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Magazine - Year 2000 - Version 2

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याद करें पुनः चरैवेति-चरैवेति का मूलमंत्र

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चरैवेति-चरैवेति का महामंत्र भारत देश की प्राणचेतना में समाया हुआ है। पुराकाल से इसी का अनुशलन करते हुए देश के प्रज्ञजनों ने समूची विश्ववसुधा को भारतीय ज्ञानसंपदा, अध्यात्मविद्या एवं संस्कृति के अजस्र अनुदान सौंपे हैं। पुराणों के अनुसार, ब्रह्मर्षि विश्वमित्र के पुत्र आस्ट्रेलिया चले गए और उसे नए सिरे से बाया। राजकुमार तृणाबिंदु के भी उस देश में जाने का विवरण पुराणों में मिलता है। महर्षि पुलत्स्य आस्ट्रेलिया में धर्म स्थापना के लिए गए थे-ऐसा पौराणिक कथाएं कहती हैं। शायद इसी प्राचीन संपर्क सूत्र का परिणाम है कि आस्ट्रेलिया की आदिम जातियाँ की भाषा भारतीय कोल भील एवं द्रविड़ क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं के सदृश है।

महाभारत में उद्दालक ऋषि के पाताललोक चानि कि अमेरिका जान का वर्णन है। भारत की ही मग नामक पराक्रमी जाति मंगोलिया जाकर बसी। उसने अपने वंश के नाम पर ही अपने देश का नामकरण मंगोलिया रखा। इन लोगों का एक दूसरा नाम शक था, तभी उस देश को शाकद्वीप भी कहा गया। अफ्रीका में पाए जाने वाले जुलू लोग ‘झल्ल’ वंश के क्षत्रियों की संतानें हैं। पुराणकथाएं कहती हैं कि महर्षि कण्व मिश्र गए थे। वहाँ उन्होंने अनेक जनों को सुसंस्कृत बनाया। राजा इक्ष्वाकु के पौत्र राजकुमार शक से ही शक जाति जन्मी। जो मिश्र-ग्रीक आदि देशों में जा बसी।

ई. मार्सडन, नैरिस, मैनिंग, क्लैडविल आदि विश्वप्रसिद्ध, पुरातत्ववेत्ता इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि आस्ट्रेलिया की आदिम जातियों का मूल भारत है। डॉ. मार्टिन का तो यह भी मानना है कि पूर्व में सूर्यवंशी लोग ही अमेरिका में जाकर बसे थे। ‘काँक्वेस्ट ऑफ मैक्सिको’ के लेखक पोस्कर का मानना है कि ‘साल कंकट’ नाम भारतीय ने मैक्सिको को समुन्नत किया। पेरु शब्द का संस्कृत भाषा में अर्थ सूर्य का देश है। भारतीयों के दिए इसी नाम से आज भी पेरु को जाना जाता है।

इतिहास के पृष्ठों में सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा के लंका जाने की कथा पढ़ी जा सकती है। सम्राट अशोक ने अनेकों संस्कृति प्रचारकों को भारत देश से बाहर मलाया, सीरिया, मिश्र, मैसेडोनिया, इपिरस, सिनेनिया आदि देशों में भेजा। परवर्ती समय में कनिष्क ने मध्य एशिया, चीन, जापान, तिब्बत, बर्मा, थाईलैंड एवं कंबोछिडया आदि देशों में देवसंस्कृति के संदेशवाहक भेजे। नौ बौद्ध प्रचारक मंडलों के देश-देशाँतर में जाने की कथा भी इतिहास में मिलती है। इनके अंतर्गत मज्झाँतिक, मज्झिम, महादेव, योगधम्म, महाधम्म, सोणउत्तर तथा महिंद आदि प्रचारकों ने गंधर, यूनान, अरब, मिश्र, साल्मीन, लंका, मध्य एशिया एवं पूर्वी द्वीप समूह आदि देशों में कष्टसाध्य यात्राएं करके भारतीय ज्ञान एवं संस्कृति का आलोक फैलाया। भारत से मंत्रसिद्ध नामक प्रकाँड विद्वान के खोतान पहुँचने की कथा भी इतिहास में वर्णित है। यह क्षेत्र इन दिनों तुर्किस्तान के अंतर्गत आता है।

इतिहासवेत्ता अर्नाल्ड मैनिंग की रचना ‘इंडिया इन वर्ल्ड’ के अनुसार काश्यप, मातंग और धर्मरक्षित असम होते हुए चीन गए थे। सातवीं सदी में तिब्बती मार्ग से नालंदा विश्वविद्यालय के उपाध्याय पद्मसंभव, श्रीघोष, जिनमित्र, दानशील, गोधिमित्र, दीपंकर आदि ने चीन में धर्मचक्र प्रवर्तन किया। इसके पश्चात् तिब्बती मार्ग से ही काश्मीर के राजकुमार गुणवर्मन और उज्जैन के बौद्ध भिक्षु चीन पहुँचे थे। परमार्थ जिसका एक नाम गुणरत भी था, उन्होंने उस देश की भाषा में संस्कृत एवं पाली ग्रंथों का अनुवाद संपन्न किया।

चीन में सनातन संस्कृति का धर्म बताने वाले राजकुमार गुणवर्मन असाधारण विद्वान, तपस्वी एवं विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। इन्होंने चीन में महिला भिक्षुणियों का उद्भव और संगठन या। नारी जागरण के पिछड़े क्षेत्र में उनके इस प्रयास से भारी जागृति उत्पन्न हुई। गुणवर्मन के उपराँत गुणभद्र, धर्मजालयश, धर्मरुचि, बोधिरुचि, प्रज्ञारुचि नामक प्रतिभाशाली एवं उद्भव विद्वान धर्मप्रचारक भी भारत से चीन पहुँचे। कुमारजीव के साथ अनुवाद करने में संलग्न शिष्यों में धर्मरक्ष, संघभट्ट, धर्मप्रिय, बुद्धजीव आदि कितने ही ऐसे विद्वान थे जो कुमारजीव के शरीर त्यागने के पश्चात् भी संस्कृति विस्तार के कार्य में अविरल श्रद्धा के साथ लगे रहे।

जापान में बोधिसेन भारद्वाज सन् 638 ई. में पहुँचे थे। उन्होंने ही पहले-पहल जापानी वर्णमाला को व्यवस्थित किया था। एक दूसरे धर्मप्रचारक धर्मबोधि भी जापान पहुँचे। सन् 736 ई. में बुद्धसेन नाम के एक भारतीय विद्वान अपने साथ एक अच्छी संगीत मंडली लेकर वहाँ पहुँचे। इन्होंने गीत-संगीत के माध्यम से भारतीय संस्कृति का मर्म वहाँ के निवासियों को समझाया।

वियतनाम को पहले हिंद-चीन के नाम से जाना जाता था। इतिहास बतलाता है कि समय-समय पर कौडिन्यो ने ईसा की प्रथम शताब्दी में चहाँ पहुँचे। चौथी शताब्दी में देसरे कौडिन्य के जाने का विवरण उपलब्ध होता है। इसके तीन सौ वर्ष पश्चात् एक तसरे कौडिन्या भी वहाँ गए। पांचवीं शताब्दी के शासन जयवर्मा को भी कौडिन्य नाम से संबोधित किए जाने का वर्णन मिलता है।

कंबोडिया के शासक इंद्रवर्मन, श्रेष्ठवर्मन, जयपवर्मन, रुद्रवर्मन, गुणवर्मन, भववर्मन आदि शासक एक ही वंश के थे, जो भारतीय थे। इतिहासवेत्ताओं के अनुसार यशोवर्मन के शासनकाल में सामशिव, शंकरस्वामी, विनयपंडित, जयेंद्र, फलप्रिय, योगेश्वर, सर्वज्ञमुनि, जयमहाप्रधान, केशव आदि आचार्यों का गौरवास्पद उल्लेख है। ये सभी भारतीय थे। भारतीय प्राध्यापिकाओं में जयमाला, जनपद, राजदेवी, इंद्रदेवी, जयराज देवी आदि के नाम आते हैं। इन सभी ने वहाँ के जन-जन को देवसंस्कृति के सनातन सूत्रों की शिक्षा दी। इतिहासकार पीलियो के अनुसार वहाँ शिक्षा एवं संस्कृति को समुन्नत करने का दायित्व तकरीबन एक हजार भारतीय ब्राह्मणों पर था। उनमें शिव कैवल्य, हिरण्यदास, अगस्त्य, दिवाकर, हृषिकेश, वामशिव, शिवाचार्य आदि प्रमुख थे।

अरकाना में काशीदेश के राजकुमार पहुँचे थे। सातवीं शताब्दी में नालंदा के आचार्य धमपा सुवर्णद्वीप पहुँचे थे। आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में दक्षिण भारतीय बौद्धभिक्षु बज्रवोधि व उनके शिष्य अमाघवज्र भी कुछ समय के लिए यहाँ पहुँचे थे। सातवीं शताब्दी में नालंदा के आचार्य धर्मपाल सुवर्णद्वीप पहुँचे थे। आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में दक्षिण भारतीय बौद्धभिक्षु बज्रवोधि व उनके शिष्य अमोघवज्र भी कुछ समय के लिए चहाँ पहुँचे थे। धर्मपाल तथा वज्रबोधि ने मलेशिया में भी धर्मप्रचार का कार्य बड़ी आस्था से किया। उन्होंने तपस्यापूर्ण जीवन बिताते हुए यहाँ की भाषा में प्रतिपाद्य ग्रंथों की रचनाएं भी की।

इन सभी महानुभावों ने देवसंस्कृति के प्रचार-विस्तार का दायित्व उस समय पूरा किया, जबकि यात्राएं अति कष्टकर होती थी। न तो यातायात के साधन सुलभ थे और ही दूरसंचार की आधुनिक सुविधाएं। उनके पास थी तो मानवीय संवेदनाएं। तप और विद्या के प्रति असीम अनुराग, जन-जन को देवसंस्कृति की दुर्लभ विभूतियाँ बाँटने की अदम्य लालसा। अपनी इस पूँजी के बल पर उन्होंने असाध्य को सुलभ एवं साध्य बना दिया। अपने उत्कृष्ट जीवन का उदाहरण प्रस्तुत कर मानवीय जीवन के लिए विचार एवं आदर्श की संपदा जुटाई। आधुनिक युग में विज्ञान ने साधन-सुविधाओं का अंबार लगा दिया है। कुछ ही घंटों में पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचा जा सकता है। पलक झपकते एक देश से दूसरे देश तक संदेशों का आदान-प्रदान किया जा सकता है। फिर भी संस्कृति सरिता सूखा है, मानवीय संवेदना मुरझाई हुई हैं। देवसंस्कृति की अलौकिक विभूतियाँ तो अभी भी हैं, बस वितरक नहीं है। आवश्यकता उनकी है, जो आज के युग के कौडिन्य एवं कुमारजीव बन सकें। इस पथ पर चलने के लिए यदि हम में से कुछ जन ही आगे कदम बढ़ा सके, तो फिर से संस्कृति सरिता प्रवाहित होने लगे, मानवीय संवेदना मुस्करा उठे और देश में ही नहीं समूचे विश्व में मानवीय जीवन फिर से अपना खोया हुआ सौंदर्य पा जाए। जरूरत है, तो बस चरैवेति-चरैवेति के भूले हुए महामंत्र को याद करने की।

अंबपाली का आतिथ्य स्वीकार कर, उसे भिक्षुणी बनाकर, समाजसेवा में प्रवृत्त कर जब भगवान प्रव्रज्या पर आगे बढ़े, तो आनंद ने जिज्ञासा उनके समक्ष रखी- “भगवन् ! आज तो एक पतिता को आपने तार दिया। पर जब सारा मानव समाज कुरीतियों से ग्रस्त हो, अज्ञान के दलदल में अनेकों मानव कराह रहे हों, आप अकेले कहाँ-कहाँ तक जाएंगे, किस-किस का उद्धार करेंगे।” बुद्ध हंसे। बोले- “आनंद ! इसका उत्तर भी क्या मुझे ही देना होगा। बुद्ध-धर्म संघ की शरण में आने का तात्पर्य एक व्यक्ति बुद्ध में नहीं, उसके अग्रदूत बने विवेक बुद्धि के प्रतीक अनेकों शिष्यगण है। जो आने वाले समय में विचारक्राँति की व्यापक आग सारे समाज में फैलाकर इन अवाँछनीयताओं का नाश करेंगे। बुद्ध अभी ही अवतार के रूप में नहीं आया हैं, वह भविष्य में जब भी उद्धारकों की आवश्यकता होगी, प्रज्ञा व विवेक के रूप में आएगा। तुम्हें, अर्थात् तुम सब प्रज्ञावानों को घर-घर जाकर विवेक की, नीति की, सदाशयता की शरण में जाने का शिक्षण देना है, ताकि पतन-पराभव की स्थिति से मानव समाज उबरे।”

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