
हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ? (kavita)
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हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो।
निश्चरों से हीन करने को मही, राम के आह्वान तुम क्यों मौन हो॥
कुटिल चाल चली अहं के कंस ने, कोप ढाया सत्ता लोलुप इंद्र ने।
कूरता-कौरव निरंकुश हो रहे, कृष्ण पार्थ के प्राण तुम तुम क्यों मौन हो।
हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो॥
हो रहा शोषण निरीहों का सतत्, धर्म का पाखंड करता है मदद।
बुद्ध की करुणा कहाँ पर सो गई, बुद्ध करुणावान तुम क्यों मौन हो।
हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो॥
सत्य का खुलकर निरादर हो रहा, राष्ट्र हिंसा का प्रताड़न ढो रहा।
अहिंसा महावीर की क्यों सुप्त है, बापू के बलिदान तुम क्यों मौन हो।
हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो॥
धर्म, संस्कृति, राष्ट्र पर संकट घिरे, आस्था विश्वास के आँसू झरे।
नानकजी की गुरुभक्ति को क्या हुआ,गोविंद सिंह के ज्ञान तुम क्यों मौन हो।
हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो॥
राष्ट्र की सामर्थ्य क्यों सोई हुई, किसलिए व्यामोह में खोई हुई।
शहीदों का रक्त क्या ठंडा हुआ, वसंती बलिदान तुम क्यों मौन हो।
हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो॥
जागरण का शंख अब बजने लगा, युग-प्रवर्तक सैन्यबल सजने लगा।
राष्ट्र के पुरुषार्थ, प्रतिभा के धनी, प्रखर प्रज्ञावान तुम क्यों मौन हो।
हो रहा हो, संस्कृति-सीताहरण, राम के हनुमान तुम क्यों मौन हो॥
*समाप्त*