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Books - हमारी युग निर्माण योजना

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सद्भावनाएं बढ़ाने के लिए यह करें

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दया, करुणा, सेवा, उदारता सहयोग परमार्थ न्याय, संयम और विवेक की भावनाओं का जन मानस में जगाया जाना संसार की सबसे बड़ी सेवा हो सकती है। निष्ठुरता, संकीर्णता और स्वार्थपरता ने ही इस विश्व को नरक बनाया है। यदि यहां स्वर्गीय वातावरण की स्थापना करनी हो तो उसका एक ही उपाय है कि मानवीय अन्तस्तल को निम्न स्तर का न रहने दिया जाय। उसकी प्रसुप्त सद्भावनाओं को जगाया जाय। भावनाशील व्यक्तियों को ही देवता कहा जाता है। जहां देवता स्वभाव के व्यक्ति रहते हैं, वहां ही स्वर्गीय शान्ति और समृद्धि रहती है।

सद्भावनाओं के जगाने वाले और इस दिशा में कुछ ठोस प्रेरणा देने वाले कार्यक्रम नीचे दिये हैं:—

77—सेवा कार्यों में अभिरुचि—व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से ऐसे सेवा कार्यों का कुछ न कुछ आयोजन होते रहना चाहिए, जिससे आवश्यकता वाले व्यक्तियों की कुछ सहायता होती रहे और दुखियों को सुख मिले। ईसाई मिशनों में हर जगह चिकित्सा कार्यों को स्थान रहता है। प्राचीन काल में बौद्ध विहारों में भी ऐसी व्यवस्था रहती थी। रामकृष्ण परमहंस मिशन ने भी ऐसे ही चिकित्सालय जगह-जगह बनाये हैं। हम लोग ‘‘तुलसी के अमृतोपम गुण’’ पुस्तक के आधार पर तुलसी के पत्तों में कुछ साधारण वस्तुएं मिला कर औषधियां बना सकते हैं और उनसे अन्य प्रकार की औषधियों की अपेक्षा कहीं अधिक रोगियों की सेवा कर सकते हैं। तुलसी के पौधे बोने और थोड़ा-सा खर्च करने से इस प्रकार की हानि रहित चिकित्सा का क्रम हर जगह चल सकता है। सूर्य चिकित्सा की विधि भी इस दृष्टि से बड़ी उपयोगी हो सकती है।

सेवा-समितियां जिस प्रकार मेलों का प्रबन्ध, महामारी, दुर्घटना आदि से ग्रस्त लोगों की सहायता या दूसरे प्रकार के सेवा कार्य करती हैं, वैसे ही जन-हित के कोई कार्य हमें भी करते रहने चाहिए ताकि सद्भावनाओं को जगाने में सहायता मिले। अपंग भिक्षुओं के लिए निर्वाह साधन बनाने के प्रबन्ध भी उपयोगी रहेंगे। 78—सार्वजनिक उपयोग के उपकरण—अपनी समिति के पास कुछ ऐसे उपकरण रखे रहें जिन्हें लोग अक्सर दूसरों से मांग कर काम चलाया करते हैं। विवाह शादियों में काम आने वाले बड़े बर्तन, जलपात्र, फर्श, बिछौने, नसैनी, लालटेनें, सजावट का सामान, कुएं में गिरे हुए डोल रस्सी निकालने के कांटे, आटे की सेंमई बनाने की मशीनें जैसी छोटी-मोटी चीजें एकत्रित रखी जांय और उन्हें मरम्मत खर्च लेकर लोगों को देते रहा जाय तो उससे भी सहानुभूति एवं सद्भावना बढ़ती है।

79—जीव-दया के सत्कर्म—पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं के प्रति करुणा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। पशु-पक्षी भी अपने ही भाई-भतीजे हैं, उनका मांस खाने-खून पीने की आदत छुड़ानी चाहिए। उससे आध्यात्मिक सद्गुण नष्ट होते हैं, नृशंसता पनपती है। चमड़ा भी आजकल जीवित काटे हुए पशुओं का ही आ रहा है। उसका उपयोग करने से भी पशु-वध में वृद्धि होती है। हमें चमड़े के स्थान पर कपड़ा या रबड़ के जूते पहन कर काम चलाना चाहिए और दूसरी चमड़े की बनी वस्तुएं भी प्रयोग नहीं करनी चाहिए। मृगछालाएं भी आजकल हत्या किये हुए पशुओं की ही मिलती हैं, इसलिए पूजा में उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। जो रेशम कीड़ों को जिन्दा उबाल कर निकाला जाता है वह भी प्रयोग न किया जाय।

