
आदर्श विवाहों का प्रचलन कैसे हो?
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आदर्श विवाहों का प्रचलन हिन्दू समाज की आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसे युग की महत्वपूर्ण मांग कहना चाहिए। नव-निर्माण के लिए कुप्रथाओं को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ परम्पराओं को जन्म दिया जाना आवश्यक है। ऐसे प्रयत्नों से ही सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य पूर्ण होगा।
आदर्श विवाहों की 24 सूत्री रूपरेखा मूर्त रूप कैसे धारण करे इसके लिए नीचे आठ उपाय प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इनको अपनाने से ही यह महान विचारधारा कार्यान्वित हो सकेगी।
(1) समान विचार वालों की तलाश—आदर्श विवाह तभी संभव, सफल और सार्थक हो सकते हैं जब दोनों पक्ष समान विचार के हों। एक पक्ष आदर्शवादी हो और दूसरा रूढ़िवादी तो ‘आधा तीतर आधा बटेर’ कहावत के अनुसार वह विवाह भी आधा सुधरा, आधा प्रतिक्रियावादी रहेगा। कभी-कभी तो यह मतभेद उग्र होकर संघर्ष और द्वेष का रूप भी धारण कर लेता है। जो बेमन से ठोक-पीटकर आदर्शवादी बनते हैं वे गुप्त रूप से दहेज आदि मांगते हैं और इच्छानुसार न मिलने पर किसी अन्य बहाने अपना रोष प्रकट करते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्ष आदर्शवादी विचारों के मिलें। यह खोज काफी कठिन होती है। धन, शिक्षा, स्वास्थ्य की दृष्टि से तो अच्छे लड़के मिल जाते हैं पर विचारों के साथ ताल-मेल न बैठने से उनको नीलामी बोली पर ही खरीदना संभव होता है। अस्तु हमें वह माध्यम ढूंढ़ निकालना पड़ेगा जिसके अनुसार परस्पर विवाह संबंध करने वाली इकाइयों में जो भी प्रगतिशील विचारों के हों वे एक संगठन सूत्र में बंधे हों और उनका परस्पर परिचय सुलभ हो सके। इस वर्ग में से अपनी-अपनी स्थिति के अनुकूल जोड़े ढूंढ़ लिये जाया करें, तब आदर्श विवाहों की परम्परा सरल हो जायगी।
कई जातीय पत्रों में वर कन्या का परिचय, विवरण छपता रहता है, उससे कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। ऐसी जानकारी तो किसी भी कालेज में जाकर आसानी से प्राप्त की जा सकती है। जब तक लड़का और उसके घर वाले आदर्श रीति से विवाह करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध न हों, तब तक लड़कों की सूची छपना कुछ महत्व नहीं रखता। हमें उन जातीय इकाइयों को संघबद्ध करना पड़ेगा जो परस्पर विवाह शादी करती हैं। इसके लिए दो उपाय हो सकते हैं (1) प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन। (2) उन संगठनों द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव या जातीय मेले। दोनों की रूपरेखा आगे प्रस्तुत की जाती है।
(2) प्रगतिशील जातीय संगठन—यों रूढ़ियों के समर्थक पंच चौधरियों का मान बढ़ाने के लिए अभी भी बहुत-सी जातीय सभाएं बनी हुई हैं। पर उनका स्वरूप और उद्देश्य बारीकी से देखने पर पता चलता है कि एकाध छोटी-मोटी बात सुधार की रखकर अधिकांश में वे रूढ़िवाद का पोषण करती हैं और संकीर्णता, पृथकता एवं जन्म-जाति के बड़प्पन का समर्थन करती हैं। इसीलिए विचारवान् एवं प्रगतिशील लोग इन जातीय संगठनों को अनुपयोगी एवं हानिकारक मानकर उनसे उपेक्षा या घृणा का भाव रखते हैं, जो उचित भी है।
हमें जातीय संगठनों की आवश्यकता अनुभव हो रही है पर उनका उद्देश्य सर्वथा भिन्न है। हम सामाजिक क्रान्ति का एक महान् मिशन लेकर अग्रसर हो रहे हैं। उसमें विवाहों में होने वाले अपव्यय को रोकना हमारा प्रथम मोर्चा है। इसके लिए पृष्ठभूमि तैयार करनी है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई प्रगतिशील विचार के लोगों का परस्पर न होना है। चूंकि अभी लोग छोटी-छोटी जातीय इकाइयों में ही विवाह शादी करते हैं, इस दायरे को बढ़ाना, आदर्श विवाहों से भी अधिक कठिन है। इसलिए प्रारम्भ में आदर्श विवाहों को ही हाथ में लिया जाय और विवाहों की जातीय इकाइयों को उतना ही बढ़ाया जाय जितना कि वर्तमान परिस्थितियों में-आरम्भिक प्रयास में-सम्भव है। इसमें उन जातियों के बन्धन ढीले करने तक की बात ही अभी व्यवहारिक हो सकती है। अन्त में हर जाति की प्रगतिशील सभाएं गठित करनी चाहिए। इनका उद्देश्य कुरीतियों का उन्मूलन एवं स्वस्थ परम्पराओं का प्रचलन हो।
इन सभाओं के सदस्य केवल वे बनाये जांय जो विवेक एवं औचित्य पर आस्था रखते हों। सदस्यता के प्रतिज्ञा पत्र में यह बातें लिखी हुई हों। भले ही आरम्भ में संख्या थोड़ी हो और उसमें ‘‘बड़े लोग’’ भले ही सम्मिलित न हों पर यह ध्यान रखा जाय कि इन संगठनों में रहें वे लोग जो सुधारवाद पर विश्वास करते हों। प्रयत्न करके ऐसे लोग ढूंढ़े और पैदा किये जांय, इसमें देर लगे तो हर्ज नहीं। पर जल्दी से बड़ी सभा बना लेने के मोह में रूढ़िवादियों को उसमें भर लेने से वे अपनी मनमानी चलायेंगे और संगठन का उद्देश्य ही नष्ट कर देंगे।
यह शुभारम्भ अपने युग-निर्माण परिवार से ही आरम्भ होता है, इसलिए हम लोगों को अपनी-अपनी प्रगतिशील जातीय सभाओं के संगठन की तैयारी में लग जाना चाहिए। (3) जातियों के प्रान्तीय सम्मेलन—जिन जाति-उपजातियों में परस्पर विवाह हो सकता है उनके क्षेत्रीय मेले सम्मेलन तीन दिन के हुआ करें। इनमें प्रवचन भाषण ही नहीं, मनोरंजन के मेले जैसे आयोजन भी रहें। ठहरने और खाने का उचित प्रबन्ध रहे। उन मेलों में उस क्षेत्र के लोग जहां समाज सुधार, ज्ञान-चर्चा, संगठन व्यवस्था आदि की बातें कहें-सुनें वहां परस्पर परिचय बढ़ाकर अपने बच्चों के विवाह-शादी की समस्या भी सुलझावें। हो सके तो विवाह योग्य लड़का-लड़की को भी साथ लेते आवें, जिससे सम्बन्ध पक्के करने में और भी अधिक सुविधा हो सके।
ऐसे जातीय मेलों की तारीखें तथा स्थान नियत रहे। पचास-पचास मील चारों ओर का घेरा एक मेले का विशेष कार्य क्षेत्र माना जाय। इस प्रकार सौ मील लम्बाई-चौड़ाई का एक क्षेत्र उस मेले से सम्बन्धित हो। इससे उस प्रदेश के लोग परस्पर परिचित हो जायेंगे, उपयुक्त जोड़े ढूंढ़ने में अधिक आसानी से सफल हो जाया करेंगे। ऐसे मेले उन प्रदेशों के अलग-अलग क्षेत्रों में होते रहें जहां वे परस्पर विवाह करने वाली, जाति-उपजातियां फैली हुई हों।
इन मेलों में, जो जातीय वार्षिक सम्मेलन हों, उनके संगठन एवं प्रगतिशीलता की योजना विशेष रूप से बनाई जाय और उसी तरह के भाषण, प्रवचन एवं विचार विनियम होता रहे। इन सम्मेलनों में सामूहिक विवाहों का भी आयोजन हो। ऐसे विवाह बहुत ही सस्ते पड़ते हैं और दूर-दूर तक कुरीति विरोधी आन्दोलन की सफलता का प्रचार करते हैं। बिहार के मैथिल ब्राह्मणों में तथा पंजाब के सिखों में इस प्रकार की व्यवस्था बनाई हुई भी है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे जातीय मेले, जो आदर्श विवाहों का उद्देश्य पूरा करने में सहायक हों, जगह-जगह लगाये जायें और उन्हें सफल बनाया जाय। जब कि निरर्थक मेले हर साल हजारों की संख्या में होते रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि विचारशील लोगों द्वारा, सदुद्देश्य के लिए सूझ-बूझ के साथ लगाये गये यह मेले सफल न हों। इनमें विवाह शादियों के अतिरिक्त सामूहिक यज्ञोपवीत आदि भी हो सकते हैं और अन्य अनेकों कुरीतियों का निवारण तथा जातीय समस्याओं का हल हो सकता है। ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि इन सम्मेलनों में प्रगतिशील लोगों की प्रमुखता हो। भावावेश में उनका संचालन तथा-कथित बड़े आदमियों के हाथों दे दिया गया तो वे लाल बुझक्कड़ इस माध्यम का उपयोग संकीर्णता एवं रूढ़िवादिता फैलाने में करने लगेंगे। इससे अपना मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जायगा।
(4) आदर्श विवाहों का अभिनन्दन—सामाजिक कुरीतियों को कुचलते हुए, प्रतिक्रियावादियों का उपहास व्यंग एवं विरोध सहते हुए जिन लोगों ने इस प्रकार का साहस प्रदर्शित किया है, लोगों की परवा न करते हुए विवेक को महत्व दिया है, निस्सन्देह वे साहसी, शूर, आदर्शवादी और नेतृत्व कर सकने की क्षमता सम्पन्न व्यक्ति हैं। उनकी प्रशंसा और प्रतिष्ठा होनी चाहिए। जहां वीर पूजा नहीं होती वह भूमि वीरविहीन हो जाती है। इसलिए प्रयत्न यह किया जाना चाहिए कि इन आदर्शवादी विवाहों को, उनके संयोजकों को विवेकशील लोगों का समर्थन, सहयोग, सद्भाव एवं आशीर्वाद प्राप्त हो।
ऐसे विवाहों के अवसर पर सम्भ्रान्त लोगों के पास स्वयं व्यक्तिगत अनुरोध एवं निवेदन लेकर जाना चाहिए और उन्हें अधिकाधिक संख्या में एकत्रित करना चाहिए। जितने अधिक लोग इस प्रकार के आयोजन को देखेंगे उतनी ही चर्चा फैलेगी और अपने उद्देश्य की पूर्ति सम्भव हो सकेगी। इसलिए काफी दिन पहले से यह निमन्त्रण देने आरम्भ करने चाहिए।
ऐसे उत्सवों उपस्थित जो सज्जन आशीर्वाद एवं समर्थन देने आयें उनमें से जो भाषण कर सकते हों वे खड़े होकर अपने विचार भी व्यक्त करें। फूल माला लेकर सभी आगन्तुक आवें और उन्हें दोनों ओर के अभिभावकों को पहनावें जिन्होंने यह साहस प्रदर्शित किया। छपे अभिनन्दन पत्र भेट करने की व्यवस्था हो सके तो और भी उत्तम हैं। उस नगर में या आस-पास जो सार्वजनिक संस्थायें हों वे भी अपनी ओर से अभिनन्दन करें। युग-निर्माण शाखाओं को तो विशेष उत्साहपूर्वक ऐसे आयोजनों का अभिनन्दन करना चाहिए। जहां जुलूस सम्भव हों वहां वह भी निकालें जांय और लाउडस्पीकरों से उस विवाह की विशेषता जनता को बताई जाय। आशीर्वाद देने आने वाले व्यक्ति भोजन स्वीकार न करें। इलाइची जैसा छोटा सत्कार ही पर्याप्त माना जाय।
(5) प्रचार की आवश्यकता—आदर्श विवाहों की ख्याति दूर-दूर तक फैलानी चाहिए ताकि वैसा करने का उत्साह दूसरे लोगों में भी उत्पन्न हो। हमारे देश में अभी विवेकशीलता जागृत नहीं हुई है। हर बात ‘भेड़ियाधसान’ की तरह एक दूसरे की देखा-देखी होती है। लोग चाहते हुए भी किसी सुधार को साहस के अभाव में अपना नहीं पाते, पर जब उन्हें पता लगता है कि ऐसा तो अन्य कितने ही लोग कर रहे हैं तब उनकी हिम्मत बढ़ जाती है और वे भी वैसा ही करने उद्यत हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक शुभ कर्म का अधिकाधिक प्रचार होना चाहिए। विशेषतः आदर्श विवाहों की ख्याति को दूर-दूर तक अवश्य ही फैलाई जानी चाहिए।
समाचार पत्रों में ऐसे समाचार अवश्य भेजे जांय। युग-निर्माण योजना पत्रिका में ऐसे समाचार बहुत प्रेम और उत्साहपूर्वक छापे जाते हैं। जिन अभिभावकों या लड़की-लड़के के विशेष साहस से वह शुभ कार्य सम्पन्न हुआ हो उनके फोटो भी छापे जाते हैं। मथुरा केन्द्रीय कार्यालय से ऐसे समाचार भारत भर में अनेक भाषाओं में छपने वाले पत्रों में छपने भेज दिये जाते हैं।
जहां समाचार पत्र नहीं पहुंचते वहां पच, विज्ञप्ति आदि छाप कर वह समाचार घर-घर पहुंचाया जा सकता है और उनके पोस्टर दीवारों खम्भों आदि पर चिपकाये जा सकते हैं। और भी जो तरीके ऐसे समाचार दूर प्रदेशों तक अधिक जनता तक पहुंचाये जाने के लिए सम्भव हों वे सभी करने का प्रयत्न करना चाहिए। ताकि बढ़ती हुई सुधारात्मक प्रवृत्तियों का परिचय अधिकाधिक जनता को हो सके और सर्व साधारण के मन में उसी तरह के अनुकरण की आकांक्षा जागृत हो सके।
(6) प्रतिज्ञा आन्दोलन—कमर तोड़ खर्चीले विवाहों की कुरीति को त्यागने के लिए विचारशील लोगों से प्रतिज्ञा पत्र भराये जांय कि अवसर आने पर अपने बच्चों की शादी आदर्श विवाह वाली संहिता के अनुसार ही करूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा सर्व साधारण से कराई जाय। इसके लिए जो छपे प्रतिज्ञापत्र हों उन्हें खेल कौतूहल की दृष्टि से नहीं वरन् ईश्वर को साक्षी देकर भरा जाना चाहिए और प्रण के निवाहने की दृढ़ता के साथ उसे निवाहा जाना चाहिए।
छात्रों, छात्राओं एवं अविवाहितों से भी ऐसे प्रतिज्ञा पत्र भराये जाने चाहिये जिनमें आदर्श विवाह न होने पर अविवाहित ही रहने की प्रतिज्ञा हो। जो युवक ऐसे प्रतिज्ञा पत्र भरें वे अपने अभिभावकों को भी इसकी सूचना दे दें ताकि पीछे उन्हें विरोध-प्रतिरोध का सामना न करना पड़े।
समाज निर्माण की पुण्य प्रवृत्ति में जिन्हें भावना एवं उत्साह हो वे ऐसी प्रतिज्ञा पत्र पुस्तिकाएं अपने साथ रखें और जहां जावें वहीं अपनी बात का प्रचार करें, जो सहमत हो जावें उनसे फार्म भरा लें। और साथ ही ‘धन्यवाद का अभिनन्दन पत्र’ भी उन्हें दे दें।
इस प्रकार की प्रतिज्ञा फार्मों की पुस्तिकायें तथा स्वीकृति के सुन्दर अभिनन्दन प्रमाण पत्रों की पुस्तिकायें युग-निर्माण योजना के केन्द्रीय कार्यालय में छापी जा रही है। आवश्यकतानुसार शाखायें उन्हें अपने यहां मंगालें और कार्यकर्त्ताओं के लिए सुलभ बनाया करें। यह प्रतिज्ञा पुस्तिकायें लागत से भी कम मूल्य पर प्रस्तुत की गई हैं। यह हस्ताक्षर आन्दोलन तेजी से चलाया जाना चाहिये और प्रत्येक कार्यकर्ता को इस प्रकार के प्रयत्न को अपना एक आवश्यक कर्म मानकर उसके लिए सचेष्ट रहना चाहिए।
(7) सुधार प्रतिरोध और असहयोग—जहां विवाहों में अपव्यय करने का पागलपन गहराई तक जड़ जमाये बैठा हो, वहां यह आशा नहीं की जा सकती कि प्रचार से ही सब कुछ ठीक हो जायगा। इसके लिए उस किसान या माली से प्रेरणा लेनी पड़ेगी जो अवांछनीय झाड़-झंखाड़ों को उखाड़ फेंकने के लिए उनकी जड़ों पर अपने पैने औजारों के तीव्र प्रहार करता है। कूड़ा-करकट अपने आप नहीं हटता उसे झाड़ू से घसीट कर बाहर करना होता है। कुरीतियां अपने आप मिटने वाली नहीं हैं उनके विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। उस संघर्ष में अपने को कुछ चोट पहुंचती हो तो उसे धर्म वीरों की परम्परा के अनुसार त्याग बलिदान का छोटा-सा सौभाग्य मानने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम में से जिनका प्रभाव जहां हो, वहां उस प्रभाव का उपयोग करके इन कुरीतियों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने घर, कुटुम्ब, मित्र एवं रिश्तेदारों में तो ऐसा सुझाव बलपूर्वक भी किया जा सकता है और यदि वे न मानें तो अपने असहयोग की, उस विवाह में सम्मिलित न होने की बात भी कही जा सकती है।
जिन विवाहों में अपने को सम्मिलित होने का अवसर मिले उनमें पूर्णतया न सही, जितना कुछ वश चले, 24 में से जितने भी सूत्र जितने अंशों में भी कार्यान्वित किये जा सकें उसके लिए जोर देना चाहिये, प्रयत्न करना चाहिये। जो अन्य प्रभावशाली व्यक्ति उस उत्सव में आते हों उनमें से कोई विचारवान दीखें तो उनके माध्यम से प्रभाव डलवाना चाहिये ताकि जितने अंशों में कुरीतियां हट सकें उतना तो किया ही जाय। आदर्श विवाह आन्दोलन के सम्बन्ध में छपे ट्रैक्ट भी ऐसे अवसरों पर रखने चाहिये और उन्हें पढ़ा सुनाकर ऐसा वातावरण बनाना चाहिये कि सुधारवादी विचारधारा के लिए कोई स्थान उनके मन में बने। यह सब काम बिना कटु संघर्ष के चतुरता एवं बुद्धिमत्ता द्वारा मधुरता के वातावरण में भी सम्पन्न हो सकते हैं।
असहयोग वहीं करना चाहिए जहां अपना दबाव हो। अन्य विवाहों में सम्मिलित होकर अपनी विचारधारा के पक्ष में जितना भी वातावरण बन सके उतना बनाना चाहिये। रूठ बैठना या ऐसे पुराने ढर्रे से जहां विवाह हो रहा हो वहां जाना ही नहीं इस प्रकार का असहयोग व्यर्थ है। वहां तो भीतर घुस कर ही कुछ काम हो सकता है।
यों कानून द्वारा भी दहेज, अधिक बारात ले जाने पर कड़े प्रतिबन्ध लगे हुए हैं, पर उनका प्रयोग न करे जहां तक सम्भव हो सके प्रेम, मधुरता, प्रचार, समझाना, धमकी, नाराजी आदि शस्त्रों से ही काम लेना चाहिये। जहां अनिवार्य हो जाय वहीं कानूनी सहायता ली जाय।
(8) लोक सेवी युग-निर्माता की धर्म सेवा—संसार में जितने भी महत्वपूर्ण जन-आन्दोलन चले और सफल हुए हैं उनके पीछे भावनाशील, उच्च चरित्र, आदर्शवादी लोक सेवकों की शक्ति ही प्रधान आधार रही है। इस बल के अभाव में अन्य साधन कितने ही अधिक होने पर भी कोई बड़ा काम, खास तौर से नव-निर्माण जैसा महान अभियान सफल नहीं हो सकता। इसलिए हमें इस बात का घोर प्रयत्न करना होगा कि कुछ व्यक्ति भजन करके स्वर्ग प्राप्ति के लिए लाल कपड़े वाले बाबाजी नहीं वरन् युग रचना के लिए जनता जनार्दन की आराधना करने वाले विवेकशील त्यागी तपस्वी लोग कर्म क्षेत्र में उतरें और भौतिक एकताओं से ऊंचे उठकर सच्चे महामानवों की तरह अपनी हस्ती विश्व मंगल के लिए लगा दें।
जिनके बच्चे समर्थ होकर कमाने खाने लगे हैं, जिनके ऊपर ईश्वर की कृपा से ही कमाने की या बच्चों की जिम्मेदारी नहीं है वे वानप्रस्थ की तरह अपने घर रहते हुए भी अपने क्षेत्र में प्रकाश स्तम्भ की तरह काम कर सकते हैं। जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं वे भी अवकाश का थोड़ा बहुत समय समाज सेवा के लिए लगा सकते हैं। इन समयदानी लगनशील लोगों के भागीरथ प्रयत्नों से ही आदर्श विवाहों की प्रथा का प्रचलन सम्भव हो सकेगा।
युग-निर्माण योजना के सदस्यों को इस धर्म-सेना में सम्मिलित होना चाहिए। इस सेना में भर्ती की शर्त लोक मंगल के लिए नियमित रूप से समय दान करने लगना है। जो पारिवारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त हैं उनका धर्म कर्तव्य यह है कि लोक और मोह के बन्धनों को काट कर जनता जनार्दन की सेवा के लिए एक सच्चे तपस्वी की तरह काम करने का व्रत धारण करलें। जिनके पास बहुत जिम्मेदारियां हैं वे भी एक दो घण्टे का समय तो नित्य लगा ही सकते हैं। अपना काम काज करते हुए भी सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को इस मिशन की प्रेरणा दे सकते हैं। छुट्टी का पूरा दिन इस कार्य के लिए दे सकते हैं।
आदर्श विवाहों की 24 सूत्री रूपरेखा मूर्त रूप कैसे धारण करे इसके लिए नीचे आठ उपाय प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इनको अपनाने से ही यह महान विचारधारा कार्यान्वित हो सकेगी।
(1) समान विचार वालों की तलाश—आदर्श विवाह तभी संभव, सफल और सार्थक हो सकते हैं जब दोनों पक्ष समान विचार के हों। एक पक्ष आदर्शवादी हो और दूसरा रूढ़िवादी तो ‘आधा तीतर आधा बटेर’ कहावत के अनुसार वह विवाह भी आधा सुधरा, आधा प्रतिक्रियावादी रहेगा। कभी-कभी तो यह मतभेद उग्र होकर संघर्ष और द्वेष का रूप भी धारण कर लेता है। जो बेमन से ठोक-पीटकर आदर्शवादी बनते हैं वे गुप्त रूप से दहेज आदि मांगते हैं और इच्छानुसार न मिलने पर किसी अन्य बहाने अपना रोष प्रकट करते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्ष आदर्शवादी विचारों के मिलें। यह खोज काफी कठिन होती है। धन, शिक्षा, स्वास्थ्य की दृष्टि से तो अच्छे लड़के मिल जाते हैं पर विचारों के साथ ताल-मेल न बैठने से उनको नीलामी बोली पर ही खरीदना संभव होता है। अस्तु हमें वह माध्यम ढूंढ़ निकालना पड़ेगा जिसके अनुसार परस्पर विवाह संबंध करने वाली इकाइयों में जो भी प्रगतिशील विचारों के हों वे एक संगठन सूत्र में बंधे हों और उनका परस्पर परिचय सुलभ हो सके। इस वर्ग में से अपनी-अपनी स्थिति के अनुकूल जोड़े ढूंढ़ लिये जाया करें, तब आदर्श विवाहों की परम्परा सरल हो जायगी।
कई जातीय पत्रों में वर कन्या का परिचय, विवरण छपता रहता है, उससे कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। ऐसी जानकारी तो किसी भी कालेज में जाकर आसानी से प्राप्त की जा सकती है। जब तक लड़का और उसके घर वाले आदर्श रीति से विवाह करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध न हों, तब तक लड़कों की सूची छपना कुछ महत्व नहीं रखता। हमें उन जातीय इकाइयों को संघबद्ध करना पड़ेगा जो परस्पर विवाह शादी करती हैं। इसके लिए दो उपाय हो सकते हैं (1) प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन। (2) उन संगठनों द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव या जातीय मेले। दोनों की रूपरेखा आगे प्रस्तुत की जाती है।
(2) प्रगतिशील जातीय संगठन—यों रूढ़ियों के समर्थक पंच चौधरियों का मान बढ़ाने के लिए अभी भी बहुत-सी जातीय सभाएं बनी हुई हैं। पर उनका स्वरूप और उद्देश्य बारीकी से देखने पर पता चलता है कि एकाध छोटी-मोटी बात सुधार की रखकर अधिकांश में वे रूढ़िवाद का पोषण करती हैं और संकीर्णता, पृथकता एवं जन्म-जाति के बड़प्पन का समर्थन करती हैं। इसीलिए विचारवान् एवं प्रगतिशील लोग इन जातीय संगठनों को अनुपयोगी एवं हानिकारक मानकर उनसे उपेक्षा या घृणा का भाव रखते हैं, जो उचित भी है।
हमें जातीय संगठनों की आवश्यकता अनुभव हो रही है पर उनका उद्देश्य सर्वथा भिन्न है। हम सामाजिक क्रान्ति का एक महान् मिशन लेकर अग्रसर हो रहे हैं। उसमें विवाहों में होने वाले अपव्यय को रोकना हमारा प्रथम मोर्चा है। इसके लिए पृष्ठभूमि तैयार करनी है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई प्रगतिशील विचार के लोगों का परस्पर न होना है। चूंकि अभी लोग छोटी-छोटी जातीय इकाइयों में ही विवाह शादी करते हैं, इस दायरे को बढ़ाना, आदर्श विवाहों से भी अधिक कठिन है। इसलिए प्रारम्भ में आदर्श विवाहों को ही हाथ में लिया जाय और विवाहों की जातीय इकाइयों को उतना ही बढ़ाया जाय जितना कि वर्तमान परिस्थितियों में-आरम्भिक प्रयास में-सम्भव है। इसमें उन जातियों के बन्धन ढीले करने तक की बात ही अभी व्यवहारिक हो सकती है। अन्त में हर जाति की प्रगतिशील सभाएं गठित करनी चाहिए। इनका उद्देश्य कुरीतियों का उन्मूलन एवं स्वस्थ परम्पराओं का प्रचलन हो।
इन सभाओं के सदस्य केवल वे बनाये जांय जो विवेक एवं औचित्य पर आस्था रखते हों। सदस्यता के प्रतिज्ञा पत्र में यह बातें लिखी हुई हों। भले ही आरम्भ में संख्या थोड़ी हो और उसमें ‘‘बड़े लोग’’ भले ही सम्मिलित न हों पर यह ध्यान रखा जाय कि इन संगठनों में रहें वे लोग जो सुधारवाद पर विश्वास करते हों। प्रयत्न करके ऐसे लोग ढूंढ़े और पैदा किये जांय, इसमें देर लगे तो हर्ज नहीं। पर जल्दी से बड़ी सभा बना लेने के मोह में रूढ़िवादियों को उसमें भर लेने से वे अपनी मनमानी चलायेंगे और संगठन का उद्देश्य ही नष्ट कर देंगे।
यह शुभारम्भ अपने युग-निर्माण परिवार से ही आरम्भ होता है, इसलिए हम लोगों को अपनी-अपनी प्रगतिशील जातीय सभाओं के संगठन की तैयारी में लग जाना चाहिए। (3) जातियों के प्रान्तीय सम्मेलन—जिन जाति-उपजातियों में परस्पर विवाह हो सकता है उनके क्षेत्रीय मेले सम्मेलन तीन दिन के हुआ करें। इनमें प्रवचन भाषण ही नहीं, मनोरंजन के मेले जैसे आयोजन भी रहें। ठहरने और खाने का उचित प्रबन्ध रहे। उन मेलों में उस क्षेत्र के लोग जहां समाज सुधार, ज्ञान-चर्चा, संगठन व्यवस्था आदि की बातें कहें-सुनें वहां परस्पर परिचय बढ़ाकर अपने बच्चों के विवाह-शादी की समस्या भी सुलझावें। हो सके तो विवाह योग्य लड़का-लड़की को भी साथ लेते आवें, जिससे सम्बन्ध पक्के करने में और भी अधिक सुविधा हो सके।
ऐसे जातीय मेलों की तारीखें तथा स्थान नियत रहे। पचास-पचास मील चारों ओर का घेरा एक मेले का विशेष कार्य क्षेत्र माना जाय। इस प्रकार सौ मील लम्बाई-चौड़ाई का एक क्षेत्र उस मेले से सम्बन्धित हो। इससे उस प्रदेश के लोग परस्पर परिचित हो जायेंगे, उपयुक्त जोड़े ढूंढ़ने में अधिक आसानी से सफल हो जाया करेंगे। ऐसे मेले उन प्रदेशों के अलग-अलग क्षेत्रों में होते रहें जहां वे परस्पर विवाह करने वाली, जाति-उपजातियां फैली हुई हों।
इन मेलों में, जो जातीय वार्षिक सम्मेलन हों, उनके संगठन एवं प्रगतिशीलता की योजना विशेष रूप से बनाई जाय और उसी तरह के भाषण, प्रवचन एवं विचार विनियम होता रहे। इन सम्मेलनों में सामूहिक विवाहों का भी आयोजन हो। ऐसे विवाह बहुत ही सस्ते पड़ते हैं और दूर-दूर तक कुरीति विरोधी आन्दोलन की सफलता का प्रचार करते हैं। बिहार के मैथिल ब्राह्मणों में तथा पंजाब के सिखों में इस प्रकार की व्यवस्था बनाई हुई भी है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे जातीय मेले, जो आदर्श विवाहों का उद्देश्य पूरा करने में सहायक हों, जगह-जगह लगाये जायें और उन्हें सफल बनाया जाय। जब कि निरर्थक मेले हर साल हजारों की संख्या में होते रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि विचारशील लोगों द्वारा, सदुद्देश्य के लिए सूझ-बूझ के साथ लगाये गये यह मेले सफल न हों। इनमें विवाह शादियों के अतिरिक्त सामूहिक यज्ञोपवीत आदि भी हो सकते हैं और अन्य अनेकों कुरीतियों का निवारण तथा जातीय समस्याओं का हल हो सकता है। ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि इन सम्मेलनों में प्रगतिशील लोगों की प्रमुखता हो। भावावेश में उनका संचालन तथा-कथित बड़े आदमियों के हाथों दे दिया गया तो वे लाल बुझक्कड़ इस माध्यम का उपयोग संकीर्णता एवं रूढ़िवादिता फैलाने में करने लगेंगे। इससे अपना मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जायगा।
(4) आदर्श विवाहों का अभिनन्दन—सामाजिक कुरीतियों को कुचलते हुए, प्रतिक्रियावादियों का उपहास व्यंग एवं विरोध सहते हुए जिन लोगों ने इस प्रकार का साहस प्रदर्शित किया है, लोगों की परवा न करते हुए विवेक को महत्व दिया है, निस्सन्देह वे साहसी, शूर, आदर्शवादी और नेतृत्व कर सकने की क्षमता सम्पन्न व्यक्ति हैं। उनकी प्रशंसा और प्रतिष्ठा होनी चाहिए। जहां वीर पूजा नहीं होती वह भूमि वीरविहीन हो जाती है। इसलिए प्रयत्न यह किया जाना चाहिए कि इन आदर्शवादी विवाहों को, उनके संयोजकों को विवेकशील लोगों का समर्थन, सहयोग, सद्भाव एवं आशीर्वाद प्राप्त हो।
ऐसे विवाहों के अवसर पर सम्भ्रान्त लोगों के पास स्वयं व्यक्तिगत अनुरोध एवं निवेदन लेकर जाना चाहिए और उन्हें अधिकाधिक संख्या में एकत्रित करना चाहिए। जितने अधिक लोग इस प्रकार के आयोजन को देखेंगे उतनी ही चर्चा फैलेगी और अपने उद्देश्य की पूर्ति सम्भव हो सकेगी। इसलिए काफी दिन पहले से यह निमन्त्रण देने आरम्भ करने चाहिए।
ऐसे उत्सवों उपस्थित जो सज्जन आशीर्वाद एवं समर्थन देने आयें उनमें से जो भाषण कर सकते हों वे खड़े होकर अपने विचार भी व्यक्त करें। फूल माला लेकर सभी आगन्तुक आवें और उन्हें दोनों ओर के अभिभावकों को पहनावें जिन्होंने यह साहस प्रदर्शित किया। छपे अभिनन्दन पत्र भेट करने की व्यवस्था हो सके तो और भी उत्तम हैं। उस नगर में या आस-पास जो सार्वजनिक संस्थायें हों वे भी अपनी ओर से अभिनन्दन करें। युग-निर्माण शाखाओं को तो विशेष उत्साहपूर्वक ऐसे आयोजनों का अभिनन्दन करना चाहिए। जहां जुलूस सम्भव हों वहां वह भी निकालें जांय और लाउडस्पीकरों से उस विवाह की विशेषता जनता को बताई जाय। आशीर्वाद देने आने वाले व्यक्ति भोजन स्वीकार न करें। इलाइची जैसा छोटा सत्कार ही पर्याप्त माना जाय।
(5) प्रचार की आवश्यकता—आदर्श विवाहों की ख्याति दूर-दूर तक फैलानी चाहिए ताकि वैसा करने का उत्साह दूसरे लोगों में भी उत्पन्न हो। हमारे देश में अभी विवेकशीलता जागृत नहीं हुई है। हर बात ‘भेड़ियाधसान’ की तरह एक दूसरे की देखा-देखी होती है। लोग चाहते हुए भी किसी सुधार को साहस के अभाव में अपना नहीं पाते, पर जब उन्हें पता लगता है कि ऐसा तो अन्य कितने ही लोग कर रहे हैं तब उनकी हिम्मत बढ़ जाती है और वे भी वैसा ही करने उद्यत हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक शुभ कर्म का अधिकाधिक प्रचार होना चाहिए। विशेषतः आदर्श विवाहों की ख्याति को दूर-दूर तक अवश्य ही फैलाई जानी चाहिए।
समाचार पत्रों में ऐसे समाचार अवश्य भेजे जांय। युग-निर्माण योजना पत्रिका में ऐसे समाचार बहुत प्रेम और उत्साहपूर्वक छापे जाते हैं। जिन अभिभावकों या लड़की-लड़के के विशेष साहस से वह शुभ कार्य सम्पन्न हुआ हो उनके फोटो भी छापे जाते हैं। मथुरा केन्द्रीय कार्यालय से ऐसे समाचार भारत भर में अनेक भाषाओं में छपने वाले पत्रों में छपने भेज दिये जाते हैं।
जहां समाचार पत्र नहीं पहुंचते वहां पच, विज्ञप्ति आदि छाप कर वह समाचार घर-घर पहुंचाया जा सकता है और उनके पोस्टर दीवारों खम्भों आदि पर चिपकाये जा सकते हैं। और भी जो तरीके ऐसे समाचार दूर प्रदेशों तक अधिक जनता तक पहुंचाये जाने के लिए सम्भव हों वे सभी करने का प्रयत्न करना चाहिए। ताकि बढ़ती हुई सुधारात्मक प्रवृत्तियों का परिचय अधिकाधिक जनता को हो सके और सर्व साधारण के मन में उसी तरह के अनुकरण की आकांक्षा जागृत हो सके।
(6) प्रतिज्ञा आन्दोलन—कमर तोड़ खर्चीले विवाहों की कुरीति को त्यागने के लिए विचारशील लोगों से प्रतिज्ञा पत्र भराये जांय कि अवसर आने पर अपने बच्चों की शादी आदर्श विवाह वाली संहिता के अनुसार ही करूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा सर्व साधारण से कराई जाय। इसके लिए जो छपे प्रतिज्ञापत्र हों उन्हें खेल कौतूहल की दृष्टि से नहीं वरन् ईश्वर को साक्षी देकर भरा जाना चाहिए और प्रण के निवाहने की दृढ़ता के साथ उसे निवाहा जाना चाहिए।
छात्रों, छात्राओं एवं अविवाहितों से भी ऐसे प्रतिज्ञा पत्र भराये जाने चाहिये जिनमें आदर्श विवाह न होने पर अविवाहित ही रहने की प्रतिज्ञा हो। जो युवक ऐसे प्रतिज्ञा पत्र भरें वे अपने अभिभावकों को भी इसकी सूचना दे दें ताकि पीछे उन्हें विरोध-प्रतिरोध का सामना न करना पड़े।
समाज निर्माण की पुण्य प्रवृत्ति में जिन्हें भावना एवं उत्साह हो वे ऐसी प्रतिज्ञा पत्र पुस्तिकाएं अपने साथ रखें और जहां जावें वहीं अपनी बात का प्रचार करें, जो सहमत हो जावें उनसे फार्म भरा लें। और साथ ही ‘धन्यवाद का अभिनन्दन पत्र’ भी उन्हें दे दें।
इस प्रकार की प्रतिज्ञा फार्मों की पुस्तिकायें तथा स्वीकृति के सुन्दर अभिनन्दन प्रमाण पत्रों की पुस्तिकायें युग-निर्माण योजना के केन्द्रीय कार्यालय में छापी जा रही है। आवश्यकतानुसार शाखायें उन्हें अपने यहां मंगालें और कार्यकर्त्ताओं के लिए सुलभ बनाया करें। यह प्रतिज्ञा पुस्तिकायें लागत से भी कम मूल्य पर प्रस्तुत की गई हैं। यह हस्ताक्षर आन्दोलन तेजी से चलाया जाना चाहिये और प्रत्येक कार्यकर्ता को इस प्रकार के प्रयत्न को अपना एक आवश्यक कर्म मानकर उसके लिए सचेष्ट रहना चाहिए।
(7) सुधार प्रतिरोध और असहयोग—जहां विवाहों में अपव्यय करने का पागलपन गहराई तक जड़ जमाये बैठा हो, वहां यह आशा नहीं की जा सकती कि प्रचार से ही सब कुछ ठीक हो जायगा। इसके लिए उस किसान या माली से प्रेरणा लेनी पड़ेगी जो अवांछनीय झाड़-झंखाड़ों को उखाड़ फेंकने के लिए उनकी जड़ों पर अपने पैने औजारों के तीव्र प्रहार करता है। कूड़ा-करकट अपने आप नहीं हटता उसे झाड़ू से घसीट कर बाहर करना होता है। कुरीतियां अपने आप मिटने वाली नहीं हैं उनके विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। उस संघर्ष में अपने को कुछ चोट पहुंचती हो तो उसे धर्म वीरों की परम्परा के अनुसार त्याग बलिदान का छोटा-सा सौभाग्य मानने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम में से जिनका प्रभाव जहां हो, वहां उस प्रभाव का उपयोग करके इन कुरीतियों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने घर, कुटुम्ब, मित्र एवं रिश्तेदारों में तो ऐसा सुझाव बलपूर्वक भी किया जा सकता है और यदि वे न मानें तो अपने असहयोग की, उस विवाह में सम्मिलित न होने की बात भी कही जा सकती है।
जिन विवाहों में अपने को सम्मिलित होने का अवसर मिले उनमें पूर्णतया न सही, जितना कुछ वश चले, 24 में से जितने भी सूत्र जितने अंशों में भी कार्यान्वित किये जा सकें उसके लिए जोर देना चाहिये, प्रयत्न करना चाहिये। जो अन्य प्रभावशाली व्यक्ति उस उत्सव में आते हों उनमें से कोई विचारवान दीखें तो उनके माध्यम से प्रभाव डलवाना चाहिये ताकि जितने अंशों में कुरीतियां हट सकें उतना तो किया ही जाय। आदर्श विवाह आन्दोलन के सम्बन्ध में छपे ट्रैक्ट भी ऐसे अवसरों पर रखने चाहिये और उन्हें पढ़ा सुनाकर ऐसा वातावरण बनाना चाहिये कि सुधारवादी विचारधारा के लिए कोई स्थान उनके मन में बने। यह सब काम बिना कटु संघर्ष के चतुरता एवं बुद्धिमत्ता द्वारा मधुरता के वातावरण में भी सम्पन्न हो सकते हैं।
असहयोग वहीं करना चाहिए जहां अपना दबाव हो। अन्य विवाहों में सम्मिलित होकर अपनी विचारधारा के पक्ष में जितना भी वातावरण बन सके उतना बनाना चाहिये। रूठ बैठना या ऐसे पुराने ढर्रे से जहां विवाह हो रहा हो वहां जाना ही नहीं इस प्रकार का असहयोग व्यर्थ है। वहां तो भीतर घुस कर ही कुछ काम हो सकता है।
यों कानून द्वारा भी दहेज, अधिक बारात ले जाने पर कड़े प्रतिबन्ध लगे हुए हैं, पर उनका प्रयोग न करे जहां तक सम्भव हो सके प्रेम, मधुरता, प्रचार, समझाना, धमकी, नाराजी आदि शस्त्रों से ही काम लेना चाहिये। जहां अनिवार्य हो जाय वहीं कानूनी सहायता ली जाय।
(8) लोक सेवी युग-निर्माता की धर्म सेवा—संसार में जितने भी महत्वपूर्ण जन-आन्दोलन चले और सफल हुए हैं उनके पीछे भावनाशील, उच्च चरित्र, आदर्शवादी लोक सेवकों की शक्ति ही प्रधान आधार रही है। इस बल के अभाव में अन्य साधन कितने ही अधिक होने पर भी कोई बड़ा काम, खास तौर से नव-निर्माण जैसा महान अभियान सफल नहीं हो सकता। इसलिए हमें इस बात का घोर प्रयत्न करना होगा कि कुछ व्यक्ति भजन करके स्वर्ग प्राप्ति के लिए लाल कपड़े वाले बाबाजी नहीं वरन् युग रचना के लिए जनता जनार्दन की आराधना करने वाले विवेकशील त्यागी तपस्वी लोग कर्म क्षेत्र में उतरें और भौतिक एकताओं से ऊंचे उठकर सच्चे महामानवों की तरह अपनी हस्ती विश्व मंगल के लिए लगा दें।
जिनके बच्चे समर्थ होकर कमाने खाने लगे हैं, जिनके ऊपर ईश्वर की कृपा से ही कमाने की या बच्चों की जिम्मेदारी नहीं है वे वानप्रस्थ की तरह अपने घर रहते हुए भी अपने क्षेत्र में प्रकाश स्तम्भ की तरह काम कर सकते हैं। जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं वे भी अवकाश का थोड़ा बहुत समय समाज सेवा के लिए लगा सकते हैं। इन समयदानी लगनशील लोगों के भागीरथ प्रयत्नों से ही आदर्श विवाहों की प्रथा का प्रचलन सम्भव हो सकेगा।
युग-निर्माण योजना के सदस्यों को इस धर्म-सेना में सम्मिलित होना चाहिए। इस सेना में भर्ती की शर्त लोक मंगल के लिए नियमित रूप से समय दान करने लगना है। जो पारिवारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त हैं उनका धर्म कर्तव्य यह है कि लोक और मोह के बन्धनों को काट कर जनता जनार्दन की सेवा के लिए एक सच्चे तपस्वी की तरह काम करने का व्रत धारण करलें। जिनके पास बहुत जिम्मेदारियां हैं वे भी एक दो घण्टे का समय तो नित्य लगा ही सकते हैं। अपना काम काज करते हुए भी सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को इस मिशन की प्रेरणा दे सकते हैं। छुट्टी का पूरा दिन इस कार्य के लिए दे सकते हैं।