
युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम
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युग-निर्माण के लिये आवश्यक विचार-क्रान्ति का उपयोग यदि शरीर-क्षेत्र में किया जा सके तो हमारा बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधर सकता है। बीमारियों से सहज ही पिण्ड छूट सकता है। आज अपने शरीर की जो स्थिति है कल से ही उसमें आशाजनक परिवर्तन आरम्भ हो सकता है। अस्वस्थता का कारण असंयम एवं अनियमितता ही है। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन करने के दण्ड स्वरूप ही हमें बीमारी और कमजोरी का कष्ट भुगतना पड़ता है। सरकारी कानूनों की तरह प्रकृति के भी कानून हैं। जिस प्रकार राज्य के कानूनों को तोड़ने वाले अपराधी जेल की यातना भोगते हैं वैसे ही प्रकृति के कानूनों की अवज्ञा कर स्वेच्छाचार बरतने वाले व्यक्ति बीमारियों का कष्ट सहते हैं और अशक्त, दुर्बल बने रहते हैं। पूर्व जन्मों के प्रारब्ध दण्ड स्वरूप मिलने वाले तथा प्रकृति प्रकोप, महामारी, सामूहिक अव्यवस्था, दुर्घटना एवं विशेष परिस्थिति वश कभी-कभी संयमी लोगों को भी शारीरिक कष्ट भोगने पड़ते हैं, पर 90 प्रतिशत शारीरिक कष्टों में हमारी बुरी आदतें और अनियमितता ही प्रधान कारण होती हैं।
सृष्टि के सभी जीव-जन्तु निरोग रहते हैं। अन्य पशु और उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी यहां तक कि छोटे-छोटे कीट-पतंग भी समय आने पर मरते तो हैं, पर बीमारी और कमजोरी का कष्ट नहीं भोगते। जिन पशुओं को मनुष्य ने अपने बन्धन में बांधकर अप्राकृतिक रहन-सहन के लिए जितना विवश किया है उतनी अस्वस्थता का त्रास उन्हें भोगना पड़ता, अन्यथा रोग और दुर्बलता नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। उसे तो हम स्वेच्छाचार बरत कर स्वयं ही बुलाया करते हैं। यदि अपना दृष्टिकोण बदल दिया जाय, संयम और नियमितता की नीति अपना ली जाय तो फिर न बीमारी रहे और न कमजोरी। अपनी आदतें ही संयमशीलता और आहार-विहार में व्यवस्था रखने की बनानी होंगी। इस निर्माण में जिसे जितनी सफलता मिलेगी वह उतना आरोग्य लाभ का आनन्द भोग सकेगा। इस संदर्भ में पालन करने योग्य 10 नियम नीचे दिए जा रहे हैं।
1—दो बार का भोजन—भोजन, दोपहर और शाम को दो बार ही किया जाय। प्रातः दूध आदि हल्का पेय पदार्थ लेना पर्याप्त है। बार-बार खाते रहने की आदत बिलकुल छोड़ देनी चाहिए।
2—भोजन को ठीक तरह चबाया जाय—भोजन उतना चबाना कि वह सहज ही गले से नीचे उतर जाय। इसकी आदत ऐसे डाली जा सकती है कि रोटी अकेली, बिना साग के खावे और साग को अलग से खावें। साग के साथ गीली होने पर रोटी कम चबाने पर भी गले के नीचे उतर जाती है। पर यदि उसे बिना शाक के खाया जा रहा है तो उसे बहुत देर चबाने पर ही गले से नीचे उतारा जा सकेगा। यह बात अभ्यास के लिये है। जब आदत ठीक हो जाय तो शाक मिलाकर भी खा सकते हैं। 3—भोजन अधिक मात्रा में न हो—आधा पेट भोजन, एक चौथाई जल, एक चौथाई सांस आने-जाने के लिये खाली रखना चाहिए। अर्थात् भोजन आधे पेट किया जाय। 4—स्वाद की आदत छोड़ी जाय—अचार, मुरब्बे, सिरका, मिर्च, मसाले, खटाई, मीठा की अधिकता पेट खराब होने और रक्त को दूषित करने का कारण होती है। इन्हें छोड़ा जाय। हल्का-सा नमक और जरूरत हो तो थोड़ा धनिया, जीरा सुगन्ध के लिये लिया जा सकता है, पर अन्य मसाले तो छोड़ ही देने चाहिए। शरीर के लिये जितना नमक, शकर आवश्यक है उतना अन्न शाक आदि में पहले से ही मौजूद है। बाहर से जो मिलावट की जाती है वह तो स्वाद के लिए है। हमें स्वाद छोड़ना चाहिये। अभ्यास के लिये कुछ दिन तो नमक मीठा बिलकुल ही छोड़ देना चाहिये और अस्वाद व्रत पालन करना चाहिये। आदत सुधर जाने पर हलका-सा नमक, नीबू, आंवला, अदरक, हरा धनिया, पोदीना आदि को भोजन में मिलाकर उसे स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। सूखे मसाले स्वास्थ्य के शत्रु ही माने जाने चाहिये। मीठा कम से कम लें। आवश्यकतानुसार गुड़ या शहद से काम चलायें।
5—शाक और फलों का अधिक प्रयोग—शाकाहार को भोजन में प्रमुख स्थान रहे। आधा या तिहाई अन्न पर्याप्त है। शेष भाग शाक, फल, दूध, छाछ आदि रहे। ऋतु-फल सस्ते भी होते हैं और अच्छे भी रहते हैं। आम, अमरूद, बेर, जामुन, शहतूत, पपीता, केला, ककड़ी, खीरा, तरबूजा आदि-आदि अपनी-अपनी फसलों पर काफी सस्ते रहते हैं। लौकी तोरई, परवल, टमाटर, पालक, मेथी आदि सुपाच्य शाकों की मात्रा सदा अधिक ही रखनी चाहिये। गेहूं, चना आदि को अंकुरित करके खाया जाय तो उनसे बादाम जितना पोषक तत्व मिलेगा। उन्हें कच्चा हजम न किया जा सके तो उबाला, पकाया भी जा सकता है। अन्न, शाक और फलों के छिलकों में जीवन तत्व (विटामिन) बहुत रहता है, इसलिये आम, केला, पपीता आदि जिनका छिलका आवश्यक रूप से हटाना पड़े उन्हें छोड़कर शेष के छिलके खाये जाने ही ठीक हैं।
6—हानिकारक पदार्थों से दूर रहें—मांस, मछली, अण्डा, पकवान, मिठाई, चाट, पकौड़ी जैसे हानिकारक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिये। चाय, भांग, शराब आदि नशों को स्वास्थ्य का शत्रु ही माना गया है। तमाखू खाना-पीना, सूंघना, पान चबाना आदि आदतें आर्थिक और शारीरिक दोनों दृष्टि से हानिकारक हैं। वासी-कूसी, सड़ी-गली, गन्दगी के साथ बनाई हुई वस्तुओं से स्वास्थ्य का महत्व समझने वालों को बचते ही रहना चाहिए।
7—भाप से पकाये भोजन के लाभ—दाल-शाक पकाने में भाप की पद्धति उपयोगी है। खुले मुंह के बर्तन में तेज आग से पकाने से शाक के 70 प्रतिशत जीवन-तत्व नष्ट हो जाते हैं इस क्षति से बचने के लिये कुकर जैसी भाप से पकाने की पद्धति अपनानी चाहिए। इसी प्रकार हाथ की चक्की का पिसा आटा काम में लाना चाहिए। मशीन की चक्कियों और भाप से पकाने के बर्तनों का घर-घर प्रचलन होना चाहिये। ढीले और कम कपड़े पहनने चाहिये। सर्दी-गर्मी का प्रभाव सहने की क्षमता बनाये रहनी चाहिये। चिन्ता और परेशानी से चिन्तित न रहकर हर घड़ी प्रसन्न मुद्रा बनाये रहनी चाहिए।
8—स्वास्थ्य रक्षा के लिए सफाई आवश्यक है—सफाई का पूरा ध्यान रखा जाय। शरीर को अच्छी तरह घिसकर नहाना चाहिए शरीर को स्पर्श करने वाले कपड़े रोज धोने चाहिये। बिस्तरों को जल्दी-जल्दी धोते रहा जाय। धूप में तो उन्हें नित्य ही सुखाया जाय। घरों में ऐसी सफाई रखनी चाहिए कि मकड़ी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, जुए, चीलर, छिपकली, छछूंदर, चूहे, चमगादड़, घुन आदि बढ़ने न पावें। मल-मूत्र त्यागने के स्थानों की पूरी तरह सफाई रखी जाय। नालियां गन्दी न रहने पावें। खाद्य पदार्थों को ढक कर रखा जाय और सोते समय मुंह ढका न रहे। मकान में इतनी खिड़कियां और दरवाजे रहें कि प्रकाश और हवा आने-जाने की समुचित गुंजाइश बनी रहे। बर्तनों को साफ रखा जाय और उनके रखने का स्थान भी साफ हो। दीवार और फर्शों की जल्दी-जल्दी लिपाई, पुताई, धुलाई करते रहा जाय। सफाई का हर क्षेत्र में पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय। हर भोजन के बाद कुल्ला करना, रात को सोते समय दांत साफ करके सोना, अधिक ठण्डे और गरम पदार्थ न खाना दांतों की रक्षा के लिए आवश्यक है। जो इन नियमों पर ध्यान नहीं देते उनके दांत जल्दी ही गिरने और दर्द करने लगते हैं।
9—खुली वायु में रहिये—रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत डाली जाय। इससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और सवेरे के समय का जिस कार्य में भी उपयोग किया जाय उसी में सफलता मिलती हैं। प्रातः टहलने, व्यायाम एवं मालिश करने के उपरांत रगड़-रगड़ कर नहाने का अभ्यास प्रत्येक स्वास्थ्य के इच्छुक को करना चाहिये। सवेरे खुली हवा में टहलने वाले और व्यायाम करने वालों का स्वास्थ्य कभी खराब नहीं होने पाता। जो स्त्रियां टहलने नहीं जा सकती उन्हें चक्की पीसनी चाहिए या ऐसा ही कोई पसीना निकलने वाला कड़ा काम करना चाहिये।
10—ब्रह्मचर्य का पालन—ब्रह्मचर्य का समुचित ध्यान रखा जाय। विवाहितों और अविवाहितों को मर्यादाओं का समुचित पालन करना चाहिये। इस सम्बन्ध में जितनी कठोरता बरती जायगी स्वास्थ्य उतना ही अच्छा रहेगा। बुद्धिजीवियों और छात्रों के लिये तो यह और भी अधिक आवश्यक है क्योंकि इन्द्रिय असंयम से मानसिक दुर्बलता आती है और उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचने में भारी अड़चन पड़ती है।
यह दस साधारण नियम हैं जिनका व्यक्तिगत जीवन में प्रयोग करने के लिये हममें से हर एक को अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिये। परिवार के लोगों को इन स्वास्थ्य मर्यादाओं को पालन करने के लिये प्रशिक्षित करना चाहिये। जो लोग अपने सम्पर्क में आयें उन्हें भी इस अमृत औषधियों का अवलम्बन करने के लिये प्रेरणा देनी चाहिये। बदले हुये दृष्टिकोण को अपनाने से स्वास्थ्य की समस्या हल हो सकती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य की समस्या का हल इन्हीं तथ्यों को अपनाने से होगा। इसलिये धर्म कर्तव्यों की तरह ही इन आरोग्य मर्यादाओं का हमें पालन करना चाहिये और धर्म प्रचार की भावना से ही इन तथ्यों को अपनाने के लिये दूसरों को प्रेरित करना चाहिये।
स्वास्थ्य सम्वर्धन के सामूहिक प्रयास
हमें मिलजुल कर ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिये जिससे स्वास्थ्य संवर्धन की दिशा में आन्दोलन जैसी गति विधियां सजीव हो उठें। सम्मिलित प्रयत्नों से कार्यकर्त्ताओं में उत्साह आता है, आत्म संतोष बढ़ता है और जन-कल्याण की संभावना भी अधिक प्रशस्त हो जाती है। स्वास्थ्य आन्दोलन के सम्बन्ध में कुछ सुझाव नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं।
11—वनस्पतियों का उत्पादन—शाक, फल, वृक्ष और पुष्पों के उत्पन्न करने का आन्दोलन स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से बड़ा उपयोगी हो सकता है। घरों के आस-पास फूल उगाने, छप्परों पर लौकी, तोरई, सेम आदि की बेल चढ़ाने, आंगन में तुलसी का विरवा रोपने तथा जहां भी खाली जगह हो वहां फूल, पौधे लगा देने का प्रयत्न करना चाहिये। केला-पपीता आदि थोड़ी जगह होने पर भी लग सकते हैं। कोठियों बंगलों में अक्सर थोड़ी जगह खाली रहती है वहां शाक एवं फूलों को आसानी से उगाया जा सकता है। लगाने, सींचने, गोड़ने, मेंड़ बनाने आदि का काम घर के लोग किया करें तो उससे श्रमशीलता की आदत पड़ेगी और स्वास्थ्य सुधरेगा।
किसानों को शाक और फलों की खेती करने की प्रेरणा देनी चाहिये जिससे उन्हें लाभ भी अधिक मिले और स्वास्थ्य सम्बन्धी एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति भी होने लगे। जहां-तहां बड़े-बड़े वृक्षों को लगाना लोग पुण्य कार्य समझें। रास्तों के सहारे पेड़ लगाये जांय। बाग बगीचे लगाने की जन रुचि उत्पन्न की जाय। वायु की शुद्धि, वर्षा की अधिकता, फल, छाया, लकड़ी आदि की प्राप्ति, हरियाली से चित्त की प्रसन्नता, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ना, आदि अनेकों लाभ वृक्षों से होते हैं। यह प्रवृत्ति जनसाधारण में पैदा करके संसार में हरियाली और शोभा बढ़ानी चाहिये। आवश्यक वस्तुओं के बीज, गमले, पौधे आदि आसानी से मिल सकें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये। हो सके तो घर-घर जाकर इस सम्बन्ध में लोगों का मार्ग दर्शन करना चाहिये। जड़ी बूटियों के उद्यान एवं फार्म लगाने का प्रयत्न करना भी स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से आवश्यक है। पंसारियों की दुकानों पर सड़ी गली, वर्षों पुरानी, गुणहीन जड़ी-बूटियां मिलती हैं। उनसे बनी आयुर्वेदिक औषधियां भला क्या लाभ करेंगी? इस कमी को पूरी करने के लिये जड़ी बूटियों की कृषि की जानी चाहिये और चिकित्सा की एक बहुत बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिये।
12—पकाने की पद्धति में सुधार—भाप से भोजन पकाने के बर्तन एवं चक्कियां उपलब्ध हो सकें ऐसी निर्माण और विक्रय की व्यवस्था रहे। इनका मूल्य सस्ता रहे जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़े। अब बाल बियरिंग लगी हुई चक्की बनने लगी हैं जो चलने में बहुत हलकी होती हैं तथा घण्टे में काफी आटा पीसती हैं। इनका प्रचलन घर-घर किया जाय और इनकी टूट-फूट को सुधारने तथा चलाने सम्बन्धी आवश्यक जानकारी सिखाई जाय। खाते-पीते घरों की स्त्रियां चक्की पीसने में अपमान और असुविधा समझने लगी हैं, उन्हें चक्की के स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ समझाये जायें। पुरुष स्वयं पीसना आरम्भ करें। लोग हाथ का पिसा आटा खाने का ही व्रत लें तो चक्की का प्रचलन बढ़ेगा। इसी प्रकार भाप से भोजन पकने लगा तो वह 70 फीसदी अधिक पौष्टिक होगा और खाने में स्वाद भी लगेगा। इनका प्रसार आन्दोलन के ऊपर ही निर्भर है।
13—सात्विक आहार की पाक विद्या—तली हुई, भुनी और जली हुई अस्वास्थ्यकर मिठाइयों और पकवानों के स्थान पर ऐसे पदार्थों का प्रचलन किया जाय जो स्वादिष्ट भी लगें और लाभदायक भी हों। लौकी की खीर, गाजर का हलुआ, सलाद, कचूमर, श्रीखण्ड, मीठा दलिया अंकुरित अन्नों के व्यंजन जैसे पदार्थ बनाने की एक स्वतन्त्र पाक विद्या का विकास करना पड़ेगा जो दावतों में भी काम आ सके और हानि जरा भी न पहुंचाते हुए स्वादिष्ट भी लगें। चाय पीने वालों की आदत छुड़ाने के लिये गेहूं के भुने दलिये की या जड़ी बूटियों से बने हुए क्वाथ की चाय बनाना बताया जा सकता है। पान सुपाड़ी के स्थान पर सोंफ और धनिया संस्कारित करके तैयार किया जा सकता है। प्राकृतिक आहार के व्यंजनों की पाक विद्या का प्रसार हो सके तो स्वास्थ्य रक्षा की दिशा में बड़ी सहायता मिले।
14—गन्दगी का निराकरण—सार्वजनिक सफाई का प्रश्न सरकार के हाथों छोड़ देने से ही काम न चलेगा। लोगों को अपनी गन्दी आदतें छोड़ने के लिये और सार्वजनिक सफाई में दिलचस्पी लेने की प्रवृत्ति पैदा करनी पड़ेगी। बच्चों को घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों पर एवं नालियों पर टट्टी करने बिठा देना, सड़कों तथा गलियों पर घर का कूड़ा बखेर देना, धर्मशालाओं में, प्लेटफार्मों, रेल के डिब्बों और सार्वजनिक स्थानों को फलों के छिलके तथा नाक-थूक, रद्दी कागज, दौने, पत्तल आदि डाल कर गन्दा करना बुरी आदतें हैं, इससे बीमारी और गन्दगी फैलती है। देहातों में टट्टी-पेशाब के लिए उचित स्थानों की व्यवस्था नहीं होती। गांव के निकटवर्ती स्थानों तथा गली कूचों में इस प्रकार की गन्दगी फैलती है। जिन कुएं तालाबों का पानी पीने के काम आता है वहां गन्दगी नहीं रोकी जाती। यह प्रवृत्ति बदली जानी चाहिए। लकड़ी के बने इधर से उधर रखे जाने वाले शौचालय यदि देहातों में काम आने लगें तो खेती को खाद भी मिले, गन्दगी भी न फैले और बेपर्दगी भी न हों। खुरपी लेकर शौच जाना और गड्ढा खोद कर उसमें शौच करने के उपरान्त मिट्टी डालने की आदत पड़ जाय तो भी ग्रामीण जीवन में बहुत शुद्धि रहे। गड्ढे खोदकर उसमें कंकड़ पत्थर के टुकड़े डाल कर सोखने वाले पेशाब घर बनाये जांय और उनमें चूना फिनायल पड़ता रहे तो जहां-तहां पेशाब करने से फैलने वाली बीमारियों की बहुत रोकथाम हो सकती है। इसी प्रकार पशुओं के मलमूत्र की सफाई की भी उचित व्यवस्था रहे तो आधे रोगों से छुटकारा मिल सकता है। सार्वजनिक गन्दगी की समस्या देखने में तुच्छ प्रतीत होने पर भी वस्तुतः बहुत बड़ी है। लोकसेवकों को जनता की आदतें बदलने के लिये इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ करना ही होगा, अन्यथा बढ़ते हुए रोग घट न सकेंगे।
15—नशेबाजी का त्याग—नशेबाजी की बुराइयों को समझाने के लिए और इस बुरी आदत को छुड़ाने के लिए सभी प्रचार साधनों का उपयोग किया जाय। पंचायतों, धार्मिक समारोहों एवं शुभ कार्यों के अवसर पर इस हानिकारक बुराई को छुड़ाने के लिए प्रतिज्ञाएं कराई जायें।
16—व्यायाम और उसका प्रशिक्षण—आसन, व्यायाम, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, खेल-कूद, सवेरे का टहलना, अंग संचालन, मालिश आदि की विधियां सिखाने के लिए ‘वर्ग’ चलाये जांय। सामूहिक व्यायाम करने के लिये जहां सम्भव हो वहां दैनिक व्यवस्था की जाय। व्यायाम अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र है। चारपाई पर पड़े हुए रोगी भी कुछ खास प्रकार के अंग-संचालन, हलके व्यायाम करते हुए कठिन रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। बूढ़े आदमी अपने बुढ़ापे को दस-बीस साल आगे धकेल सकते हैं। कमजोर प्रकृति के व्यक्ति, छोटे बच्चे, विद्यार्थी, किशोर, तरुण स्त्रियां, लड़कियां, यहां तक कि गर्भवती स्त्रियों के लिए भी उनकी स्थिति के उपयुक्त व्यायाम बहुत ही आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न कर सकता है। इस प्रकार का ज्ञान हम लोग प्राप्त करें और उसको सर्व साधारण को दें। समय-समय पर ऐसे आयोजन करते रहें जिन्हें देखकर लोगों में इस प्रकार की प्रेरणा स्वयं पैदा हो।
अखाड़े, व्यायामशाला, क्रीड़ा-प्रांगण आदि स्वास्थ्य-संस्थानों की जगह-जगह स्थापना की जानी चाहिए। लाठी, भाला, तलवार, छुरा, धनुष आदि हथियार चलाने की शिक्षा जहां स्वास्थ्य सुधारती है, व्यायाम की आवश्यकता पूर्ण करती है, वहीं वह मनोबल और साहस भी बढ़ाती एवं आत्म रक्षा की क्षमता उत्पन्न करती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण देने वाले तैयार करना तथा लोगों में उसके लिए आवश्यक उत्साह पैदा करना हमारा काम होना चाहिए। कुश्ती, दौड़, तैराकी, रस्साकशी, लम्बी कूद, ऊंची छलांग, कबड्डी, गेद आदि का दंगल, एवं प्रतियोगिता आयोजनों और पुरस्कार व्यवस्था करवाने से भी इन कार्यों में लोगों का उत्साह बढ़ता है। ऐसे सम्मेलन यदि ईर्ष्या-द्वेष से बचाये रखे जांय और गलत प्रतिस्पर्धा न होने दी जाय तो पारस्परिक प्रेम भाव बढ़ाने एवं गुण्डागर्दी के विरुद्ध एक शक्ति प्रदर्शन का भी काम दे सकते हैं। डम्बल, मुगदर, लेजम, खींचने के स्प्रिंग, तानने के रबड़ के घेरे, गेंद बल्ला, आदि व्यायाम सम्बन्धी उपकरण तथा साहित्य हर जगह मिल सके ऐसी विक्रय व्यवस्था भी हर जगह रहनी चाहिए।
‘फर्स्ट एड’ की शिक्षा का प्रबन्ध हर जगह रहना चाहिए और उसे विधिवत् सीखने तथा रैड क्रास सोसाइटी का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए उत्साह पैदा करना चाहिए। स्काउटिंग की भी भावना और शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है।
17—साप्ताहिक उपवास—साप्ताहिक छुट्टी पेट को भी मिलनी चाहिए। छह दिन काम करने के बाद एक दिन पेट को काम न करना पड़े, उपवास रखा जाया करे, तो पाचन क्रिया में कोई खराबी न आने पाये। विश्राम के दिन सप्ताह भर की जमा हुई कब्ज पच जाया करे और अगले सप्ताह अधिक अच्छी तरह काम करने के लिए पेट समर्थ हो जाया करे। देश में अन्न की वर्तमान कमी के कारण विदेशों से बहुत दुर्लभ विदेशी मुद्रा व्यय करके अन्न मंगाना पड़ता है। यदि सप्ताह में एक दिन उपवास का क्रम चल पड़े तो वह कमी सहज ही पूरी हो जाय। पूरे दिन न बन पड़े तो एक समय भोजन छोड़ने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। जो लोग अधिक अशक्त होंवें, वे दूध, फल शाक आदि भले ही ले लिया करें, पर सप्ताह में एक समय अन्न छोड़ने—उपवास करने का तो प्रचलन किया जाय। उपवास का आध्यात्मिक लाभ तो स्पष्ट ही है, शारीरिक लाभ भी कम नहीं।
18—बड़ी दावतें और जूठन—बड़ी दावतों में अन्न का अपव्यय न होने देना चाहिए। प्रीतिभोजों, में खाने वालों की संख्या कम से कम रहे और खाने की वस्तुएं कम संख्या में ही परोसी जांय, जिससे अन्न की बर्बादी न हो।
थाली में जूठन छोड़ने की प्रथा बिलकुल ही बन्द की जाय। मेहतर या कुत्ते को भोजन देना हो तो अच्छा और स्वच्छ भोजन देना चाहिए। उच्छिष्ट भोजन कराने से तो उलटा पाप चढ़ता है। खाने वाले की भी शारीरिक और मानसिक हानि होती है। अन्न देवता का अपमान धार्मिक दृष्टि से भी पाप है। अन्न की बर्बादी तो प्रत्यक्ष ही है। 19—सन्तान की सीमा मर्यादा—देश की बढ़ती हुई जनसंख्या, आर्थिक कठिनाई, साधनों की कमी और जन साधारण के गिरे हुए स्वास्थ्य के देखते हुए यही उचित है कि प्रत्येक गृहस्थ कम से कम सन्तान उत्पन्न करे। अधिक सन्तान उत्पन्न होने से माताएं दुर्बलता ग्रस्त होकर अकाल में ही काल कवलित हो जाती हैं। बच्चे कमजोर होते हैं और ठीक प्रकार पोषण न होने पर अस्वस्थता एवं अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं। शिक्षा और विकास की समुचित सुविधा न होने से बालक भी अविकसित रह जाते हैं। इसलिए सन्तान को न्यूनतम रखने का ही प्रसार किया जाय। लोग ब्रह्मचर्य से रहें अथवा परिवार नियोजन विशेषज्ञों की सलाह लें। सन्तान के उत्तरदायित्वों एवं चिन्ताओं से जो व्यक्ति जितने हलके होंगे—वे उतने निरोग रहेंगे, यह तथ्य हर सद्गृहस्थ भली प्रकार समझ सके इसी में उसका कल्याण है।
20—प्राकृतिक चिकित्सा की जानकारी—पंच तत्वों से रोग निवारण की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को लोक प्रिय बनाया जाना चाहिए। जगह-जगह ऐसे चिकित्सालय रहें। इनमें उपवास एनिमा, जल चिकित्सा, सूर्य, चिकित्सा, मिट्टी, भाप आदि साधनों की सहायता से शरीर का कल्प जैसा शोधन होता है और एक रोग की ही नहीं, समस्त रोगों की जड़ ही कट जाती है। सर्वसाधारण को इस पद्धति का इतना ज्ञान करा दिया जाय कि आवश्यकता पड़ने पर अपनी तथा अपने घर के लोगों की चिकित्सा स्वयं ही कर लिया करें।
यह सभी प्रयत्न ऐसे हैं जो सामूहिक रूप से ही प्रसारित किये जा सकते हैं। इन्हें आन्दोलन का रूप मिलना चाहिए और इनका संचालन ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवारों के सम्मिलित प्रयत्नों से होता रहना चाहिए।
सृष्टि के सभी जीव-जन्तु निरोग रहते हैं। अन्य पशु और उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी यहां तक कि छोटे-छोटे कीट-पतंग भी समय आने पर मरते तो हैं, पर बीमारी और कमजोरी का कष्ट नहीं भोगते। जिन पशुओं को मनुष्य ने अपने बन्धन में बांधकर अप्राकृतिक रहन-सहन के लिए जितना विवश किया है उतनी अस्वस्थता का त्रास उन्हें भोगना पड़ता, अन्यथा रोग और दुर्बलता नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। उसे तो हम स्वेच्छाचार बरत कर स्वयं ही बुलाया करते हैं। यदि अपना दृष्टिकोण बदल दिया जाय, संयम और नियमितता की नीति अपना ली जाय तो फिर न बीमारी रहे और न कमजोरी। अपनी आदतें ही संयमशीलता और आहार-विहार में व्यवस्था रखने की बनानी होंगी। इस निर्माण में जिसे जितनी सफलता मिलेगी वह उतना आरोग्य लाभ का आनन्द भोग सकेगा। इस संदर्भ में पालन करने योग्य 10 नियम नीचे दिए जा रहे हैं।
1—दो बार का भोजन—भोजन, दोपहर और शाम को दो बार ही किया जाय। प्रातः दूध आदि हल्का पेय पदार्थ लेना पर्याप्त है। बार-बार खाते रहने की आदत बिलकुल छोड़ देनी चाहिए।
2—भोजन को ठीक तरह चबाया जाय—भोजन उतना चबाना कि वह सहज ही गले से नीचे उतर जाय। इसकी आदत ऐसे डाली जा सकती है कि रोटी अकेली, बिना साग के खावे और साग को अलग से खावें। साग के साथ गीली होने पर रोटी कम चबाने पर भी गले के नीचे उतर जाती है। पर यदि उसे बिना शाक के खाया जा रहा है तो उसे बहुत देर चबाने पर ही गले से नीचे उतारा जा सकेगा। यह बात अभ्यास के लिये है। जब आदत ठीक हो जाय तो शाक मिलाकर भी खा सकते हैं। 3—भोजन अधिक मात्रा में न हो—आधा पेट भोजन, एक चौथाई जल, एक चौथाई सांस आने-जाने के लिये खाली रखना चाहिए। अर्थात् भोजन आधे पेट किया जाय। 4—स्वाद की आदत छोड़ी जाय—अचार, मुरब्बे, सिरका, मिर्च, मसाले, खटाई, मीठा की अधिकता पेट खराब होने और रक्त को दूषित करने का कारण होती है। इन्हें छोड़ा जाय। हल्का-सा नमक और जरूरत हो तो थोड़ा धनिया, जीरा सुगन्ध के लिये लिया जा सकता है, पर अन्य मसाले तो छोड़ ही देने चाहिए। शरीर के लिये जितना नमक, शकर आवश्यक है उतना अन्न शाक आदि में पहले से ही मौजूद है। बाहर से जो मिलावट की जाती है वह तो स्वाद के लिए है। हमें स्वाद छोड़ना चाहिये। अभ्यास के लिये कुछ दिन तो नमक मीठा बिलकुल ही छोड़ देना चाहिये और अस्वाद व्रत पालन करना चाहिये। आदत सुधर जाने पर हलका-सा नमक, नीबू, आंवला, अदरक, हरा धनिया, पोदीना आदि को भोजन में मिलाकर उसे स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। सूखे मसाले स्वास्थ्य के शत्रु ही माने जाने चाहिये। मीठा कम से कम लें। आवश्यकतानुसार गुड़ या शहद से काम चलायें।
5—शाक और फलों का अधिक प्रयोग—शाकाहार को भोजन में प्रमुख स्थान रहे। आधा या तिहाई अन्न पर्याप्त है। शेष भाग शाक, फल, दूध, छाछ आदि रहे। ऋतु-फल सस्ते भी होते हैं और अच्छे भी रहते हैं। आम, अमरूद, बेर, जामुन, शहतूत, पपीता, केला, ककड़ी, खीरा, तरबूजा आदि-आदि अपनी-अपनी फसलों पर काफी सस्ते रहते हैं। लौकी तोरई, परवल, टमाटर, पालक, मेथी आदि सुपाच्य शाकों की मात्रा सदा अधिक ही रखनी चाहिये। गेहूं, चना आदि को अंकुरित करके खाया जाय तो उनसे बादाम जितना पोषक तत्व मिलेगा। उन्हें कच्चा हजम न किया जा सके तो उबाला, पकाया भी जा सकता है। अन्न, शाक और फलों के छिलकों में जीवन तत्व (विटामिन) बहुत रहता है, इसलिये आम, केला, पपीता आदि जिनका छिलका आवश्यक रूप से हटाना पड़े उन्हें छोड़कर शेष के छिलके खाये जाने ही ठीक हैं।
6—हानिकारक पदार्थों से दूर रहें—मांस, मछली, अण्डा, पकवान, मिठाई, चाट, पकौड़ी जैसे हानिकारक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिये। चाय, भांग, शराब आदि नशों को स्वास्थ्य का शत्रु ही माना गया है। तमाखू खाना-पीना, सूंघना, पान चबाना आदि आदतें आर्थिक और शारीरिक दोनों दृष्टि से हानिकारक हैं। वासी-कूसी, सड़ी-गली, गन्दगी के साथ बनाई हुई वस्तुओं से स्वास्थ्य का महत्व समझने वालों को बचते ही रहना चाहिए।
7—भाप से पकाये भोजन के लाभ—दाल-शाक पकाने में भाप की पद्धति उपयोगी है। खुले मुंह के बर्तन में तेज आग से पकाने से शाक के 70 प्रतिशत जीवन-तत्व नष्ट हो जाते हैं इस क्षति से बचने के लिये कुकर जैसी भाप से पकाने की पद्धति अपनानी चाहिए। इसी प्रकार हाथ की चक्की का पिसा आटा काम में लाना चाहिए। मशीन की चक्कियों और भाप से पकाने के बर्तनों का घर-घर प्रचलन होना चाहिये। ढीले और कम कपड़े पहनने चाहिये। सर्दी-गर्मी का प्रभाव सहने की क्षमता बनाये रहनी चाहिये। चिन्ता और परेशानी से चिन्तित न रहकर हर घड़ी प्रसन्न मुद्रा बनाये रहनी चाहिए।
