• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • समग्रता का ईश्वरीय बोध
    • सर्वांगपूर्ण प्रगति के लिए जरूरी कुछ ‘विटामिन’
    • वास्तविक उन्नति होना असंभव (kahani)
    • जीवन चेतना की धुरी - प्राणविद्या
    • Quotation
    • नई सदी की अपेक्षा-विज्ञान भस्मासुर न बने
    • Quotation
    • जीवंत मंदिर कभी नष्ट नहीं किए जा सके
    • Quotation
    • मिला निर्वाण का पथ
    • सामान्य जीवन में तंत्रविद्या की झलक
    • कुछ बात है कि हस्ती मिटी नहीं हमारी
    • Quotation
    • संकल्प और निर्देशों से उपचार का विज्ञान
    • Quotation
    • याद करें पुनः चरैवेति-चरैवेति का मूलमंत्र
    • समग्र स्वास्थ्य का वरदान-आयुर्वेद का विज्ञान
    • दैवी अनुदान अजस्र मात्रा में (kahani)
    • संवेदना जगी तो आँदोलन जन्मा
    • दुःखी होने की क्या आवश्यकता (kahani)
    • मृत्यु का भय खोलता है सत्य का द्वार
    • संवत्सर अर्थात् नियति से सामंजस्य
    • VigyapanSuchana
    • बौद्धधर्म के विस्तार में अभूतपूर्व (kahani)
    • निद्रा : हमारा पोषण करने वाली माता
    • जीवनक्रम ही अस्त-व्यस्त (kahani)
    • नवरात्रि साधना के अनुबंध-अनुशासन
    • लोकसेवी का आचरण और व्यवहार कैसा हो
    • आत्मबल संवर्द्धन हेतु श्रेष्ठतम अवसर
    • तपकर कुँदन बनने की प्रक्रिया - परमपूज्य गुरुजी की अमृतवाणी
    • कर्म किए बिना कोई रह कैसे सकता है।
    • जादुई स्पर्शभरी थी उनकी लेखनी
    • Quotation
    • अपनों से अपनी बात - महापूर्णाहुति की यही अवधि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण
    • VigyapanSuchana
    • हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ?
    • हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ? (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • समग्रता का ईश्वरीय बोध
    • सर्वांगपूर्ण प्रगति के लिए जरूरी कुछ ‘विटामिन’
    • वास्तविक उन्नति होना असंभव (kahani)
    • जीवन चेतना की धुरी - प्राणविद्या
    • Quotation
    • नई सदी की अपेक्षा-विज्ञान भस्मासुर न बने
    • Quotation
    • जीवंत मंदिर कभी नष्ट नहीं किए जा सके
    • Quotation
    • मिला निर्वाण का पथ
    • सामान्य जीवन में तंत्रविद्या की झलक
    • कुछ बात है कि हस्ती मिटी नहीं हमारी
    • Quotation
    • संकल्प और निर्देशों से उपचार का विज्ञान
    • Quotation
    • याद करें पुनः चरैवेति-चरैवेति का मूलमंत्र
    • समग्र स्वास्थ्य का वरदान-आयुर्वेद का विज्ञान
    • दैवी अनुदान अजस्र मात्रा में (kahani)
    • संवेदना जगी तो आँदोलन जन्मा
    • दुःखी होने की क्या आवश्यकता (kahani)
    • मृत्यु का भय खोलता है सत्य का द्वार
    • संवत्सर अर्थात् नियति से सामंजस्य
    • VigyapanSuchana
    • बौद्धधर्म के विस्तार में अभूतपूर्व (kahani)
    • निद्रा : हमारा पोषण करने वाली माता
    • जीवनक्रम ही अस्त-व्यस्त (kahani)
    • नवरात्रि साधना के अनुबंध-अनुशासन
    • लोकसेवी का आचरण और व्यवहार कैसा हो
    • आत्मबल संवर्द्धन हेतु श्रेष्ठतम अवसर
    • तपकर कुँदन बनने की प्रक्रिया - परमपूज्य गुरुजी की अमृतवाणी
    • कर्म किए बिना कोई रह कैसे सकता है।
    • जादुई स्पर्शभरी थी उनकी लेखनी
    • Quotation
    • अपनों से अपनी बात - महापूर्णाहुति की यही अवधि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण
    • VigyapanSuchana
    • हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ?
    • हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ? (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 2000 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


सर्वांगपूर्ण प्रगति के लिए जरूरी कुछ ‘विटामिन’

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 1 3 Last
हर व्यक्ति के सपनों का संसार सुख-शाँति एवं प्रगति-आनंद के ताने-बाने से बुना होता है और सभी इस दिशा में अपनी ओर से भरसक प्रयास भी करते रहते हैं। परिणामस्वरूप पुरुषार्थ के अनुरूप धन, नाम, यश, पद-प्रतिष्ठा आदि सब कुछ मिलते जाते हैं, किन्तु इस कल्पित स्वर्ग के बावजूद न जाने क्यों जीवन मानसिक यंत्रणाओं से भरे यातनागृह का रूप लेने लगता है। बाहरी चमक-दमक के पीछे आँतरिक अशाँति, उद्विग्नता एवं हताशा-निराशा के बादल उमड़-घुमड़ रहे होते हैं।

‘हाऊ टु केट व्हाट यू वाँट एंड व्हाट यू हैव’ के लेखक सुविख्यात मनीषी जॉन ग्रे ने इस विडंबना पर बड़ी मोहक टिप्पणी की है। उनका कहना है कि बिना आँतरिक सफलता के बाहरी सफलता, स्थिति को और विपन्न बना देती है। जिसमें असंतोष, उद्विग्नता एवं परेशानी बढ़ती जाती है। जब सारा ध्यान बाहर केंद्रित होता है, तो हम तीव्रता से आगे बढ़ते हैं, किन्तु हमारा आँतरिक पतन भी उतनी ही तीव्रता से होने लगता है। अतः बाह्य इच्छा पर केंद्रित होने से पूर्व हमें स्वयं के प्रति सच्चा बनना होगा व प्रसन्नता की खोज पहले भीतर करनी होगी। बाह्य उपलब्धियां सुख-शाँति का सृजन तभी करती हैं, जब ये तत्व अंदर भी विद्यमान हों। सच्ची इच्छा और अपने उत्कट प्रयास से कोई भी इन्हें अर्जित कर सकता है और यह हर व्यक्ति की पहुँच में है।

इसे पाने की विधि को वे चार चरणों में स्पष्ट करते हैं। इनमें से सर्वप्रथम है-दृष्टिकोण की स्पष्टता, इसके अंतर्गत सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि हम कहाँ खड़े हैं ? अर्थात् अंतः बाह्य संतुलन के लिए हमें क्या करना है ? क्योंकि यदि दिशा सही न हो तो किसी भी तरह के प्रयास प्रतिकूल परिणाम ही उत्पन्न करेंगे। मन, भाव व इंद्रियों के साथ आत्मा की इच्छा के अनुरूप कार्य करने पर अंतः बाह्य सफलताओं का मार्ग प्रशस्त होता है।

इसके दूसरे चरण में हमें स्वयं को जानने के साथ स्वयं के प्रति सच्चा बनना भी होगा। बाहरी सफलता पर धन केंद्रित करने से पूर्व आँतरिक प्रसन्नता को खोजना होगा। इसके लिए मनीषी जॉन ग्रे दस प्रकार के प्रेम संबलों की समझ को अनिवार्य बताते हैं। इन्हें वे आत्मा का पोषण करने वाले विटामिनों की संज्ञा देते हैं। इनमें से किसके पास किस तरह के विटामिनों का अभाव है और वे उन्हें कैसे पा सकते हैं ? इस समझ के साथ ही आँतरिक सफलता का अनुभव शुरू होता है।

