क्षणों में, इन्हीं दिनों सिद्ध करनी होगी, ताकि संव्याप्त निराशा में आशा का आलोक उग सके। कोई आगे नहीं चलेगा तो पीछे वालों का साहस कैसे जगेगा? व्यवसायी की बुद्धि लेकर नहीं, शूरवीरों की साहसिकता को अपनाकर ही हमें वह करने का अवसर मिलेगा, जो अभीष्ट, आवश्यक, उपयुक्त ही नहीं, परमपूज्य गुरुदेव के शिष्यों-सहचरों के प्रस्तुत अवतरण का लक्ष्य है।

युगसृजन के पुण्यप्रयोजन की योजना बनाते रहने का समय बीत गया, अब तो करना ही शेष है। विचारणा को तत्परता में बदलने की घड़ी आ पहुँची। भावनाओं का परिपाक सक्रियता में होने की प्रतीक्षा की जा रही है। असमंजस में बहुत समय व्यतीत नहीं किया जाना चाहिए।

लक्ष्य विशाल और विस्तृत है। जनमानस के परिष्कार के लिए प्रज्ज्वलित ज्ञानयज्ञ के, विचारक्रांति के, लालमशाल के टिमटिमाते रहने से काम नहीं चलेगा। उसके प्रकाश को प्रखर बनाने के लिए जिस तेल की आवश्यकता है, वह पूज्य गुरुदेव की प्रत्येक संतान के भाव-भरे त्याग से ही निचोड़ा जा सकेगा। मनुष्य में देवत्व का उदय, संसार के समस्त उत्पादनों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण उपार्जन है। इस कृषिकर्म में हमें शीतवर्षा की परवाह न करके निष्ठावान कृषक की तरह लगना चाहिए। धरती पर स्वर्ग का अवतरण-नया नन्दन वन खड़ा करने के समान है। निष्ठावान माली की तरह हमारी कुशलता ऐसी होनी चाहिए जिससे स्रष्टा के इस मुरझाए विश्वउद्यान में बसंती बहार लाने का श्रेय मिल सके। ऐसी सफलता लाने में खाद-पानी जुटाने से ही काम नहीं चलता, उसमें माली को अपनी प्रतिभा भी गलानी-खपानी पड़ती है। भूमि और पौधों के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने वाले किसान और माली की तरह ही हमें देवत्व के उद्भव और स्वर्ग के अवतरण के लिए अपनी गुरुसत्ता के चरणों में अपनी श्रद्धा और क्षमता का समर्पण प्रस्तुत करना होगा।

राजक्रांति का काम साहस और शस्त्रबल से चल जाता है। आर्थिक क्राँति साधन और सूझ-बूझ के सहारे हो सकती है। ये भौतिक परिवर्तन हैं, जिनके लिए भौतिक साधनों से काम चल जाता है। पूज्य गुरुदेव का उद्देश्य बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्राँति का उद्गम खोजना और संगम बनाना है। इसके लिए चरित्र, श्रद्धा और प्रतिभा के धनी अपनी अस्थियाँ तक दे डालने वाले दधिचि के वंशजों को ही आगे आना और मोर्चा सँभालना है। भवन, पुल, कारखाने आदि को वस्तुशिल्पी अपनी शिक्षा के सहारे बनाने में सहज ही सफल होते रहते हैं। हमें नए व्यक्ति, नए समाज और नए युग का सृजन करना है। इस महाप्रयोजन को हममें से प्रत्येक का भावभरा अनुदान ही पूरा कर सकता है। गुरुपूर्णिमा के श्रद्धापर्व पर इसी की अपेक्षा की गई है। जिनके पास भावना है ही नहीं, जो कृपणता के दलदल में एड़ी चोटी तक धँसे और फँसे पड़े हैं, उन दीन, दयनीय लोगों की तो चर्चा ही करनी बेकार है। कर्ण जैसे उदार व्यक्ति ही मरणासन्न स्थिति में अपने दाँत उखाड़ कर देते रहे हैं। हरिश्चन्द्र ने ही अपने स्त्री-बच्चे बेचे हैं। लोभग्रसितों को तो मनोकामनाओं की पूर्ति कराते रहने से ही फुरसत नहीं, देने का प्रसंग आने पर तो उनका कलेजा ही बैठना लगेगा।

पूज्य गुरुदेव ने हम सबके सामने जो लक्ष्य रखा है, उसके लिए साधनों की आवश्यकता तो है ही। इसी के साथ ऐसी प्रखर प्रतिभाएँ चाहिए, जिनकी नसों में भावभरा ऋषिरक्त प्रवाहित होता है। गुरुदेव ने हम सभी से ऋषिपुत्र-ऋषिपुत्रियाँ बनने की अपेक्षा की है। चतुरता की दृष्टि से कौआ सबसे सयाना माना जाता है, शृंगाल की धूर्तता प्रख्यात है, मुर्दे खोदकर खाने में बिज्जू की कुशलता देखते ही बनती है, खजाने की रखवाली करने वाला सर्प लक्षाधीश होता है, परंतु भावनात्मक सृजन में तो दूसरी ही धातु से ढले औजारों की आवश्यकता है। आदर्शों के प्रति अटूट आस्था एवं गुरु के प्रति भावभरी श्रद्धा की भट्टी में ही ऐसी अष्टधातु तैयार होती है। आवश्यकता ऐसे ही व्यक्तियों की पड़ रही है जो अष्टधातु से ढले हों, शिष्यता की हर कसौटी पर खरे हों। लोकसेवा का क्षेत्र बड़ा है-उसके कोतरों में ऐसे कितने ही छद्मवेषधारी वंचक लूट-खसोट की घात लगाए बैठे रहते हैं पर उनसे कुछ काम तो नहीं चलता। प्रकाश तो जलते दीपक से ही होता है।

परमपूज्य गुरुदेव की संतानों में ऐसी जाग्रत आत्माओं की कमी नहीं-जिनके पास संचित सुसंस्कारिता की पूँजी प्रचुर परिमाण में विराजमान् है। भावना, निष्ठा और प्रतिभा की उनमें कमी नहीं। परिस्थितियाँ भी इतनी प्रतिकूल नहीं कि गुरुचरणों में भावभरी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करना उनके लिए संभव न हो। कठिनाई एक ही है ‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव’ का बोझ इतना लदा दिखता है, जिसे उतारना बन नहीं पड़ रहा है। लेकिन यह कठिनाई अवास्तविक है। लगभग वैसी ही अवास्तविक जैसी कि छोटे मुँह के घड़े में से चने निकालते समय बंदर मुट्ठी बाँध लेता है और अनुभव करता है कि उसे घड़े ने बाँध लिया है। मनःस्थिति बदले तो परिस्थितियाँ हजार मार्गों से अनुकूल बनने का उपाय खोज निकालती हैं। खोजने वाले ईश्वर को खोज लेते हैं, फिर गुरुदेव के प्रति प्रेम रहते उनकी पुकार के अनुरूप कुछ कर सकने के लिए कोई रास्ता न मिले, यह कैसे हो सकता है?

अब जबकि 1998 बीतता जा रहा है। ऐसे में परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माताजी का मन है कि उनके बच्चे बिछुड़े नहीं, बल्कि विधाता द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली हर कसौटी पर खरे उतरें उनकी यह सोच किसी मोहवश नहीं, बल्कि अपनी संतानों के कल्याण के लिए अभीष्ट है। खरे सिद्ध होने पर ही प्राणऊर्जा का आदान-प्रदान होता रह सकता है, अन्यथा चमक की चकाचौंध ही पहुँच पाती है।

इस गुरुपूर्णिमा को, हममें से हर एक अपने लिए विशेष उद्बोधन की, विशेष आमंत्रण की, कुछ खास कर गुजरने की वेला समझे। जिनमें युगशिल्पियों की मण्डली में सम्मिलित होने की अन्तःप्रेरणा उमगे, वे इसे ईश्वरीय आमंत्रण समझें, साहस समेटें और आगे बढ़ने की बात सोचें जिन्हें आगे बढ़ना हो, तो समय की प्रतीक्षा न करें, परिस्थितियों की आड़ न लें। आदर्शों को अपनाने का शुभमुहूर्त आज का ही होता है। कल की प्रतीक्षा में बैठे रहने वालों की कल तो मरण के उपरान्त ही आती है।

