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Magazine - Year 2000 - Version 2

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परम वंदनीया माताजी का नवरात्रि की वेला में दिया गया उद्बोधन

गायत्री मंत्र हमारे साथ साथ बोले,

ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥

हमारे आत्मीय परिजनों ! नवरात्रियों में अनुष्ठान क्यों किया जाता है और इसका क्या महत्व है ? दो ऋतुओं के मिलने को संधिवेला कहते हैं। गरमी के जाने से और सरदी के आने से - इन दोनों का जो मिलन होता है, इसका अपना महत्व है। जाड़े के जाने और गरमी के आगमन चैत्र की नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्षाऋतु के समापन और शरदऋतु के आगमन पर वह आश्विन नवरात्रि है। साधना की दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। जिस तरीके से सोमवती अमावस्या को स्नान करने क्यों जाते हैं ? गंगा तो वही है ना। यों तो गंगा में जब भी नहाया जाएगा तब ही उसका महत्व है, लेकिन विशेष पर्व का विशेष महत्व होता है। जिस तरीके से कुँभ लगता है और कुँभस्नान का विशेष महत्व होता है, उसी प्रकार साधना की दृष्टि से नवरात्रि का भी विशेष महत्व है।

इन नवरात्रियों में साधक का मन अपने भाव साधना में लगता हुआ चला जाता है। यदि किसी साधक का मन नहीं लगता, तो हम यह मानकर चलेंगे कि वह भौतिक जंजालों में फँसा हुआ है, इसलिए उसका मन भगवान् की गायत्री माता की उपासना में नहीं लग रहा है। उपासना में दिलचस्पी है या नहीं, उसमें कैसे फर्क माना जाए। इसकी पहचान साधक की मनोभूमि और अंतःकरण के आधार पर की जायगी। अंतःकरण अर्थात् उसकी भूमि कैसी है ? बीज तो उसमें पड़ जाएगा। भगवान् की अनुकंपा, दया, उसका अनुदान, वरदान तो मिलता हुआ चला जाएगा, परंतु उसका फलित होना इस बात पर निर्भर करेगा कि हमारी अंतःभूमि कैसी है ? यदि भूमि उपजाऊ नहीं है, ठीक नहीं है, तो बीज कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह गल जाएगा, सड़ जाएगा। उसका कोई महत्व नहीं रहेगा।

बीज का महत्व तभी है जब भूमि साफ सुथरी हो उपजाऊ हो। इसके बाद उसमें खाद और पानी देने की जरूरत पड़ती है। खाद और पानी देने की जरूरत पड़ती है। खद और पानी क्या होता है ? वह है हमारी श्रद्धा और निष्ठा। निष्ठा और श्रद्धारूपी खद पानी जब हम देते हैं तब हमारी उपासना फलीभूत होती है। कैसे फलीभूत होती है, इस संबंध में मैंने कई बार गुरुजी का उदाहरण दिया है कि उन्होंने पंद्रह वर्ष की आयु से उपासना करते रहे। वे 6 घंटे प्रतिदिन उपासना करते थे, लेखन करते थे, व्यक्तियों से मिलते थे। इतना बड़ा संगठन भी उन्होंने तैयार किया। आखिर इसकी स्थापना कैसे की ? केवल उपासना के द्वारा उपासना हमारा एक ऐसा संबल है। इस श्रद्धा और निष्ठा के सहारे हम आगे बढ़ते हुए चले जाते हैं और हमारे अंदर वह शाँति और वह भावना आती हुई चली जाती है, जो हमारे महापुरुषों में आती हुई चली गई।

अभी मैंने गुरुजी का उदाहरण दिया और यह बताया कि उन्होंने बचपन से जो संबल पकड़ा- गायत्री माता का आँचल पकड़ा और अपने गुरु का सान्निध्य और प्रेरणा पाई, तो आजीवन उस प्रेरणा को केवल अपने अंतःकरण में ही नहीं बिठाया, वरन् उसे बाहर साकार रूप भी दिया। उस प्रेरणा को, भावनाओं को, श्रद्धा को उन्होंने साकार रूप दिया और जनमानस में गहरे बैठाया तथा एक ऐसी सेना तैयार की, जिसको लाखों व्यक्ति की सेना कहना चाहिए। यह कौन सी और कैसी सेना है ? यह भावनाशीलों की सेना है, श्रद्धावानों की सेना है, निष्ठावानों की सेना है। यह सेना ऐसी है कि जब जिससे जो कह दें, उस काम के लिए वे तुरंत खड़े हो जाएँ और सारे राष्ट्र में जाग्रति पैदा कर दें।