8—स्वास्थ्य रक्षा के लिए सफाई आवश्यक है—सफाई का पूरा ध्यान रखा जाय। शरीर को अच्छी तरह घिसकर नहाना चाहिए शरीर को स्पर्श करने वाले कपड़े रोज धोने चाहिये। बिस्तरों को जल्दी-जल्दी धोते रहा जाय। धूप में तो उन्हें नित्य ही सुखाया जाय। घरों में ऐसी सफाई रखनी चाहिए कि मकड़ी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, जुए, चीलर, छिपकली, छछूंदर, चूहे, चमगादड़, घुन आदि बढ़ने न पावें। मल-मूत्र त्यागने के स्थानों की पूरी तरह सफाई रखी जाय। नालियां गन्दी न रहने पावें। खाद्य पदार्थों को ढक कर रखा जाय और सोते समय मुंह ढका न रहे। मकान में इतनी खिड़कियां और दरवाजे रहें कि प्रकाश और हवा आने-जाने की समुचित गुंजाइश बनी रहे। बर्तनों को साफ रखा जाय और उनके रखने का स्थान भी साफ हो। दीवार और फर्शों की जल्दी-जल्दी लिपाई, पुताई, धुलाई करते रहा जाय। सफाई का हर क्षेत्र में पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय। हर भोजन के बाद कुल्ला करना, रात को सोते समय दांत साफ करके सोना, अधिक ठण्डे और गरम पदार्थ न खाना दांतों की रक्षा के लिए आवश्यक है। जो इन नियमों पर ध्यान नहीं देते उनके दांत जल्दी ही गिरने और दर्द करने लगते हैं।
9—खुली वायु में रहिये—रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत डाली जाय। इससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और सवेरे के समय का जिस कार्य में भी उपयोग किया जाय उसी में सफलता मिलती हैं। प्रातः टहलने, व्यायाम एवं मालिश करने के उपरांत रगड़-रगड़ कर नहाने का अभ्यास प्रत्येक स्वास्थ्य के इच्छुक को करना चाहिये। सवेरे खुली हवा में टहलने वाले और व्यायाम करने वालों का स्वास्थ्य कभी खराब नहीं होने पाता। जो स्त्रियां टहलने नहीं जा सकती उन्हें चक्की पीसनी चाहिए या ऐसा ही कोई पसीना निकलने वाला कड़ा काम करना चाहिये।
10—ब्रह्मचर्य का पालन—ब्रह्मचर्य का समुचित ध्यान रखा जाय। विवाहितों और अविवाहितों को मर्यादाओं का समुचित पालन करना चाहिये। इस सम्बन्ध में जितनी कठोरता बरती जायगी स्वास्थ्य उतना ही अच्छा रहेगा। बुद्धिजीवियों और छात्रों के लिये तो यह और भी अधिक आवश्यक है क्योंकि इन्द्रिय असंयम से मानसिक दुर्बलता आती है और उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचने में भारी अड़चन पड़ती है।
यह दस साधारण नियम हैं जिनका व्यक्तिगत जीवन में प्रयोग करने के लिये हममें से हर एक को अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिये। परिवार के लोगों को इन स्वास्थ्य मर्यादाओं को पालन करने के लिये प्रशिक्षित करना चाहिये। जो लोग अपने सम्पर्क में आयें उन्हें भी इस अमृत औषधियों का अवलम्बन करने के लिये प्रेरणा देनी चाहिये। बदले हुये दृष्टिकोण को अपनाने से स्वास्थ्य की समस्या हल हो सकती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य की समस्या का हल इन्हीं तथ्यों को अपनाने से होगा। इसलिये धर्म कर्तव्यों की तरह ही इन आरोग्य मर्यादाओं का हमें पालन करना चाहिये और धर्म प्रचार की भावना से ही इन तथ्यों को अपनाने के लिये दूसरों को प्रेरित करना चाहिये।
स्वास्थ्य सम्वर्धन के सामूहिक प्रयास
हमें मिलजुल कर ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिये जिससे स्वास्थ्य संवर्धन की दिशा में आन्दोलन जैसी गति विधियां सजीव हो उठें। सम्मिलित प्रयत्नों से कार्यकर्त्ताओं में उत्साह आता है, आत्म संतोष बढ़ता है और जन-कल्याण की संभावना भी अधिक प्रशस्त हो जाती है। स्वास्थ्य आन्दोलन के सम्बन्ध में कुछ सुझाव नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं।
11—वनस्पतियों का उत्पादन—शाक, फल, वृक्ष और पुष्पों के उत्पन्न करने का आन्दोलन स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से बड़ा उपयोगी हो सकता है। घरों के आस-पास फूल उगाने, छप्परों पर लौकी, तोरई, सेम आदि की बेल चढ़ाने, आंगन में तुलसी का विरवा रोपने तथा जहां भी खाली जगह हो वहां फूल, पौधे लगा देने का प्रयत्न करना चाहिये। केला-पपीता आदि थोड़ी जगह होने पर भी लग सकते हैं। कोठियों बंगलों में अक्सर थोड़ी जगह खाली रहती है वहां शाक एवं फूलों को आसानी से उगाया जा सकता है। लगाने, सींचने, गोड़ने, मेंड़ बनाने आदि का काम घर के लोग किया करें तो उससे श्रमशीलता की आदत पड़ेगी और स्वास्थ्य सुधरेगा।
किसानों को शाक और फलों की खेती करने की प्रेरणा देनी चाहिये जिससे उन्हें लाभ भी अधिक मिले और स्वास्थ्य सम्बन्धी एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति भी होने लगे। जहां-तहां बड़े-बड़े वृक्षों को लगाना लोग पुण्य कार्य समझें। रास्तों के सहारे पेड़ लगाये जांय। बाग बगीचे लगाने की जन रुचि उत्पन्न की जाय। वायु की शुद्धि, वर्षा की अधिकता, फल, छाया, लकड़ी आदि की प्राप्ति, हरियाली से चित्त की प्रसन्नता, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ना, आदि अनेकों लाभ वृक्षों से होते हैं। यह प्रवृत्ति जनसाधारण में पैदा करके संसार में हरियाली और शोभा बढ़ानी चाहिये। आवश्यक वस्तुओं के बीज, गमले, पौधे आदि आसानी से मिल सकें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये। हो सके तो घर-घर जाकर इस सम्बन्ध में लोगों का मार्ग दर्शन करना चाहिये। जड़ी बूटियों के उद्यान एवं फार्म लगाने का प्रयत्न करना भी स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से आवश्यक है। पंसारियों की दुकानों पर सड़ी गली, वर्षों पुरानी, गुणहीन जड़ी-बूटियां मिलती हैं। उनसे बनी आयुर्वेदिक औषधियां भला क्या लाभ करेंगी? इस कमी को पूरी करने के लिये जड़ी बूटियों की कृषि की जानी चाहिये और चिकित्सा की एक बहुत बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिये।
12—पकाने की पद्धति में सुधार—भाप से भोजन पकाने के बर्तन एवं चक्कियां उपलब्ध हो सकें ऐसी निर्माण और विक्रय की व्यवस्था रहे। इनका मूल्य सस्ता रहे जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़े। अब बाल बियरिंग लगी हुई चक्की बनने लगी हैं जो चलने में बहुत हलकी होती हैं तथा घण्टे में काफी आटा पीसती हैं। इनका प्रचलन घर-घर किया जाय और इनकी टूट-फूट को सुधारने तथा चलाने सम्बन्धी आवश्यक जानकारी सिखाई जाय। खाते-पीते घरों की स्त्रियां चक्की पीसने में अपमान और असुविधा समझने लगी हैं, उन्हें चक्की के स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ समझाये जायें। पुरुष स्वयं पीसना आरम्भ करें। लोग हाथ का पिसा आटा खाने का ही व्रत लें तो चक्की का प्रचलन बढ़ेगा। इसी प्रकार भाप से भोजन पकने लगा तो वह 70 फीसदी अधिक पौष्टिक होगा और खाने में स्वाद भी लगेगा। इनका प्रसार आन्दोलन के ऊपर ही निर्भर है।
13—सात्विक आहार की पाक विद्या—तली हुई, भुनी और जली हुई अस्वास्थ्यकर मिठाइयों और पकवानों के स्थान पर ऐसे पदार्थों का प्रचलन किया जाय जो स्वादिष्ट भी लगें और लाभदायक भी हों। लौकी की खीर, गाजर का हलुआ, सलाद, कचूमर, श्रीखण्ड, मीठा दलिया अंकुरित अन्नों के व्यंजन जैसे पदार्थ बनाने की एक स्वतन्त्र पाक विद्या का विकास करना पड़ेगा जो दावतों में भी काम आ सके और हानि जरा भी न पहुंचाते हुए स्वादिष्ट भी लगें। चाय पीने वालों की आदत छुड़ाने के लिये गेहूं के भुने दलिये की या जड़ी बूटियों से बने हुए क्वाथ की चाय बनाना बताया जा सकता है। पान सुपाड़ी के स्थान पर सोंफ और धनिया संस्कारित करके तैयार किया जा सकता है। प्राकृतिक आहार के व्यंजनों की पाक विद्या का प्रसार हो सके तो स्वास्थ्य रक्षा की दिशा में बड़ी सहायता मिले।
14—गन्दगी का निराकरण—सार्वजनिक सफाई का प्रश्न सरकार के हाथों छोड़ देने से ही काम न चलेगा। लोगों को अपनी गन्दी आदतें छोड़ने के लिये और सार्वजनिक सफाई में दिलचस्पी लेने की प्रवृत्ति पैदा करनी पड़ेगी। बच्चों को घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों पर एवं नालियों पर टट्टी करने बिठा देना, सड़कों तथा गलियों पर घर का कूड़ा बखेर देना, धर्मशालाओं में, प्लेटफार्मों, रेल के डिब्बों और सार्वजनिक स्थानों को फलों के छिलके तथा नाक-थूक, रद्दी कागज, दौने, पत्तल आदि डाल कर गन्दा करना बुरी आदतें हैं, इससे बीमारी और गन्दगी फैलती है। देहातों में टट्टी-पेशाब के लिए उचित स्थानों की व्यवस्था नहीं होती। गांव के निकटवर्ती स्थानों तथा गली कूचों में इस प्रकार की गन्दगी फैलती है। जिन कुएं तालाबों का पानी पीने के काम आता है वहां गन्दगी नहीं रोकी जाती। यह प्रवृत्ति बदली जानी चाहिए। लकड़ी के बने इधर से उधर रखे जाने वाले शौचालय यदि देहातों में काम आने लगें तो खेती को खाद भी मिले, गन्दगी भी न फैले और बेपर्दगी भी न हों। खुरपी लेकर शौच जाना और गड्ढा खोद कर उसमें शौच करने के उपरान्त मिट्टी डालने की आदत पड़ जाय तो भी ग्रामीण जीवन में बहुत शुद्धि रहे। गड्ढे खोदकर उसमें कंकड़ पत्थर के टुकड़े डाल कर सोखने वाले पेशाब घर बनाये जांय और उनमें चूना फिनायल पड़ता रहे तो जहां-तहां पेशाब करने से फैलने वाली बीमारियों की बहुत रोकथाम हो सकती है। इसी प्रकार पशुओं के मलमूत्र की सफाई की भी उचित व्यवस्था रहे तो आधे रोगों से छुटकारा मिल सकता है। सार्वजनिक गन्दगी की समस्या देखने में तुच्छ प्रतीत होने पर भी वस्तुतः बहुत बड़ी है। लोकसेवकों को जनता की आदतें बदलने के लिये इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ करना ही होगा, अन्यथा बढ़ते हुए रोग घट न सकेंगे।
15—नशेबाजी का त्याग—नशेबाजी की बुराइयों को समझाने के लिए और इस बुरी आदत को छुड़ाने के लिए सभी प्रचार साधनों का उपयोग किया जाय। पंचायतों, धार्मिक समारोहों एवं शुभ कार्यों के अवसर पर इस हानिकारक बुराई को छुड़ाने के लिए प्रतिज्ञाएं कराई जायें।
16—व्यायाम और उसका प्रशिक्षण—आसन, व्यायाम, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, खेल-कूद, सवेरे का टहलना, अंग संचालन, मालिश आदि की विधियां सिखाने के लिए ‘वर्ग’ चलाये जांय। सामूहिक व्यायाम करने के लिये जहां सम्भव हो वहां दैनिक व्यवस्था की जाय। व्यायाम अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र है। चारपाई पर पड़े हुए रोगी भी कुछ खास प्रकार के अंग-संचालन, हलके व्यायाम करते हुए कठिन रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। बूढ़े आदमी अपने बुढ़ापे को दस-बीस साल आगे धकेल सकते हैं। कमजोर प्रकृति के व्यक्ति, छोटे बच्चे, विद्यार्थी, किशोर, तरुण स्त्रियां, लड़कियां, यहां तक कि गर्भवती स्त्रियों के लिए भी उनकी स्थिति के उपयुक्त व्यायाम बहुत ही आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न कर सकता है। इस प्रकार का ज्ञान हम लोग प्राप्त करें और उसको सर्व साधारण को दें। समय-समय पर ऐसे आयोजन करते रहें जिन्हें देखकर लोगों में इस प्रकार की प्रेरणा स्वयं पैदा हो।
अखाड़े, व्यायामशाला, क्रीड़ा-प्रांगण आदि स्वास्थ्य-संस्थानों की जगह-जगह स्थापना की जानी चाहिए। लाठी, भाला, तलवार, छुरा, धनुष आदि हथियार चलाने की शिक्षा जहां स्वास्थ्य सुधारती है, व्यायाम की आवश्यकता पूर्ण करती है, वहीं वह मनोबल और साहस भी बढ़ाती एवं आत्म रक्षा की क्षमता उत्पन्न करती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण देने वाले तैयार करना तथा लोगों में उसके लिए आवश्यक उत्साह पैदा करना हमारा काम होना चाहिए। कुश्ती, दौड़, तैराकी, रस्साकशी, लम्बी कूद, ऊंची छलांग, कबड्डी, गेद आदि का दंगल, एवं प्रतियोगिता आयोजनों और पुरस्कार व्यवस्था करवाने से भी इन कार्यों में लोगों का उत्साह बढ़ता है। ऐसे सम्मेलन यदि ईर्ष्या-द्वेष से बचाये रखे जांय और गलत प्रतिस्पर्धा न होने दी जाय तो पारस्परिक प्रेम भाव बढ़ाने एवं गुण्डागर्दी के विरुद्ध एक शक्ति प्रदर्शन का भी काम दे सकते हैं। डम्बल, मुगदर, लेजम, खींचने के स्प्रिंग, तानने के रबड़ के घेरे, गेंद बल्ला, आदि व्यायाम सम्बन्धी उपकरण तथा साहित्य हर जगह मिल सके ऐसी विक्रय व्यवस्था भी हर जगह रहनी चाहिए।
‘फर्स्ट एड’ की शिक्षा का प्रबन्ध हर जगह रहना चाहिए और उसे विधिवत् सीखने तथा रैड क्रास सोसाइटी का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए उत्साह पैदा करना चाहिए। स्काउटिंग की भी भावना और शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है।
17—साप्ताहिक उपवास—साप्ताहिक छुट्टी पेट को भी मिलनी चाहिए। छह दिन काम करने के बाद एक दिन पेट को काम न करना पड़े, उपवास रखा जाया करे, तो पाचन क्रिया में कोई खराबी न आने पाये। विश्राम के दिन सप्ताह भर की जमा हुई कब्ज पच जाया करे और अगले सप्ताह अधिक अच्छी तरह काम करने के लिए पेट समर्थ हो जाया करे। देश में अन्न की वर्तमान कमी के कारण विदेशों से बहुत दुर्लभ विदेशी मुद्रा व्यय करके अन्न मंगाना पड़ता है। यदि सप्ताह में एक दिन उपवास का क्रम चल पड़े तो वह कमी सहज ही पूरी हो जाय। पूरे दिन न बन पड़े तो एक समय भोजन छोड़ने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। जो लोग अधिक अशक्त होंवें, वे दूध, फल शाक आदि भले ही ले लिया करें, पर सप्ताह में एक समय अन्न छोड़ने—उपवास करने का तो प्रचलन किया जाय। उपवास का आध्यात्मिक लाभ तो स्पष्ट ही है, शारीरिक लाभ भी कम नहीं।
18—बड़ी दावतें और जूठन—बड़ी दावतों में अन्न का अपव्यय न होने देना चाहिए। प्रीतिभोजों, में खाने वालों की संख्या कम से कम रहे और खाने की वस्तुएं कम संख्या में ही परोसी जांय, जिससे अन्न की बर्बादी न हो।
थाली में जूठन छोड़ने की प्रथा बिलकुल ही बन्द की जाय। मेहतर या कुत्ते को भोजन देना हो तो अच्छा और स्वच्छ भोजन देना चाहिए। उच्छिष्ट भोजन कराने से तो उलटा पाप चढ़ता है। खाने वाले की भी शारीरिक और मानसिक हानि होती है। अन्न देवता का अपमान धार्मिक दृष्टि से भी पाप है। अन्न की बर्बादी तो प्रत्यक्ष ही है। 19—सन्तान की सीमा मर्यादा—देश की बढ़ती हुई जनसंख्या, आर्थिक कठिनाई, साधनों की कमी और जन साधारण के गिरे हुए स्वास्थ्य के देखते हुए यही उचित है कि प्रत्येक गृहस्थ कम से कम सन्तान उत्पन्न करे। अधिक सन्तान उत्पन्न होने से माताएं दुर्बलता ग्रस्त होकर अकाल में ही काल कवलित हो जाती हैं। बच्चे कमजोर होते हैं और ठीक प्रकार पोषण न होने पर अस्वस्थता एवं अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं। शिक्षा और विकास की समुचित सुविधा न होने से बालक भी अविकसित रह जाते हैं। इसलिए सन्तान को न्यूनतम रखने का ही प्रसार किया जाय। लोग ब्रह्मचर्य से रहें अथवा परिवार नियोजन विशेषज्ञों की सलाह लें। सन्तान के उत्तरदायित्वों एवं चिन्ताओं से जो व्यक्ति जितने हलके होंगे—वे उतने निरोग रहेंगे, यह तथ्य हर सद्गृहस्थ भली प्रकार समझ सके इसी में उसका कल्याण है।
20—प्राकृतिक चिकित्सा की जानकारी—पंच तत्वों से रोग निवारण की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को लोक प्रिय बनाया जाना चाहिए। जगह-जगह ऐसे चिकित्सालय रहें। इनमें उपवास एनिमा, जल चिकित्सा, सूर्य, चिकित्सा, मिट्टी, भाप आदि साधनों की सहायता से शरीर का कल्प जैसा शोधन होता है और एक रोग की ही नहीं, समस्त रोगों की जड़ ही कट जाती है। सर्वसाधारण को इस पद्धति का इतना ज्ञान करा दिया जाय कि आवश्यकता पड़ने पर अपनी तथा अपने घर के लोगों की चिकित्सा स्वयं ही कर लिया करें।
यह सभी प्रयत्न ऐसे हैं जो सामूहिक रूप से ही प्रसारित किये जा सकते हैं। इन्हें आन्दोलन का रूप मिलना चाहिए और इनका संचालन ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवारों के सम्मिलित प्रयत्नों से होता रहना चाहिए।