
कला और उसका सदुपयोग
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मानव अन्तःकरण को पुलकित एवं भावविभोर करने की क्षमता कला में रहती है। कला का वासना को भड़काने में इन दिनों बड़ा हाथ रहा है। अब इस महान शक्ति को हमें जीवन निर्माण एवं समाज रचना की महान प्रक्रिया में लगाना होगा। कला शाश्वत है। उसमें दोष कुछ नहीं वरन् मानव अन्तःकरण का सीधा स्पर्श करने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण वह आवश्यक है और अभिवन्दनीय है । विरोध का एक मात्र तथ्य है कला का दुरुपयोग, इसे रोका जाना चाहिये और इस सृजनात्मक शक्ति को जन मानस की श्रेष्ठता की ओर प्रेरित करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिए।
इस सन्दर्भ में नीचे आठ सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं—
69—वक्तृत्व कला विकास—बोलना संसार की सबसे बड़ी कला है। व्यक्तिगत जीवन में जन सहयोग का लाभ प्राप्त करना मुख्यतया मनुष्य के बोलने, बात करने की शैली पर निर्भर है। मीठा बोलने से पराये अपने हो जाते हैं और कटु भाषण से अपने पराये बनते हैं। जीवन की प्रगति में उतनी और कोई बात सहायक नहीं होती जितनी शिष्ट, मधुर, उदार और परिमार्जित वाणी। इसी प्रकार सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करने का भी बहुत कुछ श्रेय विधिवत् वक्तृता पर ही निर्भर रहता है। अपने पक्ष को ठीक प्रतिपादित करने में वही व्यक्ति सफल होता है जिसकी भाषण-शैली परिमार्जित है। युग-निर्माण के लिए प्रधानतया हम सबको इसी शस्त्र का पग-पग पर उपयोग करना पड़ेगा। इसलिए उसका अभ्यस्त भी होना ही चाहिये। व्यक्तिगत वार्तालाप में और जन समूह के सामने भाषण देने में किन तथ्यों का ध्यान रखना और किन बातों का अभ्यास करना आवश्यक है, इसका प्रशिक्षण अखण्ड-ज्योति के सदस्यों को विधिवत् मिलना चाहिए। अन्यथा बौद्धिक क्रान्ति का यह विशाल अभियान किस प्रकार व्यापक बन सकेगा?
70—गायकों का संगठन—भाषण की भांति ही गायन का भी महत्व है। विधिवत् गाया हुआ गायन मनुष्य के हृदय को पुलकित कर देता है। भावनाओं को तरंगित करने की उतनी ही शक्ति गायन में रहती है, जितनी विचारों को बदलने की भाषण में रहती है। गायकों को संगठित करना चाहिए और उन्हें युग-निर्माण भावनाओं के अनुरूप कविताएं सीखने तथा गाने की प्रेरणा देनी चाहिए।
जहां-तहां भजन मण्डलियां और कीर्तन मण्डलियां अपने बिखरे रूप में पाई जाती हैं, उन्हें संगठित करना अभीष्ट होगा। व्यक्तिगत रूप से जो लोग गाया करते हैं, उन्हें भी अपनी कला द्वारा जन-समूह को लाभ पहुंचाने की प्रेरणा करनी चाहिए। सामूहिक संगीत कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर होता रहे और उनमें उत्कर्ष की भावनाओं की प्रधानता रहे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
