
युग-निर्माण की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि
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युग-निर्माण की पृष्ठभूमि राजनैतिक एवं सामाजिक नहीं वरन् आध्यात्मिक है। उतना महत्वपूर्ण कार्य इसी स्तर पर उठाया या बढ़ाया जा सकता है। राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर पर किये गये सुधार प्रयत्नों में वह श्रद्धा, भावना, तत्परता एवं गहराई नहीं हो सकती, जो आध्यात्मिक स्तर पर किये गये प्रयत्नों में सम्भव है। हम इसी स्तर से कार्य आरम्भ कर रहे हैं। इसलिये हम सबको उपासना, तपश्चर्या एवं आध्यात्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत होना चाहिए, तथा योजना के सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों को भी इसी भावना से प्रभावित करना चाहिए। हमारे सुधार आन्दोलन आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति के लिये एक साधन मात्र हैं इसलिये साधन के साथ साध्य को भी ध्यान में रखना ही होगा। हमारे छह आध्यात्मिक कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत है:—
95—गायत्री उपासना—संस्कृति का मूल उद्गम गायत्री महामन्त्र है। उसमें जीवनोत्कर्ष की समस्त शिक्षायें बीज रूप से मौजूद हैं। उपासना का मूल उद्देश्य, भावनाओं और प्रवृत्तियों का सन्मार्ग की ओर प्रेरणा प्राप्त करना ही तो होता है। यह आधार गायत्री में है और उसकी उपासना में वह शक्ति भी है कि अन्तःकरण को इसी दिशा में मोड़े। इस दृष्टि से गायत्री सर्वांगपूर्ण एवं सार्वभौम मानवीय उपासना कहीं जा सकती है। उसके लिए हमें नित्य नियमित रूप से कुछ समय निकालना चाहिये, चाहे वह समय पांच मिनट ही क्यों न हो। 108 गायत्री मन्त्र जपने में प्रायः इतना ही समय लगता है। प्रयत्न यह होना चाहिये कि अपने घर, परिवार, सम्बन्ध समाज और परिचय-क्षेत्र के सभी लोग गायत्री उपासना में संलग्न रहें। इससे अतिरिक्त उपासनाएं जो करते हैं वे उन्हें भी करते हुए गायत्री जप कर सकते हैं।
96—यज्ञ की आवश्यकता—जिस प्रकार गायत्री सद्भावना की प्रतीक है उसी प्रकार यज्ञ सत्कर्मों का प्रतिनिधि है। अपनी प्रिय वस्तुओं को लोकहित के लिए निरन्तर अर्पित करते रहने की प्रेरणा यज्ञीय प्रेरणा कहलाती है। हमारा जीवन ही एक यज्ञ बनना चाहिये। इस भावना को जीवित जागृत रखने के लिये यज्ञ प्रक्रिया को दैनिक जीवन में उपासनात्मक स्थान दिया जाता है। हमें नित्य यज्ञ करना चाहिए। यदि विधिवत् यज्ञ करने में समय और धन खर्च होने की असुविधा हो तो चौके में बने भोजन के पांच छोटे ग्रास गायत्री मन्त्र बोलते हुए अग्निदेव पर होमे जा सकते हैं। अथवा भोजन करते समय इसी प्रकार का अग्नि पूजन किया जा सकता है। घी का दीपक एवं अगरबत्ती जलाना भी यज्ञ विधि का ही एक रूप है। इसमें से जिसे जैसी सुविधा हो वह यज्ञ क्रम बना ले, पर यह प्रथा ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के हर घर में जीवित अवश्य ही रहनी चाहिये।
97—समय-दान यज्ञ—प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह दूसरों को विचारशील बनाने के लिए—युग-निर्माण की भावनाओं को अपने तक ही सीमित न रखकर दूसरों तक पहुंचाने के लिए नियमित रूप से कुछ समय दान करे। जन सम्पर्क के लिए समय निकाले। मित्रों, स्वजन सम्बन्धियों रिश्तेदारों एवं परिचितों से, अपरिचितों से सम्पर्क बनाने के लिये नियमित रूप से उनके घर जाय, अपने विषय की पुस्तकें उन्हें पढ़ने को दें तथा अपने मिशन की चर्चा करें। इस प्रकार अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रकाश फैलाने के लिये अपने समय का एक अंश परमार्थ कार्यों में उसी तरह लगाते रहना चाहिए जिस तरह अन्य दैनिक आवश्यक कार्यों के लिये लगाते रहते हैं।
98—आत्म चिन्तन और सत्संकल्प—युग-निर्माण का सत्संकल्प हमें नित्य प्रातः उठते समय और रात को सोते समय पढ़ना चाहिये। उसके अनुसार जीवन ढालना चाहिये। सोते समय दिन भर के कामों का लेखा-जोखा लेना चाहिये और जो भूलें उस दिन हुई हों वे दूसरे दिन न होने पावें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये। जीवन को दिन-दिन शुद्ध करते रहा जाय।
99—अविच्छिन्न दान परम्परा—नित्य कुछ समय और कुछ धन परमार्थ कार्यों के लिये देते रहने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। दान हमारे जीवन की एक अविच्छिन्न आध्यात्मिक परम्परा के रूप में चलता रहे। इस प्रकार अपनी आजीविका का एक अंश नियमित रूप से परमार्थ के लिये लगाया जाता रहे। इसके लिये कोई धर्मपेटी या धर्मघट में अन्न या पैसा डालते रहा जाय। यह धन केवल सद्भावना प्रसार के यज्ञ में ही खर्च हो, युग-निर्माण का आधार यही तो है।
इसी प्रकार धर्म प्रचार के लिये, जन सम्पर्क के लिये कुछ समय भी नित्य दिया जाय। नित्य न बन पड़े तो साप्ताहिक अवकाश के दिन अधिक समय दे करके दैनिक क्रम की पूर्ति की जाय। सद्भावनाओं के प्रसार और जागरण के लिए जन सम्पर्क ही प्रधान उपाय है। इसमें झिझक या संकोच करने की, अपमान अनुभव करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।
100—सत्याग्रही स्वयंसेवक सेना—सामाजिक कुरीतियों एवं नैतिक बुराइयों को मिटाने के लिये राग-द्वेष से रहित, संयमी, मधुर व्यवहार वाले और दृढ़ चरित्र व्यक्तियों की एक ऐसी सत्याग्रही सेना गठित की जानी है, जो दूसरों को बिना कष्ट पहुंचाये अपने ही त्याग, तप से बुराइयां छुड़ाने के लिये कष्ट सहने को तैयार हों। सत्याग्रह कहां, किस प्रकार किया जाय यह एक बहुत ही दूरदर्शिता का प्रश्न है। अन्यथा सुधार के स्थान पर द्वेष फैल सकता है। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए सत्याग्रही स्वयंसेवक सेना का गठन और उसके द्वारा बुराइयों के उन्मूलन की व्यवस्था भी करनी ही पड़ेगी। इसके लिये उपयुक्त व्यक्तियों को अपना नाम स्वयं सेवकों की श्रेणी में लिखाना चाहिये। शक्ति को देखते हुये वैसे ही कार्यक्रम आरम्भ किये जावेंगे और पहले उन्हें प्रशिक्षित भी करना पड़ेगा।
95—गायत्री उपासना—संस्कृति का मूल उद्गम गायत्री महामन्त्र है। उसमें जीवनोत्कर्ष की समस्त शिक्षायें बीज रूप से मौजूद हैं। उपासना का मूल उद्देश्य, भावनाओं और प्रवृत्तियों का सन्मार्ग की ओर प्रेरणा प्राप्त करना ही तो होता है। यह आधार गायत्री में है और उसकी उपासना में वह शक्ति भी है कि अन्तःकरण को इसी दिशा में मोड़े। इस दृष्टि से गायत्री सर्वांगपूर्ण एवं सार्वभौम मानवीय उपासना कहीं जा सकती है। उसके लिए हमें नित्य नियमित रूप से कुछ समय निकालना चाहिये, चाहे वह समय पांच मिनट ही क्यों न हो। 108 गायत्री मन्त्र जपने में प्रायः इतना ही समय लगता है। प्रयत्न यह होना चाहिये कि अपने घर, परिवार, सम्बन्ध समाज और परिचय-क्षेत्र के सभी लोग गायत्री उपासना में संलग्न रहें। इससे अतिरिक्त उपासनाएं जो करते हैं वे उन्हें भी करते हुए गायत्री जप कर सकते हैं।
96—यज्ञ की आवश्यकता—जिस प्रकार गायत्री सद्भावना की प्रतीक है उसी प्रकार यज्ञ सत्कर्मों का प्रतिनिधि है। अपनी प्रिय वस्तुओं को लोकहित के लिए निरन्तर अर्पित करते रहने की प्रेरणा यज्ञीय प्रेरणा कहलाती है। हमारा जीवन ही एक यज्ञ बनना चाहिये। इस भावना को जीवित जागृत रखने के लिये यज्ञ प्रक्रिया को दैनिक जीवन में उपासनात्मक स्थान दिया जाता है। हमें नित्य यज्ञ करना चाहिए। यदि विधिवत् यज्ञ करने में समय और धन खर्च होने की असुविधा हो तो चौके में बने भोजन के पांच छोटे ग्रास गायत्री मन्त्र बोलते हुए अग्निदेव पर होमे जा सकते हैं। अथवा भोजन करते समय इसी प्रकार का अग्नि पूजन किया जा सकता है। घी का दीपक एवं अगरबत्ती जलाना भी यज्ञ विधि का ही एक रूप है। इसमें से जिसे जैसी सुविधा हो वह यज्ञ क्रम बना ले, पर यह प्रथा ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के हर घर में जीवित अवश्य ही रहनी चाहिये।
97—समय-दान यज्ञ—प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह दूसरों को विचारशील बनाने के लिए—युग-निर्माण की भावनाओं को अपने तक ही सीमित न रखकर दूसरों तक पहुंचाने के लिए नियमित रूप से कुछ समय दान करे। जन सम्पर्क के लिए समय निकाले। मित्रों, स्वजन सम्बन्धियों रिश्तेदारों एवं परिचितों से, अपरिचितों से सम्पर्क बनाने के लिये नियमित रूप से उनके घर जाय, अपने विषय की पुस्तकें उन्हें पढ़ने को दें तथा अपने मिशन की चर्चा करें। इस प्रकार अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रकाश फैलाने के लिये अपने समय का एक अंश परमार्थ कार्यों में उसी तरह लगाते रहना चाहिए जिस तरह अन्य दैनिक आवश्यक कार्यों के लिये लगाते रहते हैं।
98—आत्म चिन्तन और सत्संकल्प—युग-निर्माण का सत्संकल्प हमें नित्य प्रातः उठते समय और रात को सोते समय पढ़ना चाहिये। उसके अनुसार जीवन ढालना चाहिये। सोते समय दिन भर के कामों का लेखा-जोखा लेना चाहिये और जो भूलें उस दिन हुई हों वे दूसरे दिन न होने पावें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये। जीवन को दिन-दिन शुद्ध करते रहा जाय।
99—अविच्छिन्न दान परम्परा—नित्य कुछ समय और कुछ धन परमार्थ कार्यों के लिये देते रहने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। दान हमारे जीवन की एक अविच्छिन्न आध्यात्मिक परम्परा के रूप में चलता रहे। इस प्रकार अपनी आजीविका का एक अंश नियमित रूप से परमार्थ के लिये लगाया जाता रहे। इसके लिये कोई धर्मपेटी या धर्मघट में अन्न या पैसा डालते रहा जाय। यह धन केवल सद्भावना प्रसार के यज्ञ में ही खर्च हो, युग-निर्माण का आधार यही तो है।
इसी प्रकार धर्म प्रचार के लिये, जन सम्पर्क के लिये कुछ समय भी नित्य दिया जाय। नित्य न बन पड़े तो साप्ताहिक अवकाश के दिन अधिक समय दे करके दैनिक क्रम की पूर्ति की जाय। सद्भावनाओं के प्रसार और जागरण के लिए जन सम्पर्क ही प्रधान उपाय है। इसमें झिझक या संकोच करने की, अपमान अनुभव करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।
100—सत्याग्रही स्वयंसेवक सेना—सामाजिक कुरीतियों एवं नैतिक बुराइयों को मिटाने के लिये राग-द्वेष से रहित, संयमी, मधुर व्यवहार वाले और दृढ़ चरित्र व्यक्तियों की एक ऐसी सत्याग्रही सेना गठित की जानी है, जो दूसरों को बिना कष्ट पहुंचाये अपने ही त्याग, तप से बुराइयां छुड़ाने के लिये कष्ट सहने को तैयार हों। सत्याग्रह कहां, किस प्रकार किया जाय यह एक बहुत ही दूरदर्शिता का प्रश्न है। अन्यथा सुधार के स्थान पर द्वेष फैल सकता है। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए सत्याग्रही स्वयंसेवक सेना का गठन और उसके द्वारा बुराइयों के उन्मूलन की व्यवस्था भी करनी ही पड़ेगी। इसके लिये उपयुक्त व्यक्तियों को अपना नाम स्वयं सेवकों की श्रेणी में लिखाना चाहिये। शक्ति को देखते हुये वैसे ही कार्यक्रम आरम्भ किये जावेंगे और पहले उन्हें प्रशिक्षित भी करना पड़ेगा।