उपासना क्या सिखाती है ? उपासना हमको यही सिखाती है कि हमको दयावान् होना चाहिए, करुणामय होना चाहिए। हमारे अंदर संवेदना होनी चाहिए। जब तक हमारे अंदर संवेदना पैदा नहीं होती, तब तक उसका प्रतिफल क्या मिला, हम कैसे मानें कि आपने उपासना की है। मैं आपको सावित्री का एक उदाहरण देना चाहूँगी। सावित्री के लिए उसके पिता वर देख रहे थे, तो सावित्री ने अपने पिता से कहा कि पिताजी यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वयं ही अपने लिए वर ढूंढ़ लूँ। उन्होंने कहा बेटी तू बहुत प्रतिभाशाली बच्ची है और अपने लिए स्वयं वर देख सकती है, मैं तुझे इसकी आज्ञा देता हूँ। सावित्री गई और जगह जगह ढूंढ़ती फिरी, कहीं कोई उसे अपने योग्य वर दिखाई नहीं दिखाई नहीं पड़ा। एक जंगल से गुजर रही थी कि उसे एक लड़का दिखायी पड़ा, जो कि लड़की का गट्टा सिर पर लिए हुए जा रहा था। उससे सावित्री ने पूछा कि तुम्हारे चेहरे पर इतना तेज कैसे है ? तुम इतने बलवान् कैसे हो ? उस युवक ने कहा कि मैंने उपासना की है एक बात, दूसरी बात मैंने अपने माता-पिता की सेवा की है। राज्य की ठुकरा करके जीवन शोधन के लिए, आत्मशोधन के लिए मैं जंगलों में घूम रहा हूँ।

सावित्री ने उसके गले में वरमाला डाल दी। सत्यवान ने कहा कि सावित्री तू तो राजकुमारी है और मैं तो एक कंगाल हूँ। मैं तो सब कुछ छोड़ करके आया हूँ, क्या तू मेरे साथ रहना पसंद करेगी ? उसने कहा कि मैं सत्यवान के साथ शादी कर रही हूँ और आपके अंदर मुझे सत्यता दिखाई पड़ रही है, प्रतिभा दिखाई पड़ रही है, इसलिए मैं आपके साथ शादी कर रही हूँ। अर्थात् वह शक्ति जिसको हम गायत्री कहते हैं, सावित्री कहते हैं। सावित्री भौतिक और गायत्री पारलौकिक शक्ति है। इन दोनों ही शक्तियों से मिलने को नतमस्तक होने को जी चाहता है। ये दोनों एक ही शक्ति हैं।

सावित्री और गायत्री को कब धारण किया जा सकता है ? जब अपने अंतःकरण को कमल के तरीके से खिलने दिया जाए। यदि वह कमल की तरह से खिला नहीं है, तो गायत्री माता आकर कहाँ बैठेंगी ? क्या कूड़े-करकट में बैठेगी ? हंस जैसे जीवन में जब नीर क्षीर की विवेकशीलता का माद्दा अंदर आ जायगा, तब गायत्री माता आएँगी और हमारे हृदयकमल पर बैठेंगी, जैसे कि गुरुजी के हृदयकमल पर वे बैठती हुंई चली गई और वे निहाल हो गए और गायत्री माता भी निहाल हो गई। क्योंकि वह धूल में दबी हुई हमारी माँ थीं, उस माँ को उन्होंने घर घर में पहुँचाया। भगवान् बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में कितने ही व्यक्तियों ने योगदान दिया और घर घर जाकर अलख जगाया था। उसी का परिणाम है कि बुद्ध धर्म कहाँ से कहाँ तक फैलता हुआ चला गया। उस धर्मचक्र प्रवर्तन में अशोक, संघमित्रा, महेंद्र तथा अन्य और भी ढेरों व्यक्ति सम्मिलित थे। उनमें अंगुलिमाल भी था, जो कि कभी एक सौ आठ अँगुलियों की माला पहनता था, परंतु जब भगवान् बुद्ध की शरण में गया, तो उसने अपने सारे विकार त्याग दिए और अच्छे पथ पर, संतों के पथ पर चलने लगा।

बेटे ! जो लोग आज गुरुजी का अनुकरण कर रहे हैं और उस पथ पर चलने की हिम्मत कर रहे है, मैं उनको महेंद्र ही कहूँगी, उनको मैं अशोक ही कहूँगी, उनको मैं विवेकानंद कहूँगी और अर्जुन कहूँगी। उनको मैं शिवाजी कहूँगी, क्योंकि उन्होंने कम से कम अपना हौसला ता दिखाया, आगे चलने का। गुरुजी के पदचिह्नों पर चलने का उन्होंने हौसला तो दिखाया। हौसला कौन दिखाता है ? आगे चलने का हौसला वही साधक दिखाता है, जिसके अंदर संवेदना उभरती हुई चली जाती है। जिस तरह से वाल्मीकि के जीवन में घटित हुआ। एक समय उनके जीवन में ऐसा आया कि नारद जी के कहने पर उन्होंने पिछला जीवन बदल दिया और भगवान् से जुड़ गए। उनकी कायापलट हो गई और जब एक पक्षी के जोड़े को तिलमिलाते हुए उन्होंने देखा मरते देखा, तो उनकी करुणा फूट पड़ी। पहले नहीं फूटती थी, परंतु भगवान् से जुड़ने के बाद करुणा फूटने लगी उन्होंने वाल्मीकि रामायण की रचना कर डाली।

एक समय संत तुलसीदास जी का भी ऐसा ही हाल उनकी अपनी पत्नी के कहने पर हुआ। उनकी पत्नी ने कहा कि आपका जितना लगाव इस नश्वर शरीर से है, यदि उतना ही लगाव कहीं भगवान् से हो जाए तो आपका उद्धार हो जायगा। फिर आप भगवान् का काम भी करेंगे और उनका नाम भी लेंगे। आप भगवान् का नाम तो ले, पर उससे कहीं ज्यादा उसका काम करें। तुलसीदास को अपनी पत्नी की यह बात चुभ गई और वे संत तुलसीदास हो गए। संत तुलसीदास होने के बाद उन्होंने एक महाकाव्य की रचना की, जिसको हम ‘रामचरितमानस’कहते हैं। वह रामचरितमानस हमारे जनमानस के संबंध में है कि गुरु शिष्य के भाई भाई के पिता पुत्र के पति पत्नी के संबंध कैसे हों यह सारे के सारे उदाहरण आप उसमें पढ़ते हुए चले जाइए। कैसे बढ़िया काव्य है कि बस कहते हुए मन अघाता नहीं है।

बेटे ! गुरुजी ने भी ऐसे ही पुराणों सहित आर्षग्रंथों को ऐसा बनाया कि वे जनसामान्य के लिए बन गए। आज हरिद्वार के जितने भी आश्रम हैं, उनसे लेकर देश के सभी आश्रमों, बड़े बड़े पुस्तकालयों में उनके वेद, पुराण, दर्शन, उपनिषद् स्मृतियाँ व प्रज्ञापुराण रखे हुए हैं। जब वेदों का उन्होंने भाष्य किया तो लोग सोचते ही रह गए। जब उन्होंने एक सौ आठ उपनिषदों का भाष्य किया, तो लोगों को आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति इतना कैसे कर सकता है ? मैं कहती हूँ कि एक व्यक्ति क्यों नहीं कर सकता ? कर सकता है यदि उसके अंदर भावनाएँ हो, कर्मठता हो, क्रियाशीलता हो तो वह क्या नहीं कर सकता है अर्थात् सब कुछ कर सकता है। गुरुजी ने वह सब करके दिखा दिया। बत्तीस सौ पुस्तकें उन्होंने अपने जीवनकाल में लिख करके यह बताया कि उन्होंने अपने वजन से भी ज्यादा साहित्य लिखा। उन्होंने दिखाया कि उपासना के द्वारा किस तरीके से प्रखरता आती हुई चली जाती है। यदि व्यक्ति यह मानकर चले कि हम जो उपासना कर रहे हैं, वह भगवान् के लिए अंतरंग के लिए है, जिससे कि हमारे अंतरंग व अपने जीवात्मा पर जो मल विक्षेप छाए हुए है, उनको हटाने के लिए हैं। लेकिन यहाँ तो कुछ उलटा ही है। यहाँ तो उपासना माने चापलूसी, उपासना माने आशीर्वाद माना जाता है। लोग सोचते हैं कि चलो गुरुजी से, माताजी से आशीर्वाद तो ले आएँ, पर मन में यह नहीं आया कि गुरुजी और माताजी के पदचिह्नों पर भी हमें चलना है क्या ? नहीं हमको बेटा दे दो, हमको पैसा दे दो, हमारी शादी करा दो। धत तेरे की ... उपासना इसी का नाम है क्या ? इसका नाम उपासना नहीं है।

भगवान् फोकट में कभी किसी को कुछ नहीं देता है। देने से पहले वह माँगता है। उसने सुदामा से भी माँगा था। सुदामा जब कृष्ण भगवान् के यहाँ गए, तो उन्होंने कहा कि पहले यह बताओ कि आप लाए क्या हो ? लाइए दीजिए हमको। उन्होंने कहा- हम क्या दे सकते हैं आपको ? कृष्ण ने कहा- झूठ मत बोल, तेरे बगल में जो पोटली बँधी है, उसे ला। वह चावल की पोटली थी, जो चलते वक्त सुदामा की पत्नी ने दी थी। श्रीकृष्ण उस पोटली के चावलों को ही फाँकते चले गए। भगवान् राम जब शबरी के यहाँ गए, तो वहाँ भी माँगते हुए चले गये। उससे कहा कि शबरी जो कुछ भी तेरे पास है, उसे ही मुझे खिला। शबरी बोली कि भगवान् ! मेरे पास तो कुछ नहीं है। मैं तो गरीब हूँ, मेरे पास क्या है ? मेरा तो छुआ पानी तक कोई नहीं पीता है। भगवान् ने कहा- शबरी कौन कहता है कि तू अछूत है ? तू मेरे भक्तों में से है। ला, जो कुछ तेरे पास है। भगवान् मेरे पास तो कुछ बेर हैं। उन्हें ही वह चख-चखकर देती गई और भगवान् राम जूठे बेर खाते गए। यह कौन करता है ? यह तो वही करता है, जो भगवान् का प्रिय है और जो भगवान् का प्रिय है और जो भगवान् को स्मरण करता है। वह भेदभाव नहीं करता। वह सारे मानवजाति को एक ही तराजू में तौलता है।

तो क्या साहब ! शबरी ने ऐसा किया था ? हाँ, शबरी ने कुछ ऐसा ही किया था। वह मातंग ऋषि के आश्रम में रहती थी। उसने सोचा कि कहीं ऋषि पर छू जाएँगे, तो उनको दोबारा नहाना पड़ेगा, इसलिए वह रात को चार बजे ही मार्ग साफ कर दिया करती थी। पढ़ी-लिखी तो थी नहीं, पर मन ही मन उपासना करती थी और कहती थी कि भगवान् कभी तो आप सुनेंगे, कभी तो मेरे घर आएँगे। और भगवान् राम शबरी के घर पहुँचे। वे विदुर के घर भी पहुँचे। कौरवों के राजमहल में कृष्ण को दावत दी गई थी। दुर्योधन ने दावत दी कि आप हमारे यहाँ आइए, लेकिन उसके यहाँ का कुधान्य उन्होंने नहीं खाया। साधक कभी कुधान्य नहीं खाता है। बेईमानी नहीं करता है, चोरी चकारी नहीं करता है। जो उसकी मेहनत की कमाई है, उसे ही वह खाता है। अपनी मेहनत की कमाई खाता है। जब श्री कृष्ण विदुर के यहाँ पहुँचे, तो उन्होंने कहा कि भगवान् ! मेरे पास कुछ तो नहीं है, जो आपको खिलाऊँ। विदुर जी की पत्नी केला लेकर आई। भावविभोर होकर केला तो नीचे डालती गई और छिलका भगवान् को खिलाती गई। यह देखकर विदुर ने कहा कि यह क्या कर रही हो ? गूदा नीचे डालती जा रही हो और छिलका खिला रही हो ! तो भगवान् कृष्ण ने कहा कि न मैं मेवा खाता हूँ, न मिष्ठान खाता हूँ, मैं तो केवल भक्त की भावना और निष्ठा को खाता हूँ। मुझे और कुछ नहीं चाहिए विदुर ! मेरे और भक्त के बीच में तू आड़े कैसे आ गया है ?

इसी प्रकार की एक घटना मैं आपको और बताऊँगी, जो गुरुजी के साथ घटित हुई थी। एक बार गुरुजी कहीं गए। उनके साथ तीन व्यक्ति और थे, जो भजनोपदेश दे सकते थे। वे लोग जहाँ जाकर के ठहरे, वहाँ की एक गृहिणी दूध लेकर आई। उस दूध में वह नमक डालकर लाई थी। उस बेचारी को भावातिरेक में यह ध्यान नहीं रहा कि वह दूध में नमक डाल लाई है। उसने समझा कि शक्कर है, तो चुटकी भर के स्थान पर दो तीन चम्मच गिलास में मिलाया और नमक का दूध सबके सामने आ गया। जो और लोग साथ में बैठे थे नमक का दूध पाकर उन्होंने कहा कि आचार्य जी ! आप से क्या करते हो ! यह नमक मिला दूध हुआ दूध आ गया है। आचार्य जी ने पूछा क्यों ? क्या बात हो गई ? इसमें तो नमक पड़ा है। उन्होंने कहा- चुप रहो। क्या हो जायगा, जो नमक पड़ा है ? नमक पीने से मर थोड़े ही जाएँगे। नमक से तो पेट साफ हो जायगा। दस्त हो जाएँगे, तो अपना पेट साफ हो जायगा। उसमें क्या दिक्कत है ? काहे को बेचारी की भावना को तुम ठेस पहुँचा रहे हो ? और उन्होंने वह दूध पी लिया। बाद में वह स्त्री रोती हुई और उसने गुरुजी के पैर पकड़ लिए और बोली, गुरुदेव मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। उन्होंने कहा- नहीं, बेटी ! तुझसे कोई गलती नहीं हुई। तेरा दिया हुआ दूध तो बहुत मीठा लग रहा था, क्योंकि वह भावनाओं से संबद्ध था।

आप दूसरों का तिरस्कार मत कीजिए, उनकी भावनाओं का सम्मान कीजिए, ताकि आपको श्रद्धा मिले। दूसरों का हम सम्मान नहीं करेंगे, तो हमें श्रद्धा कैसे, मिलेगी ? आप किसी की श्रद्धा पाना चाहते हैं, तो आप उसे प्यार दीजिए ना। सारा संसार प्यार का भूखा हैं। सर्वत्र प्यार का अभाव हैं। प्यार आपने जीवन में चखा ही नहीं, प्यार को आपने जाना ही नहीं। प्यार को आपने बाँटा ही नहीं। न प्यार आपने खाया है और न प्यार आपने खिलाया है। हमने जिंदगी भर प्यार बाँटा है और श्रद्धा ली है। हमारे पास कुछ नहीं है। गुरुजी के पास कुछ नहीं था, लेकिन सारी जिंदगी उन्होंने व्यक्तियों के मनोबल को बढ़ाया। उन्होंने उन्हें सहारा दिया, जो कीचड़ में पड़े हुए थे। उनको उठाया, उनको मार्गदर्शन दिया, उनको प्रेरणा दी ताकि वे आगे बढ़ सकें। आपने तो खुद ही कमाए और खुद ही खाए। केवल आप अपने गृहस्थ जीवन को ही पालते रहे। बस, इतना ही जीवन है क्या ? इतना ही जीवन नहीं है। ये तो पशु भी करते हैं चारा खाते हैं, बच्चा पैदा करते हैं और बस खत्म हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य का जीवन तो ऊँचे लक्ष्य के लिए है, परोपकार के लिए है, जनसेवा के लिए हैं।

अभी मैं उपासना के लिए कह रही थी, अब मैं साधना के बारे में कहूँगी। साधना माने अपना परिष्कार और उपासना माने भगवान् के समीप बैठना। अगर हम भगवान् के समीप बैठ रहे है, तो अपनी मलिनताओं को अपने दोष-दुर्गुणों को निकाल रहे हैं। ये तो हुई उपासना और साधना हुई अपने व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए। यदि आपने साधना की है, तो अपने व्यक्तित्व को बनाया या नहीं। यदि आपने अपने उपासना की है, साधना की है कि नहीं की है। उपासना की है, तो आपका व्यक्तित्व बनना चाहिए और आपके द्वारा दूसरों को भी ऊँचा उठना चाहिए।

और आराधना ? आराधना माने सेवा। संसार को राष्ट्र को , समाज को आप जैसे भावनाशीलों की बहुत आवश्यकता है। सेवा की लोगों को बहुत जरूरत है। कैसी सेवा ? ज्ञानदान की। अतः आप ऊपर से चाहे रँगे हो या न रँगे हो, लेकिन अपने अंतरंग को अवश्य रँगना चाहिए। इसके बिना काम नहीं चलेगा। एक गीत की कड़ी है, जिसमें कहा गया है - “मेरा रँग दे वसंती चोला” चोला तो रँग लिया कपड़ा तो रँग लिया यह बहुत अच्छी बात है। रँगना ही चाहिए, यह सादगी का प्रतीक है, त्याग का प्रतीक है। हम अपने हर परिजन से कहते हैं कि आपको ब्राह्मणोचित जीवन जीना चाहिए। गायत्री किसकी है ? ब्राह्मण की । केवल ब्राह्मण की है ? नहीं, ब्राह्मण का अर्थिवल जाति-वर्गविशेष से नहीं है, वरन् ब्राह्मण का अर्थ ‘ब्रह्मतेज’ है।

इस संदर्भ में मैं आपको एक उदाहरण और सुनाऊंगा। वह उदाहरण है - महर्षि वसिष्ठ का। एक बार राजा विश्वामित्र लड़ाई पर जा रहे थे। उनके साथ दस हजार सैनिक थे। मार्ग में एक समय ऐसा आया जब उनके पास खाने-पीने को कुछ नहीं था। उस जंगली मार्ग में महर्षि वसिष्ठ जी का आश्रम पड़ा, तो वसिष्ठ जी ने कहा कि आप हमारे यहाँ आइए, आपका निमंत्रण है और हम आपको खिलाएँगे। उन्होंने कहा कि आपके आश्रम में जो थोड़े से फल-फूल रखे है, उनसे आप इतनी बड़ी सेना को कैसे खिला सकते हैं ? उन्होंने कहा - आप बैठिए तो सही, हम आपको खिलाएँगे और उन्होंने दस हजार व्यक्तियों को खिलाया। यह सब देखकर विश्वामित्र ने कहा कि वसिष्ठ जी आप यह बताइए कि यह सब आप लाए कहाँ से ? उन्होंने कहा कि गायत्री मंत्र की मेरे पास अपार शक्ति है। मेरे पास नंदिनी गाय हैं। गायत्री और नंदिनी दोनों मेरे पास है।

विश्वामित्र ने कहा कि नंदिनी गाय मुझे दे दीजिए। वसिष्ठ जी ने कहा कि ये नंदिनी मेरे सिवा और किसी के पास नहीं जा सकती। चूँकि वसिष्ठ जी मार्गदर्शन देते थे। राज्य के राज्य बदलते चले गए, रामराज्य की स्थापना हुई, लेकिन वसिष्ठ जी नहीं बदले। संचालन का मार्गदर्शन का जो कार्य होता था, वह वे करते थे, मार्गदर्शन देते थे, पर प्रलोभन से अलग थे। प्रलोभन उनके ऊपर सवार नहीं था। उन्होंने कहा कि ये शक्ति मुझसे अलग नहीं हो सकती। इस पर विश्वामित्र बोले कि हम इसको बलपूर्वक ले जाने लगे, तो नंदिनी ने उनके सारे हौसले पस्त कर दिये। जब वे परास्त हो गए, तो उन्होंने - “धिक् बलं क्षत्रिय बलम् ब्रह्मतेजो बलम् बलत्।” ब्रह्मतेज का जो बल है, वह अपार है। उन्होंने कहा कि वसिष्ठ जी, हम आपके आगे नतमस्तक हैं। आपने जो मुझे प्रेरणा दी, मार्ग दिखाया, मैं आजीवन उसको निभाऊँगा और उन्होंने आजीवन गायत्री उपासना की। गायत्री मंत्र की उपासना से इतना आत्मबल पैदा कर लिया कि जब राम और लक्ष्मण उनके पास गए, तो उन्होंने कहा कि इनके द्वारा कुछ बड़ा काम कराना है। श्रेय खुद नहीं लिया जाता, वरन् दूसरों को दिया जाता है। उन्होंने कहा कि सफलता का सारा श्रेय किसको देना है ? राम और लक्ष्मण को देना है। जब वे अपनी परीक्षा में पास हो गए, तो उन्होंने बला और अतिबला दोनों शक्तियाँ राम और लक्ष्मण को दे डालीं।

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