
मिला निर्वाण का पथ
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“मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? क्यों हूँ ? कैसे हूँ ?” इन प्रश्नों ने उसके मन में तीव्र उथल-पुथल मचा रखी थी। वह अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए भगवान तथागत के पास गया। भगवान उस समय जैतवन में एक विशाल वट की छाया में बैठे ध्यान में लीन थे। उसकी आकुल पुकार से उनकी तन्मयता भंग हुई। उनके करुणार्द्र नेत्र कमलदलवत धीरे-धीरे खुले। उन्होंने बड़े ही भावमय स्वर में पूछा- “तुम कौन हो वत्स ?”
“यही जानने तो मैं आपके पास आया हूँ ?” उसने बड़े ही आकुल स्वरों में अपनी व्यथा प्रभु को निवेदित करते हुए कहा- “वैसे पुरजन परिजन मुझे यथागत के नाम से पुकारते हैं।”
महात्मा बुद्ध ने उसके चेहरे की ओर एक नजर देखा। उसके चेहरे पर व्याकुलता झलक रही थी। एक क्षण के लिए रुककर उन्होंने उसे संबोधित करते हुए कहा-”तुम्हारा प्रश्न है आत्मविज्ञान के लिए। मैं एक साधारण-सा व्यक्ति भला यह तत्वज्ञान तुम्हें कैसे समझा सकता हूँ ?” भगवान तथागत उसकी जिज्ञासा को कसौटी पर कस रहे थे।
परंतु जिज्ञासु अपने मंतव्य पर दृढ़ था। उसकी जिज्ञासा उत्कट और तीव्र थी। उसके नेत्रों में भगवान तथागत के कथन पर निराशा की बजाय आस्था के भाव दृढ़ हुए। वह कहने लगा- “आप सामर्थ्यवान हैं, प्रभु ! यदि आपके चरणों के सान्निध्य में भी मेरे मन को शाँति न मिली, तो मैं यहीं प्राण त्याग दूँगा।
तथागत विचारमग्न हो गए। वह सोचने लगे, आत्मज्ञान तो है-मन वाणी से परे अनुभूति का विषय। मात्र शब्दों द्वारा इसे किसी प्रकार भी समझाया नहीं जा सकता। किंतु जिज्ञासु तो है सच्चा, पूर्ण अधिकारी। कुछ करना ही होगा। “ठीक है, कुछ दिन यहीं पर मेरे पास रहो और जो मैं तुमसे कहूँ, तुम वैसा ही करो।” तथागत बोले।
“आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगा। मुझे आदेश करें भगवन्।” यथागत का चेहरा अब आशा और उल्लास से चमक रहा था। “अभी तो इतना ही करो। तुम रोज सुबह नगर में जाया करो और रात को लौटकर वहाँ के सभी समाचार मुझे सुनाया करो।”
“जैसी आज्ञा भगवन्” यथागत ने सिर झुकाया। प्रभु का आदेश मानकर अब वह नियमित रूप से नगर जाता और वहाँ से लौटकर वहाँ की सारी घटनाएं तथागत को ज्यों-की-त्यों सुना देता। महीनों यह क्रम अविराम गति से चलता रहा। अचानक एक दिन तथागत ने पानी से भरी हुई थाली उसे दी और कहा- “आज यह थाली अपने साथ लेकर तुम्हें नगर में जाना होगा। लेकिन सावधान रहना, पानी की एक बूँद भी थाली से नीचे गिरने न पाए। लौटकर रोज की तरह नगर का पूरा हाल मुझे सुनाना।”
इसके बाद उसी के सामने अपने एक अनुगत शिष्य को बुलाकर तथागत ने आज्ञा दी।--तुम एक तीक्ष्ण धार वाली तलवार लेकर इस यथागत के पीछे-पीछे जाओ। इसके हाथों की थाली से एक बूँद भी पानी गिरे, तो तुरंत वहीं इसके हाथ काट देना ! मेरे पास पूछने के लिए भी आने की जरूरत नहीं।”
“जो आज्ञा प्रभु !” अनुगत शिष्य ने कहा और तलवार लेकर यथागत के पीछे-पीछे जाने को तैयार हो गया।
नित्य नगर जाकर समाचार लाने की एक ही दिनचर्या से वह ऊब-सा गया था। आज कार्यपरिवर्तन तो हुआ, पर बड़ा ही रोमाँचक एवं अत्यंत दुस्साध्य। वह बेहद डर गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि तथागत ऐसा अद्भुत, अनोखा और साथ ही इतना भयानक आदेश भी देंगे। खैर ! बड़ी सावधानी से पानी से भरी थाली लिए यथावत ने नगर की ओर प्रस्थान किया। नंगी तलवार लिए दूसरा शिष्य उसकी थाली कड़ी नजर रखते हुए उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
रास्ते में लोग कुतूहल और विस्मय से इस दृश्य को देखते और परस्पर अनुमानादि तर्कों से इस विस्मयदायक दृश्य का समाधान ढूंढ़़ते, पर यथागत का ध्यान थाली और उसके पाली को छोड़कर कहीं भी अन्य किसी ओर जरा भी नहीं था। जब कोई कुछ पूछता, तब भी वह उत्तर न दे पाता। फिर विगत दिनचर्या के क्रम में समाचार संग्रह की सुधि भी उसे कहाँ ? जैसे-तैसे, शनैः-शनैः पूरे नगर का परिभ्रमण पूरा हुआ। रात को दोनों लौटकर भगवान तथागत के पास पहुँचे। कहना न होगा, थाली से एक भी बूँद पानी नीचे नहीं गिरा था।
“नगर के सभी समाचार सुनाओ।” भगवान तथागत ने उसे अपना आदेश कह सुनाया। “लेकिन प्रभु ! नगर तो आज मैं जरा भी नहीं देख पाया। फिर वहाँ के समाचार मैं आपको कैसे सुनाऊँ भगवन्।” यथागत ने विनम्रतापूर्वक कहा।
“क्यों ? नगर से ही तो तुम आ रहे हो! क्या पूरे दिन नगर का चक्कर तुमने नहीं लगाया ?”
