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Magazine - Year 2000 - Version 2

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Language: HINDI
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संकल्प और निर्देशों से उपचार का विज्ञान

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छूकर, आशीर्वाद देकर और दूर से ही हाथ उठाकर “रोगमुक्त हो जाओ” कहने के अनेक उदाहरण पुराणों, योग और तंत्र के ग्रंथों तथा सिद्ध संतों के जीवन चरित में पड़ने को मिलते हैं। इन उल्लेखों को अतिरंजित, अंधविश्वास और कपोल-कहानियाँ बताकर चुटकियों में उड़ा दिया जाता है। निश्चित ही इस तरह के वर्णनों में कई कथा-कहानियों से ज्यादा नहीं होते, लेकिन उन कहानियों का आधार भी एक सच्चाई है। सच्चाई यह है कि मनुष्य के संकल्प और सद्भाव में बड़ी शक्ति है। ऐसी शक्ति जो लड़खड़ाते स्वास्थ्य और विचलित स्थितियों को संभाल सके। मनुष्य की सूक्ष्म ऊर्जा, जिसे “प्राणऊर्जा” भी कह सकते हैं, इतनी समर्थ है कि उसके सहारे न केवल अपने आपको रोगमुक्त किया जाता है, बल्कि दूसरों की रोग-बीमारियां भी मिटाई जा सकती है। प्राणशक्ति से उपचार को अब चमत्कार की तरह नहीं देखा जाता। उसे बाकायदा विज्ञान का दरजा मिला हुआ है। यह ऊर्जा किस तरह काम करती है। यह जानने से पहले कुछ अनुभवों को टटोलें।

क्वेजानसिटी (जापान) के अड़सठ वर्षीय टियोफिलो पी. वेलाँस्को ने अपने चिकित्सक को लिखा है, दस वर्ष पहले मेरे हाथ काँपते थे, पीठ, घुटने और कमर के नीचे सभी अंग बेहद दर्द करते थे। पैर कमजोर हो गए थे और माँसपेशियों में खिंचाव आ गया था। हाथ बुरी तरह काँपते थे। किसी दूसरे व्यक्ति की मदद के बिना मैं कुछ भी खा-पी नहीं सकता था। संयोग से मुझे प्राणशक्ति से उपचार के बारे में मालूम हुआ और में इस विद्या के जानकार से मिलने लगा। उन्होंने सप्ताह में दो बार मेरा इलाज शुरू किया। जब मेरा उपचार किया जाता था, तो मुझे मेरा शरीर हलका और माँसपेशियाँ ढीली होती अनुभव होती थी। ऐसा प्रतीत होता कि कोई रहस्यमय शक्ति मुझे ठीक कर रही है। छह महीने तक उपचार लेने के बाद मैं पूरी तरह ठीक हो गया।

फिलिपींस विश्वविद्यालय में अंगरेजी, स्पैनिश और लैटिन के प्रोफेसर कार्लोस ओजेडा आरियस के अनुभव भी गौरतलब है। उन्होंने लिख है, जब मैं अस्पताल पहुँचा तो मेरी हालत बहुत नाजुक थी, मेरा पूरा चेहरा सूजा हुआ था और मैं दर्द से छटपटा रहा था। तीन दिन पहले मैंने दांतों के डॉक्टरों से ऊपरी कैनाइन दाँतों की मरम्मत कराई थी। डॉक्टर ने पहले सुन्न करने का इंजेक्शन दिया और फिर खून निकलने तक दाँतों में छेद किया। बाद में पता चला कि उस डॉक्टर ने दाँत की जड़ से आधी दूर तक छेद कर दिया था। कुछ घंटों तक आराम रहा। बाद में दर्द अचानक बढ़ने लगा। चेहरा सूजने लगा। इतना सूज गया कि आंखें ढंकने लगी और सूजा हुआ हिस्सा उन पर इतना छा गया कि ठीक से दिखाई देना भी बंद हो गया। सबसे ज्यादा कष्ट दर्द से हो रहा था। पाँच दिन और रात तक अत्यधिक दर्द और बुखार सहने के बाद मुझे लगा कि अब बचूंगा नहीं। मैंने अपनी वसीयत तैयार की। अपने दफन किए जाने की जगह और करने के बाद मेरी वस्तुओं का क्या किया जाए, यह सब लिखा। प्राणिक हीलर मास्टर चो को मेरे दोस्तों से मेरी तकलीफ के बारे में पता चला। वे उपचार के लिए मेरे पास आए और कुछ देर तक चेहरे के पास अपना हाथ घुमाया। उनके हाथ घुमाने से दर्द में कुछ राहत मिली। वह धीरे-धीरे कम होने लगा। उन्होंने मुझे भरोसा बंधाया कि मैं जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा। बद में पता चला कि प्रथम उपचार के समय उन्होंने दाँतों की जड़ों में बन रहे मवाद को दिमाग में जाने से रोक दिया था। बाकी समस्याएं धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी।

