
सुकरात- जो सत्य के लिए जिये, और सत्य के लिए मरे
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70 वर्षीय सुकरात का मुकदमा 500 जूरियों के सम्मुख पेश किया गया। उन दिनों किसी बात को वकीलों के द्वारा पेश करने का रिवाज न था। अभियोक्ता और अभियुक्त दोनों ही अपने-अपने पक्ष में स्वयं ही सबूत पेश करते थे। पहले कवि मैलौटस, वक्ता लाइकन तथा नेता एनीटस ने सुकरात के विरोध में अपनी बातें प्रस्तुत की फिर सुकरात ने अपनी सफाई दी।
सुकरात पर तीन आरोप लगाये गये पहला देश के युवकों का चरित्र उसके द्वारा कलंकित हो रहा है, दूसरा प्रचलित देवताओं की उपेक्षा कर रहा है और तीसरा था नये देवताओं को स्थापित करने का उसका इरादा है। पहला आरोप राष्ट्र के हित में घातक सिद्ध हो रहा था। मुकदमे की सुनवाई हो जाने के बाद 500 जूरियों में से 220 ने उसके पक्ष में तथा 280 ने उसके विपक्ष में अपनी राय दी।
लगाये गये आरोप सत्य सिद्ध हो गये। उसे अपराधी करार दे दिया गया। उस समय एथेन्स की न्याय व्यवस्था में एक विशेषता थी। अपराधी को तुरन्त मृत्यु दण्ड नहीं सुनाया जाता था बल्कि अपराधी से ही पूछा जाता था कि वह अपने अपराध के लिये कौन सा दण्ड पसन्द करता है। उस समय यदि सुकरात ‘निर्वासन’ स्वीकार कर लेता तो उसके विरोधी तनिक भी प्रतिवाद न करते वह तो निर्वासन से ही खुश हो जाते, पर सुकरात ने कोई अपराध न किया था, अतः वह अपने को अपराधी मानने के लिए तैयार न था। मृत्यु से तो उसे किसी प्रकार का डर ही नहीं था। अतः उसने कहा ‘जनता की ओर से मुझे टाउन हाल में एक भेज दिया जाना चाहिए।’
सुकरात का यह उत्तर घाव पर नमक छिड़कने जैसा था। अनेक जूरी नाराज हो गये। वह समझने लगे शायद सुकरात के द्वारा, दिये गये निर्णय का उपहास किया जा रहा है। और अब तो उसके पक्ष में जो 220 जूरी थे उनकी संख्या भी घटकर 170 रह गई।
उस समय यह प्रथा थी कि फैसला सुनाने के बाद से मृत्यु दण्ड के दिन तक किसी अपराधी को जेल में नहीं रखते थे। उसे जमानत पर छोड़ दिया जाता था। उसके मित्र तथा शिष्य यह चाहते थे कि कम से कम एक महीने तो सुकरात के सम्पर्क में रहने का अवसर और मिल जाये। सुकरात ने अपनी जमानत के लिए केवल एक दीना (सिक्का) देना चाहा पर उसके मित्रों ने अपने उत्तर दायित्व पर 30 दीना की व्यवस्था करदी, पर उनकी यह प्रार्थना स्वीकार नहीं हुई और सुकरात को एक महीने तक जेल में ही रहना पड़ा।
जेल की चार दीवारी के बीच ही उसने पहली बार कुछ कविताएं लिखी थी। वहां उसके परिवार के लोग, शिष्य तथा मित्र मिलने के लिये जाते थे। एक दिन उसके मित्रों ने यह योजना बनाई कि जेल की दीवार तोड़ कर सुकरात को मुक्त कर दिया जाये। जब सुकरात को यह पता चला तो उसने असहमति प्रकट करते हुए कहा ‘दोस्त! तुम जेल से भले ही मुक्त करवा दो। पर मृत्यु से तो छुटकारा नहीं दिला सकते। आज नहीं तो कल संसार के किसी भी कोने में रह कर मृत्यु को वरण करना ही होगा। फिर प्रत्येक देश के वासी को वहां के नियम और कानूनों का पालन करना चाहिये। यदि मैं ही अपने बचाव के लिए कानून की अवहेलना करूंगा तो भविष्य में सारी व्यवस्था बिगड़ जायेगी।’
आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने वाले सुकरात के सम्मुख शारीरिक मृत्यु का तो कोई महत्व ही नहीं था। मृत्यु दण्ड का दिन आ गया। प्रातः का समय। उसने अपने पुत्र को घर जाने का आदेश दिया। सुकरात का चेहरा शांत और प्रसन्न था। उसके शिष्य और मित्र उसे घेरे हुये बैठे थे। सबके मन में चिर वियोग की व्यथा थी। आंखें डब डबाई हुई और कंठ अवरुद्ध थे। उन्हें आत्मा की अमरता पर पूरी तरह विश्वास कहां था? यदि होता तो वह भी सुकरात की तरह शान्त और प्रसन्न होते। सुकरात ने कहा—‘मैं मृत्यु की ओर जा रहा हूं और आप सब जीवन की ओर। मैं नहीं जानता कि इन दोनों मार्गों में से कौन सा श्रेष्ठ है?’ इस तरह काफी देर तक सुकरात आत्मा की अमरता पर उपस्थित व्यक्तियों को समझाते रहे। इसके बाद वे उठे और उन्होंने वह वस्त्र धारण किये जिन्हें पहनकर कब्र में दफनाया जाना पसन्द करते थे।
सूर्य अपने रथ पर सवार होकर अस्ताचल को गमन कर रहा था। उसमें भी इतनी शक्ति शेष न रह गई थी कि निरपराधी दार्शनिक को फांसी लगते देख सके। जेलर आया उसने सूचना दी ‘सुकरात! आपकी अन्तिम घड़ियां अब निकट हैं। मैंने आप जैसा साहसी, भद्र और सत्य निष्ठ बन्दी आज तक नहीं देखा।’ इतना कह कर उस पाषाण हृदय वाले जेलर ने अपनी आंखों पर रुमाल रख लिया। वह अपने आवेग को रोक न सका।
थोड़ी ही देर में एक जल्लाद विष का प्याला लेकर आया। सुकरात ने पूरा प्याला ऐसे पी लिया जैसे कोई मधुर पेय हो। उनके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा न थी। प्याला मेज पर रखते ही आस-पास के सब व्यक्ति रो पड़े। सुकरात ने उन्हें धैर्य बंधाया और वहीं एक किनारे से दूसरे तक वे घूमने लगे ताकि वह विष पूरे शरीर में व्याप्त हो जाये।
शनैः शनैः पैरों की गति बन्द होने लगी। वह लेट गये और स्वयं ही चेहरे को कपड़े से ढ़क लिया। सुकरात ने स्मरण किया कि किसी का कर्ज लेकर तो वह इस दुनिया से नहीं जा रहा है। उसे ध्यान आया और अपने चेहरे से कपड़ा हटाकर कहा ‘क्रीटो। एस क्लिपियस की एक मुर्गी मुझ पर उधार है। वह तुम अवश्य दे देना’ और वह इस संसार से सदैव के लिये विदा हो गया।
ईसा से भी लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व यूनान अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था और उन राज्यों में से ही एक एथेन्स नामक छोटा सा राज्य था। जिसकी जनसंख्या उस समय लगभग 3.50 लाख थी। पर यह छोटा सा राज्य सारे संसार में ज्ञान की किरणें बिखेरने के लिये प्रसिद्ध था। एथेन्स को ही विश्व में प्रथम गणराज्य बनने का श्रेय प्राप्त हुआ।
सुकरात का जन्म इसी राज्य के एक गरीब कारीगर के घर में हुआ था। बचपन में ही उसने गणित, ज्यामिति तथा ज्योतिष आदि कितने ही विषयों का अध्ययन कर लिया था। युवावस्था में वह सैनिक बना। समर भूमि में उसने एक बार नहीं वरन् तीन बार अपने शौर्य का परिचय दिया।
सहन शीलता तो सुकरात में सीमा से भी अधिक थी। एक बार उन्हें भयंकर दंड में चौबीस घंटे तक नंगे बदन खुले मैदान में बैठा रहना पड़ा। उनके परिवार में एक पुत्र तथा पत्नी का नाम जैनथिपि था। वह बड़ी कर्कशा स्त्री थी। उसे अपने पति की उदार वृत्ति तनिक भी पसन्द न थी। एक बार तो उसने एक गन्ने से सुकरात की इतनी पिटाई की कि उस गन्ने के टुकड़े-टुकड़े हो गये पर वह नाराज होने के स्थान पर प्रसन्न चित्त दिखाई दे रहे थे। गन्ने के अनेक टुकड़ों को देखकर ‘एक से अनेक’ होने के लक्ष्य का चिंतन करने को उन्हें सामग्री मिली।
एक बार तो पत्नी के व्यंग वाणों से बिध कर कहीं दूर नहीं घर के बाहर ही एक पुस्तक लेकर अध्ययन करने बैठ गये। बर्तन साफ करने के बाद एकत्रित हुआ गन्दा पानी जैनथिपि ने उनके सिर पर डाल दिया। वह ऊपर से नीचे तक भीग गये और इतना ही कहा ‘मैं समझता था कि गरजने वाले बादल बरसते नहीं हैं पर आज तो बादलों ने गरजने के साथ-साथ बरसात भी की है।’
इस तरह की पारिवारिक परिस्थितियां होने के बाद भी उनकी सामाजिक गतिविधि में कोई व्यवधान नहीं आया वह निरन्तर अपने सत्य के मार्ग पर बढ़ते ही गये।
एथेन्स के गणतन्त्र बनने से पूर्व 30 स्वेच्छाचारियों ने सुकरात को बहुत परेशान किया था पर सुकरात के मन में उनके प्रति तनिक भी द्वेष न था। वह तो हर बात को गहराई से सोचने विचारने के लिए कहता था।
सुकरात का सारा जीवन कठिनाइयों से लड़ने, विरोधियों से प्रेम पूर्वक सामना करने में बीता फिर भी सत्य के लिए उसने समझौता न किया। झुका नहीं, टूट भले ही गया हो, प्राण भले ही छोड़ दिये हों। पर नियमों, कानूनों का पालन अन्त तक किया और संदेश भी यही दिया।
सुकरात पर तीन आरोप लगाये गये पहला देश के युवकों का चरित्र उसके द्वारा कलंकित हो रहा है, दूसरा प्रचलित देवताओं की उपेक्षा कर रहा है और तीसरा था नये देवताओं को स्थापित करने का उसका इरादा है। पहला आरोप राष्ट्र के हित में घातक सिद्ध हो रहा था। मुकदमे की सुनवाई हो जाने के बाद 500 जूरियों में से 220 ने उसके पक्ष में तथा 280 ने उसके विपक्ष में अपनी राय दी।
लगाये गये आरोप सत्य सिद्ध हो गये। उसे अपराधी करार दे दिया गया। उस समय एथेन्स की न्याय व्यवस्था में एक विशेषता थी। अपराधी को तुरन्त मृत्यु दण्ड नहीं सुनाया जाता था बल्कि अपराधी से ही पूछा जाता था कि वह अपने अपराध के लिये कौन सा दण्ड पसन्द करता है। उस समय यदि सुकरात ‘निर्वासन’ स्वीकार कर लेता तो उसके विरोधी तनिक भी प्रतिवाद न करते वह तो निर्वासन से ही खुश हो जाते, पर सुकरात ने कोई अपराध न किया था, अतः वह अपने को अपराधी मानने के लिए तैयार न था। मृत्यु से तो उसे किसी प्रकार का डर ही नहीं था। अतः उसने कहा ‘जनता की ओर से मुझे टाउन हाल में एक भेज दिया जाना चाहिए।’
सुकरात का यह उत्तर घाव पर नमक छिड़कने जैसा था। अनेक जूरी नाराज हो गये। वह समझने लगे शायद सुकरात के द्वारा, दिये गये निर्णय का उपहास किया जा रहा है। और अब तो उसके पक्ष में जो 220 जूरी थे उनकी संख्या भी घटकर 170 रह गई।
उस समय यह प्रथा थी कि फैसला सुनाने के बाद से मृत्यु दण्ड के दिन तक किसी अपराधी को जेल में नहीं रखते थे। उसे जमानत पर छोड़ दिया जाता था। उसके मित्र तथा शिष्य यह चाहते थे कि कम से कम एक महीने तो सुकरात के सम्पर्क में रहने का अवसर और मिल जाये। सुकरात ने अपनी जमानत के लिए केवल एक दीना (सिक्का) देना चाहा पर उसके मित्रों ने अपने उत्तर दायित्व पर 30 दीना की व्यवस्था करदी, पर उनकी यह प्रार्थना स्वीकार नहीं हुई और सुकरात को एक महीने तक जेल में ही रहना पड़ा।
जेल की चार दीवारी के बीच ही उसने पहली बार कुछ कविताएं लिखी थी। वहां उसके परिवार के लोग, शिष्य तथा मित्र मिलने के लिये जाते थे। एक दिन उसके मित्रों ने यह योजना बनाई कि जेल की दीवार तोड़ कर सुकरात को मुक्त कर दिया जाये। जब सुकरात को यह पता चला तो उसने असहमति प्रकट करते हुए कहा ‘दोस्त! तुम जेल से भले ही मुक्त करवा दो। पर मृत्यु से तो छुटकारा नहीं दिला सकते। आज नहीं तो कल संसार के किसी भी कोने में रह कर मृत्यु को वरण करना ही होगा। फिर प्रत्येक देश के वासी को वहां के नियम और कानूनों का पालन करना चाहिये। यदि मैं ही अपने बचाव के लिए कानून की अवहेलना करूंगा तो भविष्य में सारी व्यवस्था बिगड़ जायेगी।’
आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने वाले सुकरात के सम्मुख शारीरिक मृत्यु का तो कोई महत्व ही नहीं था। मृत्यु दण्ड का दिन आ गया। प्रातः का समय। उसने अपने पुत्र को घर जाने का आदेश दिया। सुकरात का चेहरा शांत और प्रसन्न था। उसके शिष्य और मित्र उसे घेरे हुये बैठे थे। सबके मन में चिर वियोग की व्यथा थी। आंखें डब डबाई हुई और कंठ अवरुद्ध थे। उन्हें आत्मा की अमरता पर पूरी तरह विश्वास कहां था? यदि होता तो वह भी सुकरात की तरह शान्त और प्रसन्न होते। सुकरात ने कहा—‘मैं मृत्यु की ओर जा रहा हूं और आप सब जीवन की ओर। मैं नहीं जानता कि इन दोनों मार्गों में से कौन सा श्रेष्ठ है?’ इस तरह काफी देर तक सुकरात आत्मा की अमरता पर उपस्थित व्यक्तियों को समझाते रहे। इसके बाद वे उठे और उन्होंने वह वस्त्र धारण किये जिन्हें पहनकर कब्र में दफनाया जाना पसन्द करते थे।
सूर्य अपने रथ पर सवार होकर अस्ताचल को गमन कर रहा था। उसमें भी इतनी शक्ति शेष न रह गई थी कि निरपराधी दार्शनिक को फांसी लगते देख सके। जेलर आया उसने सूचना दी ‘सुकरात! आपकी अन्तिम घड़ियां अब निकट हैं। मैंने आप जैसा साहसी, भद्र और सत्य निष्ठ बन्दी आज तक नहीं देखा।’ इतना कह कर उस पाषाण हृदय वाले जेलर ने अपनी आंखों पर रुमाल रख लिया। वह अपने आवेग को रोक न सका।
थोड़ी ही देर में एक जल्लाद विष का प्याला लेकर आया। सुकरात ने पूरा प्याला ऐसे पी लिया जैसे कोई मधुर पेय हो। उनके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा न थी। प्याला मेज पर रखते ही आस-पास के सब व्यक्ति रो पड़े। सुकरात ने उन्हें धैर्य बंधाया और वहीं एक किनारे से दूसरे तक वे घूमने लगे ताकि वह विष पूरे शरीर में व्याप्त हो जाये।
शनैः शनैः पैरों की गति बन्द होने लगी। वह लेट गये और स्वयं ही चेहरे को कपड़े से ढ़क लिया। सुकरात ने स्मरण किया कि किसी का कर्ज लेकर तो वह इस दुनिया से नहीं जा रहा है। उसे ध्यान आया और अपने चेहरे से कपड़ा हटाकर कहा ‘क्रीटो। एस क्लिपियस की एक मुर्गी मुझ पर उधार है। वह तुम अवश्य दे देना’ और वह इस संसार से सदैव के लिये विदा हो गया।
ईसा से भी लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व यूनान अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था और उन राज्यों में से ही एक एथेन्स नामक छोटा सा राज्य था। जिसकी जनसंख्या उस समय लगभग 3.50 लाख थी। पर यह छोटा सा राज्य सारे संसार में ज्ञान की किरणें बिखेरने के लिये प्रसिद्ध था। एथेन्स को ही विश्व में प्रथम गणराज्य बनने का श्रेय प्राप्त हुआ।
सुकरात का जन्म इसी राज्य के एक गरीब कारीगर के घर में हुआ था। बचपन में ही उसने गणित, ज्यामिति तथा ज्योतिष आदि कितने ही विषयों का अध्ययन कर लिया था। युवावस्था में वह सैनिक बना। समर भूमि में उसने एक बार नहीं वरन् तीन बार अपने शौर्य का परिचय दिया।
सहन शीलता तो सुकरात में सीमा से भी अधिक थी। एक बार उन्हें भयंकर दंड में चौबीस घंटे तक नंगे बदन खुले मैदान में बैठा रहना पड़ा। उनके परिवार में एक पुत्र तथा पत्नी का नाम जैनथिपि था। वह बड़ी कर्कशा स्त्री थी। उसे अपने पति की उदार वृत्ति तनिक भी पसन्द न थी। एक बार तो उसने एक गन्ने से सुकरात की इतनी पिटाई की कि उस गन्ने के टुकड़े-टुकड़े हो गये पर वह नाराज होने के स्थान पर प्रसन्न चित्त दिखाई दे रहे थे। गन्ने के अनेक टुकड़ों को देखकर ‘एक से अनेक’ होने के लक्ष्य का चिंतन करने को उन्हें सामग्री मिली।
एक बार तो पत्नी के व्यंग वाणों से बिध कर कहीं दूर नहीं घर के बाहर ही एक पुस्तक लेकर अध्ययन करने बैठ गये। बर्तन साफ करने के बाद एकत्रित हुआ गन्दा पानी जैनथिपि ने उनके सिर पर डाल दिया। वह ऊपर से नीचे तक भीग गये और इतना ही कहा ‘मैं समझता था कि गरजने वाले बादल बरसते नहीं हैं पर आज तो बादलों ने गरजने के साथ-साथ बरसात भी की है।’
इस तरह की पारिवारिक परिस्थितियां होने के बाद भी उनकी सामाजिक गतिविधि में कोई व्यवधान नहीं आया वह निरन्तर अपने सत्य के मार्ग पर बढ़ते ही गये।
एथेन्स के गणतन्त्र बनने से पूर्व 30 स्वेच्छाचारियों ने सुकरात को बहुत परेशान किया था पर सुकरात के मन में उनके प्रति तनिक भी द्वेष न था। वह तो हर बात को गहराई से सोचने विचारने के लिए कहता था।
सुकरात का सारा जीवन कठिनाइयों से लड़ने, विरोधियों से प्रेम पूर्वक सामना करने में बीता फिर भी सत्य के लिए उसने समझौता न किया। झुका नहीं, टूट भले ही गया हो, प्राण भले ही छोड़ दिये हों। पर नियमों, कानूनों का पालन अन्त तक किया और संदेश भी यही दिया।