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Magazine - Year 2000 - Version 2

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जीवंत मंदिर कभी नष्ट नहीं किए जा सके

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“अक्टूबर 99 में उड़ीसा में आया समुद्री तूफान इस सदी का आखिरी और सबसे बड़ा तूफान था। उड़ीसा में आए भीषण चक्रवाती तूफान के रास्ते में जो कुछ भी आया वह ध्वस्त हो गया, परंतु कोणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर उसके बावजूद ज्यों-का त्यों रहा।

सूर्य मंदिर के आसपास का क्षेत्र हालाँकि तूफान से हुई भीषण तबाही की कहानी कह रहा है। लगभग सात सौ वर्ष पुराना यह स्मारक समूचे पूर्वी भारत में अंतर्राष्ट्रीय स्वर की एकमात्र साँस्कृतिक धरोहर है। सन् 1255 में गेग वंश के शासक सम्राट नरसिंह देव द्वारा बनाया गया सूर्य मंदिर तूफान के दौरान भी खुला था और इसे कोई क्षति नहीं पहुँची है।--एक समाचार

महायोगी अरविंद जब योगसाधना में प्रवृत्त हुए और उन्हें सिद्ध संतों की कृपा मिलने लगी, तो एक प्रेरणा स्वामी रामकृष्ण परमहंस की ओर से भी आई। सूक्ष्मजगत का नियम है कि जब भी कोई निष्ठापूर्वक साधना उपासना में प्रवृत्त होता है, तो उस मार्ग पर आगे तक पहुँची विभूतियाँ सहायता और पथप्रदर्शन के लिए दौड़ी आती है। श्री अरविंद के संबंध में कहते हैं कि उनकी साधना से असंख्य मुमुक्षुओं को मार्ग मिलना था उनके योग का संदेश है कि साधक ही मुक्ति की कामना नहीं करता, मुक्त करने में उसका अपना पुरुषार्थ ही काम नहीं आता, दिव्य शक्तियाँ भी सहयोग करती हैं। मुक्त होने की तीव्र आकाँक्षा हो तो दिव्यचेतना भी उतरकर आती है और साथ ही पथप्रदर्शन करती है। श्री अरविंद की साधना जगत् हित के लिए भी थी, इसलिए कई दिव्य शक्तियाँ और मुक्त आत्माएं उनकी सहायता के लिए आती थी। श्री अरविंद जिन दिनों साधना कर रहे थे, उन दिनों रामकृष्ण परमहंस की ओर से संदेश आया, ‘मंदिर बनाओ,’ मंदिर बनाओ’।

आश्रम में चलने वाली साँध्यवार्ताओं में एक बार श्री अरविंद ने साधकों से इव अनुभव का जिक्र करते हुए कहा कि संदेश मिलने के समय उन्हें स्पष्ट नहीं हो सका था। वे समझ नहीं पाए कि परमहंस मंदिर बनाने के लिए क्यों कह रहे है ? आश्रम विकसित होने के बाद वे जा पाए कि परमहंस का आशय एक ऐसे जीवंत और जाग्रत केंद्र बनाने से था, जहाँ साधकों को आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने में अनायास ही सहायता मिले। वहाँ का वातावरण, संस्कार और गतिविधियाँ दिनचर्या इस तरह निर्धारित हों कि साधक जितना प्रयास के, उससे कई गुना ज्यादा लाभ मिले। उसकी प्रगति तीव्र गति से हो।

जिन दिनों मंदिर जाग्रत् और जीवंत केंद्र होते थे उन दिनों वे समाज की प्रमुख गतिविधियों के केंद्र होते थे। आज भी हैं। लेकिन अभी उनका महत्व पूजापाठ, आरती तक ही सीमित है। इन्हें जीवंत नहीं कहा जा सकता। जिस तरह दूसरी सार्वजनिक इमारतें होती है, मंदिर भी उन्हीं में से एक है। इतना जरूर है कि वे दूसरी इमारतों और केंद्रों की तुलना में सात्विक हैं।

जिस आर्षदृष्टि ने उनकी कल्पना की, रूपरेखा बनाई और उन्हें आकार दिया, उसकी झलक आधुनिक मंदिर में नहीं दिखाई देती। आर्षदृष्टि ही थी कि मंदिर को अपने और समाज के जीवन में शीर्ष पर रखा गया। आप पाएंगे कि किसी गाँव में हो सकता है पक्का मकान न हो, लेकिन मंदिर के रूप में एक पक्का भवन या छोटा शिवालय जरूर होगा। श्रद्धालुओं ने अपने पास जो कुछ भी मूल्यवान था, उसे मंदिर में अर्पित किया। घरों में अंधेरा रखकर भी मंदिरों में घी के दीप जलाए। फटे-पुराने वस्त्र पहनकर भी अपने इष्ट-आराध्य के विग्रह को महंगे आभूषणों से सजाया। मंदिर के पुजारियों और अधिकारियों-प्रबंधकों के लिए सुविधासंपन्न साधन जुटाए। उनके लिए सुखपूर्वक रहने के इंतजाम किए।

मंदिर किसी भी अर्थ में साधारण या भव्य किस्म के भवन नहीं है। वे भव्य से अधिक दिव्य हैं। जिन मंदिरों की दिव्यता खो गई, वे काल के थपेड़ों में नष्ट हो गए। दिव्य होने का आशय मंदिरों में जगाई गई वह ऊर्जा है, जो साधक को अपनी ओर आकर्षित करे। इस ऊर्जा को जगाने के लिए स्थापना से लेकर व्यवस्था और दिनचर्या तक विशेष उपाय किए गए। उन उपायों की शुरुआत मंदिर का स्वरूप तब करने से होती है। सामान्य भवन मामूली नींव खोदने और गारा-मिट्टी डालकर भर देने के अलावा सामान्य पूजापाठ से बनना शुरू होते हैं। वास्तुशास्त्र और कला के आधार पर उनकी डिजाइनिंग की जाती है। मंदिरों के लिए इन प्रारंभिक बातों का ध्यान तो रखा ही जाता है, विशिष्ट साधना-उपचार के अनुष्ठान भी किए जाते हैं, वे मंदिर को आरंभ से ही ऊर्जावान बनाते हैं।

मंदिरों के जीवंत-जाग्रत् होने की पहचान बताते हुए एक रहस्यदर्शी महात्मा का कहना है कि कोई मानवीय प्रयत्न और प्राकृतिक विपदा इसको नष्ट नहीं कर सकती। समुद्री तूफान के बावजूद कोणार्क का सूर्य मंदिर नष्ट नहीं होने का एक कारण यह भी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सूर्य मंदिर पूर्ण अर्थ में जीवंत जाग्रत है। स्थापना से साधना-अनुष्ठान तक वहाँ जो प्रवृत्तियाँ चलती रहीं, जो प्रयास किए गए, उनके संस्कार अवशेष रूप में मंदिर को टिकाए रहे। यदि वह पूर्ण जाग्रत् होता, तो वहाँ जाने वाले पर्यटकों को आत्मिक उत्थान की दिशा में बढ़े बिना चैन नहीं पड़ता। मंदिर किसी समय जीवंत हरा होगा। उसकी सामर्थ्य और जीवनीशक्ति के बारे में यह आँशिक प्रमाण ही है कि तूफान जिसने पूरे इलाके में प्रलय मचा दी और कोणार्क का कुछ नहीं बिगड़ा। मात्र कोणार्क ही क्यों, बहुसंख्य मंदिर-उपासनागृह निताँत सुरक्षित बने रहे।

उड़ीसा को प्रकृति ने बड़े लाड़−दुलार से सजाया है। यहाँ समुद्र अपने तट पर सीपियाँ बिखेरता है। धरती उत्तम प्रकार की प्रस्तर चट्टानों से भरी हुई है। प्रकृति की शोभा-सुषमा प्रकृति प्रेमियों का ध्यान खींचती है। पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर से करीब पैंतीस किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में सूर्य मंदिर शान से खड़ा है। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में बने इस मंदिर का रंग समय के थपेड़ों के कारण काला पड़ गया है। आधुनिक गवेशक इसे बौद्ध विहार के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह “काला पैगोड़ा” है। दूर से देखने पर यह अति विशालकाय और रहस्यमय दिखाई देता है। पास जाने पर इसकी आयोजना अति सरल दिखाई देती है। देवल अर्थात् मंदिर का वह चबूतरा, जिस पर देवप्रतिमा स्थित होती है। जगमोहन, नटमंडप, भोगमंडप; मंदिर के गर्भगृह और आसपास के स्थानों में विशेष प्रतिमाएं नहीं हैं। पूजा-अर्चा तो ठप पड़ी हुई है। फिर भी मंदिर अहसास दिलाता है कि किसी समय वह भव्य और दिव्य था।

