
परिश्रम के उपासक और सद्ज्ञान के साधक—इलियट
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युवक ने इस वर्ष अन्तिम परीक्षा दी थी और अगले दिनों ही परीक्षा फल घोषित होने वाला था। इसके बाद छात्र जीवन का समापन होने वाला था। मेधावी और कुशाग्र बुद्धि के उस प्रतिभाशाली तरुण छात्र को स्वयं तथा उसके अन्य साथियों मित्रों और परिजनों को भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने की पूरी आशा थी और भावी जीवन की रूपरेखा आयोजन बनाने में तल्लीन वह युवक अपने अध्ययन कक्ष में बैठा हुआ स्वाध्याय रत था।
तभी उस युवक के पिता ने कमरे में प्रवेश किया और अपने बेटे को पुस्तकों से चिपका देखकर उनके चेहरे पर अस्पष्ट से भाव उभरे। उसकी अध्ययन शीलता से उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। आपत्ति तो यह थी कि उनका फैले हुए कारोबार में तनिक भी रुचि नहीं लाता था। उन्होंने पुकारा—इलियट।
उस युवक का नाम इलियट ही था। जो आगे चल कर टी. ए. इलियट के नाम से अंग्रेजी भाषा का विख्यात जन कवि बना। इलियट ने पुस्तकों में झुका सिर उठाया और पिता की ओर देखा। देखा जैसे पूछ रहा हो—क्या आदेश है?
‘तुम दिन भर स्टडी में ही घुसे रहते हो’ थोड़ा बहुत अपना कारोबार भी तो देखा करो बेटा आखिर तुम लोगों को ही तो आगे चलकर इसे सम्हालना है।’’ पिता ने कहा।
‘‘मैंने अपने भविष्य के सम्बन्ध में दूसरा ही निर्णय लिया है पिताजी। उद्योग व्यवसाय के क्षेत्र में मेरी तनिक भी रुचि नहीं। मैं जनमानस में आध्यात्मिक आनन्द का प्राण प्रवाहित करना चाहता हूं और इसके लिए मैंने साहित्य साधना का क्षेत्र चुना है’’—इलियट बोले।
‘तो क्या तुम इस उद्योग व्यवसाय में कोई सहयोग नहीं दोगे—पिता ने इस प्रकार कहा जैसे उन्होंने कोई अप्रत्याशित निर्णय सुना हो। इलियट बोले—‘क्षमा करना पिताजी। इसके लिए अन्य भाई काफी सिद्ध होंगे।’
इलियट की दृढ़ घोषणा सुनकर पिता हतप्रभ रह गये। वे अच्छे उद्योगपति थे। लाखों की जायदाद और कारखाने थे। पैसे की कोई कमी नहीं थी उनके पास और आशा थी कि पुत्र पढ़ लिखकर अपनी योग्यता और प्रतिभा का उपयोग उस समृद्धि और सम्पन्नता की अभिवृद्धि में करेंगे। परन्तु इलियट की धारणा सुनकर उनकी आशा धूमिल हो उठी। और वे चिन्तित रहने लगे। कई दिनों तक इस चिन्ता के निवारण का उपाय खोजा। मित्रों और स्वजन बांधवों से चर्चा की तो किसी ने बता दिया कि ऐश और आराम की जिन्दगी जीते जीते इलियट के मन में यह खुराफात पैदा हुई है। इसका एक मात्र उपाय है कि उनका हाथ खर्च बन्द कर दिया जाय और कुछ दिनों तक मिथ्या कठोर रवैया अपनाया जाय।
इस परामर्श पर हर दृष्टिकोण से विचार किया तो उपयुक्त ही लगा और कुछ दिनों बाद उन्होंने अपने पुत्र को फिर बुलाया। वे बोले—‘क्या तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय है कि तुम उद्योग कारखानों में कोई सहयोग नहीं दोगे।’
‘इसमें कोई सन्देह नहीं है’—इलियट ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
तो हमें भी तुमसे कोई सद्भावना नहीं है। जो पुत्र अपने पिता से सहयोग नहीं करना चाहता उसे अपनी पारिवारिक सम्पदा का उपयोग भी नहीं करना चाहिए—पिता के चेहरे पर कठोरता के भाव उभर आये थे।
‘जी धन्यवाद!’ इलियट ने कहा—‘मैं भी यही सोच रहा था और चंद दिन दिनों में ही मैं आपको यह शुभ सम्वाद देने वाला था कि मुझे एक बैंक में नौकरी मिल गयी है। मेरे प्रयत्न जारी है।