लखनऊ के एक प्रसिद्ध चिकित्सक परिवार से संबद्ध नीलिमा थामस को आठ वर्ष पुराना सिरदर्द था। महीने में कम से कम तीन बार इतना तेज दौरा पड़ता कि बिस्तर पकड़ लेना पड़ता था। चार-पाँच दिन आराम किए बिना चैन नहीं पड़ता था। नीलिमा ने कितने ही चिकित्सकों और विशेषज्ञों से परामर्श किया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। प्राणिक चिकित्सा के जानकार अब्राहम विजोलिया से संपर्क हुआ। उसने योगशरीर में मान्यचक्रों का उपचार शुरू किया। सप्ताह में दो बार प्राणिक स्पर्श दिया और तीसरे सप्ताह से ही लाभ होने लगा। अब नीलिमा पूरी तरह ठीक है।

जटिल और बेहद कष्ट देने वाले रोगों का इलाज करते करते रोगी जब थक जाता है, तो गुह्य चिकित्साविधियों का सहारा लेने लगता है। औषध उपचार भी चलते रहते हैं और आध्यात्मिक चिकित्सा भी। प्रचलित चिकित्साविधियों में झाड़-फूँक, टोने-टोटके और ग्रहों या देवी-देवताओं के निमित्त किए जाने वाले दान पारंपरिक क्रम भी सम्मिलित हैं। इन विधियों से कई लोगों को लाभ होता है। मनोविज्ञानियों के अनुसार रोग में कोई लाभ नहीं होता। व्यक्ति अपने आपको भुलावा देने लगता है कि वह ठीक है और यह भ्रम उसे कुछ समय तक दौड़ता रहता है। रोग जब बेकाबू हो जाता है, तो वह फिर विलाप करने लगता है, शरीर चिकित्सा का सहारा ढूंढ़ता है ओर पहले से ज्यादा छटपटाता, दौड़-धूप करता है।

आस्था चिकित्सा की तमाम विधियों से होने वाले लाभ को मानसिक संभ्रम की संज्ञा देने वाले चिकित्सक भी प्राणिक हीलिंग के परिणामों को देखकर चकित है। ऐसे कई केस हैं, जिनके बारे में किसी भी तरह सिद्ध नहीं किया जा सका कि वे किसी संभ्रम के शिकार हुए हैं। रोग के लक्षणों को जिस तेजी और असरदार ढंग से गायब होते देखा गया है, उन्हें किसी भी परीक्षण या विश्लेषण से झुठलाया नहीं जा सका।

प्राणिक हीलिंग अथवा प्राणशक्ति से उपचार से गुजरते हुए प्रत्यक्ष रूप में एक ही प्रक्रिया संपन्न होती दिखाई देती है। रोगी बैठा अथवा लेटा हुआ होता है। प्राण चिकित्सक उससे कुछ दूरी पर बैठता है और वह हथेलियों से कुछ मुद्राएं बनाकर हाथ को खास ढंग से लहराता रहता है। लहराने की प्रक्रिया बहुत कुछ ऐसी दिखाई देती है, जैसे कुछ समेटा, पोंछा और पास ही रखे नमक के पानी में फेंका जा रहा हो। चिकित्सक न तो रोगी के शरीर का स्पर्श करता है और न ही उसे कोई खाने के लिए देता है। ‘प्राणिक हीलिंग’ अथवा प्राणशक्ति उपचार कोई नई चिकित्साविधि नहीं है। ऋषि मुनियों और सिद्ध संतों के वरदानों आशीर्वादों के रूप में यह हजारों साल से भारत में प्रचलित रही है। उन घटनाओं को पढ़ते समय प्रतीत होता है कि आशीर्वाद-वरदान की सामर्थ्य किसी दैवी कृपा के कारण आती है। गहन अर्थों में यह सामर्थ्य ईश्वरीय अनुग्रह तो है ही। प्राणिक हीलिंग के जनक अथवा संयोजक चे कोक सुई ने सिर्फ इतना ही का है कि उस अनुग्रह को अर्जित करने लायक उपाय ढूंढ़़ दिए हैं। उन उपायों का सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति दूसरों के शारीरिक मानसिक कष्टों का निवारण कर सकता है। वह अपना उपचार स्वयं भी कर सकता है।