अभी यह स्थान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की देख−रेख में है। विभाग के भुवनेश्वर कार्यालय के निदेशक एस.एल. राव ने कहा कि उन्होंने तूफान के बाद एक टीम के साथ मंदिर की प्रारंभिक जाँच की। विभिन्न रासायनिक पड़तालों से निष्कर्ष निकला कि प्राँगण में भले ही समुद्र का खारा पानी भर गया हो, मिट्टी इकट्ठी हो गई हो, मंदिर की दीवारों को कोई क्षति नहीं पहुँची। आँधी-तूफान के वेग से कुछ वृक्ष गिर गए। उनका कूड़ा-कबाड़ जमा हो गया। पुरातत्व विभाग मंदिर के क्षरण को बचाने के लिए प्राँगण की रसायनों से सफाई की योना बना रहा है। हालाँकि उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि सैकड़ों साल से मंदिर फिर भी कैसे सुरक्षित बचा रहा।

प्राकृतिक दृष्टि से मंदिर की शोभा-सुषमा बढ़ाने वाले वृक्ष-वनस्पतियाँ का भारी नुकसान चक्रवात के कारण हुआ है। लेकिन यह हानि पहले भी हो रही थी। अर्थलोभी व्यापारी और शिकारी पेड़ काट रहे थे, वहाँ पाए जाने वाले वनचरों का नाश कर रहे थे। सैकड़ों हिरणों और लुप्तप्राय प्रजाति काले मृग का निवासस्थान बालूखंड अभयारण्य पूरी तरह नष्ट हो गया है। बहुत कुछ विनाश तो पहले ही हो चुका था, रहा-सहा तूफान ने उजाड़ दिया। किसी को नहीं पता कि यहाँ रहने वाले पशु-पक्षियों का क्या हश्र हुआ होगा। समुद्र में आए ज्वारभाटे से उठी पानी की तेज लहरों के साथ बह गए होंगे। पुरी और कोणार्क के बीच से गुजरने और अभयारण्य में से होकर जाने वाला 35 किलोमीटर मार्ग भी जगह जगह पर टूट गया है।

पुरातत्व विभाग की चिंता है कि मंदिर के आसपास के पर्यावरण का क्या हुआ होगा ? वहाँ छाए रहने वाले वन और पेड़ मंदिर के लिए कवच का काम करते थे। वास्तुविद् कह देंगे कि सूर्य मंदिर का निर्माण ऐसे पत्थर से किया गया है, जो आसानी से क्षरित नहीं होता। यहाँ तक तो स्थापत्य का कमाल मान सकते हैं, लेकिन मंदिर की प्रेरणाओं और संदेशों का श्रेय स्थापना से पहले और उस समय किए गए साधना-उपचारों को ही दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मंदिर के बाहर परकोटे और परिक्रमा में रतिक्रीड़ा चित्रित करती मूर्तियां है। इस तरह की मूर्तियां और मुद्राएं कहीं और चित्रित होती, तो उन्हें देखकर मन में निश्चित रूप से कामविकार उत्पन्न होता। लेकिन कोणार्क के बाहर बनी मुद्राओं के संबंध में ऐसा नहीं है। उन्हें शांतचित्त से देखने पर गर्भगृह में पहुँचने पर साधकों को ध्यान की गहरी अनुभूति हुई है। खजुराहो, पुरी और दिलवाड़ा के मंदिरों की परिक्रमा में इस तरह का शिल्प देखकर भी लोगों को मन के विकार शाँत होने की अनुभूति हुई है। नैतिक मूल्यों को आत्यंतिक महत्व देने वाले आँदोलनों ने इन मंदिरों का विरोध भी किया है। पचास के आसपास कुछ सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने मंदिरों की दीवारों को लेप देने के लिए छुटपुट आँदोलन छेड़े थे। मंदिरों का बचाव करने वाले रहस्यदर्शी साधक आगे नहीं आए होते, तो वे मंदिर शायद नष्ट कर दिए जाते। इन पर अंकित मूर्तियां तो कम-से-कम हटा दी जाती।

कोणार्क का सूर्य मंदिर सविता देवता के पृथ्वी पर अवतरण को चित्रित करता हुआ बनाया गया है। कश्मीर का मार्तंड मंदिर और गुजरात का मोढेरा मंदिर भी सूर्य की आराधना-उपासना के लिए ही है, लेकिन कोणार्क मंदिर अपने आप में विशिष्ट है। सूर्यरथ के आकार में बने इस महालय को सात अलंकृत अश्व खींचते हुए दिखाए गए हैं। ये अश्व सूर्य की सात किरणों के प्रतीक हैं। रथान के नीचे दोनों ओर बारह पहिये बने हुए हैं। प्रत्येक पहिया दस फुट ऊँचा है। इस मंदिर को नष्ट करने के लिए बारह आक्रमण हुए और हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी। चक्रवात और समुद्री तूफान तो कई बार आए होंगे। उन सबके बीच मंदिर स्थिर रहा।

हजार साल पुराने मंदिरों में पुरी का जगन्नाथ मंदिर भी है। सन् 1030 में बने इस मंदिर को करीब नब्बे साल बाद एक बार मरम्मत की जरूरत पड़ी। उसके बाद यह काल और उन्माद के थपेड़े खाता रहा, लेकिन कुछ नहीं बिगड़ा, चौदहवीं शताब्दी में बंगाल के सामंत काला चाँद उर्फ काला पहाड़ ने पुरी मंदिर पर कई आक्रमण किए। एक बार तो उसने पुजारियों को गड्ढे खोदकर गले-गले तक मिट्टी से दबा दिया। उनके सिर जमीन से बाहर रहने दिए और उन पर घोड़े दौड़ा दिए। इन ज्यादतियों के बावजूद मंदिर की परंपरा अविच्छिन्न रही। क्या रहस्य था ? महामहोपाध्याय कविराज लिखते हैं कि मंदिर में साधना-उपासना के कारण तेजस् इतना घनीभूत था कि लाख प्रयत्न करते हुए भी कोई उसे नष्ट नहीं कर सका। जो पुजारी घोड़ों की टापों से कुचल दिए गए, वे युद्ध भी कर सकते थे। लेकिन किन्हीं गुह्य कारणों से उन्होंने आत्मोत्सर्ग का मार्ग चुना। उनके बलिदान से मंदिर युद्धभूमि में बदलने से बच गया।

सोमनाथ मंदिर में भी एक समय तक इसी तरह की प्रखरता बनी रही। ग्यारहवीं शती में महमूद गजनी ने मंदिर को लूटा। उस समय तक मंदिर की प्रखरता बनी रही। स्वामी वामदेव ने उस समय रचे गए संस्कृत काव्य ‘सोमपुलय’ की टीका में लिखा है कि दो सौ वर्षों से सोमनाथ में ‘महामृत्युँजय अनुष्ठान’ चल रहा था। महमूद गजनी के आक्रमण से तीन महीने पहले पुजारियों के अंतर्कलह से अनुष्ठान अवरुद्ध हो गया। उससे मंदिर की सुरक्षा पंक्ति शिथिल हुई और सोमनाथ की लूट संभव हो सकी। स्वामी वामदेव ने ‘महामृत्युँजय’ के अलावा ‘कालचक्र’ ‘सोम अभिषेक’ ‘शैव शृंगार’ जैसे अनुष्ठानों का भी उल्लेख किया है। इनमें कोई अनुष्ठान दो वर्ष पहले, तो कोई छह महीने पहले बद हो गए। कहते हैं कि इन अनुष्ठानों चलते मंदिर में श्रद्धालुओं ने सोमनाथ के दिव्य विग्रह के सहज ही दर्शन किए।

उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में तेजस् और प्रखरता के जीवंत रहने तक गर्भगृह के बाहर बने कुँड से शिव-पार्वती को हर-हर कहते हुए निकलते देखने के काव्यात्मक वर्णन मिलते हैं। मंदिर के तीसरे तल पर बने नाग मंदिर में श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन दिव्य सर्पों के दिखाई देने की किंवदंती भी प्रचलित है। इन उल्लेखों में तथ्यात्मक सच्चाई भले न हो, इस सत्य की ओर संकेत तो है ही कि महाकाल परिसर में किसी समय तेजस्-वर्चस् छाया रहता था। उस कारण आततायियों की आँख इस पर कभी टिक नहीं सकी। दक्षिण की लूट के वापस आते हुए महमूद गौरी यहाँ से कुछ किलोमीटर दूर कई हफ्तों आराम करता रहा। उसने मंदिर को लूटने के मनसूबे भी बाँधे, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सका। मंदिर की पौरोहित्य परंपरा से संबद्ध रहे पंडित श्रीनाथ शर्मा कहते हैं कि मंदिर की दिव्य व्यवस्था गड़बड़ाते ही क्षिप्रा भी सूख गई और परिसर में अक्सर दुर्घटनाएं घटने लगी। अब वह दिव्य आभामंडल भी वहाँ अनुभव नहीं होती।

मंदिरों का तेजस् और वर्चस् से संपन्न होने के ढेरों प्रमाण गिनाए जा सकते हैं। उनकी निष्पत्ति यही है कि देवता बनकर ही देव की आराधना की जानी चाहिए। देवस्थान वहाँ प्रतिष्ठित देवता के लोक की तरह दिव्य हो तभी साधकों का कल्याण करते हैं। यह मंदिर को जीवंत और चैतन्य देखने की अनिवार्य शर्त है।

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