
सभ्य समाज की स्वस्थ रचना
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सामाजिक सुव्यवस्था के लिये हमें अपना वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन भी ऐसा बनाना चाहिये कि उसका सत्प्रभाव सारे समाज पर पड़े। इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था में जहां व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है उसे सुधारना चाहिए। स्वस्थ परम्पराओं को सुदृढ़ बनाने और अस्वस्थ प्रथाओं को हटाने का ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि सभ्य समाज की रचना का लक्ष्य पूर्ण हो सके। नीचे कुछ ऐसे ही कार्यक्रम दिये गये हैं:—
41—सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा—सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। व्यक्ति अपने आपको संकीर्ण दायरे तक ही सीमित न रखे। स्त्री-बच्चों को ही अपना न माने वरन् भाई, माता-पिता एवं अन्य सम्बद्ध कुटुम्बियों की प्रगति एवं सुव्यवस्था का भी आत्मीयतापूर्ण ध्यान रखना चाहिए। सब लोग मिल जुल कर रहें, एक दूसरे की सहायता करें, सहनशीलता, सहिष्णुता, त्याग और उदारता की सद्वृत्तियों को बढ़ावें, यही आत्म-विकास की श्रेष्ठ परम्परा है। स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करने की परम्परा सम्मिलित कुटुम्ब में ही संभव है। अशान्ति और मनोमालिन्य उत्पन्न करने वाले कारणों को हटाना चाहिए किन्तु मूल आधार को नष्ट नहीं करना चाहिए। समाजवाद का प्राथमिक रूप सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा ही है, उसे सुविकसित करना ही श्रेष्ठ है।
42—पारिवारिक विचारगोष्ठी—प्रत्येक परिवार में नित्य विचारगोष्ठी के रूप में सत्संग क्रम चला करे। कथा-कहानी, पुस्तकें पढ़ कर सुनाना सामयिक समाचारों की चर्चा करते हुए जीवन की विभिन्न समस्याओं के सुलझाने का प्रशिक्षण करना चाहिए। बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की और छोटों की भी ‘तू’ न कह कर तुम या आप कहने की शिष्ट परम्पराएं हर परिवार में चलनी चाहिए। हर घर में उपासना कक्ष हो जहां बैठ कर कम से कम दस मिनट घर का हर सदस्य उपासना किया करे। घरेलू पुस्तकालय से विहीन कोई घर न रहे। जिन्दगी कैसे जिएं और नित्यप्रति सामने आती रहने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए संजीवन विद्या का साहित्य बचपन से ही पढ़ा और सुना जाना चाहिए। उपासना स्वाध्याय और सत्संग की नियमित व्यवस्था रहे तो उसका प्रतिफल सुखी परिवारों के रूप में सामने आवेगा और सभ्य समाज की रचना का उद्देश्य आसानी से पूर्ण होगा।
43—सत्प्रवृत्ति का अभ्यास—परिवारों में पारस्परिक सहयोग, सभी का परिश्रमी होना, टूटी, पुरानी वस्तुओं की मरम्मत और सदुपयोग, कोने-कोने में सफाई, वस्त्रों के धोने का काम अधिकांश घर में होना, सभी सदस्यों का नियमित व्यायाम, घरेलू झगड़ों को सुलझाने की व्यवस्था, शिक्षा में सभी की अभिरुचि, स्वावलम्बन और बौद्धिक विकास के लिए सतत् प्रयत्न, मितव्ययिता और सादगी, कपड़ों की सिलाई आदि गृहउद्योगों का सूत्रपात, लोक हित के लिए नित्य नियमित दान जैसे अनेक कार्यक्रम घर की प्रयोगशाला में चलाये जा सकते हैं। यही प्रशिक्षण बड़े रूप से विकसित हों तो सारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत बन सकता है।