71—संगीत शिक्षा का प्रबन्ध—गाने बजाने के क्रमबद्ध शिक्षण की व्यवस्था न होने से ऐसे लोगों की कला अविकसित ही पड़ी रहती है, जिनके गले मधुर हैं और लोगों को प्रभावित करने की प्रतिभा विद्यमान है। साधारण गायन और मामूली बाजे बजाने का शिक्षण कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। उसे मामूली जानकार भी कर सकते हैं। खंजरी, करताल, मजीरा, ढोलक, चिमटा, इकतारा जैसे बाजे लोग बिना किसी के सिखाये—देखा-देखी ही सीख जाते हैं। यदि उनकी व्यवस्थित शिक्षण व्यवस्था हो तो उसका लाभ अनेकों को आसानी से मिल सकता है और नये गायक तथा बजाने वाले पैदा हो सकते हैं।
72—चित्रकला का उपयोग—सजावट की दृष्टि से चित्रों का प्रचलन अब बहुत बढ़ गया है। कमरों में, पुस्तकों में, पत्र पत्रिकाओं में, दुकानों पर, कलेण्डरों में, विज्ञापनों में सर्वत्र चित्रों का बाहुल्य रहता है। इनमें से अधिकांश कुरुचिपूर्ण, गन्दे, अश्लील, किम्वदन्तियों पर आधारित, निरर्थक एवं प्रेरणाहीन पाये जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि महापुरुषों, त्यागियों, लोग सेवियों और आदर्श चरित्र व्यक्तियों के तथा प्रेरणाप्रद घटनाओं के चित्रों का बाहुल्य हो और उन्हें देखकर मन पर श्रेष्ठता जागृत करने वाले संस्कार पड़ें। इस परिवर्तन में ऐसे चित्रकारों का सहयोग अभीष्ट होगा जो अपनी कला से जन-मानस में ऊर्ध्वगामी भावनाओं का संचार कर सकें। ऐसे भावपूर्ण चित्र तथा प्रेरणाप्रद आदर्श वाक्यों, सूक्तियों तथा अभिवचनों के अक्षर भी कलापूर्ण ढंग से चित्र जैसे सुन्दर बनाये जा सकते हैं। अनीति के विरोध में व्यंग चित्रों की बड़ी उपयोगिता है। कलाकारों को ऐसे ही चित्र बनाने चाहिए और जन मानस को बदल डालने में महत्वपूर्ण योग-दान देना चाहिए।
उपरोक्त प्रकार के चित्रों का प्रकाशन व्यवसाय बड़े पैमाने पर आरम्भ करके और उन्हें अधिक सस्ता एवं अधिक सुन्दर बनाकर समाज की बड़ी सेवा की जा सकती है। चित्र प्रकाशन जहां एक लाभदायक व्यवसाय है, वहां वह प्रभावोत्पादक भी है। चित्रकारों से चित्र बनवाने, उन्हें छापने, विक्रेताओं के पास पहुंचाने, बेचने के काम में अनेक व्यक्तियों को रोटी भी मिल सकती है। इस व्यवसाय के आरम्भ करने वाले कितने ही आदमियों को रोटी देने, समाज में भावनाएं जागृत करने एवं अपना लाभ कमाने का श्रेयस्कर व्यापार कर सकते हैं। साहित्य की ही भांति जन भावनाओं के जागृत करने में चित्रकला भी उपयोगी है।
73—प्रदर्शनियों का आयोजन—प्रदर्शनियों के जगह-जगह आयोजन किये जांय। वर्तमान काल की सामाजिक एवं नैतिक बुराइयों के कारण होने वाले दुष्परिणामों के बड़े-बड़े चित्र बनाकर उन्हें सुसज्जित रूप से किसी कमरे या टेण्ट में लगाया जाय और दर्शकों को चित्रों के आधार पर वस्तु स्थिति समझाई जाय तो यह एक बड़ा प्रभावशाली तरीका होगा। बुराइयों की बढ़ोत्तरी की चिन्ताजनक स्थिति से भी जनता को अवगत रखा जाना आवश्यक है। इसके लिए पत्रों में छपे छुए समाचारों या रिपोर्टों के उद्धरण छोटे अक्षरों में चित्रों की भांति ही सुसज्जित बना कर प्रदर्शित किए जा सकते हैं।
बुराइयों के प्रति क्षोभ और घृणा, सतर्कता, विरोध और संघर्ष की भावना उत्पन्न करने के लिए जिस प्रकार चित्रों और वाक्य-पटों का प्रदर्शन आवश्यक है, इसी प्रकार अच्छाइयों की बढ़ती हुई प्रगति एवं घटनाओं की जानकारी कराने वाले चित्र एवं वाक्य-पट इन प्रदर्शनियों में रहें, जिससे सेवा, त्याग, प्रेम, उदारता की भावनाओं को चरितार्थ करने, सन्मार्ग पर चलने और सत्कर्म करने के लिए प्रेरणा मिले। इस प्रकार की प्रदर्शनियां मेले-उत्सवों पर तथा अन्य अवसरों पर करते रहने के लिए व्यवस्थित योजना बनाकर चला जाय तो इससे भावनाओं के उत्कर्ष में बड़ी सहायता मिलेगी।
74—अभिनय और लीलाएं—भगवान राम और कृष्ण की लीलाएं जगह-जगह धूम-धाम से होती हैं। इनके व्यवस्थापक ऐसा प्रयत्न करें कि उनमें से निरर्थक एवं मनोरंजक अंश कम करके शिक्षा एवं सन्मार्ग के प्रेरणा उत्पन्न करने वाले अंश बढ़ा दें। उपस्थित जनता को समझाने को भी सुधरा हुआ ढंग काम में लाया जाय।
जगह-जगह अगणित मेले-ठेले होते हैं, उनके पीछे कोई न कोई इतिहास या परम्परा होती है। इसको किसी लीला, अभिनय, एकांकी, प्रदर्शनी, गायन, संगीत, पोस्टर आदि के रूप से उपस्थित किया जाय, जिससे उन मेलों में आने वाली जनता उन आयोजनों के मूल कारणों को समझे और उस मेले का कुछ भावनात्मक लाभ भी उठाये। रामलीला आदि में अभिनय करने वाले या उनका संचालन करने में कुशल लोग अपने-अपने क्षेत्रों में ऐसे आयोजनों का प्रबन्ध कर सकते हैं। इससे मेलों का आकर्षण भी बढ़ेगा और प्रचार कार्य की भी श्रेष्ठ व्यवस्था बनेगी।
75—नाटक और एकांकी—सामूहिक खुले लीला अभिनयों की भांति ही उनका सुधरा और अधिक सुन्दर रूप नाटक मण्डलियों के रूप में बनता है। रासलीलाओं का वर्तमान रूप वैसा ही है। बड़ी नाटक मण्डलियों की बात यहां नहीं की जा रही है। थोड़े से उपकरणों का रंगमंच बनाकर अनेक महापुरुषों के जीवनों की श्रेष्ठ घटनाओं, ऐतिहासिक तथ्यों तथा सामाजिक स्थिति का चित्रण करने वाले नाटकों की व्यवस्था करके उन्हें साधारण जनता के मनोरंजन का माध्यम बनाया जा सकता है। ऐसी मण्डलियां व्यवसायिक आधार पर गठित हो सकती हैं। जन स्थिति के अनुरूप खर्च वसूल करके उन्हें सस्ता और लोक प्रिय बनाया जा सकता है।
छोटे-मोटे आयोजनों में एकांकी अभिनय भी बड़े रोचक और मनोरंजक होते हैं। विद्यालयों में एकांकी अभिनय बड़े सफल होते हैं, उन्हें दूसरे आयोजनों पर भी प्रदर्शित किया जा सकता है। ऐसे एकांकी एवं नाटक लिखे और प्रदर्शित किए जाने चाहिए जो नैतिक एवं विचार क्रान्ति में आवश्यक योगदान दे सकें।
76—कला के वैज्ञानिक माध्यम—विज्ञान के माध्यम से कुछ कलात्मक माध्यमों का इतना विकास हो गया है कि उनका उपयोग तो जनता करती है पर निर्माण ऊंचे स्तर पर ही हो सकता है। ग्रामोफोन के रिकार्ड और सिनेमा फिल्में इसी प्रकार के दो माध्यम हैं, जिनने जनमानस पर भारी प्रभाव डाला है। ग्रामोफोन का प्रचलन तो रेडियो के विस्तार से घट गया है, पर उत्सवों के अवसरों पर लाउडस्पीकरों द्वारा रिकार्ड अभी भी बजाये जाते हैं और उन्हें लाखों व्यक्ति प्रतिदिन सुनते हैं। इसी प्रकार देश भर में हजारों सिनेमा-घर हैं, जिनमें लाखों फिल्में चल जाती हैं। इन्हें भी करोड़ों व्यक्ति हर साल देखते हैं और जैसे भी संस्कार उन दृश्यों में होते हैं उन्हें देखने वाले ग्रहण करते हैं। मानवीय मस्तिष्क को प्रभावित करने के लिए विज्ञान की यह दो बड़ी कलात्मक देन हैं। पर खेद इसी बात का है कि इनका दुरुपयोग ही अधिक होता है। यदि इनका सदुपयोग हो सका होता तो जन-जागृति एवं चरित्र-निर्माण में भारी योग मिला होता।
इस सन्दर्भ में नीचे आठ सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं—
69—वक्तृत्व कला विकास—बोलना संसार की सबसे बड़ी कला है। व्यक्तिगत जीवन में जन सहयोग का लाभ प्राप्त करना मुख्यतया मनुष्य के बोलने, बात करने की शैली पर निर्भर है। मीठा बोलने से पराये अपने हो जाते हैं और कटु भाषण से अपने पराये बनते हैं। जीवन की प्रगति में उतनी और कोई बात सहायक नहीं होती जितनी शिष्ट, मधुर, उदार और परिमार्जित वाणी। इसी प्रकार सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करने का भी बहुत कुछ श्रेय विधिवत् वक्तृता पर ही निर्भर रहता है। अपने पक्ष को ठीक प्रतिपादित करने में वही व्यक्ति सफल होता है जिसकी भाषण-शैली परिमार्जित है। युग-निर्माण के लिए प्रधानतया हम सबको इसी शस्त्र का पग-पग पर उपयोग करना पड़ेगा। इसलिए उसका अभ्यस्त भी होना ही चाहिये। व्यक्तिगत वार्तालाप में और जन समूह के सामने भाषण देने में किन तथ्यों का ध्यान रखना और किन बातों का अभ्यास करना आवश्यक है, इसका प्रशिक्षण अखण्ड-ज्योति के सदस्यों को विधिवत् मिलना चाहिए। अन्यथा बौद्धिक क्रान्ति का यह विशाल अभियान किस प्रकार व्यापक बन सकेगा?
70—गायकों का संगठन—भाषण की भांति ही गायन का भी महत्व है। विधिवत् गाया हुआ गायन मनुष्य के हृदय को पुलकित कर देता है। भावनाओं को तरंगित करने की उतनी ही शक्ति गायन में रहती है, जितनी विचारों को बदलने की भाषण में रहती है। गायकों को संगठित करना चाहिए और उन्हें युग-निर्माण भावनाओं के अनुरूप कविताएं सीखने तथा गाने की प्रेरणा देनी चाहिए।
जहां-तहां भजन मण्डलियां और कीर्तन मण्डलियां अपने बिखरे रूप में पाई जाती हैं, उन्हें संगठित करना अभीष्ट होगा। व्यक्तिगत रूप से जो लोग गाया करते हैं, उन्हें भी अपनी कला द्वारा जन-समूह को लाभ पहुंचाने की प्रेरणा करनी चाहिए। सामूहिक संगीत कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर होता रहे और उनमें उत्कर्ष की भावनाओं की प्रधानता रहे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
71—संगीत शिक्षा का प्रबन्ध—गाने बजाने के क्रमबद्ध शिक्षण की व्यवस्था न होने से ऐसे लोगों की कला अविकसित ही पड़ी रहती है, जिनके गले मधुर हैं और लोगों को प्रभावित करने की प्रतिभा विद्यमान है। साधारण गायन और मामूली बाजे बजाने का शिक्षण कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। उसे मामूली जानकार भी कर सकते हैं। खंजरी, करताल, मजीरा, ढोलक, चिमटा, इकतारा जैसे बाजे लोग बिना किसी के सिखाये—देखा-देखी ही सीख जाते हैं। यदि उनकी व्यवस्थित शिक्षण व्यवस्था हो तो उसका लाभ अनेकों को आसानी से मिल सकता है और नये गायक तथा बजाने वाले पैदा हो सकते हैं।
72—चित्रकला का उपयोग—सजावट की दृष्टि से चित्रों का प्रचलन अब बहुत बढ़ गया है। कमरों में, पुस्तकों में, पत्र पत्रिकाओं में, दुकानों पर, कलेण्डरों में, विज्ञापनों में सर्वत्र चित्रों का बाहुल्य रहता है। इनमें से अधिकांश कुरुचिपूर्ण, गन्दे, अश्लील, किम्वदन्तियों पर आधारित, निरर्थक एवं प्रेरणाहीन पाये जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि महापुरुषों, त्यागियों, लोग सेवियों और आदर्श चरित्र व्यक्तियों के तथा प्रेरणाप्रद घटनाओं के चित्रों का बाहुल्य हो और उन्हें देखकर मन पर श्रेष्ठता जागृत करने वाले संस्कार पड़ें। इस परिवर्तन में ऐसे चित्रकारों का सहयोग अभीष्ट होगा जो अपनी कला से जन-मानस में ऊर्ध्वगामी भावनाओं का संचार कर सकें। ऐसे भावपूर्ण चित्र तथा प्रेरणाप्रद आदर्श वाक्यों, सूक्तियों तथा अभिवचनों के अक्षर भी कलापूर्ण ढंग से चित्र जैसे सुन्दर बनाये जा सकते हैं। अनीति के विरोध में व्यंग चित्रों की बड़ी उपयोगिता है। कलाकारों को ऐसे ही चित्र बनाने चाहिए और जन मानस को बदल डालने में महत्वपूर्ण योग-दान देना चाहिए।
उपरोक्त प्रकार के चित्रों का प्रकाशन व्यवसाय बड़े पैमाने पर आरम्भ करके और उन्हें अधिक सस्ता एवं अधिक सुन्दर बनाकर समाज की बड़ी सेवा की जा सकती है। चित्र प्रकाशन जहां एक लाभदायक व्यवसाय है, वहां वह प्रभावोत्पादक भी है। चित्रकारों से चित्र बनवाने, उन्हें छापने, विक्रेताओं के पास पहुंचाने, बेचने के काम में अनेक व्यक्तियों को रोटी भी मिल सकती है। इस व्यवसाय के आरम्भ करने वाले कितने ही आदमियों को रोटी देने, समाज में भावनाएं जागृत करने एवं अपना लाभ कमाने का श्रेयस्कर व्यापार कर सकते हैं। साहित्य की ही भांति जन भावनाओं के जागृत करने में चित्रकला भी उपयोगी है।
73—प्रदर्शनियों का आयोजन—प्रदर्शनियों के जगह-जगह आयोजन किये जांय। वर्तमान काल की सामाजिक एवं नैतिक बुराइयों के कारण होने वाले दुष्परिणामों के बड़े-बड़े चित्र बनाकर उन्हें सुसज्जित रूप से किसी कमरे या टेण्ट में लगाया जाय और दर्शकों को चित्रों के आधार पर वस्तु स्थिति समझाई जाय तो यह एक बड़ा प्रभावशाली तरीका होगा। बुराइयों की बढ़ोत्तरी की चिन्ताजनक स्थिति से भी जनता को अवगत रखा जाना आवश्यक है। इसके लिए पत्रों में छपे छुए समाचारों या रिपोर्टों के उद्धरण छोटे अक्षरों में चित्रों की भांति ही सुसज्जित बना कर प्रदर्शित किए जा सकते हैं।
बुराइयों के प्रति क्षोभ और घृणा, सतर्कता, विरोध और संघर्ष की भावना उत्पन्न करने के लिए जिस प्रकार चित्रों और वाक्य-पटों का प्रदर्शन आवश्यक है, इसी प्रकार अच्छाइयों की बढ़ती हुई प्रगति एवं घटनाओं की जानकारी कराने वाले चित्र एवं वाक्य-पट इन प्रदर्शनियों में रहें, जिससे सेवा, त्याग, प्रेम, उदारता की भावनाओं को चरितार्थ करने, सन्मार्ग पर चलने और सत्कर्म करने के लिए प्रेरणा मिले। इस प्रकार की प्रदर्शनियां मेले-उत्सवों पर तथा अन्य अवसरों पर करते रहने के लिए व्यवस्थित योजना बनाकर चला जाय तो इससे भावनाओं के उत्कर्ष में बड़ी सहायता मिलेगी।
74—अभिनय और लीलाएं—भगवान राम और कृष्ण की लीलाएं जगह-जगह धूम-धाम से होती हैं। इनके व्यवस्थापक ऐसा प्रयत्न करें कि उनमें से निरर्थक एवं मनोरंजक अंश कम करके शिक्षा एवं सन्मार्ग के प्रेरणा उत्पन्न करने वाले अंश बढ़ा दें। उपस्थित जनता को समझाने को भी सुधरा हुआ ढंग काम में लाया जाय।
जगह-जगह अगणित मेले-ठेले होते हैं, उनके पीछे कोई न कोई इतिहास या परम्परा होती है। इसको किसी लीला, अभिनय, एकांकी, प्रदर्शनी, गायन, संगीत, पोस्टर आदि के रूप से उपस्थित किया जाय, जिससे उन मेलों में आने वाली जनता उन आयोजनों के मूल कारणों को समझे और उस मेले का कुछ भावनात्मक लाभ भी उठाये। रामलीला आदि में अभिनय करने वाले या उनका संचालन करने में कुशल लोग अपने-अपने क्षेत्रों में ऐसे आयोजनों का प्रबन्ध कर सकते हैं। इससे मेलों का आकर्षण भी बढ़ेगा और प्रचार कार्य की भी श्रेष्ठ व्यवस्था बनेगी।
75—नाटक और एकांकी—सामूहिक खुले लीला अभिनयों की भांति ही उनका सुधरा और अधिक सुन्दर रूप नाटक मण्डलियों के रूप में बनता है। रासलीलाओं का वर्तमान रूप वैसा ही है। बड़ी नाटक मण्डलियों की बात यहां नहीं की जा रही है। थोड़े से उपकरणों का रंगमंच बनाकर अनेक महापुरुषों के जीवनों की श्रेष्ठ घटनाओं, ऐतिहासिक तथ्यों तथा सामाजिक स्थिति का चित्रण करने वाले नाटकों की व्यवस्था करके उन्हें साधारण जनता के मनोरंजन का माध्यम बनाया जा सकता है। ऐसी मण्डलियां व्यवसायिक आधार पर गठित हो सकती हैं। जन स्थिति के अनुरूप खर्च वसूल करके उन्हें सस्ता और लोक प्रिय बनाया जा सकता है।
छोटे-मोटे आयोजनों में एकांकी अभिनय भी बड़े रोचक और मनोरंजक होते हैं। विद्यालयों में एकांकी अभिनय बड़े सफल होते हैं, उन्हें दूसरे आयोजनों पर भी प्रदर्शित किया जा सकता है। ऐसे एकांकी एवं नाटक लिखे और प्रदर्शित किए जाने चाहिए जो नैतिक एवं विचार क्रान्ति में आवश्यक योगदान दे सकें।
76—कला के वैज्ञानिक माध्यम—विज्ञान के माध्यम से कुछ कलात्मक माध्यमों का इतना विकास हो गया है कि उनका उपयोग तो जनता करती है पर निर्माण ऊंचे स्तर पर ही हो सकता है। ग्रामोफोन के रिकार्ड और सिनेमा फिल्में इसी प्रकार के दो माध्यम हैं, जिनने जनमानस पर भारी प्रभाव डाला है। ग्रामोफोन का प्रचलन तो रेडियो के विस्तार से घट गया है, पर उत्सवों के अवसरों पर लाउडस्पीकरों द्वारा रिकार्ड अभी भी बजाये जाते हैं और उन्हें लाखों व्यक्ति प्रतिदिन सुनते हैं। इसी प्रकार देश भर में हजारों सिनेमा-घर हैं, जिनमें लाखों फिल्में चल जाती हैं। इन्हें भी करोड़ों व्यक्ति हर साल देखते हैं और जैसे भी संस्कार उन दृश्यों में होते हैं उन्हें देखने वाले ग्रहण करते हैं। मानवीय मस्तिष्क को प्रभावित करने के लिए विज्ञान की यह दो बड़ी कलात्मक देन हैं। पर खेद इसी बात का है कि इनका दुरुपयोग ही अधिक होता है। यदि इनका सदुपयोग हो सका होता तो जन-जागृति एवं चरित्र-निर्माण में भारी योग मिला होता।