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Magazine - Year 2000 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जादुई स्पर्शभरी थी उनकी लेखनी

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First 31 33 Last
गायत्री महामंत्र के माध्यम से एक विराट् परिवार का निर्माण हमारी गुरुसत्ता ने किया। जो भी गायत्री के तत्वदर्शन को जीवन में उतारता है-अपने चिंतन को परिष्कृत कर तदनुसार अपनी रीति नीति बनाकर कार्य करने को तैयार है, वह गायत्री परिवार का सदस्य है, यह निर्धारण परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा जी आचार्य ने किया। इसी धुरी पर एक विराट् संगठन खड़ा होता चला गया। जिसकी संख्या आज नौ करोड़ के लगभग आँकी जाती है। ममत्व विस्तार साधना से लेकर जीवन व्यापार संबंधी सही समय पर दिए गए मार्गदर्शन ने परिजनों को दिशा दी एवं वे गायत्री परिवार के अभिभावक संरक्षक आचार्यजी से जुड़ते चले गए। जुड़ाव भी घर के एक बुजुर्ग सदस्य जैसा। समय समय पर परमपूज्य गुरुदेव द्वारा अपने परिजनों को लिखे गए पत्रों से सही दिग्दर्शन मिलता है।

कई बार परिजन-आत्मीयजन लोगों के बहकावे में आकर यह विचार करने लगते हैं कि हमारे साथ घट रही जो प्रतिकूल परिस्थितियाँ है, उनके पीछे जरूर किसी की चाल है। हर कोई व्यक्ति हमारे कान में आकर जो भी कुछ कह देता है, हम उसी पर विश्वास कर बैठते हैं व सोचते हैं कि वही हमारा शुभेच्छु है। कोई ताँत्रिक चाल या ऊपर की हवा की बात बताकर हमें आशंकित कर देता है। हम भयभीत हो जाते हैं एवं तब हमें एक ही राह दिखाई देती है। गुरुदेव ही हमारी रक्षा करेंगे। तब गुरुदेव के उत्तर इस प्रकार का होता था -

हमारे आत्मस्वरूप

आपके दोनों पत्र मिले। नाम नोट कर लिए हैं। आशा है विरोध घटेगा।

आप भय, संदेह और आशंका को घटाते चलें। जो लोग आपको सूचना देते हैं और संदेह बढ़ाते हैं, उन लोगों पर पूरा विश्वास न करें। ऐसे लोग भी कई बार विरोध बढ़ाने के कारण होते है।

आप उस दिशा में उपेक्षा रखें और परमात्मा पर विश्वास करें। गायत्री उपासकों पर कोई ताँत्रिक प्रहार सफल नहीं होता।

आपके कल्याण के लिए हम प्रयत्नशील हैं।

-श्रीराम शर्मा

इस पत्र की एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है, जो अंतिम पैराग्राफ में है। एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक उपचार करते हुए पूज्यवर ने अपने शिष्य को हौसला दिया है कि गायत्री उपासना इतनी शक्तिशाली साधना है कि कोई भी टोना-टोटका जादू-तंत्र उसके सामने निष्प्रभावी ही रहती है। इतना संरक्षण गुरुसत्ता का मिलने के बाद शिष्य निश्चित हो जाता है। यह पत्र न केवल उन सज्जन ( श्री शिवशंकर गुप्ता नई दिल्ली व उनके भाई) के लिए एक शिक्षण के रूप में था, आज भी इतने वर्षों बाद भी हम सबके लिए जो समय-समय पर भटक जाते हैं- एक प्रकार से लोकशिक्षण का एक नमूना है।

इसी प्रकार गायत्री साधना संबंधी मार्गदर्शन करते हुए परमपूज्य अपने एक साधक शिष्य को 1 नवंबर 1954 को लिखे एक पत्र में बताते हैं -

हमारे आत्मस्वरूप

आपका पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई। गायत्री से बढ़कर आत्मकल्याण का और कोई मार्ग नहीं। यदि आप श्रद्धापूर्वक माता का आँचल पकड़ेंगे, तो इसका परिणाम बहुत ही कल्याणकारक होगा। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। मंत्रलेखन आप जारी रखें। जो मंत्र लिखे हैं, सो भेज दें और उस प्राँत में गायत्री प्रचार के लिए कुछ विशेष परिश्रम करें। यह एक बहुत ही उच्चकोटि का पुण्य परमार्थ होगा।

हमारा सहयोग, सद्भाव और आशीर्वाद आपके साथ है। आपका साधनाक्रम ठीक चल रहा है, उसे चालू रखें। हमारा मार्गदर्शन आपको अदृश्य रूप से बराबर प्राप्त होता रहेगा। हमारा आशीर्वाद आपके साथ है।