सामर्थ्य से अधिक काम लिया जाना, अधिक भार लादा जाना, बुरी तरह पीटना, घायल बीमारों से काम लेना, फूंका प्रथा के अनुसार दूध निकालना आदि अनेक प्रकार से पशुओं के साथ बरती जाने वाली नृशंसता का त्याग करना चाहिए।

गौ पालन, गौदुग्ध को प्राथमिकता देना जैसे धर्म कृत्यों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य, समृद्धि और सद्भावना की अभिवृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो सके। 80—ईमानदार उपयोगी-स्टोर—ऐसे स्टोर चलाये जांय जहां शुद्ध खाद्य वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल सकें। खाद्य पदार्थों की अशुद्धता अक्षम्य है। इससे जन स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है। इस अभाव की पूर्ति कोई ईमानदार व्यक्ति कर सकें तो उससे उनकी अपनी आजीविका भी चले और जनता की आवश्यकता भी पूर्ण हो। आटा, दाल, चावल, तेल, घी, दूध, शहद, गुड़, मेवा, मसाले, औषधियां, चक्की, भाप से पकाने के बर्तन, व्यायाम साधन, साहित्य, पूजा उपकरण एवं अन्य आवश्यक जीवनोपयोगी वस्तुओं का उचित मूल्य पर अभाव पूर्ति करने वाले व्यापारी आज की स्थिति में समाज-सेवी ही कहे जा सकते हैं।

81—सम्मेलन और गोष्ठियां—सद्भावनाओं को जागृत करने वाला लोक-शिक्षण भी व्यापक रूप से आरम्भ किया जाना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर छोटे बड़े सम्मेलन, विचार गोष्ठियां, सत्संग एवं सामूहिक आयोजन करते रहना चाहिए। एकत्रित जन-समूह को विचार देने में सुविधा रहती है और उत्साह भी बढ़ता है। गायत्री यज्ञों के छोटे-छोटे आयोजन भी इस दृष्टि से उपयोगी रहते हैं। बहुत बड़ी सभाओं की भीड़-भाड़ की अपेक्षा विचारशील लोगों के छोटे सम्मेलन अधिक उपयोगी रहते हैं। उनमें ही कुछ ठोस कार्य की आशा की जा सकती है।

82—नवरात्रि में शिक्षण शिविर—समय-समय पर सद्भावना शिक्षा शिविर होते रहें, इस दृष्टि से आश्विन और चैत्र की नवरात्रियां सर्वोत्तम रहती हैं। उस समय नौ-नौ दिन के शिविर हर जगह किये जाया करें। प्रातःकाल जप, हवन, अनुष्ठान का आयोजन रहे। तीसरे पहर विचार गोष्ठी और भजन कीर्तन एवं रात्रि को सार्वजनिक प्रवचनों का कार्यक्रम रहा करे। अन्तिम दिन जुलूस, प्रभात-फेरी एवं बड़े सामूहिक यज्ञ के साथ पूर्णाहुति, प्रसाद वितरण आदि का कार्यक्रम रहा करे। प्रसाद में सच्चा सत्साहित्य भी वितरण किया जाया करे। बलिदान में बुराइयां छुड़ाई जाया करें। नारी प्रतिष्ठा की दृष्टि से अन्त में कन्या-भोज किया जाया करे। भाषणों और प्रवचनों की आवश्यकता युग-निर्माण की विचारधारा को प्रस्तुत कर सकने वाले कोई भी कुशल वक्ता आसानी से पूरी कर सकते हैं। वर्ष में नौ-नौ दिन के दो नवरात्रि आयोजन शिक्षण शिविरों के रूप में चलते रहें तो इससे उपासना और भावना के दोनों ही महान् लाभों से जन-साधारण को लाभान्वित किया जा सकता है। पर्व और त्यौहारों पर भी इन्हें विकसित बनाने के लिए ऐसे ही आयोजन किये जाते रहने चाहिए।

83—धर्म-प्रचार की पद-यात्रा—घरेलू कार्यों से छुट्टी लेकर कुछ विचारशील लोग टोली बनाकर पद-यात्रा पर निकला करें। पूर्व निश्चित प्रोग्राम पर एक-एक दिन ठहरते हुए आगे बढ़ें। प्रातः जप, हवन, तीसरे पहर विचार-गोष्ठी और रात्रि को सामूहिक प्रवचनों का कार्यक्रम रहा करे। जिन जगहों में टोली को ठहरना हो, वहां पहले से ही आवश्यक तैयारी रहे, ऐसा प्रबन्ध कर लेना चाहिए। सन्त बिनोवा की भूदान जैसी पद-यात्राएं युग-निर्माण योजना के प्रसार के लिए भी समय-समय पर की जाती रहनी चाहिए।

