
सुन्दरम् के संत कवि—मलिक मुहम्मद जायसी
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एक तो चेचक के दागों से भरा हुआ चेहरा ऊपर से काला रंग और शरीर को मात्र आत्मा का वाहन मानने के कारण उसे सजाने-संवारने के प्रति—आकर्षक बनाने के प्रति उदासीनता—सीधी-साधी आडम्बरहीन वेशभूषा मात्र शरीर के सौन्दर्य को देखने वाले के लिये तो मात्र हंसने की वस्तु थी सो एक राजा इस संत को देखकर हंस पड़ा। संत को राजा की हंसी पर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा—‘मोहि का हँससि की कोहरे।’ (तुम मुझे देखकर हंसते हो या ईश्वर की बनाई हुई वस्तु पर)
प्रभु प्रेम-रस छक कर पीने वाले इस संत के इन वचनों में जो गूढ़ सत्य छिपा है उसकी प्रतीति यदि प्रत्येक मनुष्य को हो जाय तो फिर क्या कहने उसे यह सम्पूर्ण सृष्टि ही सौन्दर्यमय दिखायी देने लगे। उसे कोई भी वस्तु असुन्दर न लगे। संत के ये वचन सुनकर राजा विचार में पड़ गया। जब इन शब्दों का अर्थ उसे समझ में आया तो वह संत से क्षमा मांगने लगा। पर वे तो मानापमान से ऊपर उठ चुके थे। उन्हें तो बोध भर कराना था राजा को कि ईश्वर की बनाई वस्तु असुन्दर नहीं होती हमारे मन का कलुष, हृदय का अज्ञान ही उसे ऐसा देखता है। ये संत थे मलिक मुहम्मद जायसी जिन्होंने धर्म के बाह्य स्वरूप को त्याग कर उसके गूढ़ तत्व आध्यात्म को अपनाया था और आत्म प्रतीति के द्वारा परमात्म प्रतीति तक पहुंचे थे।
हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई आदि धर्म सम्प्रदाय की नाके बंदियां हैं। आध्यात्म के मार्ग में ऐसा कुछ नहीं, यहां तो मैं और मेरा ईश्वर बस ये दो ही एक सिक्के के दो पहलू बनकर रहते हैं। व्यक्ति धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, बौद्ध और जैनी हैं पर आध्यात्म के क्षेत्र में तो बस आत्मा है, परमात्मा के विरह में विदग्ध व्याकुल। मलिक मुहम्मद जायसी भी धर्म के ऊपर उठकर आध्यात्म के उस ईश्वरीय साम्राज्य में पहुंच गये थे।
मलिक मुहम्मद जायसी शेरशाह के समकालीन थे। उनके जन्म स्थान और संवत् के बारे में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है किन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि वे शेरशाह के समकालीन है। अनुमानतः उनका जन्म सम्वत् 1557 में गाजीपुर के एक निर्धन मुस्लिम परिवार में हुआ था। जायस (राय बरेली जिले का एक ग्राम) में वे बाद में आकर रहने लगे थे। यही उन्होंने अधिकांश काव्य ग्रन्थ रचे थे।
बचपन में ही इन्हें चेचक निकली थी जिससे उनका चेहरा ही कुरूप नहीं हुआ था अपनी एक आंख भी खो बैठे थे। एक तो निर्धनता उसके ऊपर से कुरूपता इन दोनों के कारण वे मनुष्यों के प्रेम से प्रायः वंचित ही रहे। पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा और साधना के बल पर उस प्रेम के दर्शन कर लिये, उसे पा लिया था जिसके बाद कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता।
महात्मा तुलसी और सूर की तरह उन्हें भी बचपन और यौवन काल में बहुत कष्ट सहने पड़े थे। वे किशोर ही थे कि उनके माता पिता का देहान्त हो गया और निराश्रित जायसी को जीविकोपार्जन के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकना पड़ा। जायसी बहुत जिज्ञासु थे। उनकी यह जिज्ञासा बाहर की ओर नहीं भीतर की ओर थी। उनके सामने मात्र जीविकोपार्जन की समस्या ही नहीं थी, उनके सामने कई गूढ़ प्रश्न भी थे कि मनुष्य खाने, पीने, सोने, बैठने, मौज-मजा करने और बच्चे-बच्ची पैदा करने में ही लगा रहे। क्या यही जीवन का चरम सत्य है? यह सब तो पशु भी कर लेते हैं। सुख-दुख क्या है? क्या मनुष्य इन सबसे ऊपर उठ सकता है? मनुष्य मरता क्यों है? आदि ऐसे कई प्रश्न थे जिनके उत्तर खोजने के लिये वे व्यग्र रहा करते थे।
आजीविका के लिये वे स्थान-स्थान पर भटके। वहीं इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिये भी प्रयास करते रहे। ऐसी बात नहीं कि ये प्रश्न केवल जायसी के मन में ही उठे हों अन्य मनुष्यों के मन में नहीं। ये प्रश्न हर जिज्ञासु व्यक्ति के मन में उठते हैं पर वह उनके उत्तर खोजने का प्रयास नहीं करता। वरन् संसार के क्रिया-कलापों में ही लिप्त होकर रह जाता है। किन्तु इन प्रश्नों के खोजे बिना सम्यक् दृष्टि का विकास हो पाना सम्भव नहीं होता। आहार, निद्रा, भय आदि की सामान्य वृत्तियों से ऊपर उठ पाना सम्भव नहीं होता।
जायसी के समय में आध्यात्म के इन गूढ़ प्रश्नों के उत्तर मात्र सत्संग के द्वारा खोजे जा सकते थे। वे जहां भी गये शारीरिक आवश्यकताओं के लिये तो जीविकोपार्जन करते रहे साथ ही आत्मिक क्षुधा की तृप्ति के लिये सत्संग भी करते रहे। दुराग्रह त्यागकर उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों संत, महात्माओं, साधुओं का सत्संग किया। संसार में इतस्ततः बिखरे पड़े ज्ञान को उन्होंने अपनी झोली में समेटा। मुसलमानों का प्रभुत्व उन दिनों बढ़ा हुआ था। राजनैतिक क्षेत्र में वे विजेता थे अतः चाहते थे कि धार्मिक क्षेत्र में भी उनकी जय हो। किसी मुसलमान के लिये हिन्दू ‘काफिर’ और ‘हिन्दू’ के लिए मुसलमान ‘मलेच्छ’ हो सकता था पर जायसी तो इन कृत्रिम दीवारों से मनुष्य को बांटने के पक्ष में नहीं थे। उनके इस विवेक की जितनी सराहना की जाय थोड़ी है। यदि उनकी तरह अपने आपको जानने के लिये धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सभी धर्मों का अध्ययन करने की प्रवृत्ति हर मनुष्य में उत्पन्न हो जाती तो धर्म के नाम पर इतनी असहिष्णुता नहीं बर्तती जाती जितनी बरती गयी है, बर्तती जा रही है।
कई मुसलमानों ने उन्हें टोका भी सही ‘‘मियां तुम भी इस्लाम के अनुयायी होकर क्या काफिरों के संतों के द्वार-द्वार भटकते फिरते हो।’’ इस पर जायसी उन्हें कहा करते—‘‘मैं यही तो जान लेना चाहता हूं कि कौन काफिर है और कौन मुसलमान है।’’ उनका मन मस्तिष्क उस सूप की तरह था जो सार-सार को अपने पास रख लेता है और बेकार के कूड़े कर्कट को फेंक देता है। धीरे धीरे सत्संग के द्वारा उनके पास काफी ज्ञान सम्पदा हो गयी वे ज्ञान प्राप्ति तक ही सीमित नहीं रहे। उसके अनन्तर उन्होंने साधना भी आरम्भ की अपने बाह्य स्वरूप को कम महत्व देते हुए उन्होंने अपने को आत्मा मानकर तदनुरूप सोचने, समझने और व्यवहार करने का अभ्यास किया तभी तो वे किसी राजा द्वारा उनकी कुरूपता पर हंस देने के कारण पूछ बैठे थे कि वह किस पर हंस रहा है, उनकी कुरूपता पर या ईश्वर की बनायी हुई वस्तु पर। शरीर की सुन्दरता का स्थायित्व क्या यह तो अस्थायी वस्तु है, जरा मरण और रोगादि के कारण कभी भी उसमें परिवर्तन आ सकता है।
कई लोग अपनी शारीरिक सुन्दरता के अभाव में दुःखी और खिन्न रहा करते हैं। उन्हें जायसी की तरह उस सौन्दर्य का बोध पाना चाहिए जो नश्वर नहीं है, जरा और रोग उन पर प्रभाव नहीं डाल पाते। जायसी अपनी कुरूपता और निर्धनता को लेकर कभी दुःखी नहीं हुए। उन्होंने ईश्वर की उस इच्छा को समझा कि उन्हें क्यों कुरूपता और निर्धनता से विभूषित किया गया है। और उनकी यह निर्धनता और कुरूपता उसके लिये वरदान बन गयी उन्होंने उस सौन्दर्य को पा लिया जो सत्य है।
‘प्राणी ईश्वर का राजकुमार अविनाशी आत्मा है।’ इस सत्य से साक्षात्कार कर लेने और उसे साधना द्वारा परिपुष्ट कर लेने के कारण जायसी के व्यक्तित्व में अलौकिकता आ गयी थी। उनका संत स्वभाव और सब मनुष्यों के प्रति एक-सा प्रेम, तप-त्यागमय जीवन मिलकर उन्हें असाधारण बनाते जा रहे थे। उनके पास लोग अपनी शंकाएं, समस्याएं और कष्ट कठिनाइयां लेकर आने लगे। जायसी उनका मार्गदर्शन करते रहे। सत्य की साधना और इन्द्रिय वासनाओं के आध्यात्मीकरण के कारण उनके वचनों में कुछ ऐसी शक्ति उत्पन्न हो गयी थी कि उनके आशीर्वाद से कई लोगों की कामनाएं पूर्ण होने लगी थीं। वस्तुतः यह उनकी साधना का ही अंश था जिसे वे लोक हित के लिये दिया करते थे। अमेठी के तत्कालीन राजा को उनके आशीर्वाद से पुत्र लाभ हुआ। राजा ने उनका बहुत सम्मान किया और उन्हें अपने यहीं रहने का अनुरोध किया। कुछ दिन तो वे वहां रहे भी सही पर उनके लिये तो सुख सुविधा और कष्ट, कठिनाइयों, राजा और रंक में कोई भेद नहीं था, सो वे अधिक दिनों वहां नहीं रह सके। उनकी मृत्यु अमेठी में ही हुई। अमेठी नरेश ने अपने महल से थोड़ी दूर पर उसकी समाधी बनवायी थी जो आज भी है।
जायसी हिन्दी के प्रसिद्ध संत कवियों में से एक माने जाते हैं। वे कबीर दास जी की तरह खण्डन मण्डन में विश्वास नहीं करते थे वरन् वे समन्वयवादी थे, सभी धर्मों की अच्छाइयों को स्वीकार लेने वाले अतः वे धर्म की अपेक्षा आध्यात्म की ओर ही अधिक झुके। अपने मत का प्रतिपादन करने के लिये उन्होंने खण्डन-मण्डन का सहारा नहीं लेकर लोगों के धार्मिक विश्वास को ठेस लगाये बिना आध्यात्म की सत्यता का प्रतिपादन करने का प्रयास किया।
वे सादगी, सरलता, सज्जनता व निस्पृहता की प्रतिमूर्ति थे। वैसी ही सादगी और सरलता उनके काव्य में भी दिखायी पड़ती है। जन सामान्य में प्रचलित लोक कथाओं के ताने बाने में उन्होंने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों जैसे गूढ़, रहस्य का निरूपण किया है। ‘पद्मावत’ उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें लौकिक कहानियों के माध्यम से आध्यात्म की अन्तर्धारा प्रवाहित की है। जायसी स्वयं सुन्दर नहीं थे अतः उन्होंने अपने इष्ट उपास्य को सौन्दर्य के रूप में ही पूजा है। कबीर की तरह इन्होंने परमात्मा को आत्मा का प्रियतमा नहीं प्रियतमा माना है, समग्र सौन्दर्य की मूर्तिमती सत्ता। उसके विछोह में आत्मा को तड़पते हुए दिखाया है पद्मावत में राजा रतन सेन को। जायसी को सूफी संत माना गया है। परमात्मा को प्रियतम भाव से भजने की परम्परा सभी सूफी कवियों में रही है।
वास्तव में जायसी वेदान्त से अत्यधिक प्रभावित थे। किन्तु वेदान्त के गूढ़ ज्ञानतत्व को समझ पाना प्रत्येक साधारण व्यक्ति के लिये कठिन था। वेदान्त जैसा ही दर्शन सूफियों का भी था। ईश्वर के प्रति उनके अत्यन्तिक प्रेम को समझ पाना भी हरेक व्यक्ति के बस की बात नहीं थी। ‘अखरावट’ नामक ग्रन्थ में जायसी ने नागरी वर्ण माला के अनुसार छंद आरम्भ कर एक ओर वेदान्त और दूसरी ओर सूफी सिद्धान्त का वर्णन किया है। जायसी की इस रचना का उद्देश्य निश्चय ही सूफी मत और वेदान्त की समानता दर्शा कर हिन्दू और इस्लाम मत के मध्य समन्वय स्थापित करने का रहा होगा।
जायसी ईश्वर के सुन्दरम् स्वरूप पर रीझे थे। उन्हें सारी सृष्टि में उसी के सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब दिखलायी पड़ता था। उसकी शक्ति और प्रभाव से सचराचर जगत ज्योतित् लगता था। उनके इस इष्ट का स्वरूप पद्मावत के इस दोहे में स्पष्ट होता है।
नयन जो देखा कबल भा निरमल नीर शरीर।
हंसत जो देखा हंस भा दसन जोति नगहीर।।
जायसी ने अपनी कविता के लिये अवधि भाषा के प्राकृत स्वरूप को चुना है। उनकी भाषा में जो सरलता सहजता और सौन्दर्य है वह अपने ढंग का अनूठा है। तुलसीदास जी के रामचरित मानस में अवधि का साहित्य स्वरूप देखने को मिलता है। तो जायसी के काव्यों में प्राकृत मधुर। यह जनता के लिये समझना और भी आसान है। उन्होंने दोहा और चौपाई छन्दों का प्रयोग अपने ग्रन्थों में किया है। इस प्रकार से तुलसीदास जी के मार्ग को सरल बना देने का श्रेय पाने के अधिकारी बने हैं।
जायसी का संत और कवि रूप मिल कर हिन्दी साहित्य और भारतीय जन जीवन को जो कुछ दे गया है। वह हमारी अमूल्य निधियों में गिनी जाती है। धर्म के बाह्य स्वरूप को ही महत्ता देने के कारण भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बियों के बीच उठ खड़ी हुई असहिष्णुता की दीवारों को गिराने का प्रयास उस समय भी जायसी ने किया जब सत्ता पाकर मुसलमान लोग हिंदुओं पर घोर अत्याचार कर रहे थे। भला इससे बड़ा आशीर्वाद मनुष्य के लिये और क्या होगा और क्या होगी महान कार्यों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा?
प्रभु प्रेम-रस छक कर पीने वाले इस संत के इन वचनों में जो गूढ़ सत्य छिपा है उसकी प्रतीति यदि प्रत्येक मनुष्य को हो जाय तो फिर क्या कहने उसे यह सम्पूर्ण सृष्टि ही सौन्दर्यमय दिखायी देने लगे। उसे कोई भी वस्तु असुन्दर न लगे। संत के ये वचन सुनकर राजा विचार में पड़ गया। जब इन शब्दों का अर्थ उसे समझ में आया तो वह संत से क्षमा मांगने लगा। पर वे तो मानापमान से ऊपर उठ चुके थे। उन्हें तो बोध भर कराना था राजा को कि ईश्वर की बनाई वस्तु असुन्दर नहीं होती हमारे मन का कलुष, हृदय का अज्ञान ही उसे ऐसा देखता है। ये संत थे मलिक मुहम्मद जायसी जिन्होंने धर्म के बाह्य स्वरूप को त्याग कर उसके गूढ़ तत्व आध्यात्म को अपनाया था और आत्म प्रतीति के द्वारा परमात्म प्रतीति तक पहुंचे थे।
हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई आदि धर्म सम्प्रदाय की नाके बंदियां हैं। आध्यात्म के मार्ग में ऐसा कुछ नहीं, यहां तो मैं और मेरा ईश्वर बस ये दो ही एक सिक्के के दो पहलू बनकर रहते हैं। व्यक्ति धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, बौद्ध और जैनी हैं पर आध्यात्म के क्षेत्र में तो बस आत्मा है, परमात्मा के विरह में विदग्ध व्याकुल। मलिक मुहम्मद जायसी भी धर्म के ऊपर उठकर आध्यात्म के उस ईश्वरीय साम्राज्य में पहुंच गये थे।
मलिक मुहम्मद जायसी शेरशाह के समकालीन थे। उनके जन्म स्थान और संवत् के बारे में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है किन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि वे शेरशाह के समकालीन है। अनुमानतः उनका जन्म सम्वत् 1557 में गाजीपुर के एक निर्धन मुस्लिम परिवार में हुआ था। जायस (राय बरेली जिले का एक ग्राम) में वे बाद में आकर रहने लगे थे। यही उन्होंने अधिकांश काव्य ग्रन्थ रचे थे।
बचपन में ही इन्हें चेचक निकली थी जिससे उनका चेहरा ही कुरूप नहीं हुआ था अपनी एक आंख भी खो बैठे थे। एक तो निर्धनता उसके ऊपर से कुरूपता इन दोनों के कारण वे मनुष्यों के प्रेम से प्रायः वंचित ही रहे। पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा और साधना के बल पर उस प्रेम के दर्शन कर लिये, उसे पा लिया था जिसके बाद कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता।
महात्मा तुलसी और सूर की तरह उन्हें भी बचपन और यौवन काल में बहुत कष्ट सहने पड़े थे। वे किशोर ही थे कि उनके माता पिता का देहान्त हो गया और निराश्रित जायसी को जीविकोपार्जन के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकना पड़ा। जायसी बहुत जिज्ञासु थे। उनकी यह जिज्ञासा बाहर की ओर नहीं भीतर की ओर थी। उनके सामने मात्र जीविकोपार्जन की समस्या ही नहीं थी, उनके सामने कई गूढ़ प्रश्न भी थे कि मनुष्य खाने, पीने, सोने, बैठने, मौज-मजा करने और बच्चे-बच्ची पैदा करने में ही लगा रहे। क्या यही जीवन का चरम सत्य है? यह सब तो पशु भी कर लेते हैं। सुख-दुख क्या है? क्या मनुष्य इन सबसे ऊपर उठ सकता है? मनुष्य मरता क्यों है? आदि ऐसे कई प्रश्न थे जिनके उत्तर खोजने के लिये वे व्यग्र रहा करते थे।
आजीविका के लिये वे स्थान-स्थान पर भटके। वहीं इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिये भी प्रयास करते रहे। ऐसी बात नहीं कि ये प्रश्न केवल जायसी के मन में ही उठे हों अन्य मनुष्यों के मन में नहीं। ये प्रश्न हर जिज्ञासु व्यक्ति के मन में उठते हैं पर वह उनके उत्तर खोजने का प्रयास नहीं करता। वरन् संसार के क्रिया-कलापों में ही लिप्त होकर रह जाता है। किन्तु इन प्रश्नों के खोजे बिना सम्यक् दृष्टि का विकास हो पाना सम्भव नहीं होता। आहार, निद्रा, भय आदि की सामान्य वृत्तियों से ऊपर उठ पाना सम्भव नहीं होता।
जायसी के समय में आध्यात्म के इन गूढ़ प्रश्नों के उत्तर मात्र सत्संग के द्वारा खोजे जा सकते थे। वे जहां भी गये शारीरिक आवश्यकताओं के लिये तो जीविकोपार्जन करते रहे साथ ही आत्मिक क्षुधा की तृप्ति के लिये सत्संग भी करते रहे। दुराग्रह त्यागकर उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों संत, महात्माओं, साधुओं का सत्संग किया। संसार में इतस्ततः बिखरे पड़े ज्ञान को उन्होंने अपनी झोली में समेटा। मुसलमानों का प्रभुत्व उन दिनों बढ़ा हुआ था। राजनैतिक क्षेत्र में वे विजेता थे अतः चाहते थे कि धार्मिक क्षेत्र में भी उनकी जय हो। किसी मुसलमान के लिये हिन्दू ‘काफिर’ और ‘हिन्दू’ के लिए मुसलमान ‘मलेच्छ’ हो सकता था पर जायसी तो इन कृत्रिम दीवारों से मनुष्य को बांटने के पक्ष में नहीं थे। उनके इस विवेक की जितनी सराहना की जाय थोड़ी है। यदि उनकी तरह अपने आपको जानने के लिये धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सभी धर्मों का अध्ययन करने की प्रवृत्ति हर मनुष्य में उत्पन्न हो जाती तो धर्म के नाम पर इतनी असहिष्णुता नहीं बर्तती जाती जितनी बरती गयी है, बर्तती जा रही है।
कई मुसलमानों ने उन्हें टोका भी सही ‘‘मियां तुम भी इस्लाम के अनुयायी होकर क्या काफिरों के संतों के द्वार-द्वार भटकते फिरते हो।’’ इस पर जायसी उन्हें कहा करते—‘‘मैं यही तो जान लेना चाहता हूं कि कौन काफिर है और कौन मुसलमान है।’’ उनका मन मस्तिष्क उस सूप की तरह था जो सार-सार को अपने पास रख लेता है और बेकार के कूड़े कर्कट को फेंक देता है। धीरे धीरे सत्संग के द्वारा उनके पास काफी ज्ञान सम्पदा हो गयी वे ज्ञान प्राप्ति तक ही सीमित नहीं रहे। उसके अनन्तर उन्होंने साधना भी आरम्भ की अपने बाह्य स्वरूप को कम महत्व देते हुए उन्होंने अपने को आत्मा मानकर तदनुरूप सोचने, समझने और व्यवहार करने का अभ्यास किया तभी तो वे किसी राजा द्वारा उनकी कुरूपता पर हंस देने के कारण पूछ बैठे थे कि वह किस पर हंस रहा है, उनकी कुरूपता पर या ईश्वर की बनायी हुई वस्तु पर। शरीर की सुन्दरता का स्थायित्व क्या यह तो अस्थायी वस्तु है, जरा मरण और रोगादि के कारण कभी भी उसमें परिवर्तन आ सकता है।
कई लोग अपनी शारीरिक सुन्दरता के अभाव में दुःखी और खिन्न रहा करते हैं। उन्हें जायसी की तरह उस सौन्दर्य का बोध पाना चाहिए जो नश्वर नहीं है, जरा और रोग उन पर प्रभाव नहीं डाल पाते। जायसी अपनी कुरूपता और निर्धनता को लेकर कभी दुःखी नहीं हुए। उन्होंने ईश्वर की उस इच्छा को समझा कि उन्हें क्यों कुरूपता और निर्धनता से विभूषित किया गया है। और उनकी यह निर्धनता और कुरूपता उसके लिये वरदान बन गयी उन्होंने उस सौन्दर्य को पा लिया जो सत्य है।
‘प्राणी ईश्वर का राजकुमार अविनाशी आत्मा है।’ इस सत्य से साक्षात्कार कर लेने और उसे साधना द्वारा परिपुष्ट कर लेने के कारण जायसी के व्यक्तित्व में अलौकिकता आ गयी थी। उनका संत स्वभाव और सब मनुष्यों के प्रति एक-सा प्रेम, तप-त्यागमय जीवन मिलकर उन्हें असाधारण बनाते जा रहे थे। उनके पास लोग अपनी शंकाएं, समस्याएं और कष्ट कठिनाइयां लेकर आने लगे। जायसी उनका मार्गदर्शन करते रहे। सत्य की साधना और इन्द्रिय वासनाओं के आध्यात्मीकरण के कारण उनके वचनों में कुछ ऐसी शक्ति उत्पन्न हो गयी थी कि उनके आशीर्वाद से कई लोगों की कामनाएं पूर्ण होने लगी थीं। वस्तुतः यह उनकी साधना का ही अंश था जिसे वे लोक हित के लिये दिया करते थे। अमेठी के तत्कालीन राजा को उनके आशीर्वाद से पुत्र लाभ हुआ। राजा ने उनका बहुत सम्मान किया और उन्हें अपने यहीं रहने का अनुरोध किया। कुछ दिन तो वे वहां रहे भी सही पर उनके लिये तो सुख सुविधा और कष्ट, कठिनाइयों, राजा और रंक में कोई भेद नहीं था, सो वे अधिक दिनों वहां नहीं रह सके। उनकी मृत्यु अमेठी में ही हुई। अमेठी नरेश ने अपने महल से थोड़ी दूर पर उसकी समाधी बनवायी थी जो आज भी है।
जायसी हिन्दी के प्रसिद्ध संत कवियों में से एक माने जाते हैं। वे कबीर दास जी की तरह खण्डन मण्डन में विश्वास नहीं करते थे वरन् वे समन्वयवादी थे, सभी धर्मों की अच्छाइयों को स्वीकार लेने वाले अतः वे धर्म की अपेक्षा आध्यात्म की ओर ही अधिक झुके। अपने मत का प्रतिपादन करने के लिये उन्होंने खण्डन-मण्डन का सहारा नहीं लेकर लोगों के धार्मिक विश्वास को ठेस लगाये बिना आध्यात्म की सत्यता का प्रतिपादन करने का प्रयास किया।
वे सादगी, सरलता, सज्जनता व निस्पृहता की प्रतिमूर्ति थे। वैसी ही सादगी और सरलता उनके काव्य में भी दिखायी पड़ती है। जन सामान्य में प्रचलित लोक कथाओं के ताने बाने में उन्होंने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों जैसे गूढ़, रहस्य का निरूपण किया है। ‘पद्मावत’ उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें लौकिक कहानियों के माध्यम से आध्यात्म की अन्तर्धारा प्रवाहित की है। जायसी स्वयं सुन्दर नहीं थे अतः उन्होंने अपने इष्ट उपास्य को सौन्दर्य के रूप में ही पूजा है। कबीर की तरह इन्होंने परमात्मा को आत्मा का प्रियतमा नहीं प्रियतमा माना है, समग्र सौन्दर्य की मूर्तिमती सत्ता। उसके विछोह में आत्मा को तड़पते हुए दिखाया है पद्मावत में राजा रतन सेन को। जायसी को सूफी संत माना गया है। परमात्मा को प्रियतम भाव से भजने की परम्परा सभी सूफी कवियों में रही है।
वास्तव में जायसी वेदान्त से अत्यधिक प्रभावित थे। किन्तु वेदान्त के गूढ़ ज्ञानतत्व को समझ पाना प्रत्येक साधारण व्यक्ति के लिये कठिन था। वेदान्त जैसा ही दर्शन सूफियों का भी था। ईश्वर के प्रति उनके अत्यन्तिक प्रेम को समझ पाना भी हरेक व्यक्ति के बस की बात नहीं थी। ‘अखरावट’ नामक ग्रन्थ में जायसी ने नागरी वर्ण माला के अनुसार छंद आरम्भ कर एक ओर वेदान्त और दूसरी ओर सूफी सिद्धान्त का वर्णन किया है। जायसी की इस रचना का उद्देश्य निश्चय ही सूफी मत और वेदान्त की समानता दर्शा कर हिन्दू और इस्लाम मत के मध्य समन्वय स्थापित करने का रहा होगा।
जायसी ईश्वर के सुन्दरम् स्वरूप पर रीझे थे। उन्हें सारी सृष्टि में उसी के सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब दिखलायी पड़ता था। उसकी शक्ति और प्रभाव से सचराचर जगत ज्योतित् लगता था। उनके इस इष्ट का स्वरूप पद्मावत के इस दोहे में स्पष्ट होता है।
नयन जो देखा कबल भा निरमल नीर शरीर।
हंसत जो देखा हंस भा दसन जोति नगहीर।।
जायसी ने अपनी कविता के लिये अवधि भाषा के प्राकृत स्वरूप को चुना है। उनकी भाषा में जो सरलता सहजता और सौन्दर्य है वह अपने ढंग का अनूठा है। तुलसीदास जी के रामचरित मानस में अवधि का साहित्य स्वरूप देखने को मिलता है। तो जायसी के काव्यों में प्राकृत मधुर। यह जनता के लिये समझना और भी आसान है। उन्होंने दोहा और चौपाई छन्दों का प्रयोग अपने ग्रन्थों में किया है। इस प्रकार से तुलसीदास जी के मार्ग को सरल बना देने का श्रेय पाने के अधिकारी बने हैं।
जायसी का संत और कवि रूप मिल कर हिन्दी साहित्य और भारतीय जन जीवन को जो कुछ दे गया है। वह हमारी अमूल्य निधियों में गिनी जाती है। धर्म के बाह्य स्वरूप को ही महत्ता देने के कारण भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बियों के बीच उठ खड़ी हुई असहिष्णुता की दीवारों को गिराने का प्रयास उस समय भी जायसी ने किया जब सत्ता पाकर मुसलमान लोग हिंदुओं पर घोर अत्याचार कर रहे थे। भला इससे बड़ा आशीर्वाद मनुष्य के लिये और क्या होगा और क्या होगी महान कार्यों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा?