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Books - युग प्रवाह को मोड़ देने वाले निर्भीक विचारक

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Language: HINDI
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जिन्होंने विद्वता को सार्थक किया- अर्नाल्ड टायनवी

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‘‘धर्म इस संसार में आने वाले प्रत्येक मनुष्य की सबसे बड़ी चिन्ता है। धर्म राष्ट्रीय सीमाएं नहीं मानता। वह हिन्दू के मुंह से भी बोल सकता है, ईसाई और मुसलमान के मुंह से भी; किन्तु यदि उसका संदेश सचमुच सत्य से विस्तृत हुआ है, तो वह शीघ्र हम सबसे बात करेगा। यही है हिन्दू धर्म की एक विशेष अन्तदृष्टि और वह विशेष उपकार जो कि भारतीय धर्म को इस विश्व को देना है।’’
भारत के पश्चिम में उपले कुछ धर्मों की यह कहने की प्रवृत्ति है कि ‘‘सत्य हमारे पास है।’’ हिन्दू धर्म उनसे नहीं झगड़ता; मगर इतना अवश्य कहेगा कि हां, आपके पास सत्य है; हमारे पास सत्य है। मगर हम दोनों में से किसी के भी पास पूर्ण सत्य नहीं है, न उसका एक खण्ड ही दोनों के पास है। कोई भी मनुष्य पूर्ण सत्य को नहीं पा सकता; क्योंकि सत्य के असंख्य पहलू हैं। एक मनुष्य को एक सत्य की झलक मिलती हैं, दूसरे को दूसरी दोनों झलकें अलग हैं, मगर दोनों आलोकदायी हैं। साथ ही दो झलकें एक झलक की अपेक्षा दुगुने से भी अधिक आलोकदायी हैं। सत्य एक है मगर उसके मार्ग अनेक हैं। ये विभिन्न मार्ग परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे एक दूसरे के पूरक हैं।’’
सभी धर्मों के बारे में दुराग्रह मुक्त होकर और सबके बीच एक सत्य शिव और सुन्दर सामंजस्य स्थापित करने की भावना से प्रेरित उपरोक्त पंक्तियों के लेखक से सहमत हो जाना हर पूर्वाग्रह मुक्ति के लिये सहज सम्भव है। इन पंक्तियों में एक सम्भावित सत्य का उद्घाटन करने वाले व्यक्ति हैं इंग्लैंड के विश्व विख्यात साहित्यकार समाज सेवी, अर्थशास्त्री और अपने ढंग के अनूठे आलोचक अर्नाल्ड टायनवी, जिनका अपना जीवन भी अपनी इन पंक्तियों की तरह ही प्रभामय, प्रखर और समन्वयवादी रहा है। उन्होंने अपनी प्रखर बौद्धिकता को जिस लोकोपकारी दृष्टि से नियोजित किया है वह अपने आप में इतनी विधेयात्मक एवं सर्जनात्मक है कि उसमें एक सम्भावित विश्व परिवार का स्वपन् संजोया हुआ लगता है।
वे आगे कहते हैं—‘‘पश्चिमी धर्म कहते हैं—‘‘नहीं आप यह नहीं कर सकते। आप बाकी सब मार्गों को तजे बिना हमारा मार्ग नहीं अपना सकते, क्योंकि हमारा ही एक मात्र सही मार्ग है।’’ हिन्दू कहेगा—‘‘मैं ये सब मार्ग अपना सकता हूं, और इनके अलावा और भी, क्योंकि ये सब अलग-अलग एकांतिक मार्ग नहीं हैं।’’
इस विषय में, मैं मानता हूं कि पश्चिमी धर्मों की अपेक्षा हिन्दू धर्म सत्य में अधिक गहरे बैठा हैं। मैं यह भी मानता हूं कि सत्य के सम्बन्ध में यह भारतीय समझ आज मानव जाति के लिये अत्यधिक मूल्यवान है।