“लगाया तो है भगवन्!” यथावत बोला। “फिर नगर नहीं देखा। ऐसा क्यों कहते हो ?” पूछा तथागत ने।
“आपने मेरे नगर भ्रमण के साथ ही अपने अनुगत शिष्य को यह आदेश भी तो दिया था कि थाली से एक भी बूँद पानी नीचे गिरे, तो मेरे दोनों हाथ वह उसी समय तलवार से काट दे। इस वजह से भयाक्राँत हो, मैं एक पल के लिए भी अपना ध्यान थाली से नहीं हटा सका। फिर नगर भला कैसे देख पाता।” यथागत ने उत्तर दिया।
“बस वत्स, बस यही है आत्मज्ञान की कला, आत्मविद्या की प्राप्ति का उपाय। जिस प्रकार थाली में से पानी गिरने के डर से तुम पूरे नगर में घूमते हुए भी, कुछ भी देख-सुन न सके। तुम्हारे मन की वृत्तियाँ जरा-सी भी इधर-उधर नहीं गईं। यद्यपि नगर की सजावट, चहल-पहल, राग-रंग एवं घटनाक्रम सभी कुछ तो पूर्ववत ही थे। फिर इसके बावजूद भी तुम्हारा ध्यान वह अपनी ओर किंचित मात्र न खींच सके .............।”
“ ............................ ठीक उसी प्रकार संसार की सारी मोह-ममता को छोड़कर, सभी वस्तुओं-व्यक्तियों से ध्यान हटाकर दीपक की लौ की तरह सच्चे एकाग्र मन से एक परमात्मा में ही ध्यान लगा दो, तो धीरे-धीरे तुम्हारा स्वरूप तुम्हारे सामने स्पष्ट होगा और होगा तुम्हारी सभी शंकाओं का समाधान। इसी के साथ उपलब्ध होगा तुम्हें अपने सभी प्रश्नों का उत्तर और मिलेगी मन को परम अध्यात्मिक शाँति। यही है निर्वाण का पथ और तुम्हारा जीवनलक्ष्य !” इतना कहकर भगवान तथागत समाधिस्थ हो गए। यथागत भी तथागत होने की राह पर चल पड़ा।
एक सेठ बहुत धनी था। उसके कई लड़के भी थे। परिवार बढ़ा पर साथ ही सबमें मनोमालिन्य, द्वेश एवं कलह रहने लगा। एक रात को लक्ष्मीजी ने सपना दिया कि मैं अब तुम्हारे घर जा रही हूँ। पर चाहो तो चलते समय एक वरदान माँग लो। सेठ ने कहा-भगवती आप प्रसन्न हैं, तो मेरे घर का कलह दूर कर दें, फिर आप भले ही चली जाएं।
लक्ष्मीजी ने कहा- मेरे जाने का कारण ही गृहकलह था। जिन घरों में परस्पर द्वेश रहता है, मैं वहाँ नहीं रहती। अब जबकि तुमने कलह दूर करने का वरदान माँग लिया और सब लोग शाँतिपूर्वक रहेंगे तब तो मुझे भी वहीं ठहरना पड़ेगा। सुमति वाले घरों को छोड़कर मैं कभी बाहर नहीं जाती।
महिषपुर नगर में रविदत्त नामक एक व्यक्ति रहता था। अपने पशुओं को चराता व गृहस्थी में व्यस्त रहता था। विद्वानों का एक समूह तीर्थाटन करते गाँव में आया। सामूहिक उद्बोधन में वे बोले-क्यों इन व्यर्थ के बखेड़ों में तुम सब अपना जीवन नष्ट कर रहे हो। व्यर्थ संचय न करो। परलोक की तैयारी करो। रविदत्त ने उपदेश का प्रारंभिक आधा भाग ही सुना और ब्रह्मज्ञान प्राप्ति की लालसा से घर से निकल भागा। घाटियाँ-वन-उपत्यिकाएं पार कर एक संत के पास पहुँचा, जो चिड़ियों को दाने चुगा रहे थे।
बड़ी देर तक उनने ध्यान नहीं दिया, वह झुंझला उठा- “आप कैसे संत है। हम कब से खड़े आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमें भी ब्रह्मज्ञान दीजिए।” अनाज की टोकरी उसके हाथ में थमा संत बोले- “आओ ! तुम भी इन्हें दाना चुगाओ। यह मस्ती व आनंद का साम्राज्य देखो।” रविदत्त आपा खोकर संत को भला-बुरा कहने लगा। तब बिना किसी उत्तेजना के उन्होंने उसे अपनी बाँहों में भर लिया। वे बोले- “भाई ! जिसे तुम खोज रहे हो-वह शास्त्रों उपदेशों में नहीं है। उसे तो तुम आपा खोकर खो ही रहे हो। फूलों की सुगंध और अग्नि की ऊष्मा की तरह आनंद तो तुम्हारे भीतर कैद है। उसे कैद से मुक्त करो, खिलो और अपना सौरभ, हंसी सबको बाँटो। कर्त्तव्यपालन के द्वारा इस सृष्टि के सौंदर्य को बढ़ाओ। अपने को रीता कर दो, तब आनंद का समुद्र तुम्हें अपने ही भीतर लहराता मिलेगा।”