श्रीराम शर्मा आचार्य

गुजरात पोरबंदर के श्री. एल.आर जोशी को यह पत्र लिखा गया था। पत्र बड़ा ही सरल व सीधी सी भाषा में है। स्पष्ट लिखा है कि श्रद्धापूर्वक साधना करने से किसी की गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती। यह एक उच्चकोटि का पुण्य-परमार्थ है तथा अदृश्य रूप में उनका (परमपूज्य गुरुदेव का) सतत् मार्गदर्शन उन्हें मिलता रहेगा। किसी भी साधक के लिए इससे स्पष्ट आश्वासन और क्या हो सकता है।

आज हम जब दक्षिण भारत में गायत्री प्रचार को जोर-शोर से बढ़ा रहे हैं, तो मार्ग में आने वाले अनुरोध को देखकर लगता है कि आज से प्रायः 40-50 वर्ष पूर्व परमपूज्य गुरुदेव को कितना कुछ विरोध सहना पड़ा होगा। गायत्री साधना संबंधी अनेकानेक भ्राँतियाँ जन-जन के मन में थीं। उन्हें निताँत निर्मूल कर हमारी गुरुसत्ता ने कभी पत्रों द्वारा, कभी उद्बोधन से, कभी लेखनी से पत्रिका द्वारा इस सीमा तक झकझोरा कि वे सारे रूढ़िवादी बंधन मिटते चले गए। आज प्रायः सारे उत्तर व मध्य भारत में, उड़ीसा, गुजरात आदि क्षेत्रों में इस संबंध में काफी जागरुकता मिलती है। गायत्री मंत्र के कई प्रकार में आडियो कैसेट बनकर तैयार हैं। जिसे कभी जोर से कहने का निषेध किया जाता था, आज वह जन-जन तक ध्वनि-विस्तारक द्वारा पहुँच रहा है। वशिष्ठ और विश्वामित्र स्तर की सत्ता द्वारा ही यह कार्य होना था और हुआ है।

समय-समय पर ऐसे पत्र भी पूज्यवर के पास आते, जिनमें जिज्ञासाएँ रहतीं कि अमुक-अमुक सज्जन उनके संबंधी-मित्रों के स्वास्थ्य-जीवन व्यापार में आई बाधाएँ वे दूर करें। गायत्री साधक-महापुरुष होने के नाते उनका विश्वास दृढ़ था कि लिख देने मात्र से सब कुछ ठीक हो जाएगा। होता भी था। इधर व्यक्ति ने अपनी समस्या लिखी उसी दिन से स्वास्थ्य सुधरना आरंभ हो गया, ऐसे हमारे पास अनेकानेक पत्र हैं। इतना प्रगाढ़ विश्वास होता था, पत्रलेखक में अपनी गुरुसत्ता के प्रगति कि वह अपनी बात लिखकर निश्चित हो जाता था। कई-कई पत्रों से, जो आगे भी हम प्रस्तुत करते रहेंगे, यह जानकारी पाठकों को मिलेगी कि तब का पत्राचार मानो बेतार के तार की तरह होता था। इधर पत्र लिखा-शाम तक एक दिन पहले की तारीख में लिखा जवाब भी पोस्टकार्ड से आ गया, मानो सारी व्यवस्था अंतरिक्ष ट्राँसमिशन की गुरुसत्ता के हाथों में ही हो। बड़ा आश्चर्य होता है व हम हतप्रभ होकर रह जाते हैं कि किस उच्चस्तरीय साधना के स्तर पर इस मिशन के - विराट् गायत्री परिवार के नींव के पाए विनिर्मित कि गए हैं।

एक मात्र बानगी के बतौर यहाँ प्रस्तुत है-

बिलासपुर के रामाधार जी विश्वकर्मा को यह पत्र 17-2-64 को लिखा गया था। वे लिखते हैं कि “पत्र मिला। कल तार भी मिल गया था। यह पत्र पहुँचने तक आपको नींद आने लगी होगी और पिछले दिनों जो गड़बड़ी पैदा हो गई थी, सो दूर हो गई होगी। तार आने से पूर्व ही हमें सूचना मिल चुकी थी और उपचार आरंभ कर दिया था। आशा है कि आप अब ठीक हो गए होंगे।

माहुले जी का जीवनकाल बहुत लंबा नहीं खींचा जा सकता। थोड़ी ही रोकथाम संभव हुई है। सो आप यथासंभव जल्दी ही बच्चियों की शादी से उन्हें निवृत्त कराने का प्रयत्न करें।”

प्रस्तुत पत्र में बड़ा ही स्पष्ट है कि तार आने से पूर्व ही उपचार आरंभ हो गया था। गुरु-शिष्य संबंधों के अंतर्गत चेतना जगत् के स्तर पर संपन्न होने वाली यह एक अद्भुत प्रक्रिया है। जैसे ही पुकारा- अंतर्मन से गुहार लगाई, तुरंत समाधान हो गया। पत्र तो मानो उसकी पुष्टि हेतु पहुँचना था, हम उसके शिक्षण हेतु लिखा गया था। कबीरदास ने कहा भी तो है-”खोजी होय तो तुरतै मिलि हौ पल भर की तलाश में” (यदि तुम मुझे एक पल या एक क्षण के लिए भी चाहो तो उसी क्षण मैं तुमसे आ मिलूँगा)। इसी बात को रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- निर्जन में व्याकुल होकर प्रभु को पुकारो, वह तुम्हारी सुनेगा। वही बात प्रायः अपनी गुरुसत्ता के भक्तों के साथ भी हुआ करती थी, होती रहती थी, अभी भी होती है व आगे भी उनकी सूक्ष्मसत्ता के माध्यम से होती रहेगी।

इसी पत्र की आगे की पंक्तियों में लिखा है कि आमुक जी का जीवनकाल बहुत लंबा नहीं खींचा जा सकता। निश्चित ही गुरुदेव की अतींद्रिय स्तर की क्षमता से वह दिग्दर्शन हो रहा था कि उनकी जीवनावधि अब अल्प रह गई है। कभी भी वे शरीर छोड़ सकते हैं। फिर भी पूज्यवर लिखते हैं कि थोड़ी ही रोकथाम संभव हुई हैं। जो भी एक्सटेंशन मिला है उसे वे इन्हें कन्या ऋण से मुक्ति हेतु दिया बता रहे हैं। ऐसा ही हुआ। माहुरी जी ने कन्याओं के विवाह संपन्न किए, उसके तुरंत बाद ही उन्होंने शरीर छोड़ दिया। यह अवतारी स्तर की प्रज्ञापुरुष की चेतना ही है, जो स्पष्ट लिखकर दे देती है कि परमचेतना की व्यवस्था में गुरुसत्ता हस्तक्षेप तो कर सकती है, पर उसकी भी एक सीमा है एवं वह भी शिष्य की पात्रता-तप पर बहुत कुछ निर्भर करती है।

ऐसा ही एक घटनाक्रम स्मरण हो आता है प्रथम पत्र में वर्णित श्री शिवशंकर जी संदर्भ से जुड़ा 1972 के मार्च-अप्रैल में उनको मस्तिष्कीय रक्तस्राव के कारण कोमा की स्थिति में भरती होना पड़ा। शिवशंकर जी श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के प्रारंभ से जुड़े ट्रस्टी भी थे, एल.एल.एम प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण एक मेधावी प्राणवान् व्यक्तित्व थे। कानून की सभी पुस्तकें उन्हें कंठस्थ याद थीं। इतना सब होते हुए भी पूज्यवर के आदेशानुसार वे अपनी पुश्तैनी दुकान बशेशर नाथ एंड संस दरीबा कलाँ पुरानी दिल्ली पर ही बैठते थे। घर के एक महत्वपूर्ण सदस्य-मिशन के एक घटक के कोमा में जाते ही सभी सदमे में आ गए। तब उनके भतीजे डॉ. जितेंद्र गुप्ता शांतिकुंज में ही निवास करते थे। परमपूज्य गुरुदेव को समाचार मिला, तो उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक व जितेंद्र को दिल्ली भेजा व कहा कि चिकित्सकीय आधार पर पूरी देखभाल हो, इसका ध्यान रखें। आपका अभी समय शेष है। अभी उन्हें अपनी पुत्री का विवाह भी करना है। कुपनी से सभी मामले निपटाने हैं तथा शांतिकुंज से संबंधित सारी औपचारिकताएँ भी पूरी करनी है। वहाँ गए तो देखा स्थिति विषम है। कोमा की बड़ी गहरी स्थिति थी। तीन-चार दिन में देखा कि क्रमशः सुधार हो रहा है। चिकित्सक आश्चर्यचकित थे, परंतु असंभव संभव होता चला गया। एक डेढ़ माह में वे पूर्णतः स्वस्थ हो गए, किंतु स्मरणशक्ति पर प्रभाव पड़ा। लकवे की स्थिति से भी धीरे-धीरे मुक्ति मिली। चार माह बाद हरिद्वार पूज्यवर के पास प्रणाम हेतु आए। पूर्व में प्रति सप्ताह दोनों भाई शिवशंकर जी व हेमचंद्र जी निसमित रविवार को आकर शाम को चले जाते थे। अब इतने दिन बाद आए, तो मन भावविह्वल था। पूज्यवर ने मस्तिष्क पर हाथ रखकर साँत्वना दी। नीचे उतरकर उन्होंने दिए गए निर्देशानुसार श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के विधि-विधान सहित पुरी एक मार्गदर्शिका उस दिन लिखी। न जाने कहाँ से स्मृतिकोष जीवित होते चले गए। दिल्ली लौटे तो कंपनी/फार्म पर आया एक इनकमटैक्स नोटिस मिला, जिसमें विगत बीस वर्षों के बारे में विस्तार से पूछा गया था। वे कार्यालय पहुँचे व बिना किसी कागज-फाइल के विगत बीस वर्षों से भी पूर्व के सारे विवरण वर्ष वार नोट कराना आरंभ किया। पूरा स्टाफ देखता रहा कि एक-एक आँकड़ा मिल रहा है। कहीं कोई जरा सा भी फर्क नहीं है। चार घंटे लीला चली। कमिश्नर महोदय ने पूछा कि कोमा से गुजरने के बाद भी आप की स्मरणशक्ति इतनी प्रखर कैसे ? जवाब था गुरुसत्ता की अनुकंपा से। इस घटना के तुरंत बाद उन्होंने अपनी पुत्री संगीता के विवाह की व्यवस्था की। फर्म का कार्य विधिवत् व्यवस्थित किया। दो वर्ष का एक्सटेंशन मिला था। 1974 में पुनः उच्चरक्तचाप के कारण उन्हें दिल का दौरा पड़ा व वे सारे कार्य समाप्त कर महाप्रयाण कर गए। यह विवरण बिलकुल ऊपर वाले पत्र से मेल खाता है।