44—सन्तान और उसकी जिम्मेदारी—नई पीढ़ी का निर्माण एक परम पवित्र और समाज सेवा का श्रेष्ठ साधन माना जाय। सन्तानोत्पादन को विलास का नहीं, राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति का एक देशभक्ति पूर्ण कार्य माना जाय। इसके लिए माता-पिता अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तैयारी बहुत पहले से ही आरम्भ करें। जो गुण-दोष माता-पिता में होते हैं वही सन्तान में आते हैं, इसलिए पति-पत्नी अपने सद्गुणों को ऊंची से ऊंची स्थिति तक चढ़ावें और अत्यन्त प्रेम एवं आत्मीयता से रहें। इसी एकता की उत्कृष्टता पर बालक का आन्तरिक विकास निर्भर रहता है। परस्पर द्वेष अविश्वास एवं कलह रखने वाले माता-पिता दुष्टात्मा सन्तान को ही जन्म देते हैं। गर्भावस्था में माता की भावनाएं जिस प्रकार की रहती हैं वे ही संस्कार बच्चे में आते हैं। बालकों की शिक्षा माता के गर्भ-काल से तो आरम्भ हो ही जाती है, वस्तुतः वह इससे भी बहुत पहले होता है। माता-पिता के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वास्थ्य, मनोभाव बौद्धिक स्तर का प्रभाव बालकों पर आता है। इसलिए सभ्य पीढ़ी उत्पन्न करने की क्षमता विचारशील पति-पत्नी को वैवाहिक जीवन के आरंभ से ही प्राप्त करने में लग जाना चाहिए। अधिक ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए और दाम्पत्य जीवन को प्रत्येक दृष्टि से आदर्श बनाना चाहिए।
45—सत्कार्यों का अभिनन्दन—प्रतिष्ठा की भूख स्वाभाविक है। मनुष्य को जिस कार्य में बड़प्पन मिलता है वह उसी ओर झुकने लगता है। आज धन और पद को सम्मान मिलता है तो लोग उस दिशा में आकर्षित हैं। यदि यह मूल्यांकन बदल जाय और ज्ञानी, त्यागी एवं पराक्रमी लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध होने लगे तो इस ओर भी लोगों का ध्यान जायगा और समाज में सत्कर्म करने की प्रगति बढ़ेगी। हमें चाहिए कि ऐसे लोगों को मान देने के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन करने के लिए समय-समय पर आयोजन करते रहें। मानपत्र भेंट करना, सार्वजनिक अभिनन्दन, पदक-उपहार, समाचार पत्रों में उन सत्कर्मों की चर्चा, फोटो, चरित्र-पुस्तिका आदि का प्रकाशन हम लोग कर सकते हैं। उन सत्कर्मकर्ताओं को इसकी इच्छा न होना ही उचित है, पर दूसरों को प्रोत्साहन देने और वैसे ही अनुकरण की इच्छा दूसरों में जागृत हो, इस दृष्टि से सत्कर्मों के अभिनन्दन की परम्परा प्रचलित करना ही चाहिए। ऐसे आयोजन हलके कारणों को लेकर या झूठी प्रशंसा में न किए जांय, अन्यथा ईर्ष्या द्वेष की दुर्भावनाएं बढ़ेंगी। सभ्य समाज का निर्माण करने के लिए धन एवं शक्ति को नहीं, आदर्श को ही सम्मान मिलना चाहिए।
46—सज्जनता का सहयोग—यदि मानवता का स्तर ऊंचा उठाना हो तो सज्जनता के साथ सहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए सज्जनता को यदि सहयोग और प्रोत्साहन न मिले तो वह मुरझा जायगी। इसी प्रकार दुष्टता का विरोध न किया गया तो वह भी दिन-दिन बढ़ती चली जायगी। इसलिए प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपनी नीति ऐसी रखे जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती रहे और अनीति को निरुत्साहित होना पड़े।
परिस्थितिवश यदि दुष्टता का पूर्ण प्रतिरोध संभव न हो, इसमें अपने लिए खतरा दीखता हो तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि उनकी हां में हां मिलाने, सम्पर्क रखने या साथ में रहने से बचा जाय, क्योंकि इससे दूसरे प्रतिरोध करने वाले की हिम्मत टूटती है और अनीति का पक्ष मजबूत होता है। संभव हो तो तीव्र संघर्ष, न हो तो दुष्टता से असहयोग तो हर हालत में करने का साहस रखना ही चाहिए।
47—नैतिक कर्तव्यों का पालन—नैतिक एवं नागरिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक स्वस्थ परम्पराओं का समर्थन, धर्म और नीति के आधार पर आचरण, शिष्ट व्यवहार, वचन का पालन, सहयोग और उदारता का अवलम्बन, ईमानदारी और श्रम उपार्जित कमाई पर सन्तोष, सादगी और सचाई का जीवन—ऐसे ही सद्गुणों को अपनाना चाहिए। मानवता की रीति नीति को अपनाकर हमें सदा सन्मार्ग पर ही चलना चाहिए भले ही इसमें अभावों, असुविधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़े।
आलसी नहीं बनना चाहिए और न समय का एक क्षण भी बर्बाद करना चाहिए। श्रम और समय का सदुपयोग यही सफलता के माध्यम हैं। जुआ, चोरी, बेईमानी, रिश्वत, मिलावट, धोखेबाजी जैसे अवांछनीय उपायों से कमाई करके बड़ा आदमी बनने की अपेक्षा ईमानदारी को अपना कर गरीबी का जीवन बिताना श्रेयस्कर समझना चाहिए। इसी अवस्था और गतिविधि को अपनाकर हम अपना और समाज का उत्थान कर सकते हैं, यह भली प्रकार समझ लिया जाय।
48—सहयोग और सामूहिकता—सहयोगपूर्वक, मिलजुल कर सम्मिलित कार्यक्रम को बढ़ाने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र में सहयोग समितियों के आधार पर व्यापारिक औद्योगिक एवं उत्पादन के कार्यों को विकसित किया जाय। इसमें पूंजी की कठिनाई रहती है। बड़े पैमाने पर कार्य होने से चीजें सस्ती एवं अच्छी तैयार होती हैं। इससे उत्पादकों को भी लाभ मिलता है। उपभोक्ताओं की भी सुविधा बढ़ती है। कार्यकर्ताओं में पारस्परिक प्रेम भी बढ़ता है व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामूहिक लाभ एवं संगठन की भावनाएं विकसित होती हैं।
पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति हो सकती है। इसलिए सामूहिकता और संगठन के आधार पर संचालित प्रवृत्तियों में भाग लेना, योग देना और उन्हें बढ़ाना ही उचित है। सहयोग की नीति अपनाकर ही मानव जाति ने अब तक इतनी प्रगति की है। इन भावनाओं में शिथिलता आने से सामाजिक पतन और तीव्रता आने से उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम करते हुए सहयोग एवं संगठन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन करना चाहिए। 49—कंजूसी और विलासिता छूटे—धन का अनावश्यक संग्रह करने और देश के मध्यम स्तर से अधिक ऊंचा रहन-सहन बनाने को निरुत्साहित किया जाना चाहिए। इससे व्यक्तियों में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं और सामाजिक स्तर गिरता है। लोग कमावें तो सही पर उसका न्यूनतम उपयोग अपने लिए करके शेष को समाज के लिए लौटा दें। समाज में जब कि अनेक दीन-दुःखी, अभावग्रस्त और पिछड़े हुए व्यक्ति भरे पड़े हैं, अनेकों समस्याएं समाज को परेशान कर रही हैं, इन सब की उपेक्षा करके अपने लिए अनावश्यक संग्रह करते जाना मानवीय आदर्श के प्रतिकूल है।
सन्तान को सुशिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिए प्रयत्न करना उचित है पर उनको बैठे-ठाले, ब्याज भाड़े की कमाई पर निकम्मी जिन्दगी काटने की व्यवस्था सोचना भारी भूल है। इससे सन्तान का अहित होता है। कई व्यक्ति संतान न होने पर अपने धन को लोकहित के कामों में न लगा कर झूठी सन्तान ढूंढ़ते हैं, दूसरों के बच्चों को गोद रख कर बहकावा खड़ा करते हैं और उसी को जमा की हुई पूंजी देते हैं। ऐसी संकीर्णता जब तक बनी रहेगी समाज कभी पनपेगा नहीं।
कमाई को लोकहित में लगाने का गर्व और गौरव अनुभव कर सकने की प्रवृत्ति को जगाया जाना आवश्यक है। लोग उदार और दानी बनेंगे तो ही सत्प्रवृत्तियों का उत्पन्न होना और बढ़ाना सम्भव होगा। कंजूसी को घृणित पाप और विलासिता को पाषाण हृदयों के योग्य निष्ठुरता माना जाय, ऐसा लोक शिक्षण करना चाहिए।
50—श्रम का सम्मान—श्रम का सम्मान बढ़ाया जाय। बौद्धिक श्रम करने वालों को धन और श्रम अधिक मिलता है और शारीरिक श्रमिकों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए। शारीरिक श्रम एवं श्रमिकों को भी उचित सम्मान मिले। राजा जनक ने हल जोतकर अपनी जीविका कमाने का आदर्श रखा था और नसीरुद्दीन बादशाह टोपियां सींकर तथा कुरान लिखकर अपना गुजारा करता था।
हमारे समाज में सफाई करने वाले, कपड़े बुनने वाले, जूता बनाने वाले, कपड़े धोने वाले, इमारतें चिनने वाले, बोझा ढोने वाले, मजूरी करने वाले लोग इसीलिए नीच और अछूत माने गये कि वे शारीरिक श्रम करते हैं। थोड़ा-सा अपना बोझ ले चलने में बेइज्जती अनुभव करना आज के शिक्षित एवं सम्पन्न कहे जाने वाले लोगों का स्वभाव बन गया है। ऐसे लोगों की स्त्रियां भोजन बनाने, बर्तन मांजने, झाड़ू लगाने, बिस्तर बिछाने जैसे कामों में बेइज्जती समझती और इन छोटे-छोटे कामों के लिए नौकर चाहती हैं। अमीर लोग जूतों और कपड़े पहनने काम तक नौकरों से कराते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्तियां किसी भी समाज के पतन का करण होती हैं।
श्रम का सम्मान घटने से इस ओर लोगों की अरुचि हो जाती है। आरामतलबी को श्रेय मिले तो सभी वैसा बनना चाहेंगे। प्रगति से सहयोग मिलता है, पर उसको साकार रूप तो श्रम से ही मिलता है। इसलिए श्रमिक को प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए और सम्मान भी। हम में से हर व्यक्ति को शारीरिक दृष्टि से भी श्रमिक जैसी अपनी स्थिति और मनोभूमि बनानी चाहिए। सामाजिक प्रगति का बहुत कुछ आधार ‘श्रम के सम्मान’ पर निर्भर है।
41—सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा—सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। व्यक्ति अपने आपको संकीर्ण दायरे तक ही सीमित न रखे। स्त्री-बच्चों को ही अपना न माने वरन् भाई, माता-पिता एवं अन्य सम्बद्ध कुटुम्बियों की प्रगति एवं सुव्यवस्था का भी आत्मीयतापूर्ण ध्यान रखना चाहिए। सब लोग मिल जुल कर रहें, एक दूसरे की सहायता करें, सहनशीलता, सहिष्णुता, त्याग और उदारता की सद्वृत्तियों को बढ़ावें, यही आत्म-विकास की श्रेष्ठ परम्परा है। स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करने की परम्परा सम्मिलित कुटुम्ब में ही संभव है। अशान्ति और मनोमालिन्य उत्पन्न करने वाले कारणों को हटाना चाहिए किन्तु मूल आधार को नष्ट नहीं करना चाहिए। समाजवाद का प्राथमिक रूप सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा ही है, उसे सुविकसित करना ही श्रेष्ठ है।
42—पारिवारिक विचारगोष्ठी—प्रत्येक परिवार में नित्य विचारगोष्ठी के रूप में सत्संग क्रम चला करे। कथा-कहानी, पुस्तकें पढ़ कर सुनाना सामयिक समाचारों की चर्चा करते हुए जीवन की विभिन्न समस्याओं के सुलझाने का प्रशिक्षण करना चाहिए। बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की और छोटों की भी ‘तू’ न कह कर तुम या आप कहने की शिष्ट परम्पराएं हर परिवार में चलनी चाहिए। हर घर में उपासना कक्ष हो जहां बैठ कर कम से कम दस मिनट घर का हर सदस्य उपासना किया करे। घरेलू पुस्तकालय से विहीन कोई घर न रहे। जिन्दगी कैसे जिएं और नित्यप्रति सामने आती रहने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए संजीवन विद्या का साहित्य बचपन से ही पढ़ा और सुना जाना चाहिए। उपासना स्वाध्याय और सत्संग की नियमित व्यवस्था रहे तो उसका प्रतिफल सुखी परिवारों के रूप में सामने आवेगा और सभ्य समाज की रचना का उद्देश्य आसानी से पूर्ण होगा।
43—सत्प्रवृत्ति का अभ्यास—परिवारों में पारस्परिक सहयोग, सभी का परिश्रमी होना, टूटी, पुरानी वस्तुओं की मरम्मत और सदुपयोग, कोने-कोने में सफाई, वस्त्रों के धोने का काम अधिकांश घर में होना, सभी सदस्यों का नियमित व्यायाम, घरेलू झगड़ों को सुलझाने की व्यवस्था, शिक्षा में सभी की अभिरुचि, स्वावलम्बन और बौद्धिक विकास के लिए सतत् प्रयत्न, मितव्ययिता और सादगी, कपड़ों की सिलाई आदि गृहउद्योगों का सूत्रपात, लोक हित के लिए नित्य नियमित दान जैसे अनेक कार्यक्रम घर की प्रयोगशाला में चलाये जा सकते हैं। यही प्रशिक्षण बड़े रूप से विकसित हों तो सारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत बन सकता है।
44—सन्तान और उसकी जिम्मेदारी—नई पीढ़ी का निर्माण एक परम पवित्र और समाज सेवा का श्रेष्ठ साधन माना जाय। सन्तानोत्पादन को विलास का नहीं, राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति का एक देशभक्ति पूर्ण कार्य माना जाय। इसके लिए माता-पिता अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तैयारी बहुत पहले से ही आरम्भ करें। जो गुण-दोष माता-पिता में होते हैं वही सन्तान में आते हैं, इसलिए पति-पत्नी अपने सद्गुणों को ऊंची से ऊंची स्थिति तक चढ़ावें और अत्यन्त प्रेम एवं आत्मीयता से रहें। इसी एकता की उत्कृष्टता पर बालक का आन्तरिक विकास निर्भर रहता है। परस्पर द्वेष अविश्वास एवं कलह रखने वाले माता-पिता दुष्टात्मा सन्तान को ही जन्म देते हैं। गर्भावस्था में माता की भावनाएं जिस प्रकार की रहती हैं वे ही संस्कार बच्चे में आते हैं। बालकों की शिक्षा माता के गर्भ-काल से तो आरम्भ हो ही जाती है, वस्तुतः वह इससे भी बहुत पहले होता है। माता-पिता के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वास्थ्य, मनोभाव बौद्धिक स्तर का प्रभाव बालकों पर आता है। इसलिए सभ्य पीढ़ी उत्पन्न करने की क्षमता विचारशील पति-पत्नी को वैवाहिक जीवन के आरंभ से ही प्राप्त करने में लग जाना चाहिए। अधिक ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए और दाम्पत्य जीवन को प्रत्येक दृष्टि से आदर्श बनाना चाहिए।
45—सत्कार्यों का अभिनन्दन—प्रतिष्ठा की भूख स्वाभाविक है। मनुष्य को जिस कार्य में बड़प्पन मिलता है वह उसी ओर झुकने लगता है। आज धन और पद को सम्मान मिलता है तो लोग उस दिशा में आकर्षित हैं। यदि यह मूल्यांकन बदल जाय और ज्ञानी, त्यागी एवं पराक्रमी लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध होने लगे तो इस ओर भी लोगों का ध्यान जायगा और समाज में सत्कर्म करने की प्रगति बढ़ेगी। हमें चाहिए कि ऐसे लोगों को मान देने के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन करने के लिए समय-समय पर आयोजन करते रहें। मानपत्र भेंट करना, सार्वजनिक अभिनन्दन, पदक-उपहार, समाचार पत्रों में उन सत्कर्मों की चर्चा, फोटो, चरित्र-पुस्तिका आदि का प्रकाशन हम लोग कर सकते हैं। उन सत्कर्मकर्ताओं को इसकी इच्छा न होना ही उचित है, पर दूसरों को प्रोत्साहन देने और वैसे ही अनुकरण की इच्छा दूसरों में जागृत हो, इस दृष्टि से सत्कर्मों के अभिनन्दन की परम्परा प्रचलित करना ही चाहिए। ऐसे आयोजन हलके कारणों को लेकर या झूठी प्रशंसा में न किए जांय, अन्यथा ईर्ष्या द्वेष की दुर्भावनाएं बढ़ेंगी। सभ्य समाज का निर्माण करने के लिए धन एवं शक्ति को नहीं, आदर्श को ही सम्मान मिलना चाहिए।
46—सज्जनता का सहयोग—यदि मानवता का स्तर ऊंचा उठाना हो तो सज्जनता के साथ सहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए सज्जनता को यदि सहयोग और प्रोत्साहन न मिले तो वह मुरझा जायगी। इसी प्रकार दुष्टता का विरोध न किया गया तो वह भी दिन-दिन बढ़ती चली जायगी। इसलिए प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपनी नीति ऐसी रखे जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती रहे और अनीति को निरुत्साहित होना पड़े।
परिस्थितिवश यदि दुष्टता का पूर्ण प्रतिरोध संभव न हो, इसमें अपने लिए खतरा दीखता हो तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि उनकी हां में हां मिलाने, सम्पर्क रखने या साथ में रहने से बचा जाय, क्योंकि इससे दूसरे प्रतिरोध करने वाले की हिम्मत टूटती है और अनीति का पक्ष मजबूत होता है। संभव हो तो तीव्र संघर्ष, न हो तो दुष्टता से असहयोग तो हर हालत में करने का साहस रखना ही चाहिए।
47—नैतिक कर्तव्यों का पालन—नैतिक एवं नागरिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक स्वस्थ परम्पराओं का समर्थन, धर्म और नीति के आधार पर आचरण, शिष्ट व्यवहार, वचन का पालन, सहयोग और उदारता का अवलम्बन, ईमानदारी और श्रम उपार्जित कमाई पर सन्तोष, सादगी और सचाई का जीवन—ऐसे ही सद्गुणों को अपनाना चाहिए। मानवता की रीति नीति को अपनाकर हमें सदा सन्मार्ग पर ही चलना चाहिए भले ही इसमें अभावों, असुविधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़े।
आलसी नहीं बनना चाहिए और न समय का एक क्षण भी बर्बाद करना चाहिए। श्रम और समय का सदुपयोग यही सफलता के माध्यम हैं। जुआ, चोरी, बेईमानी, रिश्वत, मिलावट, धोखेबाजी जैसे अवांछनीय उपायों से कमाई करके बड़ा आदमी बनने की अपेक्षा ईमानदारी को अपना कर गरीबी का जीवन बिताना श्रेयस्कर समझना चाहिए। इसी अवस्था और गतिविधि को अपनाकर हम अपना और समाज का उत्थान कर सकते हैं, यह भली प्रकार समझ लिया जाय।
48—सहयोग और सामूहिकता—सहयोगपूर्वक, मिलजुल कर सम्मिलित कार्यक्रम को बढ़ाने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र में सहयोग समितियों के आधार पर व्यापारिक औद्योगिक एवं उत्पादन के कार्यों को विकसित किया जाय। इसमें पूंजी की कठिनाई रहती है। बड़े पैमाने पर कार्य होने से चीजें सस्ती एवं अच्छी तैयार होती हैं। इससे उत्पादकों को भी लाभ मिलता है। उपभोक्ताओं की भी सुविधा बढ़ती है। कार्यकर्ताओं में पारस्परिक प्रेम भी बढ़ता है व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामूहिक लाभ एवं संगठन की भावनाएं विकसित होती हैं।
पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति हो सकती है। इसलिए सामूहिकता और संगठन के आधार पर संचालित प्रवृत्तियों में भाग लेना, योग देना और उन्हें बढ़ाना ही उचित है। सहयोग की नीति अपनाकर ही मानव जाति ने अब तक इतनी प्रगति की है। इन भावनाओं में शिथिलता आने से सामाजिक पतन और तीव्रता आने से उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम करते हुए सहयोग एवं संगठन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन करना चाहिए। 49—कंजूसी और विलासिता छूटे—धन का अनावश्यक संग्रह करने और देश के मध्यम स्तर से अधिक ऊंचा रहन-सहन बनाने को निरुत्साहित किया जाना चाहिए। इससे व्यक्तियों में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं और सामाजिक स्तर गिरता है। लोग कमावें तो सही पर उसका न्यूनतम उपयोग अपने लिए करके शेष को समाज के लिए लौटा दें। समाज में जब कि अनेक दीन-दुःखी, अभावग्रस्त और पिछड़े हुए व्यक्ति भरे पड़े हैं, अनेकों समस्याएं समाज को परेशान कर रही हैं, इन सब की उपेक्षा करके अपने लिए अनावश्यक संग्रह करते जाना मानवीय आदर्श के प्रतिकूल है।
सन्तान को सुशिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिए प्रयत्न करना उचित है पर उनको बैठे-ठाले, ब्याज भाड़े की कमाई पर निकम्मी जिन्दगी काटने की व्यवस्था सोचना भारी भूल है। इससे सन्तान का अहित होता है। कई व्यक्ति संतान न होने पर अपने धन को लोकहित के कामों में न लगा कर झूठी सन्तान ढूंढ़ते हैं, दूसरों के बच्चों को गोद रख कर बहकावा खड़ा करते हैं और उसी को जमा की हुई पूंजी देते हैं। ऐसी संकीर्णता जब तक बनी रहेगी समाज कभी पनपेगा नहीं।
कमाई को लोकहित में लगाने का गर्व और गौरव अनुभव कर सकने की प्रवृत्ति को जगाया जाना आवश्यक है। लोग उदार और दानी बनेंगे तो ही सत्प्रवृत्तियों का उत्पन्न होना और बढ़ाना सम्भव होगा। कंजूसी को घृणित पाप और विलासिता को पाषाण हृदयों के योग्य निष्ठुरता माना जाय, ऐसा लोक शिक्षण करना चाहिए।
50—श्रम का सम्मान—श्रम का सम्मान बढ़ाया जाय। बौद्धिक श्रम करने वालों को धन और श्रम अधिक मिलता है और शारीरिक श्रमिकों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए। शारीरिक श्रम एवं श्रमिकों को भी उचित सम्मान मिले। राजा जनक ने हल जोतकर अपनी जीविका कमाने का आदर्श रखा था और नसीरुद्दीन बादशाह टोपियां सींकर तथा कुरान लिखकर अपना गुजारा करता था।
हमारे समाज में सफाई करने वाले, कपड़े बुनने वाले, जूता बनाने वाले, कपड़े धोने वाले, इमारतें चिनने वाले, बोझा ढोने वाले, मजूरी करने वाले लोग इसीलिए नीच और अछूत माने गये कि वे शारीरिक श्रम करते हैं। थोड़ा-सा अपना बोझ ले चलने में बेइज्जती अनुभव करना आज के शिक्षित एवं सम्पन्न कहे जाने वाले लोगों का स्वभाव बन गया है। ऐसे लोगों की स्त्रियां भोजन बनाने, बर्तन मांजने, झाड़ू लगाने, बिस्तर बिछाने जैसे कामों में बेइज्जती समझती और इन छोटे-छोटे कामों के लिए नौकर चाहती हैं। अमीर लोग जूतों और कपड़े पहनने काम तक नौकरों से कराते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्तियां किसी भी समाज के पतन का करण होती हैं।
श्रम का सम्मान घटने से इस ओर लोगों की अरुचि हो जाती है। आरामतलबी को श्रेय मिले तो सभी वैसा बनना चाहेंगे। प्रगति से सहयोग मिलता है, पर उसको साकार रूप तो श्रम से ही मिलता है। इसलिए श्रमिक को प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए और सम्मान भी। हम में से हर व्यक्ति को शारीरिक दृष्टि से भी श्रमिक जैसी अपनी स्थिति और मनोभूमि बनानी चाहिए। सामाजिक प्रगति का बहुत कुछ आधार ‘श्रम के सम्मान’ पर निर्भर है।