
गीता के माध्यम से जन-जागरण
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गीता के माध्यम से जन-जागृति बौद्धिक क्रान्ति की—जो रूपरेखा युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत तैयार की गई है, उसका आधार असाधारण महत्व से परिपूर्ण है। यह प्रक्रिया चल पड़ने से नव-निर्माण कार्य के लिए उपयुक्त जन-मानस तैयार हो सकता है। रूपरेखा नीचे देखिए और फिर उसे सफल बनाने के लिए सच्चे मन से प्रयत्न कीजिए।
मोह और अज्ञान में डूबे हुए अर्जुन को कठोर कर्तव्य में प्रवृत्त करने के लिए भगवान कृष्ण ने उसे गीता सुनाई और उसे सुनकर निराशा में डूबे हुए भ्रमग्रस्त धनञ्जय ने अपना विचार बदल दिया। कठोर कर्तव्य सभी को भयंकर लगता है, उसे अपनाने का साहस सहसा बन नहीं पड़ता, मनुष्य का स्वभाव किसी तरह काम चलाने और दिन पूरे करने का होता है, झंझट से बचे रहने को ही उसका जी करता है। उसी को वह ‘शान्ति’ मान बैठता है। पर प्रेरक विचारों का जादू तो देखिए—गीता के अमृत छिड़कने से अर्जुन का नया आत्म-बोध हुआ और उसने अपनी कुण्ठा, भीरुता और उदासी को छोड़ कर कठोर कर्तव्य को अपनाया।
आज हमारा समाज ठीक मोहग्रस्त अर्जुन की स्थिति में है। दीनता और दासता ने उसे गई-गुजरी स्थिति में पहुंचा दिया है। छुटकारा राजनैतिक गुलामी-भर से हुआ है। मानसिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं। पश्चिम में से आई अनार्य संस्कृति के व्यामोह से हमारा कण-कण मूर्छित हुआ पड़ा है। अपना सब कुछ हमें तुच्छ दीखता है और बिरानी पत्तल का भात मोहन-भोग जैसा मधुर सूझ रहा है। सामाजिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक, भावनात्मक सभी क्षेत्रों में कुण्ठाएं हमें घेरे खड़ी हैं। प्रगति की स्वर्णिम किरणों का विश्व के नागरिक आनन्द ले रहे हैं, पर हम अभी भी अवसाद की मूर्छा में पड़े इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। इस अवांछनीय स्थिति से हमें उबरना ही होगा, अन्यथा इस घुड़दौड़ की प्रगति में बहुत पिछड़ जाने पर हम कहीं के भी न रहेंगे।
समय की पुकार है कि हम जगें, उठें और आगे बढ़ें। इसके लिए जिस प्रेरणा और चेतना की आवश्यकता है, वह हमें गीता द्वारा ही उपलब्ध होगी। भगवान की वही सन्देश वाणी सुनकर हम मोहमुक्त होंगे और गाण्डीव टंकारते हुए, पांचजन्य बजाते हुए कठोर कर्तव्य के धर्म-क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में अपने पुरुषार्थ का परिचय दे सकने में सफल होंगे। युग निर्माण योजना के प्रचार-कार्य का माध्यम गीता को ही रखा गया है। साधारण मनुष्यों द्वारा दी हुई शिक्षा में वह भावना एवं प्रेरणा कम ही होती है, जो भगवान की अमृत वाणी में विद्यमान है। अखण्ड-ज्योति में यह कार्यक्रम विस्तारपूर्वक छप चुका है। परिवार के सक्रिय कार्यकर्त्ताओं को ऐसे प्रचारक—ऐसे कथा-वाचक के रूप में सुशिक्षित किया जा रहा है जो पेट पालने के लिए अन्ट-सन्ट किस्से दुहरा देने मात्र की लकीर न पीटते रहें, वरन् गीता के एक-एक श्लोक को सुनने वालों के अन्तःकरण में प्रविष्ट करके उन्हें मानवता का और कर्तव्य परायणता का महत्व समझने वाला बना सकें, उनके मन को देश, धर्म, समाज और संस्कृति के अधःपतन पर आंसू बहाने के लिए विवश कर सकें और साथ ही उनकी भुजाओं को कुछ कर गुजरने के लिए फड़का सकें। ऐसी ही कथा कहना और सुनना सार्थक हो सकता है। शुकदेवजी ने सात दिन परीक्षित को कथा सुनाई