ऐसा ही एक पत्र रायपुर के सुमंत मिश्र को लिखा गया था 2/6/56 को

“आपके स्वर्गीय पिताजी के देहावसान का वृत मालूम करके लौकिक दृष्टि से दुःख हुआ। वस्तुतः तो हम और आपको उनके लिए दुःख मानने को कोई कारण नहीं। वे पूर्वजन्मों के ऋषि थे। जो तपस्या शेष रह गई थी, उसे पूर्ण करने और जो प्रारब्ध शेष था, उसे भुगतने आए थे। उद्देश्य पूरा होते ही वे चले गए। उन्हें पागल या सनकी समझना भारी भूल होगी। ऊँचे संत लोगों को अपनी ओर से विरत रखने के लिए अपने व्यवहार में कुछ ऐसा ही अंतर कर लेते हैं, जिसके कारण दूसरे लोग उनसे लिपटना छोड़कर उदास हो जाते हैं और उनकी साधना में विघ्न नहीं फैलाते।”

इस पत्र में न केवल सुमंत जी को साँत्वना दी गई है, वहाँ यह भी स्पष्टीकरण है कि उनके पिता श्री की अंतिम समय की विक्षिप्ताव्स्था को वे अन्यथा न लें। यह हम सबके लिए एक लोकशिक्षण भी है।

परमपूज्य गुरुदेव का एक पत्र और उद्धृत है, जिसमें उन्होंने छोटे भाई की मृत्यु से दुखी एक परिजन (उत्तमचंद्र जी मिश्रा, घुरसेना-वाया भाटापार जिला दुर्ग) को 6 अगस्त 1951 को पत्र लिखा। वे लिखते हैं-

“कर्मविज्ञान के नियम ऐसे ही हैं कि जब मनुष्य के साधारण मानसप्रवाह को मोड़कर किसी विशेष दिशा में फेरते हैं, तो ऐसे ही आघात लगते हैं। सूरदास, तुलसीदास, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य आदि को आपकी ही भाँति आघात लगे थे, जिससे तिलमिलाकर उनकी जीवन दृष्टि बदल गई। कौन जाने वह बच्चा आपका गुरु रहा हो और उसके आने-जाने का प्रयोजन आपकी मनोदशा पर तीव्र आघात पहुँचाकर उसकी दिशा मोड़ना रहा हो। बच्चा चला गया। काल-परसों हम आप भी उसी राह पर बिस्तर बाँधे बैठे हैं। दूसरों के लिए शोक करने के साथ-साथ हमें अपनी शोकयात्रा के लिए भी बिस्तर समेटना है।”

पत्र की भाषा स्वयं में इतनी सरल है कि किसी व्यथित संबंधी को न केवल वह मरहम पट्टी लगाती है बल्कि जीवन के संबंध में एक दृष्टि भी देती है।

पत्रों के माध्यम से कितना कुछ आध्यात्मिक मार्गदर्शन हम पाते हैं, उसके साक्षी हैं ऊपर दिए गए पूज्यवर के पत्र। किसी भी संगठन का निर्माण पारिवारिकता की जिस धुरी पर होता है उसका प्राण है, ऐसे दिल को छू जाने वाले मार्गदर्शन पत्र। ऐसी सत्ता के संगी-सहचर होने का हमें भी गौरव होना चाहिए।

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