फिलिपींस में खोजी या व्यवस्थित की गई यह चिकित्सा विधि ‘रेकी’ से भिन्न है। रेगी में चिकित्सक रोगी के पीड़ित अंगों का स्पर्श करते हुए उसे रोगमुक्त होने का निर्देश देता है। ‘प्राणिक’ में रोगी का स्पर्श नहीं किया जाता । सामने अथवा थोड़ी दूर बैठकर ही आवश्यक निर्देश दिए जाते हैं। ये निर्देश बोलकर नहीं केवल संकल्प द्वारा ही दिए जाते हैं। सामने या पास बैठना भी अनिवार्य नहीं है। रोगी दूर हो, तो चिकित्सक उसका ध्यान करते हुए भी संकेत भेज सकता है और देखा गया है कि उस स्थिति में भी पूरा आराम मिलता है।

‘प्राणिक हीलिंग’ अथवा ‘प्राणशक्ति उपचार’ है क्या ? इसमें प्राण नामक जिस तत्व का उपयोग किया जाता है वह क्या है? उपचार सिद्धि कैसे काम करती है ? इन प्रश्नों के उत्तर चे कोक सुई ने उदाहरणों और प्रमाणों से दिए हैं। प्राणशक्ति से संबंध में योग और अध्यात्म के विद्यार्थियों को विशेष कुछ बताना आवश्यक नहीं है। प्रायः सभी जानते हैं कि शारीरिक बल और मानसिक शक्ति से भी सूक्ष्म एक ऊर्जा है, जो मानवी काया में विद्यमान रहती है। मनुष्य के अलावा यह ऊर्जा दूसरे प्राणियों, पेड़-पौधों और जड़ दिखाई देने वाले पदार्थों में भी रहती है। लेकिन वहाँ इसका स्वरूप धूमिल और लुँज-पुँज किस्म का होता है। मनुष्य ही ऐसी विधियाँ खोज पाया है, जिसमें प्राणऊर्जा का संवर्द्धन किया जा सकता है, उसे व्यवस्थित बनाया जा सकता है।

चो कोक सुई जिन्हें ‘प्राणिक हीलर मास्टर चो’ के नाम से पुकारते हैं, का कहना है कि प्राणऊर्जा का विकास और उपयोग उनकी मौलिक खोज नहीं है। भारत में लोग हजारों साल से इसे जानते हैं। भारत के हर गाँव-कस्बों में इस विद्या के दो-तीन जानकार आसानी से मिल जाते हैं। यह बात अलग है कि उनकी तनिक प्राणिक हीलिंग से अलग और पारंपरिक किस्म की होती है।

भारत के अलावा ग्रीक, चीन, मिश्र और कई एशियाई देशों में लोग प्राणऊर्जा से परिचित हैं। मास्टर चो ऊर्जा के बारे में लिखते हैं-इसे भारत में ‘प्राण’, जापान में ‘की’, इटली में ‘न्यू या’, पालिनेशियई ‘मन’ और यहूदी लोग ‘रूह’ कह सकते हैं। कम पढ़े लिखे सामान्य लोग इसे साँस के रूप में भी जानते हैं। साँस का मतलब नथुनों से फेफड़ों में भरी और छोड़ी जाने वाली हवा है। विश्वव्यापी प्राणतत्व को भी नथुनों से ग्रहण किया जाता है, लेकिन वह साँस के जरिए भीतर-बाहर आती-जाती हवा नहीं है। प्राण को ग्रहण और धारण करने के लिए योग ग्रंथों में उपदिष्ट ‘प्राणायाम’ से साधक भलीभाँति परिचित है।

मास्टर चो के अनुसार, प्राणशक्ति अर्जित करने के तीन प्रमुख स्त्रोत हैं। एक सूर्य-इस स्त्रोत से धूप में खड़े होकर कुछ विशिष्ट क्रियाओं द्वारा सूर्य से बहती रहने वाली प्राण ऊर्जा को ग्रहण किया जाता है। उन क्रियाओं को नहीं करते हुए भी केवल धूप में खड़े रहने से भी प्राण ऊर्जा मिलती है। लेकिन उसका स्तर और स्वरूप विरल किस्म का होता है।

वायु प्राण शक्ति अर्जित करने का दूसरा प्रमुख उपाय है। मास्टर चो इसके लिए लयबद्ध साँस लेने और ऊर्जा केंद्रों को खुला रखकर इस स्त्रोत का लाभ उठाने का महत्व बताते हैं। ऊर्जा केंद्र शरीर के चारों ओर घेरे रहने वाली आभा में होते हैं। इन केंद्रों को ‘चक्र’ कहा गया है। योगविद्या में इन्हें शरीर के निचले हिस्से रीड़ की हड्डी के आखिरी छोर से आरंभ कर सिर के ठीक मध्य में शिखास्थल के पास तक स्थित माना गया है। अलग-अलग उल्लेखों में इन चक्रों की संख्या छह, सात, आठ, बारह, सोलह और चौबीस तक बताई गई है। प्राच्य रूप से इनकी संख्या छह अथवा सात ही है।

मास्टर चो के अनुसार, भूमि भी प्राणशक्ति का भंडार है। उस भंडार से ऊर्जा तलुवों के जरिए शरीर में प्रवेश करती रहती है। उल्लेखनीय है कि ये तीनों स्त्रोत केवल मनुष्य को ही प्राणशक्ति नहीं सौंपते, बल्कि दूसरे प्राणी और पेड़ पौधे भी उनसे लाभान्वित होते हैं। प्राण ऊर्जा के बिना जीवनचेतना का कहीं अस्तित्व ही नहीं है। बहरहाल मनुष्येत्तर प्राणी इस ऊर्जा का सीमित अंश ही उपयोग कर पाते हैं। संचित हो गई अतिरिक्त प्राण ऊर्जा को वे छोड़ते रहते हैं। थके या बीमार व्यक्ति को पेड़ के नीचे बैठने या लेटने से आराम मिलता है, तो उसका कारण पेड़ से झरती रहने वाली प्राण ऊर्जा ही है। मास्टर चो ने कुछ विधियाँ और प्रयोगों से यह सिद्ध भी किया है कि बीमार व्यक्ति किसी पेड़ के नीचे जाकर सहायता की प्रार्थना करे, तो उसे तुरंत लाभ होता है। इस प्रक्रिया को पेड़ द्वारा उत्तर देना या अनुरोध स्वीकार करना भी कह सकते हैं।

प्राण ऊर्जा को अधिक स्पष्ट ढंग से व्यक्त करने के लिए मास्टर चो कहते हैं कि इसे प्रारंभिक तौर पर इच्छा-शक्ति के रूप में अनुभव किया जा सकता है। जब आप किसी काम को करने की ठान लेते हैं, तो इच्छाशक्ति जाग्रत होती है। बिजली से चलने वाले किसी भी उपकरण में स्विच ऑन करते ही जैसे करंट प्रवाहित हो जाता है, उसी तरह इच्छा या संकल्प उठते ही प्राणशक्ति प्रवाहित होने लगती है।

प्राणिक हीलर संकल्प द्वारा जरूरतमंद व्यक्ति में यही ऊर्जा प्रक्षेपित करता है। मास्टर चो के अनुसार, जिसके पास यह शक्ति विशेष रूप से होती है, वे अनायास ही दूसरे लोगों तक इसका प्रक्षेपण करते रहते हैं। जिन लोगों के पास पहुँचकर अथवा बातचीत से ही आपको ताजगी और स्फूर्ति का अनुभव होने लगे, उनके बारे में मानना चाहिए कि वे प्राणशक्ति का विशेष भंडार लिए हुए हैं। यह अनुभव भी कई बार होता है कि कुछ लोगों के पास बैठकर बिना कारण ही थकान व घुटन महसूस होने लगती है। जिन लोगों के पास बैठकर ऐसा अनुभव होता है, वे प्राणिक दृष्टि से दरिद्र और चोर किस्म के लोग होते हैं। वे अपने आसपास के लोगों से प्राण ऊर्जा खींचते रहते हैं।

प्राणिक हीलर को आरंभ में ही सावधान कर दिया जाता है कि वे सजग-सावधान रहें। उनके पास प्राणशक्ति का संचय कोश होता है। सावधान नहीं होने पर जेबकतरे और चोर जैसे जेब में रखे हुए पैसे तथा पास में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते हैं। उसी तरह प्राण ऊर्जा का अपहरण भी हो सकता है। प्राणिक हीलर अपने आभा शरीर को कुछ क्रियाओं द्वारा इस तरह संभालकर रखता है, जिसे ताला लगाने या बंद करने के रूप में समझा जा सकता है। प्राणचिकित्सा के मर्मज्ञ इस प्रक्रिया को ‘एनर्जी सील’ करना कहते हैं। मास्टर चो की सलाह है कि सामान्य व्यक्तियों को भी अपना संगी-साथी चुनते समय इस तरह का ध्यान रखना चाहिए कि प्राण ऊर्जा अनजाने में ही बहती न रहे।

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