थी, वह कथा जीवन की धारा को ही पलट डालने वाली थी। तभी तो आज मरणासन्न समाज को ऐसी ही अमर-कथा सुनने और सुनाने की आवश्यकता है। कार्यक्रम और रूपरेखा—ऐसी गीता कथा का एक विशेष ढांचा खड़ा किया गया है। भागवत सप्ताहों की तरह ठीक उसी श्रद्धा और सुसज्जा के साथ गीता की कथा जगह-जगह एक सप्ताह तक हो और अन्तिम दिन सामूहिक गायत्री यज्ञ रखा जाय। कन्या भोजन, यज्ञोपवीत आदि षोडश संस्कार, शोभा यात्रा (जुलूस), भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि के कार्यक्रम रहें। यह उसकी मोटी रूपरेखा है।
गीता का छन्द-बद्ध पद्यानुवाद कर दिया गया है। जहां कथा होगी, वहां सुनने वाले दो भागों में विभक्त होकर बैठा करेंगे। प्रातः सायं डेढ़-डेढ़ घण्टा गीता पारायण हुआ करेगा। यह पारायण इस ढंग से होगा कि एक श्लोक का पद्यानुवाद मधुर स्वर में सम्मिलित रूप से, हो सके तो बाजे के साथ भी, पहले भाग के लोग कहेंगे। दूसरा श्लोक इसी प्रकार दूसरे भाग वाले कहेंगे। तीसरा श्लोक पहली पार्टी, चौथा दूसरी पार्टी। इस प्रकार पारायण क्रम एक घण्टा चलता रहेगा। भजन कीर्तन का आनन्द भी रहेगा और हर श्लोक का भावार्थ प्रत्येक सुनने वाला भली प्रकार समझ भी लेगा। इस आयोजन में भाग लेने वाले श्रोता मात्र ही न रहेंगे, वरन् गीता पारायण का श्रेय भी उन्हें मिलेगा।
कथा-वाचक परायण के पश्चात् डेढ़-डेढ़ घण्टा प्रवचन किया करेंगे। प्रवचन सब श्लोकों का नहीं, वरन् जो विशेष मार्मिक होंगे, उन्हीं पर होगा। इस मार्मिक श्लोकों के सन्देश की पुष्टि तुलसीकृत रामायण की चौपाइयों से, पौराणिक धर्म-कथाओं से तथा ऐतिहासिक घटना, संस्मरणों से की जाया करेगी। इस शैली से वह कथा प्रत्येक स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित के लिए बहुत ही आकर्षक एवं समझने लायक बन जायगी। गीता को अन्तःकरण में उतारने और व्यवहारिक रूप में परिणत करने के लिए कथा-वाचक मार्ग-दर्शन करेंगे। लोगों को ऐसी प्रेरणा देंगे कि वे कथा सुनने मात्र से स्वर्ग जाने की मूढ़ कल्पना त्याग कर भगवान की शिक्षा को जीवन में उतारें और अर्जुन की तरह सच्चे भक्त कहाने के अधिकारी बनें।
साथ में रचनात्मक कार्य भी—कथा-वाचक केवल कथा-वाचक न होंगे। वे एक सप्ताह तक जहां भी रहेंगे, वहां संगठन, रचनात्मक कार्यक्रमों का नियोजन, जीवन-निर्माण के लिए परामर्श सामाजिक एवं बौद्धिक क्रान्ति की पृष्ठ भूमि आदि उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहेंगे। कथा तो तीन घण्टे हुआ करेगी। सारा दिन जो शेष रहेगा उसका उपयोग वे जन-सम्पर्क में करेंगे और व्यक्ति निर्माण, परिवार-निर्माण, समाज-निर्माण की प्रवृत्तियों को अग्रसर करने के लिए जो सम्भव हो सकेगा, उसमें पूरी तत्परता के साथ लगे रहेंगे। यह कथा एक प्रकार से युग-निर्माण शिक्षण-शिविरों का काम करेगी। सुनने मात्र से लोगों को सन्तुष्ट न रहने दिया जायगा, वरन् उन्हें कुछ करने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी। विवाहों में अपव्यय रोकने, आदर्श विवाहों एवं जातीय संगठनों की व्यवस्था बनाने जैसे कितने ही रचनात्मक कार्यक्रमों का ढांचा खड़ा करने का प्रयत्न किया जायगा। इस प्रकार यह कथा, ‘कथा’ मात्र न रहकर नव-युग की ऊषा उत्पन्न करने का काम करेगी। आशा यह करनी चाहिए कि वहां नव-जागरण का वातावरण उत्पन्न होगा। इनका आयोजन ही इस उद्देश्य से किया गया है तो फिर वैसा ही प्रतिफल भी क्यों न होगा?
प्रशिक्षण के लिए शिविर—कथा-वाचक श्लोक की व्याख्या करे, किस श्लोक में साथ रामायण की किन चौपाइयों, किन दृष्टान्तों, अन्तर्कथाओं का खांचा मिलावें, इसकी सांगोपांग रूप-रेखा बना ली गई है। श्लोकों का पद्यानुवाद हो गया है। यह सब साहित्य तीन बड़ी पाठ्य-पुस्तकों में छापा भी जा रहा है। इसकी व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए इस वर्ष कार्तिक, पौष, फाल्गुन और बैसाख में एक-एक महीने के चार शिविर मथुरा में रखे गये हैं। कथा का क्रम, रचनात्मक कार्यों का ढंग, प्रवचन की शैली, कथा वाचक का आदर्श एवं उद्देश्य जैसे विषयों की शिक्षा के लिए यों एक महीने का समय बहुत ही कम है, पर लोगों की व्यस्तता को देखते हुए एक ‘स्वल्प कालीन शिक्षण’ की तरह अभी वैसी ही व्यवस्था बनाई गई है। जिन्हें अवकाश होगा वे उपरोक्त अभ्यास के लिए अधिक समय भी ठहर सकेंगे।
षोडश संस्कारों को शिक्षा—इसी एक महीने की अवधि में सोलह संस्कार कराने का विधान सीखने का अभ्यास भी प्रत्येक कथा वाचक को करा दिया जायगा, ताकि वह पुंसवन, नामकरण, अन्न प्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ एवं जन्म दिन, पर्व-त्यौहार आदि का विधान जान कर उन शुभ कार्यों को भी विधिवत् करा सकें। कारण कि इन आयोजनों के द्वारा भी व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण एवं समाज-निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है। इन अवसरों पर जो प्रवचन किये जाते हैं, संस्कारों की प्रत्येक क्रिया का जो मर्म समझाया जाता है, उससे निश्चय ही उस भावनापूर्ण वातावरण में भाग लेने वालों पर विशेष प्रभाव पड़ सकता है। अपनी संस्कार पद्धति में प्रत्येक संस्कार के साथ सम्बन्धित समस्याओं का विवेचन तथा कर्तव्यों का उद्बोधन ऐसे अच्छे ढंग से सम्बन्धित कर दिया गया है कि यह षोडश संस्कार भी युग-निर्माण की आवश्यकता को प्रभावशाली ढंग से पूरा करने में सहायक हो सकते हैं। होली, दिवाली आदि पर्व-त्यौहारों को भी यदि अपनी पद्धति से मिला-जुला कर मनाया जा सके तो उससे भी नैतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक क्रान्ति की आवश्यकता पूरी हो सकती है।
उपरोक्त शिक्षण भी इस एक महीने की गीता प्रवचन शिक्षा के साथ ही जोड़ दिया गया है। आशा यह की जानी चाहिए कि मनोयोग पूर्वक जो भी इस एक महीने की शिक्षा को प्राप्त करेगा, वह युग-निर्माण योजना का एक प्रभावशाली कार्यकर्त्ता बनकर निकलेगा और जन-नेतृत्व की आज की महती आवश्यकता को पूरा करने में बहुत हद तक योग देगा।
जिन्हें प्रचारक का कार्य करना नहीं है, अपने कार्य में व्यस्त हैं और बाहर जा सकने की सुविधा नहीं है वे स्वान्तः सुखाय भगवान के इस महान् ज्ञान की उपलब्धि के लिए भी मथुरा आ सकते हैं और गीता की चमत्कारी रचना के रहस्यों को समझते हुए यह जान सकते हैं कि इस महान ज्ञान द्वारा मनुष्य की वैयक्तिक एवं सामूहिक समस्याओं का हल किस प्रकार हो सकता है? इस पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण करने के लिए गीता कैसी दिव्य विभूति सिद्ध हो सकती है?
शाखाओं में, साप्ताहिक सत्संगों में गीता-कथा हुआ करे तो कितना अच्छा रहे। प्रतिदिन सायंकाल गीता के दो श्लोकों की व्याख्या का क्रम कहीं चलने लगे तो एक वर्ष में वह धर्मानुष्ठान विधिवत् पूरा हो सकता है। कुल 700 श्लोक हैं, दो श्लोक से 350 दिन में पूरे हो सकते हैं। बाहर के किसी को न सही अपने घर के लोगों को ही उसे नित्य सुनाया जाया करे तो परिवार-निर्माण की समस्या सुलझाने में महत्वपूर्ण योग मिल सकता है। इस प्रकार प्रचार कार्य के लिए बाहर न जा सकने वाले लोगों के लिए भी यह प्रशिक्षण बहुत मूल्यवान सिद्ध हो सकता है।
गीता समारोहों की श्रृंखला—कुछ समय पूर्व जिस प्रकार गायत्री-यज्ञ होते थे, अब उसी उत्साह से यह ‘गीता कथा सप्ताहों’ के आयोजन जगह-जगह होने चाहिए। शाखाओं को उसकी तैयारी में अभी से लग जाना चाहिए।
इन गीता सप्ताहों के धर्मानुष्ठानों में बहुत स्वल्प व्यय होगा। अनुमानित व्यय इस प्रकार है—गीता प्रवचन कर्त्ता को 7 दिन का पारिश्रमिक 40 रु. उसका मार्ग व्यय 10 रु. अन्तिम दिन सामूहिक गायत्री यज्ञ का अनुमानित व्यय 30 रु. कन्या भोज 30 रु. प्रचार, मण्डप, रोशनी आदि विविध खर्च 40 रु. इसका कुछ व्यय 150 रु. बैठता है। इसमें किफायत की जाय तो 100 रु. भी हो सकता है और थोड़ा अधिक फैल-फूट कर किया जाय तो यह 200 रु. तक पहुंच सकता है। इतने महत्वपूर्ण आयोजन के लिए इतनी रकम कोई अधिक नहीं है और ऐसी भी नहीं है, जो छोटे गांवों में भी इकट्ठी न की जा सके। शाखाओं के वार्षिकोत्सव इसी रूप में होते रह सकते हैं। इसके लिए कोई तिथियां हर साल के लिये निश्चित भी रह सकती हैं ताकि उन दिनों अवकाश निकालने की बात सदस्यों के मन में पहले से ही बनी रहे।
हर सुयोग्य व्यक्ति के लिए सरल—गीता प्रसार की इस महती लोक सेवा को अपनाने लिए गृह-कार्यों से निवृत्त सेवा-भावी वानप्रस्थ लोग बहुत ही उपयुक्त रह सकते हैं। पर उन लोगों के लिए भी यह सरल है जिनको ऊपर अपने गृहस्थ को चलाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। महीने में चार कथाओं का प्रोग्राम बन सकता है। तीन महीने एक क्षेत्र में लगाने से 12 कथाएं की जा सकती हैं। इनमें 12×40 रु.=480 रु. मिल सकता है। तीन महीने बाद एक महीना घर आकर विश्राम किया जाय तो चार महीने में 480 रु. मिलने से महीने में 120 रु. की आमदनी हो सकती है। भोजन मार्ग-व्यय आदि अपना निकालते रहने पर 100 रु. मासिक बच्चों के लिए मिलता रहे तो इस महंगाई के जमाने में भी ब्राह्मणोचित सन्तोष के साथ काम चलाने वाला व्यक्ति रूखी-सूखी खिला कर अपने बच्चों का पालन कर ही सकता है। इस प्रकार आर्थिक कठिनाई या पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण जो लोग जन-नेतृत्व का कार्य नहीं कर सकते, युग-निर्माण योजना में भाग नहीं ले सकते, उनका रुका हुआ मार्ग भी खुल सकता है।
मोह और अज्ञान में डूबे हुए अर्जुन को कठोर कर्तव्य में प्रवृत्त करने के लिए भगवान कृष्ण ने उसे गीता सुनाई और उसे सुनकर निराशा में डूबे हुए भ्रमग्रस्त धनञ्जय ने अपना विचार बदल दिया। कठोर कर्तव्य सभी को भयंकर लगता है, उसे अपनाने का साहस सहसा बन नहीं पड़ता, मनुष्य का स्वभाव किसी तरह काम चलाने और दिन पूरे करने का होता है, झंझट से बचे रहने को ही उसका जी करता है। उसी को वह ‘शान्ति’ मान बैठता है। पर प्रेरक विचारों का जादू तो देखिए—गीता के अमृत छिड़कने से अर्जुन का नया आत्म-बोध हुआ और उसने अपनी कुण्ठा, भीरुता और उदासी को छोड़ कर कठोर कर्तव्य को अपनाया।
आज हमारा समाज ठीक मोहग्रस्त अर्जुन की स्थिति में है। दीनता और दासता ने उसे गई-गुजरी स्थिति में पहुंचा दिया है। छुटकारा राजनैतिक गुलामी-भर से हुआ है। मानसिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं। पश्चिम में से आई अनार्य संस्कृति के व्यामोह से हमारा कण-कण मूर्छित हुआ पड़ा है। अपना सब कुछ हमें तुच्छ दीखता है और बिरानी पत्तल का भात मोहन-भोग जैसा मधुर सूझ रहा है। सामाजिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, बौद्धिक, भावनात्मक सभी क्षेत्रों में कुण्ठाएं हमें घेरे खड़ी हैं। प्रगति की स्वर्णिम किरणों का विश्व के नागरिक आनन्द ले रहे हैं, पर हम अभी भी अवसाद की मूर्छा में पड़े इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। इस अवांछनीय स्थिति से हमें उबरना ही होगा, अन्यथा इस घुड़दौड़ की प्रगति में बहुत पिछड़ जाने पर हम कहीं के भी न रहेंगे।
समय की पुकार है कि हम जगें, उठें और आगे बढ़ें। इसके लिए जिस प्रेरणा और चेतना की आवश्यकता है, वह हमें गीता द्वारा ही उपलब्ध होगी। भगवान की वही सन्देश वाणी सुनकर हम मोहमुक्त होंगे और गाण्डीव टंकारते हुए, पांचजन्य बजाते हुए कठोर कर्तव्य के धर्म-क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में अपने पुरुषार्थ का परिचय दे सकने में सफल होंगे। युग निर्माण योजना के प्रचार-कार्य का माध्यम गीता को ही रखा गया है। साधारण मनुष्यों द्वारा दी हुई शिक्षा में वह भावना एवं प्रेरणा कम ही होती है, जो भगवान की अमृत वाणी में विद्यमान है। अखण्ड-ज्योति में यह कार्यक्रम विस्तारपूर्वक छप चुका है। परिवार के सक्रिय कार्यकर्त्ताओं को ऐसे प्रचारक—ऐसे कथा-वाचक के रूप में सुशिक्षित किया जा रहा है जो पेट पालने के लिए अन्ट-सन्ट किस्से दुहरा देने मात्र की लकीर न पीटते रहें, वरन् गीता के एक-एक श्लोक को सुनने वालों के अन्तःकरण में प्रविष्ट करके उन्हें मानवता का और कर्तव्य परायणता का महत्व समझने वाला बना सकें, उनके मन को देश, धर्म, समाज और संस्कृति के अधःपतन पर आंसू बहाने के लिए विवश कर सकें और साथ ही उनकी भुजाओं को कुछ कर गुजरने के लिए फड़का सकें। ऐसी ही कथा कहना और सुनना सार्थक हो सकता है। शुकदेवजी ने सात दिन परीक्षित को कथा सुनाई थी, वह कथा जीवन की धारा को ही पलट डालने वाली थी। तभी तो आज मरणासन्न समाज को ऐसी ही अमर-कथा सुनने और सुनाने की आवश्यकता है। कार्यक्रम और रूपरेखा—ऐसी गीता कथा का एक विशेष ढांचा खड़ा किया गया है। भागवत सप्ताहों की तरह ठीक उसी श्रद्धा और सुसज्जा के साथ गीता की कथा जगह-जगह एक सप्ताह तक हो और अन्तिम दिन सामूहिक गायत्री यज्ञ रखा जाय। कन्या भोजन, यज्ञोपवीत आदि षोडश संस्कार, शोभा यात्रा (जुलूस), भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि के कार्यक्रम रहें। यह उसकी मोटी रूपरेखा है।
गीता का छन्द-बद्ध पद्यानुवाद कर दिया गया है। जहां कथा होगी, वहां सुनने वाले दो भागों में विभक्त होकर बैठा करेंगे। प्रातः सायं डेढ़-डेढ़ घण्टा गीता पारायण हुआ करेगा। यह पारायण इस ढंग से होगा कि एक श्लोक का पद्यानुवाद मधुर स्वर में सम्मिलित रूप से, हो सके तो बाजे के साथ भी, पहले भाग के लोग कहेंगे। दूसरा श्लोक इसी प्रकार दूसरे भाग वाले कहेंगे। तीसरा श्लोक पहली पार्टी, चौथा दूसरी पार्टी। इस प्रकार पारायण क्रम एक घण्टा चलता रहेगा। भजन कीर्तन का आनन्द भी रहेगा और हर श्लोक का भावार्थ प्रत्येक सुनने वाला भली प्रकार समझ भी लेगा। इस आयोजन में भाग लेने वाले श्रोता मात्र ही न रहेंगे, वरन् गीता पारायण का श्रेय भी उन्हें मिलेगा।
कथा-वाचक परायण के पश्चात् डेढ़-डेढ़ घण्टा प्रवचन किया करेंगे। प्रवचन सब श्लोकों का नहीं, वरन् जो विशेष मार्मिक होंगे, उन्हीं पर होगा। इस मार्मिक श्लोकों के सन्देश की पुष्टि तुलसीकृत रामायण की चौपाइयों से, पौराणिक धर्म-कथाओं से तथा ऐतिहासिक घटना, संस्मरणों से की जाया करेगी। इस शैली से वह कथा प्रत्येक स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित के लिए बहुत ही आकर्षक एवं समझने लायक बन जायगी। गीता को अन्तःकरण में उतारने और व्यवहारिक रूप में परिणत करने के लिए कथा-वाचक मार्ग-दर्शन करेंगे। लोगों को ऐसी प्रेरणा देंगे कि वे कथा सुनने मात्र से स्वर्ग जाने की मूढ़ कल्पना त्याग कर भगवान की शिक्षा को जीवन में उतारें और अर्जुन की तरह सच्चे भक्त कहाने के अधिकारी बनें।
साथ में रचनात्मक कार्य भी—कथा-वाचक केवल कथा-वाचक न होंगे। वे एक सप्ताह तक जहां भी रहेंगे, वहां संगठन, रचनात्मक कार्यक्रमों का नियोजन, जीवन-निर्माण के लिए परामर्श सामाजिक एवं बौद्धिक क्रान्ति की पृष्ठ भूमि आदि उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहेंगे। कथा तो तीन घण्टे हुआ करेगी। सारा दिन जो शेष रहेगा उसका उपयोग वे जन-सम्पर्क में करेंगे और व्यक्ति निर्माण, परिवार-निर्माण, समाज-निर्माण की प्रवृत्तियों को अग्रसर करने के लिए जो सम्भव हो सकेगा, उसमें पूरी तत्परता के साथ लगे रहेंगे। यह कथा एक प्रकार से युग-निर्माण शिक्षण-शिविरों का काम करेगी। सुनने मात्र से लोगों को सन्तुष्ट न रहने दिया जायगा, वरन् उन्हें कुछ करने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी। विवाहों में अपव्यय रोकने, आदर्श विवाहों एवं जातीय संगठनों की व्यवस्था बनाने जैसे कितने ही रचनात्मक कार्यक्रमों का ढांचा खड़ा करने का प्रयत्न किया जायगा। इस प्रकार यह कथा, ‘कथा’ मात्र न रहकर नव-युग की ऊषा उत्पन्न करने का काम करेगी। आशा यह करनी चाहिए कि वहां नव-जागरण का वातावरण उत्पन्न होगा। इनका आयोजन ही इस उद्देश्य से किया गया है तो फिर वैसा ही प्रतिफल भी क्यों न होगा?
प्रशिक्षण के लिए शिविर—कथा-वाचक श्लोक की व्याख्या करे, किस श्लोक में साथ रामायण की किन चौपाइयों, किन दृष्टान्तों, अन्तर्कथाओं का खांचा मिलावें, इसकी सांगोपांग रूप-रेखा बना ली गई है। श्लोकों का पद्यानुवाद हो गया है। यह सब साहित्य तीन बड़ी पाठ्य-पुस्तकों में छापा भी जा रहा है। इसकी व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए इस वर्ष कार्तिक, पौष, फाल्गुन और बैसाख में एक-एक महीने के चार शिविर मथुरा में रखे गये हैं। कथा का क्रम, रचनात्मक कार्यों का ढंग, प्रवचन की शैली, कथा वाचक का आदर्श एवं उद्देश्य जैसे विषयों की शिक्षा के लिए यों एक महीने का समय बहुत ही कम है, पर लोगों की व्यस्तता को देखते हुए एक ‘स्वल्प कालीन शिक्षण’ की तरह अभी वैसी ही व्यवस्था बनाई गई है। जिन्हें अवकाश होगा वे उपरोक्त अभ्यास के लिए अधिक समय भी ठहर सकेंगे।
षोडश संस्कारों को शिक्षा—इसी एक महीने की अवधि में सोलह संस्कार कराने का विधान सीखने का अभ्यास भी प्रत्येक कथा वाचक को करा दिया जायगा, ताकि वह पुंसवन, नामकरण, अन्न प्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ एवं जन्म दिन, पर्व-त्यौहार आदि का विधान जान कर उन शुभ कार्यों को भी विधिवत् करा सकें। कारण कि इन आयोजनों के द्वारा भी व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण एवं समाज-निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है। इन अवसरों पर जो प्रवचन किये जाते हैं, संस्कारों की प्रत्येक क्रिया का जो मर्म समझाया जाता है, उससे निश्चय ही उस भावनापूर्ण वातावरण में भाग लेने वालों पर विशेष प्रभाव पड़ सकता है। अपनी संस्कार पद्धति में प्रत्येक संस्कार के साथ सम्बन्धित समस्याओं का विवेचन तथा कर्तव्यों का उद्बोधन ऐसे अच्छे ढंग से सम्बन्धित कर दिया गया है कि यह षोडश संस्कार भी युग-निर्माण की आवश्यकता को प्रभावशाली ढंग से पूरा करने में सहायक हो सकते हैं। होली, दिवाली आदि पर्व-त्यौहारों को भी यदि अपनी पद्धति से मिला-जुला कर मनाया जा सके तो उससे भी नैतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक क्रान्ति की आवश्यकता पूरी हो सकती है।
उपरोक्त शिक्षण भी इस एक महीने की गीता प्रवचन शिक्षा के साथ ही जोड़ दिया गया है। आशा यह की जानी चाहिए कि मनोयोग पूर्वक जो भी इस एक महीने की शिक्षा को प्राप्त करेगा, वह युग-निर्माण योजना का एक प्रभावशाली कार्यकर्त्ता बनकर निकलेगा और जन-नेतृत्व की आज की महती आवश्यकता को पूरा करने में बहुत हद तक योग देगा।
जिन्हें प्रचारक का कार्य करना नहीं है, अपने कार्य में व्यस्त हैं और बाहर जा सकने की सुविधा नहीं है वे स्वान्तः सुखाय भगवान के इस महान् ज्ञान की उपलब्धि के लिए भी मथुरा आ सकते हैं और गीता की चमत्कारी रचना के रहस्यों को समझते हुए यह जान सकते हैं कि इस महान ज्ञान द्वारा मनुष्य की वैयक्तिक एवं सामूहिक समस्याओं का हल किस प्रकार हो सकता है? इस पृथ्वी पर स्वर्ग का अवतरण करने के लिए गीता कैसी दिव्य विभूति सिद्ध हो सकती है?
शाखाओं में, साप्ताहिक सत्संगों में गीता-कथा हुआ करे तो कितना अच्छा रहे। प्रतिदिन सायंकाल गीता के दो श्लोकों की व्याख्या का क्रम कहीं चलने लगे तो एक वर्ष में वह धर्मानुष्ठान विधिवत् पूरा हो सकता है। कुल 700 श्लोक हैं, दो श्लोक से 350 दिन में पूरे हो सकते हैं। बाहर के किसी को न सही अपने घर के लोगों को ही उसे नित्य सुनाया जाया करे तो परिवार-निर्माण की समस्या सुलझाने में महत्वपूर्ण योग मिल सकता है। इस प्रकार प्रचार कार्य के लिए बाहर न जा सकने वाले लोगों के लिए भी यह प्रशिक्षण बहुत मूल्यवान सिद्ध हो सकता है।
गीता समारोहों की श्रृंखला—कुछ समय पूर्व जिस प्रकार गायत्री-यज्ञ होते थे, अब उसी उत्साह से यह ‘गीता कथा सप्ताहों’ के आयोजन जगह-जगह होने चाहिए। शाखाओं को उसकी तैयारी में अभी से लग जाना चाहिए।
इन गीता सप्ताहों के धर्मानुष्ठानों में बहुत स्वल्प व्यय होगा। अनुमानित व्यय इस प्रकार है—गीता प्रवचन कर्त्ता को 7 दिन का पारिश्रमिक 40 रु. उसका मार्ग व्यय 10 रु. अन्तिम दिन सामूहिक गायत्री यज्ञ का अनुमानित व्यय 30 रु. कन्या भोज 30 रु. प्रचार, मण्डप, रोशनी आदि विविध खर्च 40 रु. इसका कुछ व्यय 150 रु. बैठता है। इसमें किफायत की जाय तो 100 रु. भी हो सकता है और थोड़ा अधिक फैल-फूट कर किया जाय तो यह 200 रु. तक पहुंच सकता है। इतने महत्वपूर्ण आयोजन के लिए इतनी रकम कोई अधिक नहीं है और ऐसी भी नहीं है, जो छोटे गांवों में भी इकट्ठी न की जा सके। शाखाओं के वार्षिकोत्सव इसी रूप में होते रह सकते हैं। इसके लिए कोई तिथियां हर साल के लिये निश्चित भी रह सकती हैं ताकि उन दिनों अवकाश निकालने की बात सदस्यों के मन में पहले से ही बनी रहे।
हर सुयोग्य व्यक्ति के लिए सरल—गीता प्रसार की इस महती लोक सेवा को अपनाने लिए गृह-कार्यों से निवृत्त सेवा-भावी वानप्रस्थ लोग बहुत ही उपयुक्त रह सकते हैं। पर उन लोगों के लिए भी यह सरल है जिनको ऊपर अपने गृहस्थ को चलाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। महीने में चार कथाओं का प्रोग्राम बन सकता है। तीन महीने एक क्षेत्र में लगाने से 12 कथाएं की जा सकती हैं। इनमें 12×40 रु.=480 रु. मिल सकता है। तीन महीने बाद एक महीना घर आकर विश्राम किया जाय तो चार महीने में 480 रु. मिलने से महीने में 120 रु. की आमदनी हो सकती है। भोजन मार्ग-व्यय आदि अपना निकालते रहने पर 100 रु. मासिक बच्चों के लिए मिलता रहे तो इस महंगाई के जमाने में भी ब्राह्मणोचित सन्तोष के साथ काम चलाने वाला व्यक्ति रूखी-सूखी खिला कर अपने बच्चों का पालन कर ही सकता है। इस प्रकार आर्थिक कठिनाई या पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण जो लोग जन-नेतृत्व का कार्य नहीं कर सकते, युग-निर्माण योजना में भाग नहीं ले सकते, उनका रुका हुआ मार्ग भी खुल सकता है।