जो अपेक्षा की थी उसके एक दम विपरीत यह जवाब पाकर पिता पर जैसे ढेरों पानी गिर गया। उनके सन्मुख अपने पुत्र के भावी जीवन का एक चित्र खिंच गया जो उनकी दृष्टि से बड़ा ही करुणा पूर्ण था। कभी पैदल न चलने वाला इलियट घर से पैदल कार्यालय तक जा रहा है। विभिन्न प्रकार के पकवानों का भोजन करने वाला लाड़ला बेटा रूखा-सूखा खा रहा है। एक से एक कीमती और राजकुमारों के से कपड़े पहनने वाला इलियट सामान्य वेशभूषा में लंदन की सड़कों पर घूम रहा है। और राजभवन से भी विशाल तथा सभी सुख सुविधा साधनों वाले महलनुमा इमारत में निवास करने वाला बेटा झोंपड़ी सी लगने वाली किसी कोठरी में सो रहा है।
उनकी आंखों में आंसू उमड़ पड़े। इलियट की ओर देखने का साहस नहीं हो रहा था। रुंधे कण्ठ से बोले ‘मेरे बेटे! यह तुम क्या करने जा रहे हो। इतने बड़े सम्पन्न परिवार के होकर तुम्हें नौकरी करना शोभा नहीं देगा।’
इलियट भी समझदार थे। उन्होंने अपने पिता की भावनाओं को समझा और कहा—‘‘मैं जानता हूं पिताजी, आपने पहले जो प्रस्ताव रखा वह आपके हृदय से नहीं आया था और न ही आपका ममतापूर्ण अन्तःकरण ऐसा करने दे सकता था। अपने विचार से मुझे सही मार्ग पर लाने के लिए ही आपने ऐसा कहा होगा।’’
पिता की भावनाओं को उन्होंने समझा तो सही परन्तु अपना निश्चय नहीं बदला। उन्होंने बात को जारी रखते हुए आगे कहा ‘मेरी दृढ़ मान्यता है कि वर्तमान जीवन, जिसमें मैं बिना परिश्रम किये समाज की सम्पदा का उपयोग कर रहा हूं, गर्हित और अवांछनीय है।’
घर के लोग जानते थे कि इलियट अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाला है। इसलिए थोड़े बहुत प्रयत्न करने के बाद ही उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ कहना सुनना बंद कर दिया लेकिन मित्रों ने तो कहना जारी ही रखा। साथी उनसे कहते—कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। ऐसा काम क्यों करते हो जिससे तुम्हारे खानदान के नाम पर धब्बा लगे।
इलियट जवान देते—जीविका के लिए आत्म निर्भर बनने तथा स्वतन्त्र रूप से काम करने के कारण किसी का नाम नीचा नहीं होता। नाम नीचा होता है खोटे और खराब काम करने से। सो मैंने आज तक न तो कभी किया है और न ही करूंगा। मैं तो सोचता हूं कि परिश्रम से जीविका का उपार्जन कर मैं अपने खानदान का नाम ऊंचा ही कर रहा हूं।’’
‘‘परिश्रम तो तुम अपने पिता के व्यवसाय में लगकर कर सकते थे।’’
‘‘परिश्रम तो वहां भी किया जा सकता था परन्तु मुझे डर था कि मेरा-व्यक्तित्व वहां केवल एकांगी ही रह जाता और पूरी तरह उसी काम में लग जाने के कारण मेरा उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।’’
‘क्या है तुम्हारा जीवन उद्देश्य’
‘‘मेरा उद्देश्य है साहित्य साधना के माध्यम से समाज का बौद्धिक स्तर ऊंचा उठाना। इसके लिए जीविका की दृष्टि से अपने पैरों पर खड़ा होना नितान्त आवश्यक है। परिवार के लोग सुखी और सम्पन्न हैं। उन्हें मेरी सेवाओं की कोई विशेष आवश्यकता नहीं, इसलिए मैंने अपनी सेवायें समाज को समर्पित करने का निश्चय किया है।’’—इलियट के ये उद्गार सुनकर मित्रों ने मुंह पर तो प्रशंसाओं के पुल बांध दिये। परन्तु पीठ पीछे वे मखौल उड़ाते रहे।
अपने मखौल का उन्हें बाद में पता भी चलता और फिर उन्होंने कहना ही बन्द कर दिया। लेकिन मखौल और उपहास से वे निराश नहीं हुए। जिस दिन से उनकी बौद्धिक चेतना का विकास हुआ था, वे यह जानने लगे थे कि अंग्रेजी भाषा काव्य की दृष्टि से निर्जीव, कृत्रिम और पिछड़ी हुई है। उसमें रचे गये काव्य न तो जन सामान्य की समझ में आने जैसे हैं और न काव्य का प्रयोजन-भावनात्मक जागरण कर पाने में समर्थ है अंग्रेजी साहित्य और भी कई दृष्टियों से अपूर्ण था। उसी समय से इन्होंने निश्चय कर लिया और साहित्य सेवा को अपना लक्ष्य चुना।
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आवश्यक समझा था कि मातृ-भाषा का गहन अध्ययन किया जाय। परिवार के लोग उनकी ज्ञान जिज्ञासा के प्रति कोई स्थिर मत नहीं रखते थे। उनकी ओर से इलियट पढ़े या न पढ़े इससे कोई लाभ हानि की परवाह नहीं थीं। क्योंकि पढ़ लिख ले या न पढ़े विद्यमान अटूट सम्पदा उनके सुखमय जीवनयापन के लिए पर्याप्त थी। इसलिए उन्होंने इलियट की आकांक्षाओं में कोई दखलंदाजी नहीं की। औसत स्तर की शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहां अंग्रेजी के साथ-साथ फ्रेंच भाषा तथा साहित्य का भी अध्ययन किया।
इस भाषा का अध्ययन करते समय उनकी प्रवृत्ति दर्शन शास्त्र की ओर उन्मुख हुई। अध्यात्मवादी जीवन दर्शन अपनाने से मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन सुखी तथा समृद्ध बन सकता है, उन्होंने यह तथ्य अनुभव किया और उन्हें एक मार्ग मिला। लगा बौद्धिक स्तर ऊंचा उठाने के लक्ष्य में उनकी यही आत्मिक अव्यक्त प्रयोजन छुपा है। उन्होंने अनुभव किया कि कानून, दण्ड, भय, प्रलोभन और समाज व्यवस्था का कोई भी उपाय व्यक्ति को इतना नैतिक और सामाजिक नहीं बना सकता जितना की अध्यात्म दर्शन।
ज्यों-ज्यों वे इस विषय का क्रमबद्ध अध्ययन करते गये उनकी अभिरुचि, उत्साह, लगन और आस्था भी उत्तरोत्तर बढ़ती रही। यहां तक कि उन्होंने दर्शन शास्त्र का गहन अध्ययन करने के लिए फ्रांस तक जाने का विचार किया और उसे कार्य रूप भी दिया। फ्रांस में अध्ययन करने के बाद वे पुनः अमेरिका आ गये और फिर वहां से जर्मनी गये। उस समय उनकी आयु उन्तीस-तीस वर्ष की रही होगी। इतनी कम उम्र में दर्शन जैसे गम्भीर विषय की ओर बहुत कम लोग ही आकृष्ट होते देखे गये हैं। जर्मनी में वे उस समय भी उसी मनोयोग से और तल्लीनता पूर्वक दर्शन शास्त्र पढ़ते रहे जबकि प्रथम महायुद्ध चल रहा था।
जर्मनी में अपनी शिक्षा पूरी कर उन्होंने इंग्लैण्ड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहां की उच्च परीक्षायें पास कीं। इंग्लैण्ड को लौटने के बाद उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति के सहारे नवीन निधि करने की अपेक्षा स्वयं के बल पर उपार्जन करना ही अधिक श्रेष्ठ समझा। इस पर उन्हें मित्रों और परिजनों के व्यंगों का भी शिकार होना पड़ा। वस्तुतः उन्होंने इस सत्य का साक्षात कर लिया था कि मात्र दर्शन शस्त्र के सिद्धान्तों और आदर्शों का अध्ययन भर कर लेने से जीवन में सुख और आनन्द का अवतरण नहीं हो जाता। इस उपलब्धि के लिए तो उन आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में उतारना जरूरी है। परिश्रम, आत्म निर्भरता और स्वतंत्र उन्मुक्ति द्वारा प्राप्त सुख से वैभव विलास और आरामतलब परावलम्बन कई गुना बेकार है, निकृष्ट है।
बैंक में नौकरी करते हुए भी उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन, मनन और चिन्तन जारी रखा। धीरे-धीरे उनके पास विचार और भावों का इतना अक्षय कोष भर गया, कि अब उन्हें अभिव्यक्ति देना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गया। अध्यात्म दर्शन में अधिकारिक ज्ञान संचय के बाद उन्होंने कलम उठायी और ऐसी प्राणवान तथा जीवन रचनायें निसृत की लेखनी रूपी निर्झरिणी से कि रसिक पाठकों का हृदय उन भावों से सराबोर हो उठा। उनकी प्रारम्भिक कवितायें भी बड़ी लोकप्रिय हुई। लोगों ने एकमत से यह राय व्यक्त की कि अब तक ऐसी रचनायें नहीं लिखी गयी थीं। वे प्रभावोत्पादक भी होती थीं, क्योंकि उनमें शब्दों की अपेक्षा इलियट का व्यक्तित्व ही अधिक बोलता था।
इंग्लैण्ड की जागरुक जनता ने साहित्य के क्षेत्र में नवोदित कलाकार इलियट की रचनाओं को बड़े ध्यान पूर्वक पढ़ना शुरू किया। बुद्धिजीवियों को उनकी कविताओं में एक नया रस घुला दिखाई दिया। एक नया प्रकाश और एक नयी विचारधारा मिली जो न केवल प्रगतिशील थी बल्कि समय सम्मत और उपयोगी भी थी। उनकी साधना उपलब्धियों ने अंग्रेजी साहित्य के लिए नया प्रवेश द्वार खोल दिया और इलियट की रचनाओं के निष्ठावान अध्येता बनने लगे।
ज्यों-ज्यों उनकी प्रतिभा और क्षमता उजागर होती गयी त्यों-त्यों उनके विचारों की मांग बढ़ने लगी। अब यह आवश्यक हो गया था कि वे अपना पूरा समय काव्य सृजन तथा विचार प्रसार में लगायें इसलिए उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी और क्राइटेरियन नामक एक पत्र प्रकाशित करने लगे। इस पत्र में समाज कल्याण तथा व्यक्ति का उत्थान किस प्रकार किया जाय इस सम्बन्ध में ढेरों लेख, कवितायें कहानियां आलोचना तथा समीक्षायें छपती थीं। पूरा पत्र अभिनव जीवन दर्शन की तत्व विवेचना से भरा रहता था।
भौतिकता के घोर युग में भी इलियट ने कविता के माध्यम से अंतर्जगत के अमृत तत्वों की प्रतिष्ठापना की और इस तत्व को उन्होंने जन साधारण के सम्मुख सहज साध्य रूप में रखा, जिससे अंग्रेजी का साहित्य समृद्ध तो हुआ ही एक अनूठी विशेषता से भी संपन्न हुआ। आत्मा-परमात्मा का इतना सुन्दर और अनूठा विवेचन करके उन्होंने साहित्य के माध्यम से तत्कालीन समाज को वह दिशा दी जिसे विश्व साहित्य में स्थान मिला।
उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं को भी छुआ तथा नाटक, निबन्ध और समीक्षा लेखों के रूप में अपने विचार व्यक्त किये। ‘दि वेस्ट लैण्ड, दि फोर क्वाण्टेय फैमिली यूनियर्ट, दि काकटेल, पार्टी, एक कार्सेज, फ्राम दरार मडर इन द कैथेड्रल आदि कृतियां आज भी उतनी ही नयी लगती है जितनी कि उस समय लगती थी।
उन्होंने जहां आत्म चेतना और अभ्यन्तर सौन्दर्य को अभिव्यक्ति दी वहीं नाटकों और कहानियों के माध्यम से मानव हृदय की विकृतियों पर करारी चोट की। नागरिक जीवन की समस्याओं समाज में व्याप्त विकृतियों तथा विडम्बनाओं, आर्थिक और पारिवारिक अस्तव्यस्तताओं के समाधान का मार्ग भी सुझाया। ऐसे विषयों पर तब तक शायद ही किसी ने वैचारिक क्रान्ति का समर्थ मोर्चा तैयार किया हो। इन नये प्रयोगों में उन्हें सफलता भी मिली।
लेकिन यह सफलता हस्तामलकवत् नहीं मिली। इसके लिए उन्हें कठोर संघर्ष करना पड़ा था। उन विकृतियों और विडम्बनाओं के विद्यमान रहने में जिन लोगों का स्वार्थ था वे उनके विरोध में हो गये। निहित स्वार्थों पर—भले ही वे न्यायिक हों या अन्यायपूर्ण आघात होते देख हर कोई आक्रोश में आ जाता है। अन्यायी तथा अनाचारी तो और भी अधिक आक्रोश से भर उठता है क्योंकि इस प्रकार तो उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।
फलस्वरूप ऐसे लोगों ने इलियट का विरोध करना आरम्भ कर दिया लेकिन वे समाज के लिए हितकारक सत्यों को आत्मा की गहरायी से व्यक्त करने में पीछे नहीं हटे, डटे ही रहे और इसके लिए उन्हें आजीवन कष्ट उठाने रहना पड़ा। इलियट एक सफल कवि तथा सोद्देश्य साहित्यकार माने जाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है इस सम्मानपूर्ण प्रतिष्ठा के मूल में उनकी जीवन साधना छुपी है, जिसके बल पर वे स्वयं को साहित्य जगत का प्रकाश दीप बना सके।
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तभी उस युवक के पिता ने कमरे में प्रवेश किया और अपने बेटे को पुस्तकों से चिपका देखकर उनके चेहरे पर अस्पष्ट से भाव उभरे। उसकी अध्ययन शीलता से उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। आपत्ति तो यह थी कि उनका फैले हुए कारोबार में तनिक भी रुचि नहीं लाता था। उन्होंने पुकारा—इलियट।
उस युवक का नाम इलियट ही था। जो आगे चल कर टी. ए. इलियट के नाम से अंग्रेजी भाषा का विख्यात जन कवि बना। इलियट ने पुस्तकों में झुका सिर उठाया और पिता की ओर देखा। देखा जैसे पूछ रहा हो—क्या आदेश है?
‘तुम दिन भर स्टडी में ही घुसे रहते हो’ थोड़ा बहुत अपना कारोबार भी तो देखा करो बेटा आखिर तुम लोगों को ही तो आगे चलकर इसे सम्हालना है।’’ पिता ने कहा।
‘‘मैंने अपने भविष्य के सम्बन्ध में दूसरा ही निर्णय लिया है पिताजी। उद्योग व्यवसाय के क्षेत्र में मेरी तनिक भी रुचि नहीं। मैं जनमानस में आध्यात्मिक आनन्द का प्राण प्रवाहित करना चाहता हूं और इसके लिए मैंने साहित्य साधना का क्षेत्र चुना है’’—इलियट बोले।
‘तो क्या तुम इस उद्योग व्यवसाय में कोई सहयोग नहीं दोगे—पिता ने इस प्रकार कहा जैसे उन्होंने कोई अप्रत्याशित निर्णय सुना हो। इलियट बोले—‘क्षमा करना पिताजी। इसके लिए अन्य भाई काफी सिद्ध होंगे।’
इलियट की दृढ़ घोषणा सुनकर पिता हतप्रभ रह गये। वे अच्छे उद्योगपति थे। लाखों की जायदाद और कारखाने थे। पैसे की कोई कमी नहीं थी उनके पास और आशा थी कि पुत्र पढ़ लिखकर अपनी योग्यता और प्रतिभा का उपयोग उस समृद्धि और सम्पन्नता की अभिवृद्धि में करेंगे। परन्तु इलियट की धारणा सुनकर उनकी आशा धूमिल हो उठी। और वे चिन्तित रहने लगे। कई दिनों तक इस चिन्ता के निवारण का उपाय खोजा। मित्रों और स्वजन बांधवों से चर्चा की तो किसी ने बता दिया कि ऐश और आराम की जिन्दगी जीते जीते इलियट के मन में यह खुराफात पैदा हुई है। इसका एक मात्र उपाय है कि उनका हाथ खर्च बन्द कर दिया जाय और कुछ दिनों तक मिथ्या कठोर रवैया अपनाया जाय।
इस परामर्श पर हर दृष्टिकोण से विचार किया तो उपयुक्त ही लगा और कुछ दिनों बाद उन्होंने अपने पुत्र को फिर बुलाया। वे बोले—‘क्या तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय है कि तुम उद्योग कारखानों में कोई सहयोग नहीं दोगे।’
‘इसमें कोई सन्देह नहीं है’—इलियट ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
तो हमें भी तुमसे कोई सद्भावना नहीं है। जो पुत्र अपने पिता से सहयोग नहीं करना चाहता उसे अपनी पारिवारिक सम्पदा का उपयोग भी नहीं करना चाहिए—पिता के चेहरे पर कठोरता के भाव उभर आये थे।
‘जी धन्यवाद!’ इलियट ने कहा—‘मैं भी यही सोच रहा था और चंद दिन दिनों में ही मैं आपको यह शुभ सम्वाद देने वाला था कि मुझे एक बैंक में नौकरी मिल गयी है। मेरे प्रयत्न जारी है।
जो अपेक्षा की थी उसके एक दम विपरीत यह जवाब पाकर पिता पर जैसे ढेरों पानी गिर गया। उनके सन्मुख अपने पुत्र के भावी जीवन का एक चित्र खिंच गया जो उनकी दृष्टि से बड़ा ही करुणा पूर्ण था। कभी पैदल न चलने वाला इलियट घर से पैदल कार्यालय तक जा रहा है। विभिन्न प्रकार के पकवानों का भोजन करने वाला लाड़ला बेटा रूखा-सूखा खा रहा है। एक से एक कीमती और राजकुमारों के से कपड़े पहनने वाला इलियट सामान्य वेशभूषा में लंदन की सड़कों पर घूम रहा है। और राजभवन से भी विशाल तथा सभी सुख सुविधा साधनों वाले महलनुमा इमारत में निवास करने वाला बेटा झोंपड़ी सी लगने वाली किसी कोठरी में सो रहा है।
उनकी आंखों में आंसू उमड़ पड़े। इलियट की ओर देखने का साहस नहीं हो रहा था। रुंधे कण्ठ से बोले ‘मेरे बेटे! यह तुम क्या करने जा रहे हो। इतने बड़े सम्पन्न परिवार के होकर तुम्हें नौकरी करना शोभा नहीं देगा।’
इलियट भी समझदार थे। उन्होंने अपने पिता की भावनाओं को समझा और कहा—‘‘मैं जानता हूं पिताजी, आपने पहले जो प्रस्ताव रखा वह आपके हृदय से नहीं आया था और न ही आपका ममतापूर्ण अन्तःकरण ऐसा करने दे सकता था। अपने विचार से मुझे सही मार्ग पर लाने के लिए ही आपने ऐसा कहा होगा।’’
पिता की भावनाओं को उन्होंने समझा तो सही परन्तु अपना निश्चय नहीं बदला। उन्होंने बात को जारी रखते हुए आगे कहा ‘मेरी दृढ़ मान्यता है कि वर्तमान जीवन, जिसमें मैं बिना परिश्रम किये समाज की सम्पदा का उपयोग कर रहा हूं, गर्हित और अवांछनीय है।’
घर के लोग जानते थे कि इलियट अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाला है। इसलिए थोड़े बहुत प्रयत्न करने के बाद ही उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ कहना सुनना बंद कर दिया लेकिन मित्रों ने तो कहना जारी ही रखा। साथी उनसे कहते—कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। ऐसा काम क्यों करते हो जिससे तुम्हारे खानदान के नाम पर धब्बा लगे।
इलियट जवान देते—जीविका के लिए आत्म निर्भर बनने तथा स्वतन्त्र रूप से काम करने के कारण किसी का नाम नीचा नहीं होता। नाम नीचा होता है खोटे और खराब काम करने से। सो मैंने आज तक न तो कभी किया है और न ही करूंगा। मैं तो सोचता हूं कि परिश्रम से जीविका का उपार्जन कर मैं अपने खानदान का नाम ऊंचा ही कर रहा हूं।’’
‘‘परिश्रम तो तुम अपने पिता के व्यवसाय में लगकर कर सकते थे।’’
‘‘परिश्रम तो वहां भी किया जा सकता था परन्तु मुझे डर था कि मेरा-व्यक्तित्व वहां केवल एकांगी ही रह जाता और पूरी तरह उसी काम में लग जाने के कारण मेरा उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।’’
‘क्या है तुम्हारा जीवन उद्देश्य’
‘‘मेरा उद्देश्य है साहित्य साधना के माध्यम से समाज का बौद्धिक स्तर ऊंचा उठाना। इसके लिए जीविका की दृष्टि से अपने पैरों पर खड़ा होना नितान्त आवश्यक है। परिवार के लोग सुखी और सम्पन्न हैं। उन्हें मेरी सेवाओं की कोई विशेष आवश्यकता नहीं, इसलिए मैंने अपनी सेवायें समाज को समर्पित करने का निश्चय किया है।’’—इलियट के ये उद्गार सुनकर मित्रों ने मुंह पर तो प्रशंसाओं के पुल बांध दिये। परन्तु पीठ पीछे वे मखौल उड़ाते रहे।
अपने मखौल का उन्हें बाद में पता भी चलता और फिर उन्होंने कहना ही बन्द कर दिया। लेकिन मखौल और उपहास से वे निराश नहीं हुए। जिस दिन से उनकी बौद्धिक चेतना का विकास हुआ था, वे यह जानने लगे थे कि अंग्रेजी भाषा काव्य की दृष्टि से निर्जीव, कृत्रिम और पिछड़ी हुई है। उसमें रचे गये काव्य न तो जन सामान्य की समझ में आने जैसे हैं और न काव्य का प्रयोजन-भावनात्मक जागरण कर पाने में समर्थ है अंग्रेजी साहित्य और भी कई दृष्टियों से अपूर्ण था। उसी समय से इन्होंने निश्चय कर लिया और साहित्य सेवा को अपना लक्ष्य चुना।
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आवश्यक समझा था कि मातृ-भाषा का गहन अध्ययन किया जाय। परिवार के लोग उनकी ज्ञान जिज्ञासा के प्रति कोई स्थिर मत नहीं रखते थे। उनकी ओर से इलियट पढ़े या न पढ़े इससे कोई लाभ हानि की परवाह नहीं थीं। क्योंकि पढ़ लिख ले या न पढ़े विद्यमान अटूट सम्पदा उनके सुखमय जीवनयापन के लिए पर्याप्त थी। इसलिए उन्होंने इलियट की आकांक्षाओं में कोई दखलंदाजी नहीं की। औसत स्तर की शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहां अंग्रेजी के साथ-साथ फ्रेंच भाषा तथा साहित्य का भी अध्ययन किया।
इस भाषा का अध्ययन करते समय उनकी प्रवृत्ति दर्शन शास्त्र की ओर उन्मुख हुई। अध्यात्मवादी जीवन दर्शन अपनाने से मनुष्य का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन सुखी तथा समृद्ध बन सकता है, उन्होंने यह तथ्य अनुभव किया और उन्हें एक मार्ग मिला। लगा बौद्धिक स्तर ऊंचा उठाने के लक्ष्य में उनकी यही आत्मिक अव्यक्त प्रयोजन छुपा है। उन्होंने अनुभव किया कि कानून, दण्ड, भय, प्रलोभन और समाज व्यवस्था का कोई भी उपाय व्यक्ति को इतना नैतिक और सामाजिक नहीं बना सकता जितना की अध्यात्म दर्शन।
ज्यों-ज्यों वे इस विषय का क्रमबद्ध अध्ययन करते गये उनकी अभिरुचि, उत्साह, लगन और आस्था भी उत्तरोत्तर बढ़ती रही। यहां तक कि उन्होंने दर्शन शास्त्र का गहन अध्ययन करने के लिए फ्रांस तक जाने का विचार किया और उसे कार्य रूप भी दिया। फ्रांस में अध्ययन करने के बाद वे पुनः अमेरिका आ गये और फिर वहां से जर्मनी गये। उस समय उनकी आयु उन्तीस-तीस वर्ष की रही होगी। इतनी कम उम्र में दर्शन जैसे गम्भीर विषय की ओर बहुत कम लोग ही आकृष्ट होते देखे गये हैं। जर्मनी में वे उस समय भी उसी मनोयोग से और तल्लीनता पूर्वक दर्शन शास्त्र पढ़ते रहे जबकि प्रथम महायुद्ध चल रहा था।
जर्मनी में अपनी शिक्षा पूरी कर उन्होंने इंग्लैण्ड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहां की उच्च परीक्षायें पास कीं। इंग्लैण्ड को लौटने के बाद उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति के सहारे नवीन निधि करने की अपेक्षा स्वयं के बल पर उपार्जन करना ही अधिक श्रेष्ठ समझा। इस पर उन्हें मित्रों और परिजनों के व्यंगों का भी शिकार होना पड़ा। वस्तुतः उन्होंने इस सत्य का साक्षात कर लिया था कि मात्र दर्शन शस्त्र के सिद्धान्तों और आदर्शों का अध्ययन भर कर लेने से जीवन में सुख और आनन्द का अवतरण नहीं हो जाता। इस उपलब्धि के लिए तो उन आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में उतारना जरूरी है। परिश्रम, आत्म निर्भरता और स्वतंत्र उन्मुक्ति द्वारा प्राप्त सुख से वैभव विलास और आरामतलब परावलम्बन कई गुना बेकार है, निकृष्ट है।
बैंक में नौकरी करते हुए भी उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन, मनन और चिन्तन जारी रखा। धीरे-धीरे उनके पास विचार और भावों का इतना अक्षय कोष भर गया, कि अब उन्हें अभिव्यक्ति देना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गया। अध्यात्म दर्शन में अधिकारिक ज्ञान संचय के बाद उन्होंने कलम उठायी और ऐसी प्राणवान तथा जीवन रचनायें निसृत की लेखनी रूपी निर्झरिणी से कि रसिक पाठकों का हृदय उन भावों से सराबोर हो उठा। उनकी प्रारम्भिक कवितायें भी बड़ी लोकप्रिय हुई। लोगों ने एकमत से यह राय व्यक्त की कि अब तक ऐसी रचनायें नहीं लिखी गयी थीं। वे प्रभावोत्पादक भी होती थीं, क्योंकि उनमें शब्दों की अपेक्षा इलियट का व्यक्तित्व ही अधिक बोलता था।
इंग्लैण्ड की जागरुक जनता ने साहित्य के क्षेत्र में नवोदित कलाकार इलियट की रचनाओं को बड़े ध्यान पूर्वक पढ़ना शुरू किया। बुद्धिजीवियों को उनकी कविताओं में एक नया रस घुला दिखाई दिया। एक नया प्रकाश और एक नयी विचारधारा मिली जो न केवल प्रगतिशील थी बल्कि समय सम्मत और उपयोगी भी थी। उनकी साधना उपलब्धियों ने अंग्रेजी साहित्य के लिए नया प्रवेश द्वार खोल दिया और इलियट की रचनाओं के निष्ठावान अध्येता बनने लगे।
ज्यों-ज्यों उनकी प्रतिभा और क्षमता उजागर होती गयी त्यों-त्यों उनके विचारों की मांग बढ़ने लगी। अब यह आवश्यक हो गया था कि वे अपना पूरा समय काव्य सृजन तथा विचार प्रसार में लगायें इसलिए उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी और क्राइटेरियन नामक एक पत्र प्रकाशित करने लगे। इस पत्र में समाज कल्याण तथा व्यक्ति का उत्थान किस प्रकार किया जाय इस सम्बन्ध में ढेरों लेख, कवितायें कहानियां आलोचना तथा समीक्षायें छपती थीं। पूरा पत्र अभिनव जीवन दर्शन की तत्व विवेचना से भरा रहता था।
भौतिकता के घोर युग में भी इलियट ने कविता के माध्यम से अंतर्जगत के अमृत तत्वों की प्रतिष्ठापना की और इस तत्व को उन्होंने जन साधारण के सम्मुख सहज साध्य रूप में रखा, जिससे अंग्रेजी का साहित्य समृद्ध तो हुआ ही एक अनूठी विशेषता से भी संपन्न हुआ। आत्मा-परमात्मा का इतना सुन्दर और अनूठा विवेचन करके उन्होंने साहित्य के माध्यम से तत्कालीन समाज को वह दिशा दी जिसे विश्व साहित्य में स्थान मिला।
उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं को भी छुआ तथा नाटक, निबन्ध और समीक्षा लेखों के रूप में अपने विचार व्यक्त किये। ‘दि वेस्ट लैण्ड, दि फोर क्वाण्टेय फैमिली यूनियर्ट, दि काकटेल, पार्टी, एक कार्सेज, फ्राम दरार मडर इन द कैथेड्रल आदि कृतियां आज भी उतनी ही नयी लगती है जितनी कि उस समय लगती थी।
उन्होंने जहां आत्म चेतना और अभ्यन्तर सौन्दर्य को अभिव्यक्ति दी वहीं नाटकों और कहानियों के माध्यम से मानव हृदय की विकृतियों पर करारी चोट की। नागरिक जीवन की समस्याओं समाज में व्याप्त विकृतियों तथा विडम्बनाओं, आर्थिक और पारिवारिक अस्तव्यस्तताओं के समाधान का मार्ग भी सुझाया। ऐसे विषयों पर तब तक शायद ही किसी ने वैचारिक क्रान्ति का समर्थ मोर्चा तैयार किया हो। इन नये प्रयोगों में उन्हें सफलता भी मिली।
लेकिन यह सफलता हस्तामलकवत् नहीं मिली। इसके लिए उन्हें कठोर संघर्ष करना पड़ा था। उन विकृतियों और विडम्बनाओं के विद्यमान रहने में जिन लोगों का स्वार्थ था वे उनके विरोध में हो गये। निहित स्वार्थों पर—भले ही वे न्यायिक हों या अन्यायपूर्ण आघात होते देख हर कोई आक्रोश में आ जाता है। अन्यायी तथा अनाचारी तो और भी अधिक आक्रोश से भर उठता है क्योंकि इस प्रकार तो उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।
फलस्वरूप ऐसे लोगों ने इलियट का विरोध करना आरम्भ कर दिया लेकिन वे समाज के लिए हितकारक सत्यों को आत्मा की गहरायी से व्यक्त करने में पीछे नहीं हटे, डटे ही रहे और इसके लिए उन्हें आजीवन कष्ट उठाने रहना पड़ा। इलियट एक सफल कवि तथा सोद्देश्य साहित्यकार माने जाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है इस सम्मानपूर्ण प्रतिष्ठा के मूल में उनकी जीवन साधना छुपी है, जिसके बल पर वे स्वयं को साहित्य जगत का प्रकाश दीप बना सके।
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