इनमें से सबसे पहला है-प्रभु प्रेम का संबल, इसके अभाव में जीवन घोर संघर्ष बन जाता है। जिसमें प्रायः हम थक-हार जाते हैं, क्योंकि हम सोचते हैं कि सब कुछ हमें स्वयं ही करना हैं और हमारी छोटी-सी सामर्थ्य सदा ही हमें आशंकाओं-निराशाओं से घेरे रहती है। नित्य ध्यान-उपासना के क्षणों में हम प्रभु से प्रेमसंबंध स्थापित कर इस संबल को पा सकते हैं।

जॉन ग्रे की भाषा में इस विटामिन-1 के बाद विटामिन-2 की आवश्यकता होती है। विटामिन-2 माँ-बाप यानि के अभिभावकों का प्रेम संबल है। इसके बिना जीवन असुरक्षा, अपर्याप्तता एवं हीनता के भाव से ग्रस्त रहता है। भावसंतुलन गहरे तनाव की स्थिति पैदा कर देता है। कुशल मनःचिकित्सक बहुत कुछ अपना बेशर्त प्रेम देकर इस कमी को पूरा कर सकते हैं। वैसे प्रभुप्रेम इसकी पूर्ति का एक निरापद तरीका है। विटामिन-3 जिन-परिजनों का प्रेम संबल है, इसके अभाव में जीवन अति गंभीर हो जाता है। दोस्त-मित्रों से जीवन हलका-फुलका हो जाता है, साथ ही स्वयं को अपने वास्तविक रूप में स्वीकार करने में भी मदद मिलती है।

विटामिन-4 समकक्ष जनों का प्रेम संबल है। इसकी पूर्ति हम अपनी रुचि की किसी सामूहिक गतिविधि, खेल की टीम या क्लब आदि में शामिल होकर पूरी कर सकते हैं। विटामिन-5 स्व प्रेम का संबल है। यह विशुद्ध रूप से स्वयं से प्रेम करना है। हम जैसे भी हैं अच्छे-बुरे, उसे उसी रूप में स्वीकार करना और अपने भाग्यनिर्माता के रूप में दुर्बल पक्ष को सुधारने व अच्छे पक्ष को उभारने के लिए नित्य कुछ समय निकालना। जिसमें आत्मनिरीक्षण क्षरा अपनी सर्वांगीण प्रगति का ताना-बाना बुना जा सके। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि जब तक स्वयं से प्रेम न करेंगे, तब तक कोई अन्य भी हमसे प्रेम न करेगा। अतः सबसे पहले हमें स्वयं से प्रेम करना होगा।

जॉन ग्रे के अनुसार, इन पाँच विटामिनों के मिलते ही आँतरिक सफलता का मार्ग खुलने लगता है और अधिकाँश समस्याएं हल होना शुरू हो जाती है। इनके अलावा पाँच विटामिन और हैं, जो हमारे व्यक्तित्व को सुविकसित करते हैं। इनमें से विटामिन-6 है आत्मीय जीवन सहचर का प्रेम संबल, इसमें परस्पर प्रेम का आदान-प्रदान होने से भावनात्मक संतुष्टि मिलती है। विटामिन-7 यह बच्चों या आश्रितों पर बेशर्त प्रेम है। यदि बच्चे न हाँ तो पालतू पशु या पेड़ पौधों पर यह प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह का बेशर्त प्रेम करने से आत्मा सबल हो जाती है।

विटामिन-8 अपने समुदाय-परिवेश को सुँदर-सुरम्य बनाने में अपना सहयोग देना है। यह जीवन में मिले उपहारों को बाँटने की प्रक्रिया है। विटामिन-9 समूचे समाज और विश्वमानव का प्रेम संबल। यह स्वयं के असीम आत्मविस्तार की प्रक्रिया है। इन सभी प्रेम संबलों की प्रक्रिया में जब अनुभवों की पूँजी बढ़ी-चढ़ी होती है, तो स्वयं की अंतःप्रज्ञा भी बढ़ी-चढ़ी होती है। लोग भी अधिकाधिक विश्वास करते हैं। तब विश्वमानव तक सेवा का विस्तार व्यक्तित्व के नूतन आयाम खोलता है। ऐसे में व्यक्ति अधिक आयु के बावजूद ज्यादा जीवंत एवं युवा महसूस करता है। इसके बाद विटामिन-10 की बारी आती है। जॉन ग्रे के अनुसार, उपर्युक्त प्रेम संबलों के पोषण के बाद जीवन का पुष्प खिल जाता है, प्रेम छलकने लगता है व पूर्ण समर्पण की स्थिति आती है और व्यक्ति प्रभु का एक यंत्र बन जाता है। तब वह जो इच्छा करता है, वह प्रभु की ही इच्छा होती है।

मनीषी जॉन ग्रे का आंकलन है कि इन प्रेम विटामिनों के सहारे हम आत्मा के संपर्क में आते हैं व आँतरिक सफलता को पाते हैं। सच्ची इच्छा उद्दीप्त होती है और हम बिना अपनी आँतरिक शाँति को खोए इच्छित वस्तु को पाना शुरू करते हैं। जब अंतःप्रज्ञा से संपर्क होता है, तब अतिवाद तक जाने की संभावना भी नहीं रहती। यहाँ श्रम से अधिक विश्वास साथ देता है। यहाँ अपनी सीमा से अतिक्रमण का बोध नकारात्मक भावों के उठने से हो जाता है। और हम उस कार्य को छोड़कर प्रभु की ओर मुड़ जाते हैं, क्योंकि अब प्रभु ही हमारे सब कुछ होता है। ग्रे के अनुसार, अब तो बस कार चलाने के लिए स्टेयरिंग पर हाथ रखकर उसे संभालना होता है, न कि गाड़ी को धक्का लगाना, क्योंकि वह तो इंजन स्वयं कर लेता है। इसी तरह परमेश्वर की ओर मुड़ने से जीवनयात्रा अधिक सरल हो जाती है।

हम जो वास्तव में चाहते हैं, वस्तुतः उसे जानना इतना आसान नहीं है। इसमें हमारे कुछ नकारात्मक भाव प्रबल रूप से आड़े आते हैं। जॉन ग्रे ने इस तरह के पथ अवरोधक 121 तरह के भावों का उल्लेख किया है।

इनमें से सर्वप्रथम-1. परनिंदा एवं क्रोध। दूसरों को भला-बुरा कहने व नुकसान पहुँचाने के भाव से हमारे जीवन का नियंत्रण दूसरे लोगों के हाथों में चला जाता है। अपनी दुर्दशा के लिए दूसरों को दोष देने की वृत्ति से हम जितना मुक्त होते हैं व क्षमाभाव को धारण करते हैं, हमारी रचना शक्ति उतनी ही बढ़ती है व प्रेम की कुँठित शक्ति उतनी ही मुक्त होती है।

2. निराशा व अवसाद। यह प्रायः तब अनुभव होता है, जब यह विचार सिर पर चढ़ा रहता है कि मनचाही वस्तु या लक्ष्य को पाने का एक ही तरीका है, जबकि उसके कई विकल्प उपलब्ध होते हैं। दस प्रेम संबलों की समझ हमें इनका दिग्दर्शन करवाती है। दूसरा जब तक हमें जीवन में जो मिला है, उसके प्रति अपना हृदय खुला नहीं रखते, तब तक हम अपने उज्ज्वल भविष्य का अनुमान नहीं लगा सकते।

3. संशयजन्य उद्विग्नता। भूतकाल की कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ ही वर्तमान में उद्विग्नता का कारण बनती हैं। इनका परिष्कार आवश्यक है।

4. नकारात्मक भावों को सही ठहराना। जब हम परिस्थिति को बदलने की अपनी नैसर्गिक क्षमता पर विश्वास रखते हैं, तभी नकारात्मक भावों को उचित सिद्ध करते हैं, किन्तु इससे मुक्त हुए बिना समस्या हल नहीं होती। नकारात्मक भावों का उदात्तीकरण मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। यह विश्वास असहाय एवं शक्तिहीन अवस्था में भी समाधान यानि कि सकारात्मक परिणामों की आशा दिलाता है।

5. कटाक्ष, विद्रोह का भाव। दूसरों के प्रति व्यक्त यह भाव गहराई में स्वयं के प्रति होता है। दूसरों में हम वह देख रहे होते हैं, जो हमें स्वयं में पसंद नहीं। हालाँकि दूसरों से असंतोष बहुत गलत नहीं है, किन्तु कटुता-तिक्तता हमें हृदय के प्रेम से काट देती है। हम दूसरे की अद्वितीयता को नकारते हैं, उसके प्रतिकूल व्यवहार से अधीर एवं कुँठित हो जाते हैं।

6. अनिर्णय एवं किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति। इसमें हम तब उलझते हैं जब दिशानिर्धारक आँतरिक क्षमता से विलग हो जाते हैं। इससे उबरने के लिए हमें पहले की असफलताओं से सबक लेते हुए जीवनलक्ष्य के प्रति स्पष्ट दृष्टि रखनी होगी।

7. दीर्घसूत्रता। इसका तात्पर्य है-जीवन में जो कर सकते हैं, उसे न करना। ऐसी स्थिति में हमारी इच्छाशक्ति कभी पवित्र एवं सशक्त नहीं होती और हम आधा-अधूरा जीवन जीने के लिए विवश होते हैं।

8 पूर्णतावादी होना। यह अतिवाद है, जीवन अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रवाहमान है। जब हम इस तथ्य से शून्य होते हैं, तो पूर्णतावादी बन जाते हैं। ग्रे का कहना है कि बाह्य जीवन में पूर्णता का आग्रह रखना स्वस्थ चाह नहीं है। इसकी पूर्ति हम आँतरिक जीवन में प्रभु से जुड़कर कर सकते हैं।

9. क्षोभ एवं द्वेश। ऐसी स्थिति तब बनती है जब हम भूतकाल में जी रहे होते हैं। ध्यान नकारात्मक पर लगा होता है व ऐसा लगता है कि देने के लिए कुछ नहीं है। यह अनुदारता क्षोभ उत्पन्न करती है। क्षोभ इस बात का स्पष्ट संकेत होता है कि हम गलत दिशा में काफी ध्यान दे रहे हैं। इसी तरह दूसरों में दोषदर्शन की जगह हमें स्वयं से प्रेम व अन्य प्रेम संबलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। तभी हम द्वेश से मुक्त हो पायेंगे।

10. आत्मदया का भाव। ग्रे के अनुसार, आत्मदया के भाव से हम तब ग्रसित होते हैं, जब जीवन में उपलब्ध सफलताओं एवं अनुदानों को नकारते हैं और सारा ध्यान कमियों पर केंद्रित करते हैं।

11. संभ्राँति। यह तब होती है जब जीवन के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं होता। सभी उत्तर तुरंत चाहते हैं और प्रश्नों के साथ जीने की कला नहीं जानते। आवश्यकता है-भूतकालीन सीखों को धन्यवाद देने की व हर कटु अनुभव से शिक्षण पाने के अभ्यास की। क्योंकि जीवन कभी चुनौतियों से खाली नहीं होता। हाँ हमारी इनसे जूझने की क्षमता अवश्य बढ़ती रहती है।

12. अपराधबोध। यह तब पनपता है जब हम स्वयं से प्रेम नहीं करते व अपनी गलतियों को क्षमा नहीं करते। ऐसी स्थिति में हम अपनी मासूमियत से वंचित हो जाते हैं। इस मासूमियत के अनुभव के लिए यह समझ जरूरी है कि गलतियों के बावजूद हम प्यार के काबिल हैं।

इन बाधाओं के निराकरण का प्रयास बाह्य सफलताओं की तरह समय, ऊर्जा व समर्पण की माँग करता है। दस प्रेम संबलों के साथ, इनके प्रति सतत् जागरुकता एवं इनका अध्यवसायपूर्वक परिशोधन करते हुए हम गहनतम इच्छा के संपर्क में आना शुरू करते हैं। ग्रे यहाँ पर नकारात्मक भावनाओं के दमनचक्र के प्रति सचेत करते हुए कहते हैं कि जब नकारात्मक भावों का हम उदात्तीकरण नहीं कर पाते, तो सरलतम तरीका उनका बहिष्कार एवं दमन रह जाता है। परिणामस्वरूप हम अपनी वास्तविक इच्छा से दूर हो जाते हैं, जबकि व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं अध्यात्मिक सभी तरह की इच्छाओं का सम्मान करना होगा। इन्हें सम्मान करने का अर्थ उनको क्रियारूप में परिणत करना नहीं है बल्कि उनको सुनना, समझना और उन्हें सुसंगत करना है। ऐसी स्थिति में रूपांतरण स्वतः ही होने लगता है। जब किसी एक स्तर पर उत्पन्न इच्छा दूसरे स्तरों से सद्भावपूर्ण हो तो वह सच्ची इच्छा होगी। जितना हम अपनी सच्ची इच्छा के संपर्क में आएंगे, प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता जाएगा और हमारे सपनों का संसार साकार रूप लेने लगेगा।

First 1 3 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • समग्रता का ईश्वरीय बोध
  • सर्वांगपूर्ण प्रगति के लिए जरूरी कुछ ‘विटामिन’
  • वास्तविक उन्नति होना असंभव (kahani)
  • जीवन चेतना की धुरी - प्राणविद्या
  • Quotation
  • नई सदी की अपेक्षा-विज्ञान भस्मासुर न बने
  • Quotation
  • जीवंत मंदिर कभी नष्ट नहीं किए जा सके
  • Quotation
  • मिला निर्वाण का पथ
  • सामान्य जीवन में तंत्रविद्या की झलक
  • कुछ बात है कि हस्ती मिटी नहीं हमारी
  • Quotation
  • संकल्प और निर्देशों से उपचार का विज्ञान
  • Quotation
  • याद करें पुनः चरैवेति-चरैवेति का मूलमंत्र
  • समग्र स्वास्थ्य का वरदान-आयुर्वेद का विज्ञान
  • दैवी अनुदान अजस्र मात्रा में (kahani)
  • संवेदना जगी तो आँदोलन जन्मा
  • दुःखी होने की क्या आवश्यकता (kahani)
  • मृत्यु का भय खोलता है सत्य का द्वार
  • संवत्सर अर्थात् नियति से सामंजस्य
  • VigyapanSuchana
  • बौद्धधर्म के विस्तार में अभूतपूर्व (kahani)
  • निद्रा : हमारा पोषण करने वाली माता
  • जीवनक्रम ही अस्त-व्यस्त (kahani)
  • नवरात्रि साधना के अनुबंध-अनुशासन
  • लोकसेवी का आचरण और व्यवहार कैसा हो
  • आत्मबल संवर्द्धन हेतु श्रेष्ठतम अवसर
  • तपकर कुँदन बनने की प्रक्रिया - परमपूज्य गुरुजी की अमृतवाणी
  • कर्म किए बिना कोई रह कैसे सकता है।
  • जादुई स्पर्शभरी थी उनकी लेखनी
  • Quotation
  • अपनों से अपनी बात - महापूर्णाहुति की यही अवधि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण
  • VigyapanSuchana
  • हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ?
  • हनुमान ! क्यों तुम मौन हो ? (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj