
गुरुपर्व के संदर्भ में - विदाई वेला में दिये गये संदेश से कुछ अमृतकण
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परमपूज्य गुरुदेव ने 20 जून 1971 को गायत्री तपोभूमि, मथुरा से स्थायी रूप से विदाई ली थी एवं वे हिमालय तप-साधना हेतु चले गए थे। एक वर्ष बाद उनने ऋषि परंपरा के बीजारोपण तथा नवयुग की आधारशिला रखने हेतु तपस्वियों का निर्माण करने तथा देव-परिवार बनाने हेतु शान्तिकुञ्ज-गायत्रीतीर्थ में आकर वह पौधा रोपा था, जो आज वटवृक्ष बन गया है एवं सारे विश्व में जिसका संदेश जन-जन तक पहुँच रहा है। विदाई की वेला में अत्यंत मार्मिक संदेश उनके मुख से अमृतवाणी के रूप में चार दिन तक निस्सृत हुए। जिनने भी उन्हें सुना है-उनके लिए वे एक निधि-अनमोल खजाने के रूप में सुरक्षित हैं। उन्हीं संदेशों में भक्ति, समर्पण, गुरुभक्ति परक कुछ अंश यहाँ उद्धत हैं, ताकि जिनने नहीं सुना है, वे इन्हें पढ़कर गुरुतत्त्व की गरिमा का बोध कर सकें एवं अपने लिए किए जाने वाले कर्तृत्वों के संबंध में मार्गदर्शन पा सकें।
“हमारे मार्गदर्शक ने हमें एक ही प्रयोजन के लिए भेजा-विचारक्रांति का ज्ञानयज्ञ। इसी एक उद्देश्य के लिए हमारे मार्गदर्शक ने अनेक प्रकार के दिखाई देने वाले कार्य कराए। उस दिव्यसत्ता के आदेशों का पालन करने में हमने अपने अस्तित्व का एक-एक कण समर्पित किया है और इस समर्पण के मूल्य पर दिव्य अनुकंपा का अजस्र वरदान पाया है। हम चाहते हैं कि यही वंश-परंपरा आगे भी चलती रहे। हमने मूल्य देकर गुरुअनुग्रह और दैवी-अनुरोध है कि जिस दिव्य प्रेरणा का अनुगमन हम करते रहे हैं, हमारे सहचरों को भी उस पथ पर चलना चाहिए।”
“अभीष्ट प्रयोजनों के लिए हमारे मार्गदर्शक का प्रकाश, तप एवं सहयोग हमें अजस्र रूप से मिलता रहा है। परिजनों को भी वैसी ही उपलब्धियाँ मिलते रहने का हम आश्वासन देते हैं। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि मूल्य हमारे भावी अनुदानों का भी चुकाना होगा।”
“हमारे और हमारे गुरुदेव तथा हमारे जीवन के बीच अतिघनिष्ट और अतिमधुर संबंधों का आधार एक ही रहा कि हम अपने आपको भूले रहें यह पता ही नहीं चला कि हम जीवित हैं या मृत, हमारी भी काई इच्छा-आवश्यकता है या नहीं। ईश्वर की इच्छा का अपनी इच्छा बनाकर, ईश्वर की आवश्यकता को अपनी आवश्यकता मानकर कठिनाइयों, आपत्तियों को अपनी परीक्षा का सौभाग्य मानकर निरंतर अपने इष्टदेव के इशारों पर कठपुतली की तरह नाचते रहे। यही समर्पण-साधना का प्राण है।”
“वेश्यावृत्ति जैसी व्यभिचारिणी भक्ति से भक्ति, भक्त और भगवान तीनों का माथा नीचे होता है। हमारी आत्मिक उपलब्धियों का मूल कारण यह निष्काम समर्पण रहता है। पूजा-उपासना के कर्मकाण्ड इसी समर्पण की पृष्ठभूमि पर उगे पनपे और फले-फूले हैं। यह पृष्ठभूमि न हो तो जीवन भर घण्टा, घण्टी, माला सटकाते रहने का भी कुछ आशाजनक परिणाम प्रस्तुत नहीं हो सकता। स्तुत नहीं हो सकता।”
“हमारी भावी तपश्चर्या का एक-एक कण हम उन लोगों पर बिखेर देंगे जिनने युगसाधना को अपनाकर अपने को उत्कृष्ट बनाने और समाज में आदर्शवादिता की प्रतिस्थापना के लिए अधिक-से-अधिक समर्पण करके दिखाया। हमारे मार्गदर्शक ने हमसे यही कराया और इसी मूल्य पर अपना सहयोग, स्नेह, प्रकाश एवं अनुदान प्रदान किया। हम भी उन्हीं को दे सकेंगे, जो विश्वमानव की आज की सबसे बड़ी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कुछ कर गुजरने की हिम्मत दिखा सकें। नवनिर्माण के ज्ञानयज्ञ में जिसका जितना योगदान होगा, उसके अनुपात में हमारा स्नेह, प्रकाश एवं अनुदान कुछ अधिक ही मिलेगा, कम नहीं। हमारे प्रति सच्चे प्रेम की कसौटी भी यही हो सकती है कि किसने किस हद तक इस पुण्यप्रयोजन के लिए क्या किया?
“विदाई संदेश के अंतिम चरण के रूप में हमें मात्र इतना ही कहना है कि हमारे प्रेमी-परिजन लोभ-मोह के जाल से जिस हद तक निकल सकें, निकलने के लिए पूरा जोर लगाएँ। हमें प्रस्तुत जीवनक्रम अपनाना ही इसलिए पड़ा व जीना पड़ा है कि वाणी के द्वारा नहीं, उदाहरण के द्वारा ईश्वर-भक्ति से लेकर जीवन की सार्थकता तक का स्वरूप सजग और सुसंस्कारी आत्माओं के सामने रखकर एक सुनिश्चित मार्गदर्शन कर सकें। हम अपना पूर्वार्द्ध पूरा कर चले। उत्तरार्द्ध अगले दिनों होना है। प्रभुसमर्पित जीवन की क्या दिशा हो सकती है, यह हमारी वाणी से नहीं, भावनाओं और गतिविधियों से सीखा जाना चाहिए।”
“यदि हमारे प्रति किसी के मन में कुछ श्रद्धा और आत्मीयता हो तो उसे दिशा मिलनी चाहिए और ज्ञानयज्ञ के नवनिर्माण के महान अभियान में अधिक तत्परतापूर्वक प्रयुक्त होना चाहिए।”