परमपूज्य गुरुदेव का आह्वान और परमवंदनीय माताजी का प्यार उनके लिए भावभरे हाथ और दुलार भरा आँचल पसारता है, जो नवयुग की अवतरण वेला में अपनी गरिमा को जीवन्त करने और प्रखरता का परिचय देने में समर्थ है। चरित्रवान, भावनाशील एवं कर्मनिष्ठ परिजनों को गुरुपूर्णिमा के अवसर पर अपने भीतर प्रखर आदर्शवादिता उगाने हेतु महाकाल का आमंत्रण प्रस्तुत है।

परमपूज्य गुरुदेव का निवास अब प्रत्येक भावनाशील शिष्य का अन्तःकरण है। उन्हें निर्मल आत्मा या प्रकाशस्वरूप परमात्मा के रूप में अनुभव किया जा सकता है। प्रकाश का अर्थ रोशनी नहीं, सन्मार्गगामिनी प्रेरणा है। उसे ऋतम्भरा-प्रज्ञा भी कहते हैं। सद्गुरु का उपदेश अपनी आत्मा की वाणी में सुना जा सकता है। उनका परामर्श और मार्गदर्शन इस रूप में हमें निरंतर उपलब्ध है।

बाहर के गुरु अनेक विषयों पर बात कर सकते हैं। पर सद्गुरु की शिक्षा एक ही होती है, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर असत से सत की ओर बढ़े चलो। पूज्य गुरुदेव जब शरीर में थे, तब उनसे जब तब ही मिलना संभव हो पाता था। अब जबकि वे हमारी अपनी अंतरात्मा में विराजमान् हो चुके हैं, हमारे साथ हर समय हैं। इस रूप में उनका परामर्श हमें हर समय उपलब्ध है।

उनकी प्रेरणा का स्वरूप एक ही है-युगधर्म का निर्वाह। इसे मानने में आँतरिक संतोष का अनुभव स्पष्ट है। बाहर से कष्ट उठाते हुए जब उनके काम में तत्परता बन पड़ती है, तो भीतर से इतना संतोष और उल्लास का अनुभव होता है कि उसकी तुलना में बाकी सब कुछ नगण्य दिखता है।

इन दिनों हममें से हर एक के मन में एक हूक, एक कसक, एक टीस उठती रहती है, आगे बढ़ा जाए, ऊँचा उठा जाए और औरों को भी इसी सन्मार्ग पर लाया जाए। जब तक अपना देव सोया हुआ रहता है, तभी दैत्य उस अमृत को हरण कर ले जाते हैं यह इच्छा धन, ऐश्वर्य, इन्द्रिय भोग, सत्ता, अहंता बढ़ाने के लिए मुड़ जाती है और मनुष्य इसी बड़प्पन के जंजाल में उलझा रहता है। पर समर्थ सद्गुरुदेव हम सबको झकझोरते हुए हमारी चेतना के प्रवाह को अवांछनीयता की ओर से मोड़कर युगसाधना की ओर नियोजित करते रहते हैं। उनके द्वारा उड़ेली जा रही गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता इतनी आनंददायक और इतनी समर्थ है कि उसे पाकर हम स्वर्ग में स्थित देवताओं से बढ़कर संतोष का अनुभव करते रह सकते हैं।

पर इस अनुभूति के लिए एक ही पात्रता, एक ही शर्त और एक ही कसौटी है-युगधर्म का निर्वाह। उनके चरणों में अपनी प्रतिभा, समय-संपदा की भावभरी श्रद्धांजलि। गुरुपर्व पर यह श्रद्धांजलि कहाँ, किसने, कितने उत्साह से, कितने परिमाण में प्रस्तुत की, इसी की प्रतीक्षा का दौर इन दिनों चल रहा है। इस अन्तः मंथन से जो नवनीत निकलेगा, उसी पर युगदेवता की दृष्टि केन्द्रित है।

*समाप्त*

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