प्रसन्नता की बात है कि इस वर्ष बहरायच जिसे में श्री गिरीश देव वर्मा के नेतृत्व में एक महीने की पद-यात्रा का कार्यक्रम संभ्रान्त एवं सुशिक्षित लोगों ने बनाया है। टोली की योजना तथा कार्य-पद्धति का विवरण पाठक अन्यत्र पढ़ेंगे।

84—आदर्श वाक्यों का लेखन—दीवारों पर आदर्श वाक्यों का लेखन एक सस्ता लोक शिक्षण है, गेरू में गोंद पकाकर दीवारों पर अच्छे अक्षरों में आदर्श शिक्षात्मक एवं प्रेरणाप्रद वाक्य लिखे जाएं तो उनसे पढ़ने वालों पर प्रभाव पढ़ता है। जिस जगह प्रेरणाप्रद विचार पढ़ने को मिलें तो उस स्थान के सम्बन्ध में स्वतः ही अच्छी भावना बनती है। जहां स्याही का ठीक प्रबन्ध न हो सके तो सूखे गेरू की डली से भी लिखते रहने का कार्यक्रम चलता रहा सकता है। कई व्यक्ति मिल कर अपने नगर की दीवारों पर इस प्रकार लिख डालने का कार्यक्रम बनालें तो जल्दी ही नगर की सारी दीवारें प्रेरणाप्रद बन सकती हैं।

85—संजीवन विद्या का विधिवत् प्रशिक्षण—संजीवन विद्या का एक केन्द्रीय विद्यालय बनाया जाना है, जिसमें जीवन की प्रत्येक समस्या पर गहन अध्ययन करने और उन्हें सुलझाने सम्बन्धी तथ्यों को जानने का अवसर मिले। अव्यवस्था, गृह कलह, आर्थिक तंगी, विरोधियों का आक्रमण, अस्त-व्यस्त दाम्पत्य जीवन, बालकों के भविष्य निर्माण की समस्या, आत्म-कल्याण पक्ष की बाधायें, गरीबी और असफलता, चिन्ता और उद्वेग, अयोग्यता एवं अशक्ति, प्रगति पथ के अवरोध आदि अनेकों कठिनाइयों के हल व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुरूप सुलझाने का प्रशिक्षण उस विद्यालय में रहे। स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय करते हुए मनुष्य किस प्रकार लोक और परलोक में सुख शान्ति का अधिकारी बन सकता है यह पूरा शिक्षण मनोविज्ञान, समाज शास्त्र और लोक व्यवहार के सर्वांगपूर्ण आधार पर दिया जाय जिससे व्यक्तित्व के विकास में समुचित सहायता मिले।

ऐसे विद्यालय का अभाव बहुत खटकने वाला है। अनेकों प्रकार की शिक्षा संस्थाएं सर्वत्र मौजूद हैं पर जिन्दगी जीने की विद्या जहां सिखाई जाती हो ऐसा प्रबन्ध कहीं भी नहीं है। हमें यह कमी पूरी करनी है। अगले वर्ष से ऐसा केन्द्रीय प्रशिक्षण मथुरा में चलने लगेगा। उसका पाठ्यक्रम छह महीने का होगा। प्रयत्न यह होना चाहिये कि परिवार के सभी विचारशील लोग क्रमशः उनका लाभ उठाते चलें।

86—छोटे स्थानीय शिक्षण-सत्र—जो लोग मथुरा नहीं पहुंच सकते और इतना लम्बा समय भी नहीं दे सकते उनके लिए एक महीना का छोटा शिक्षण-सत्र प्रत्येक केन्द्र पर चलता रहे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। शिक्षार्थी जीवन-विद्या की पाठ्य पुस्तिकाओं के आधार पर समस्याओं को सुलझाने का ज्ञान प्राप्त करें। इस प्रकार एक महीने में 30 ट्रैक्टों का अध्ययन हो सकता है, अन्तिम दिन समावर्तन होगा। शिक्षार्थियों के ज्ञान की परीक्षा भी हुआ करेगी। यह पाठ्यक्रम भी सस्ती ट्रैक्ट पुस्तिकायें लिखकर लगभग तैयार है। इसका प्रचलन अगले कुछ महीनों में ही प्रारम्भ होगा।

इन सत्रों के चलाने के लिये जगह-जगह व्यवस्था की जाय, जिससे युग-निर्माण के लिये आवश्यक संजीवन विद्या का ज्ञान व्यापक बन सके।

सद्भावनाओं को बढ़ाने के लिए हर प्रकार के प्रयत्न होने चाहिए। कुछ कार्यक्रमों का विवरण ऊपर दिया गया है। ऐसे और भी अनेक कार्य हो सकते हैं जिन्हें परिस्थितियों के अनुरूप जन-मानस में सद्भावनाएं बढ़ाने की दृष्टि से उत्साहपूर्वक कार्यान्वित करते रहना चाहिये।
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