
मानवतावादी साहित्यकार— पर्लबक
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चीन में उस समय कम्युनिष्ट शासन नहीं था। लोक सेवा में लगे हुए एक ईसाई परिवार की किशोरी अपने बापू से चीन की कहानियां बड़े चाव से सुना करती। अकाल, महामारी, बाढ़, और सूखा ग्रस्त किसान परिवार की कहानियां वह बड़े चाव से सुनती। ऐसे ही एक किसान की कहानी उसके मन में घर कर गयी थी। दाई कहानी सुनाते हुए कह रही थी—‘‘चिंग जब बीमार रहने लगा तो उसके पुत्रों ने सोचा जमीन का बंटवारा कर लेना चाहिए और वे किसी प्रश्न पर सहमत न होने के कारण झगड़ने लगे।
एक प्रश्न—किशोरी ने बीच में ही बात काटी—‘‘क्या जमीन का बंटवारा भी होता है?’’
नन्हीं किशोरी की समझ में नहीं आया कि जमीन कैसे बांटी जाती है। जंगल के बेरफलों को सहेलियों में बांटते हुए तो देखा था, पिताजी बच्चों में पैसे भी बांटते हैं, परन्तु जमीन। जमीन कैसे बांटी जाती है?
‘‘हां जमीन बांटी जाती है बेटा’’—धाय मां ने कहा—लोग अपनी सीमा बना लेते हैं और फिर उस पर अपना हक समझ लेते हैं।
‘‘तो क्या हवा और पानी भी लोग बांटते हैं’’—किशोरी ने फिर पूछा। पिताजी तो हमेशा कहते हैं कि धरती, पानी, हवा और नदियां सबके लिये बनाई हैं। वे भगवान की हैं, उनके लिये किसी को लड़ना नहीं चाहिये। फिर ये लोग क्यों झगड़ते हैं?’’
उस समय तो दाई ने किसी तरह बहला दिया परन्तु किशोरी का चिन्तन चलता रहा और बड़ी होने पर उसने एक उपन्यास लिखा। इसी पृष्ठभूमि पर जिसे आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। इस उपन्यास को श्रेष्ठ कृति के रूप में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
उपन्यास का नाम है—‘‘दि गुड अर्थ’’ और उपन्यास कार है पर्लबक। इस उपन्यास में उस किसान की व्यथा और वेदना भरी कहानी है जो यह मानता है कि रुपया पैसा तो लूट लिया जा सकता है परन्तु धरती। धरती को कौन लूटेगा? किसमें सामर्थ्य है जो धरती को लूट सकता है? वह मां है, समृद्धि दात्री है। आगे चलकर उसके ही पुत्र बंटवारे के लिये झगड़ते हैं। जिससे किसान दुःखी होता है। फिर उस पर कई विपत्तियां आती हैं। जिससे वह संघर्ष करता है। इस कहानी को और किसान की व्यथा को पर्लबक ने अपनी सशक्त लेखनी से कागजों पर उतारा है। विश्व की कई भाषाओं में इस पुस्तक का अनुवाद हुआ है।
पर्लबक का जन्म एक ईसाई मिशनरी परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा दीक्षा संयुक्त राज्य अमेरिका में ही हुई परन्तु उनका अधिकांश जीवन एशिया में बीता। उनके व्यक्तित्व में एशियाई—संस्कृति की अमिट छाप दिखाई देती है। पिता उस समय चीन में ईसाई धर्म प्रचारक थे। उन्हें भी अपने परिवार के साथ रहना पड़ा फलतः उन्होंने चीन के जन जीवन को अति निकट से देखा। दूसरे देशों की भी उन्होंने यात्रायें की और सर्वाधिक प्रभावित किया किसी देश ने तो वह था भारत। इसी कारण उनकी अधिकांश रचनाओं में प्राच्य संस्कृति और भारतीय मान्यताओं की अभिव्यंजना हुई।
पीड़ित मानवता की पीड़ा को अपनी सजीव लेखनी से लिखकर समाज के सामने रखने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भी कोरिया युद्ध के तथ्यों पर आधारित उपन्यास और पुस्तकें लिखती रही।
उनके माता-पिता को बड़ी आशा थी बचपन में कि पर्लबक आगे चलकर ईसाई धर्म की प्रचारिका बनेगी। जिस रूप में वे अपनी बेटी को देखना चाहते थे वह तो पूरी नहीं हो सकी। परन्तु सच्चे धर्म का—ईसाई धर्म के मूल सिद्धान्तों का—मानवता, प्रेम और करुणा के आदर्शों की पर्लबक ने अपने जीवन और साहित्य के माध्यम से जो प्रतिष्ठापना की उसे देखकर लगता है कि उन्होंने अपने माता-पिता की आशाओं को बड़ी कुशलता से पूरा किया। कुछ वर्षों तक उन्होंने अपने माता-पिता की इच्छा के अनुरूप मिशनरी कार्य किया भी सही और युवावस्था में एक धर्म प्रचारक जॉन वक से शादी भी कर ली।
बचपन में सुनी कहानियां। तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियां और घटनाओं ने पर्लबक के भावुक अन्तःकरण को बेहद प्रभावित किया और उनका साहित्यकार जाग उठा। सन् 1934 में वे अमेरिका लौट आईं और स्वतन्त्र रूप से पत्रकारिता का व्यवसाय अपने लिए चुन लिया।
इसके पूर्व सन् 1932 में भारत भी आ चुकी थीं। यहां के ग्रामीण जीवन ने उन्हें बड़ा प्रभावित किया। यहां के ग्रामीण अंचलों की प्रशंसा उन्होंने पहले सुन रखी थी। इस कारण उन्होंने महानगरों की अपेक्षा भारत की आत्मा—गांवों को निकट से जानने और देखने की इच्छा हुई। एशिया के ही एक देश के पत्रकार रिचार्ड वाग्स ने उनका परिचय विशाल भारत के सम्पादक पं. बनारसी दास चतुर्वेदी से कराया। चतुर्वेदी जी ने गांवों में जाने और घूमने ठहरने आदि की व्यवस्था कर दी। यहां के भोले भाले गांव वासियों की सादगी, सरलता और पवित्र जीवन ने उन्हें अपना बना लिया। भारत यात्रा के संस्मरणों में उन्होंने एक स्थान पर कहा भी है कि भारत में आकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने ही घर में आ गयी हूं यहां के जनजीवन और नागरिकों के रहन-सहन की सरलता ने मुझे यह प्रतीत कराया कि धर्म और अध्यात्म को इन लोगों ने अपने जीवन में पूरी तरह उतारा है।
लम्बे और विशाल अध्ययन तथा चिन्तन-मनन ने उनके साहित्य को दिशा दी। यद्यपि साहित्यकार की कल्पना बड़ी ऊंची-उड़ानें भरती हैं और इस उड़ाने से उसकी रचनाएं यथार्थ से बहुत दूर जाकर केवल स्वप्निल दुनिया ही बसा पाती हैं। यथार्थ और कल्पना में भटक कर साहित्यकार एक भूल भुलैया में फंस जाता है। जिसके कारण वह अपने वास्तविक उद्देश्य और साहित्य की सार्थकता से दूर जा गिरता है। कल्पनाओं के साथ-साथ यथार्थ को भी दृष्टिगत रख कर पर्लबक उस भटकन से अपने आप को बचा ले गयी। उन्होंने समाज का, दुखी पीड़ितों का जो सजीव चित्रण किया साथ ही उनके समाधान भी सुझाये उनके कारण वे सार्थक और मूल्यवान साहित्य की स्रष्टा बन गयी।
इतने अमूल्य और विशिष्ट साहित्य का सृजन ही पर्याप्त नहीं होता। जन-जन तक उसे पहुंचाना भी आवश्यक है। इसके लिये उन्होंने अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण तैयार कराये तथा गरीब से गरीब घर में उन ग्रन्थों को पहुंचाया। पर्लबक ने एक स्थान पर लिखा है—‘‘मैं अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण प्रकाशित होते देखकर बड़ी प्रसन्न हूं। क्योंकि मैं सोचती हूं इससे सभी लोग उन्हें पढ़ सकते हैं। निश्चय ही पुस्तक हर व्यक्ति की पहुंच के अन्दर होनी चाहिये। अन्यथा उत्कृष्ट साहित्य भी महंगा होने के कारण पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाला बन जाता है।
अमेरिका में रहकर उन्होंने रंग भेद नीति से लेकर पूंजीवादी शोषण तथा सामाजिक अत्याचार जैसी परम्पराओं का विरोध किया। इस समस्याओं का समाधान उन्होंने केवल मानवतावादी जीवन मूल्यों में देखा। प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द, सहिष्णुता, और आपसी भाईचारे का शाश्वत संदेश उनकी रचनाओं में मुखरित हुआ है।
विश्व-संस्कृति और विश्व एकता में पूर्व और पश्चिम का विभाजन बड़ा घातक है। पर्लबक ने सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया तथा सारे संसार के देश वासियों से इस बात का अनुरोध किया कि वे बातचीत और व्यवहार में धरती का पूर्व तथा पश्चिम के नाम से विभाजन न करें। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि पूर्व और पश्चिम के मध्य स्वस्थ एकता स्थापित हो। इसके लिए वे प्रयत्नशील भी रही। इनका विचार था कि जब तक संसार में इस प्रकार की एकता स्थापित नहीं हो जाती विश्वशान्ति एक दिशा स्वप्न मात्र ही बन कर रहेगी।
उन्होंने 50 से भी अधिक पुस्तकें लिखी। पिछले दिनों उनका अधिकांश समय पेन्सिलवेनिया स्थित फॉर्म पर व्यतीत होता था। यहीं वे साहित्य सेवा करती थीं। 6 मार्च 1973 को 80 वर्ष की अवस्था में वे परलोक गामी हो गयीं। उनके निधन से विश्व साहित्य के अपूर्णनीय क्षति हुई परन्तु उनके प्रतिष्ठापित मूल्यों और आदर्शों से नयी पीढ़ी का साहित्यकार सदियों तक प्रेरणा लेता रहेगा।
एक प्रश्न—किशोरी ने बीच में ही बात काटी—‘‘क्या जमीन का बंटवारा भी होता है?’’
नन्हीं किशोरी की समझ में नहीं आया कि जमीन कैसे बांटी जाती है। जंगल के बेरफलों को सहेलियों में बांटते हुए तो देखा था, पिताजी बच्चों में पैसे भी बांटते हैं, परन्तु जमीन। जमीन कैसे बांटी जाती है?
‘‘हां जमीन बांटी जाती है बेटा’’—धाय मां ने कहा—लोग अपनी सीमा बना लेते हैं और फिर उस पर अपना हक समझ लेते हैं।
‘‘तो क्या हवा और पानी भी लोग बांटते हैं’’—किशोरी ने फिर पूछा। पिताजी तो हमेशा कहते हैं कि धरती, पानी, हवा और नदियां सबके लिये बनाई हैं। वे भगवान की हैं, उनके लिये किसी को लड़ना नहीं चाहिये। फिर ये लोग क्यों झगड़ते हैं?’’
उस समय तो दाई ने किसी तरह बहला दिया परन्तु किशोरी का चिन्तन चलता रहा और बड़ी होने पर उसने एक उपन्यास लिखा। इसी पृष्ठभूमि पर जिसे आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। इस उपन्यास को श्रेष्ठ कृति के रूप में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
उपन्यास का नाम है—‘‘दि गुड अर्थ’’ और उपन्यास कार है पर्लबक। इस उपन्यास में उस किसान की व्यथा और वेदना भरी कहानी है जो यह मानता है कि रुपया पैसा तो लूट लिया जा सकता है परन्तु धरती। धरती को कौन लूटेगा? किसमें सामर्थ्य है जो धरती को लूट सकता है? वह मां है, समृद्धि दात्री है। आगे चलकर उसके ही पुत्र बंटवारे के लिये झगड़ते हैं। जिससे किसान दुःखी होता है। फिर उस पर कई विपत्तियां आती हैं। जिससे वह संघर्ष करता है। इस कहानी को और किसान की व्यथा को पर्लबक ने अपनी सशक्त लेखनी से कागजों पर उतारा है। विश्व की कई भाषाओं में इस पुस्तक का अनुवाद हुआ है।
पर्लबक का जन्म एक ईसाई मिशनरी परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा दीक्षा संयुक्त राज्य अमेरिका में ही हुई परन्तु उनका अधिकांश जीवन एशिया में बीता। उनके व्यक्तित्व में एशियाई—संस्कृति की अमिट छाप दिखाई देती है। पिता उस समय चीन में ईसाई धर्म प्रचारक थे। उन्हें भी अपने परिवार के साथ रहना पड़ा फलतः उन्होंने चीन के जन जीवन को अति निकट से देखा। दूसरे देशों की भी उन्होंने यात्रायें की और सर्वाधिक प्रभावित किया किसी देश ने तो वह था भारत। इसी कारण उनकी अधिकांश रचनाओं में प्राच्य संस्कृति और भारतीय मान्यताओं की अभिव्यंजना हुई।
पीड़ित मानवता की पीड़ा को अपनी सजीव लेखनी से लिखकर समाज के सामने रखने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भी कोरिया युद्ध के तथ्यों पर आधारित उपन्यास और पुस्तकें लिखती रही।
उनके माता-पिता को बड़ी आशा थी बचपन में कि पर्लबक आगे चलकर ईसाई धर्म की प्रचारिका बनेगी। जिस रूप में वे अपनी बेटी को देखना चाहते थे वह तो पूरी नहीं हो सकी। परन्तु सच्चे धर्म का—ईसाई धर्म के मूल सिद्धान्तों का—मानवता, प्रेम और करुणा के आदर्शों की पर्लबक ने अपने जीवन और साहित्य के माध्यम से जो प्रतिष्ठापना की उसे देखकर लगता है कि उन्होंने अपने माता-पिता की आशाओं को बड़ी कुशलता से पूरा किया। कुछ वर्षों तक उन्होंने अपने माता-पिता की इच्छा के अनुरूप मिशनरी कार्य किया भी सही और युवावस्था में एक धर्म प्रचारक जॉन वक से शादी भी कर ली।
बचपन में सुनी कहानियां। तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियां और घटनाओं ने पर्लबक के भावुक अन्तःकरण को बेहद प्रभावित किया और उनका साहित्यकार जाग उठा। सन् 1934 में वे अमेरिका लौट आईं और स्वतन्त्र रूप से पत्रकारिता का व्यवसाय अपने लिए चुन लिया।
इसके पूर्व सन् 1932 में भारत भी आ चुकी थीं। यहां के ग्रामीण जीवन ने उन्हें बड़ा प्रभावित किया। यहां के ग्रामीण अंचलों की प्रशंसा उन्होंने पहले सुन रखी थी। इस कारण उन्होंने महानगरों की अपेक्षा भारत की आत्मा—गांवों को निकट से जानने और देखने की इच्छा हुई। एशिया के ही एक देश के पत्रकार रिचार्ड वाग्स ने उनका परिचय विशाल भारत के सम्पादक पं. बनारसी दास चतुर्वेदी से कराया। चतुर्वेदी जी ने गांवों में जाने और घूमने ठहरने आदि की व्यवस्था कर दी। यहां के भोले भाले गांव वासियों की सादगी, सरलता और पवित्र जीवन ने उन्हें अपना बना लिया। भारत यात्रा के संस्मरणों में उन्होंने एक स्थान पर कहा भी है कि भारत में आकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने ही घर में आ गयी हूं यहां के जनजीवन और नागरिकों के रहन-सहन की सरलता ने मुझे यह प्रतीत कराया कि धर्म और अध्यात्म को इन लोगों ने अपने जीवन में पूरी तरह उतारा है।
लम्बे और विशाल अध्ययन तथा चिन्तन-मनन ने उनके साहित्य को दिशा दी। यद्यपि साहित्यकार की कल्पना बड़ी ऊंची-उड़ानें भरती हैं और इस उड़ाने से उसकी रचनाएं यथार्थ से बहुत दूर जाकर केवल स्वप्निल दुनिया ही बसा पाती हैं। यथार्थ और कल्पना में भटक कर साहित्यकार एक भूल भुलैया में फंस जाता है। जिसके कारण वह अपने वास्तविक उद्देश्य और साहित्य की सार्थकता से दूर जा गिरता है। कल्पनाओं के साथ-साथ यथार्थ को भी दृष्टिगत रख कर पर्लबक उस भटकन से अपने आप को बचा ले गयी। उन्होंने समाज का, दुखी पीड़ितों का जो सजीव चित्रण किया साथ ही उनके समाधान भी सुझाये उनके कारण वे सार्थक और मूल्यवान साहित्य की स्रष्टा बन गयी।
इतने अमूल्य और विशिष्ट साहित्य का सृजन ही पर्याप्त नहीं होता। जन-जन तक उसे पहुंचाना भी आवश्यक है। इसके लिये उन्होंने अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण तैयार कराये तथा गरीब से गरीब घर में उन ग्रन्थों को पहुंचाया। पर्लबक ने एक स्थान पर लिखा है—‘‘मैं अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण प्रकाशित होते देखकर बड़ी प्रसन्न हूं। क्योंकि मैं सोचती हूं इससे सभी लोग उन्हें पढ़ सकते हैं। निश्चय ही पुस्तक हर व्यक्ति की पहुंच के अन्दर होनी चाहिये। अन्यथा उत्कृष्ट साहित्य भी महंगा होने के कारण पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाला बन जाता है।
अमेरिका में रहकर उन्होंने रंग भेद नीति से लेकर पूंजीवादी शोषण तथा सामाजिक अत्याचार जैसी परम्पराओं का विरोध किया। इस समस्याओं का समाधान उन्होंने केवल मानवतावादी जीवन मूल्यों में देखा। प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द, सहिष्णुता, और आपसी भाईचारे का शाश्वत संदेश उनकी रचनाओं में मुखरित हुआ है।
विश्व-संस्कृति और विश्व एकता में पूर्व और पश्चिम का विभाजन बड़ा घातक है। पर्लबक ने सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया तथा सारे संसार के देश वासियों से इस बात का अनुरोध किया कि वे बातचीत और व्यवहार में धरती का पूर्व तथा पश्चिम के नाम से विभाजन न करें। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि पूर्व और पश्चिम के मध्य स्वस्थ एकता स्थापित हो। इसके लिए वे प्रयत्नशील भी रही। इनका विचार था कि जब तक संसार में इस प्रकार की एकता स्थापित नहीं हो जाती विश्वशान्ति एक दिशा स्वप्न मात्र ही बन कर रहेगी।
उन्होंने 50 से भी अधिक पुस्तकें लिखी। पिछले दिनों उनका अधिकांश समय पेन्सिलवेनिया स्थित फॉर्म पर व्यतीत होता था। यहीं वे साहित्य सेवा करती थीं। 6 मार्च 1973 को 80 वर्ष की अवस्था में वे परलोक गामी हो गयीं। उनके निधन से विश्व साहित्य के अपूर्णनीय क्षति हुई परन्तु उनके प्रतिष्ठापित मूल्यों और आदर्शों से नयी पीढ़ी का साहित्यकार सदियों तक प्रेरणा लेता रहेगा।