ऐसी स्थिति में केवल हमारा मार्ग सही है, यह मानने वाली असहिष्णु मनोवृत्ति पहले जितने तो खराब है ही, पहले की अपेक्षा बहुत अधिक खतरनाक भी है। हिन्दु मनोवृत्ति एकांतिकवादी मनोवृत्ति के विपरीत है और यह विश्व मैत्री में भारत का योगदान है।
अन्ततः भारतीय विचार और पश्चिमी विचार परस्पर विरुद्ध और असम्बद्ध नहीं है। दोनों के लिये दुनिया में गुंजाइश है, और दोनों की आवश्यकता हैं। दोनों को निकट लाइये, दोनों मिलकर संसार की अपूर्व सेवा कर सकेंगे।’’
हिन्दू धर्म, संस्कृति और जीवन दर्शन के प्रति जिस व्यक्ति ने ये भक्तिपूर्ण विचार प्रस्तुत किये हैं वे उस देश में उत्पन्न हुए थे जिसने भारत वर्ष पर अपना राज्याधिकार जमाया था। उनके देश में उत्पन्न होने वाले उनके अंग्रेज बन्धु भारतवासियों को किस नजर से देखते थे उसे बताने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में, ऐसे देश और ऐसे परिवेश में उत्पन्न होने और रहने के बाद भी उनके विचार कितने निष्पक्ष और मानवतावादी थे यह उनके उच्च दृष्टिकोण के ही परिचायक हैं।
अर्नाल्ड टायनवी का जन्म इंग्लैंड के एक सम्पन्न परिवार में सन् 1889 में हुआ था। उनके पिता अभिजात्य कुल के थे। एक संपन्न अभिजात्य-कुलोत्पन्न बालक की जैसी शिक्षा होनी चाहिए थी उनकी भी हुई। मेधावी अर्नाल्ड ने इतिहास और अर्थशास्त्र में अपनी योग्यता दर्शायी। उसने उन्हें अल्पवय में ही लन्दन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स जैसी विख्यात शिक्षण संस्था में प्राध्यापक का पद दिया।
हर व्यक्ति के अपने जीवन का एक लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह अपने आप को विभूतिवान बनाना चाहता है। अर्नाल्ड टायनवी अपने आप को विद्या विभूति से विभूषित करना चाहते थे। अपनी लगन, श्रम और अध्यवसाय के बल पर वे इसे प्राप्त करने में भी सफल हुए। युवावस्था में ही वे इंग्लैण्ड के शीर्षस्थ विद्वानों में गिने जाने लगे किन्तु मात्र विद्वान बन जाना ही उन्हें अभीष्ट नहीं था वरन् वे उसका सदुपयोग भी करना चाहते थे।
ब्रिटिश सरकार के विदेश अनुसंधान विभाग के महत्वपूर्ण पद पर कार्य करते हुए उन्हें अपनी विद्वता को सार्थक करने की दिशा में मिल गयी। उन्होंने विदेश अनुसंधान विभाग को तो अपनी मूल्यवान सेवाओं से लाभान्वित किया ही साथ ही साथ अपने आत्मरंजन के लिए जो कार्य चुना वह मानव समाज की भावी सुख शान्ति के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण था।
विद्वता और पाण्डित्य के धनी टायनवी ने अपने लिये जो कार्य चुना वह था ब्रिटेन के इतिहास पर शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखने तथा संस्कृतियों का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन करके किसी विधेयात्मक तथ्य पर पहुंचना। यह कार्य विशुद्ध रूप से विद्यार्थी और शोधार्थी जैसा था जिसमें काम अधिक करना पड़ता और उसके अनुपात में प्रसिद्धि कम ही मिलती थी। पर वे एक विद्वान—एक लेखक की जिम्मेदारी को भी बखूबी समझते थे। वे लियो वालस्ताय के इन शब्दों से सीख ले चुके थे—‘‘दुनिया की हर बुराई और बेइंसाफी की अधिकतम जिम्मेदारी से विद्वान, साहित्यकार और कलाकार बच नहीं सकता। आरम्भ में भी साहित्यकार की जिम्मेदारी को नहीं समझा था। मैं नहीं जानता था कि मैं क्या लिख रहा हूं और क्या शिक्षा दे रहा हूं। मेरी एक ही अभिलाषा थी कि अधिक से अधिक धन और यश का सम्पादन किया जाये। यह मेरा पागलपन था और इस पागलपन को दूर करने में मुझे पूरे छह वर्ष लग गये।’’
तालस्ताय ने अपने साहित्यिक दायित्व को समझा तो वे महात्मा बन गये। टायनवी ने उनके अनुभव से सीख ली थी। वे यह जान चुके थे कि एक विभूतिहीन व्यक्ति यदि समाज का बहुत बड़ा हित सम्पादित नहीं कर सकता था तो उससे समाज की बहुत बड़ी हानि होने की सम्भावना भी नहीं है। पर जो विभूतिवान है वह यदि स्वार्थी संकीर्ण या पथ भ्रमित हुआ तो समाज को अकल्पित हानि पहुंचा सकता है। इसकी इस मान्यता की पुष्टि आज के ‘‘अधिकांश धनपति, विद्वान, कलाकार और साहित्यकार कर ही रहे हैं, इस विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं।’’
टायनवी की इस मान्यता ने न केवल उन्हें ब्रिटेन के शीर्षस्थ इतिहासकार ही नहीं बनाया वरन् संसार की प्रमुख संस्कृतियों का अध्ययन करके अपने विश्व-मानव को एक अमूल्य कृति का नाम है—‘‘एक्सपरिमेंट ऑफ वेस्टर्न सिविलिजेशन’’। इस पुस्तक में पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति की निष्पक्ष आलोचना की है साथ ही उसकी भारतीय जीवन दर्शन से तुलना भी उसी भाव से की है। अध्ययन, विचार और चिंतन की जो प्रौढ़ता इसमें दृष्टिगोचर होती है वह विद्वज्जनों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करती है कि वे जो कुछ लिखें वह विश्व मानव को यदि श्रेयस्कर पथ न दिखा सकें तो वे विद्वता के नाम पर अपनी मानसिक व वैचारिक विकृतियों को तो कम से कम दुनिया पर न थोपें।
उन्होंने बहुत लिखा है पर उस बहुत लिखने के लिए उन्हें जितना पढ़ना पड़ा है, खोज करनी पड़ी है, उस पर चिन्तन, मनन करना पड़ा है वह उससे दसियों गुना समय और श्रमसाध्य था। अकेले टायनवी ने जो कार्य किया वह एक व्यक्ति का नहीं पूरे एक मिशन का कार्य था।
यद्यपि उनके समय में विज्ञान ने आज जैसी प्रगति नहीं की थी और न ही उस समय विज्ञान को जो अपरिमित सामर्थ्य दी उससे आज की सी विश्व विनाश की सम्भावनाएं ही पुष्ट हुई थीं, फिर भी उन्होंने विज्ञान के सम्बन्ध में जो बात कही है वह उन सब सम्भावनाओं को अपने में समेटे हुए है। उन्होंने लिखा है—‘‘आधुनिक मानव अपनी आत्मा की आध्यात्मिक रिक्तता को कैसे पूरा करेगा? यह रिक्तता आधुनिक विज्ञान के फलस्वरूप उत्पन्न हुई है। विज्ञान ने परम्परा धार्मिक विश्वासों को उखाड़ फेंका है, किन्तु रिक्त स्थान की पूर्ति में वह स्वयं भी असमर्थ रहा है। विज्ञान ने मनुष्य को जड़ प्रकृति और मानव शरीर पर नियंत्रण स्थापित करने की अत्यधिक शक्ति और क्षमता प्रदान कर दी है; लेकिन आत्म नियंत्रण के कार्य में वह मनुष्य की कोई सहायता नहीं कर सकता और वस्तुतः आत्म संयम ही मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण और कठिन समस्या रही है।
आज इसकी विशेष आवश्यकता इसलिए है कि जड़ प्रकृति पर नियंत्रण करने की क्षमता में बहुत अधिक वृद्धि हो गयी है। वह उस युवक के समान है, जिसने प्रौढ़ व्यक्तियों के शस्त्रास्त्र तो धारण कर लिए हैं किन्तु उसका मस्तिष्क उतना परिपक्व नहीं हुआ है। ऐसा युवक उस समय तक खतरनाक बना रहेगा, जब तक वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी उतना ही उन्नत और साधन सम्पन्न न हो जाये।
आध्यात्मिक परिपक्वता विज्ञान के द्वारा नहीं, बल्कि धर्म के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए मुझे यह आशा है कि बीसवीं सदी का मानव पुनः सच्चे धर्म की खोज में निकलेगा और उसे खोज भी लेगा। यह धर्म परम्परागत धर्म से इतना भिन्न होगा कि पहली दृष्टि में मानव के इस धर्म को पहचाना भी नहीं जा सकेगा। सच्चे धर्म की कसौटी यह होगी कि उस धर्म में मानव-कष्टों से सम्बन्धित समस्याओं का सामना करने की कितनी अधिक क्षमता है। भविष्य में हमारे समक्ष अग्नि परीक्षा का जो समय आने वाला है, उसमें हमारे इन कष्टों के और भी अधिक बढ़ जाने की सम्भावना है।’’
उपरोक्त पंक्तियों का लेखक विशुद्ध रूप से एक मानव है—इसे ब्रिटिश या और कुछ संज्ञा नहीं दी जा सकती। आध्यात्म और विज्ञान के पारस्परिक ऐक्य की जो बात उन्होंने कही है, सर्व समन्वय की जो बात उन्होंने कही, कभी वह बीज रूप में थी, आज वह पल्लवित-पुष्पित भी हो रही है। विचार अमर हैं और अमर है उनकी शक्ति, इसका सहज अनुमान उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है।
विश्व मानव के सुखद भविष्य सम्बन्धी प्रौढ़ चिंतन करने और पीड़ित मानवता के प्रति अनन्य सेवा भाव रखने वाले अर्नाल्ड टायनवी ने कहा सुन कर या लिख कर ही नहीं किया, गरीबों और पीड़ितों के आवास भोजन आदि का प्रबंध करने के लिए वे अपनी आय का एक बहुत बड़ा अंश ही नहीं निकालते थे वरन् अपने व्यस्त जीवन में से इस कार्य के लिए नियमित रूप से कुछ घण्टे दिया करते थे।
आश्चर्य होता है कि एक अकेला व्यक्ति इतना सब कार्य कैसे कर सका होगा? यह आश्चर्य उनकी कार्य शैली व समय विभाजन को देखने पर आश्चर्य नहीं रह जाता। अध्ययन शोध और लेखन के क्षेत्र में उन्होंने अपनी क्षमताओं को आश्चर्यजनक रूप से विकसित कर लिया था। विश्व की कितनी ही भाषाओं लिपियों को बड़ी शीघ्रता पूर्वक पढ़ने का अभ्यास बना कर उन्होंने समय की काफी बचत कर ली थी। हर कार्य के लिये उन्होंने समय विभाजित कर रखा था। जिस समय वे जिस कार्य को करते उस समय वे पूरी तरह उसमें तल्लीन हो जाते, दूसरी ओर उनका ध्यान जाता ही नहीं था। उनकी यह तल्लीनता ही उन्हें थकान से बचाती रहती थी। अर्नाल्ड टायनवी यद्यपि अब इस संसार में नहीं रहे हैं पर उनके विचार उनके कार्य और उनका व्यक्तित्व हमें आज भी प्रेरणा देता रहता है।
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