
मानवतावादी विचारक- रसेल
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
ब्रिटिश दार्शनिक जान स्टुअर्ट मिल के घनिष्ठ मित्र और अनुयायी लार्ड एम्बरले के घर में 18 मई 1872 को इस युग का एक महान् विचारक पैदा हुआ, जिसने पिछले साठ वर्षों में अपने चिंतन और व्यवहार से मानवीय मूल्यों को वैज्ञानिक परिभाषाएं प्रदान कीं और उनके लिए अविरत संघर्ष किया। यह दार्शनिक था लार्ड बर्ट्रेड रसेल।
रसेल का नाम अन्याय के प्रतिकार के साथ जुड़ गया है। वे नागरिक स्वतन्त्रता के सजग प्रहरी बने हुए थे। उनके जीवन का एक मात्र ध्येय नागरिकों के स्वतन्त्र विकास और विश्व-शांति की स्थापना करना था। रसेल इस युग के एक ऐसे मनीषी थे, जिन्होंने रूढ़ि और परम्परा पर चोट की और वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध किया कि मध्यम मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। अतिशयवादी लोग मानव-जाति को सुख-समृद्धि के मार्ग पर नहीं ले जा सकते। रसेल राजनीति के बुद्ध थे। भगवान बुद्ध ने अध्यात्म के क्षेत्र में जिस सन्तुलित मध्यम मार्ग का दिग्दर्शन मानवजाति को कराया था, रसेल ने राजनीति के क्षेत्र में उसी सन्तुलित और सम्यक् चिंतन का आग्रह बनाये रखा। उन्होंने अपने पिता के पुस्तकालय से बुद्ध के साहित्य का अध्ययन बचपन में ही कर लिया था। रसेल का चिंतन गांधी जी के चिन्तन के साथ-साथ विकसित हुआ है और उन पर उनके असहयोग सम्बन्धी विचारों और कार्यों का गहरा प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। गांधी जी की तरह दमन साम्राज्यवाद, आर्थिक विषमता और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीकरण के प्रबल विरोधी थे।
रसेल ने साठ से अधिक ग्रन्थ लिखे। वे आरम्भ में एक वैज्ञानिक थे और उन्होंने विज्ञान पर महत्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध लिखकर आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों को मार्ग प्रशस्त किया। परन्तु शीघ्र ही उन्हें अपने जीवन-ध्येय का बोध हो गया और उन्होंने सत्ता के स्रोत आधार तथा उसकी सीमा के बारे में चिंतन शुरू कर दिया। उन्होंने तर्क शास्त्र, विवाह नैतिकता, शिक्षा, मनोविज्ञान सामाजिक पुनर्निर्माण तथा धर्म से लेकर विश्व-शांति तक जीवन के प्रत्येक पहलू पर चिंतन किया और अपनी पैनी बुद्धि तथा प्रखर लेखनी द्वारा मानव समाज की बुनियादी समस्याओं के हल ढूंढ़ निकाले।
रसेल अराजकतावादी नहीं थे, लेकिन उन्होंने राज्य को सर्वेसर्वा मानने से इन्कार कर दिया। उनका विचार था कि ‘हमारा ध्येय राज्य की नहीं वरन् समाज की सेवा करना है। राज्य को अनावश्यक महत्व देने से अच्छे समाज का निर्माण नहीं होता। उसके लिए आवश्यक है कि व्यक्तियों का उन्मुक्त विकास हो उनका दैनंदिन जीवन सुखी हो उनमें से प्रत्येक के लिए उत्पादक शक्ति अभिव्यक्ति का समुचित अवसर हो उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध कुण्ठा संकीर्णता और ,द्वेष पर आधारित न होकर स्वतन्त्र रूप से विकसित हों और वे जीवन के मूलगामी आनन्द का निरापद आनन्द अनुभव कर सकें।
रसेल कहते थे कि राजनीतिक प्रतिनिधि आमतौर पर पाखंडी हो जाते हैं और ऐसा मानने लगते हैं कि राजनीति में सज्जनता और नैतिकता की कोई गुंजाइश नहीं है। रसेल इस मामले में सुकरात के अनुयायी थे। वे मानते थे कि अच्छा मनुष्य हुए बिना अच्छा नागरिक नहीं हुआ जा सकता और जब तक कोई व्यक्ति अच्छा नागरिक न हो तब तक वह अच्छा जन प्रतिनिधि या अच्छा राजनीतिज्ञ कैसे हो सकता है? रसेल ने लिखा है—‘संसद और विधान सभाओं के सदस्य आराम से रहते हैं मोटी-मोटी दीवारें और असंख्य पुलिस जन उनको जनता की आवाज से बचाये रखते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनके मन में उन वचनों की धुंधली-सी स्मृति ही रह जाती है जो निर्वाचनों के समय जनता को दिये थे। दुर्भाग्य यह है कि समाज के व्यापक हित वास्तव में अमूर्त होते हैं और अन्ततोगत्वा विधायकों के निजी संकीर्ण हितों को ही जनता का हित मान लिया जाता है।’
रसेल लोक तंत्र और स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए निरन्तर संगठित प्रतिरोध को अनिवार्य मानते थे। इससे समाज में अव्यवस्था का खतरा पैदा हो सकता है परन्तु सर्वग्राही तथा सर्व शक्तिमान केन्द्रीय राजसभा से उत्पन्न होने वाली जनता की तुलना में यह खतरा नगण्य है।
रसेल जैसे चहुंमुखी विचारक के लिए यह संभव न था कि वे राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर कोई ध्यान न देते। उन्होंने मार्क्सवादियों की इस धारणा का खंडन किया कि नागरिक स्वतन्त्रता को सबसे बड़ा खतरा पूंजीवाद से है। यद्यपि रसेल स्वयं पूंजीवाद के समर्थक नहीं थे तथापि साम्यवाद को भी वे भ्रामक मानते थे। उन्होंने लिखा है—
‘सरकारी अधिकारी और कर्मचारी चाहे कितनी भी सावधानी से क्यों न भरती किये जायें उनमें से कुछ लोग स्वयं आतंकवाद और स्वेच्छाचारिता की ओर उन्मुख हो जायेंगे। सत्ता के प्रति स्वाभाविक प्रेम के अलावा उनके मन में यह धारणा भी घर किये बैठी रहती है कि केवल हम ही समाज के हितों को पहचानते हैं। प्रशासक सहज ही प्रशासन-व्यवस्था को सर्वोच्च मानते हैं। यह ठीक है कि हर मामले में उनका ज्ञान आम जनता की अपेक्षा अधिक होता है लेकिन वे केवल एक चीज नहीं जानते और यह कि जूता कहां काटता है, यानी उनकी व्यवस्था सामान्य जनता को कहां कष्ट पहुंचाती है।’
जिस तरह मोची नहीं जानता कि जूता कहा काटता है, वह केवल पहनने वाला ही समझता है। उसी तरह प्रशासन भी शास्त्रीय ज्ञान के दम्भ में रहता है। लोक तन्त्र में केवल ज्ञान के दम्भ की आवश्यकता नहीं वरन् उन लोगों की आवाज का अधिक महत्व है जो शासन और प्रशासन की नीतियों के परिणाम भोगते हैं।
रसेल सहयोगी-समाजवाद के सिद्धान्त को मानते थे। उनका कहना था कि उद्योगों की व्यवस्था तथा उत्पादन एवं वितरण में व्यवस्थापक और उपभोक्ता मिलकर यह निर्णय करें कि किन-किन वस्तुओं का कितना उत्पादन करना होगा और वे किस दाम पर जनता को उपलब्ध होंगी। पूंजी का स्वामित्व भी उस समाज में रहे जिससे संचित श्रम से उस पूंजी का निर्माण हुआ है और उपभोक्ताओं तथा उत्पादकों के प्रतिनिधि उसका संचालन और नियमन करें। यह धारणा बहुत कुछ सर्वोदय की उस कल्पना जैसी है जिसमें ‘सब सम्पत्ति रघुपति कै आही’ मानकर उस पर से व्यक्तिगत स्वामित्व का विसर्जन श्रेयस्कर बताया है और यह अपेक्षा रखी गयी है कि उत्पादकवर्ग उस पूंजी को समाज की धरोहर मानकर उसका ट्रस्टी मात्र बना रहेगा एवं उसका दुरुपयोग अपने ऐश्वर्य अथवा सत्ता संग्रह के लिए नहीं करेगा। यह साम्यवादी हिंसा और विकल्प का एक मात्र विकल्प है तथा रसेल इस विचार से पूर्णतः सहमत थे।
रसेल ने अपनी आंखों से स्तालिन और हिटलर की तानाशाही को देखा था और वे उस तानाशाही के दोषों के बारे में दुनिया को आगाह करना चाहते थे। उन्होंने लिखा है कि क्रांति के नाम पर परम्पराओं का निर्माण नहीं किया जा सकता विचार के नाम पर विचार को नहीं दबाया जा सकता और सर्वहारा वर्ग के अधिनायक वाद की आढ़ में नागरिक स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं किया जा सकता। रसेल ने संसार को अभय का मन्त्र दिया। अपने ग्रन्थ ‘प्रिंसिपल्स आफ शोशल रिकान्स्ट्रक्शन’ में वे कहते हैं कि जब तक लोग अपने मन से भय को नहीं निकालेंगे, तब तक वे स्वतन्त्र नहीं हो सकते। ठीक यही बात गांधीजी ने कही थी और हजारों साल पहले रणक्षेत्र में खड़े होकर अर्जुन को दैवी संपदा के लक्षण समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने ‘अभय’ का मंत्र दिया था। अभय पहला गुण है और सब गुणों की जड़ है। रसेल कहते हैं—किसी से मत डरो—सभा से, शासक से; सैनिक से किसी से भी मत डरो। चिन्तन और विचार के आधार पर निर्द्वन्द्व होकर अन्याय का डटकर मुकाबला करो। इस प्रतिरोध में ही सच्ची स्वतन्त्रता के बीज निहित हैं।
रसेल वास्तव में मानवतावादी विचारक थे। उनके मन में जीवन के प्रति गहरा प्रेम भरा हुआ था। इसलिए रसेल विश्व-शांति के पहरेदार बन गये थे। उनकी सीख थी कि राष्ट्रों को अपने आपसी विवाद निपटाने के लिए युद्धों का सहारा नहीं लेना चाहिए। रसेल साम्राज्यवाद के भी कट्टर आलोचक थे वे कहते थे कि केवल इतने से काम नहीं चलेगा कि शक्तिशाली राष्ट्र आपसी संबन्धों में शक्ति का प्रयोग बन्द करके संगठित हो जायें। इससे यह खतरा पैदा हो सकता है कि शक्ति सम्पन्न राष्ट्र कमजोर राष्ट्रों को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में बांट लें और उनका शोषण करते रहें।’’
विश्वशांति के लिए यह आवश्यक है कि शक्तिशाली राष्ट्रों को कमजोर राष्ट्रों के शोषण से रोका जाय।
परमाणु-अस्त्रों के निर्माण और प्रयोग ने रसेल के अन्तःकरण को झकझोर दिया था और उन्होंने अपने जीवन की आखिरी मंजिल पर 95 वर्ष की आयु में परमाणु-युद्ध के विरुद्ध जनमत को जागृत करने का बीड़ा उठाया था। इसके लिए ब्रिटिश संसद भवन के द्वार पर धरना दिया और बुढ़ापे में जेल गये। वे चाहते थे कि विश्व का लोकमत इस बारे में जागरुक बने और जनता अपनी-अपनी सरकारों की इस बात के लिए विवश करे कि परमाणु-अस्त्रों का निर्माण बन्द कर दिया जाय। इतना ही नहीं वे राष्ट्र संघ से यह भी मांग करते रहे कि वह परमाणु के वर्तमान संग्रह को अपने तत्वावधान में नष्ट कराये जिससे मानव जाति के सिर पर झूल रहा प्रलय का संकट दूर हो सके और वह अधिक आश्वासन के साथ सृजनात्मक कार्यों में अपनी शक्ति लगा सके।
ऐसे महान् मानवतावादी विचारक के 3 फरवरी 1970 को निधन से संसार की अभाव पीड़ित जनता का एक मसीहा तिरोहित हो गया।
रसेल का नाम अन्याय के प्रतिकार के साथ जुड़ गया है। वे नागरिक स्वतन्त्रता के सजग प्रहरी बने हुए थे। उनके जीवन का एक मात्र ध्येय नागरिकों के स्वतन्त्र विकास और विश्व-शांति की स्थापना करना था। रसेल इस युग के एक ऐसे मनीषी थे, जिन्होंने रूढ़ि और परम्परा पर चोट की और वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध किया कि मध्यम मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। अतिशयवादी लोग मानव-जाति को सुख-समृद्धि के मार्ग पर नहीं ले जा सकते। रसेल राजनीति के बुद्ध थे। भगवान बुद्ध ने अध्यात्म के क्षेत्र में जिस सन्तुलित मध्यम मार्ग का दिग्दर्शन मानवजाति को कराया था, रसेल ने राजनीति के क्षेत्र में उसी सन्तुलित और सम्यक् चिंतन का आग्रह बनाये रखा। उन्होंने अपने पिता के पुस्तकालय से बुद्ध के साहित्य का अध्ययन बचपन में ही कर लिया था। रसेल का चिंतन गांधी जी के चिन्तन के साथ-साथ विकसित हुआ है और उन पर उनके असहयोग सम्बन्धी विचारों और कार्यों का गहरा प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। गांधी जी की तरह दमन साम्राज्यवाद, आर्थिक विषमता और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीकरण के प्रबल विरोधी थे।
रसेल ने साठ से अधिक ग्रन्थ लिखे। वे आरम्भ में एक वैज्ञानिक थे और उन्होंने विज्ञान पर महत्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध लिखकर आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों को मार्ग प्रशस्त किया। परन्तु शीघ्र ही उन्हें अपने जीवन-ध्येय का बोध हो गया और उन्होंने सत्ता के स्रोत आधार तथा उसकी सीमा के बारे में चिंतन शुरू कर दिया। उन्होंने तर्क शास्त्र, विवाह नैतिकता, शिक्षा, मनोविज्ञान सामाजिक पुनर्निर्माण तथा धर्म से लेकर विश्व-शांति तक जीवन के प्रत्येक पहलू पर चिंतन किया और अपनी पैनी बुद्धि तथा प्रखर लेखनी द्वारा मानव समाज की बुनियादी समस्याओं के हल ढूंढ़ निकाले।
रसेल अराजकतावादी नहीं थे, लेकिन उन्होंने राज्य को सर्वेसर्वा मानने से इन्कार कर दिया। उनका विचार था कि ‘हमारा ध्येय राज्य की नहीं वरन् समाज की सेवा करना है। राज्य को अनावश्यक महत्व देने से अच्छे समाज का निर्माण नहीं होता। उसके लिए आवश्यक है कि व्यक्तियों का उन्मुक्त विकास हो उनका दैनंदिन जीवन सुखी हो उनमें से प्रत्येक के लिए उत्पादक शक्ति अभिव्यक्ति का समुचित अवसर हो उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध कुण्ठा संकीर्णता और ,द्वेष पर आधारित न होकर स्वतन्त्र रूप से विकसित हों और वे जीवन के मूलगामी आनन्द का निरापद आनन्द अनुभव कर सकें।
रसेल कहते थे कि राजनीतिक प्रतिनिधि आमतौर पर पाखंडी हो जाते हैं और ऐसा मानने लगते हैं कि राजनीति में सज्जनता और नैतिकता की कोई गुंजाइश नहीं है। रसेल इस मामले में सुकरात के अनुयायी थे। वे मानते थे कि अच्छा मनुष्य हुए बिना अच्छा नागरिक नहीं हुआ जा सकता और जब तक कोई व्यक्ति अच्छा नागरिक न हो तब तक वह अच्छा जन प्रतिनिधि या अच्छा राजनीतिज्ञ कैसे हो सकता है? रसेल ने लिखा है—‘संसद और विधान सभाओं के सदस्य आराम से रहते हैं मोटी-मोटी दीवारें और असंख्य पुलिस जन उनको जनता की आवाज से बचाये रखते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनके मन में उन वचनों की धुंधली-सी स्मृति ही रह जाती है जो निर्वाचनों के समय जनता को दिये थे। दुर्भाग्य यह है कि समाज के व्यापक हित वास्तव में अमूर्त होते हैं और अन्ततोगत्वा विधायकों के निजी संकीर्ण हितों को ही जनता का हित मान लिया जाता है।’
रसेल लोक तंत्र और स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए निरन्तर संगठित प्रतिरोध को अनिवार्य मानते थे। इससे समाज में अव्यवस्था का खतरा पैदा हो सकता है परन्तु सर्वग्राही तथा सर्व शक्तिमान केन्द्रीय राजसभा से उत्पन्न होने वाली जनता की तुलना में यह खतरा नगण्य है।
रसेल जैसे चहुंमुखी विचारक के लिए यह संभव न था कि वे राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर कोई ध्यान न देते। उन्होंने मार्क्सवादियों की इस धारणा का खंडन किया कि नागरिक स्वतन्त्रता को सबसे बड़ा खतरा पूंजीवाद से है। यद्यपि रसेल स्वयं पूंजीवाद के समर्थक नहीं थे तथापि साम्यवाद को भी वे भ्रामक मानते थे। उन्होंने लिखा है—
‘सरकारी अधिकारी और कर्मचारी चाहे कितनी भी सावधानी से क्यों न भरती किये जायें उनमें से कुछ लोग स्वयं आतंकवाद और स्वेच्छाचारिता की ओर उन्मुख हो जायेंगे। सत्ता के प्रति स्वाभाविक प्रेम के अलावा उनके मन में यह धारणा भी घर किये बैठी रहती है कि केवल हम ही समाज के हितों को पहचानते हैं। प्रशासक सहज ही प्रशासन-व्यवस्था को सर्वोच्च मानते हैं। यह ठीक है कि हर मामले में उनका ज्ञान आम जनता की अपेक्षा अधिक होता है लेकिन वे केवल एक चीज नहीं जानते और यह कि जूता कहां काटता है, यानी उनकी व्यवस्था सामान्य जनता को कहां कष्ट पहुंचाती है।’
जिस तरह मोची नहीं जानता कि जूता कहा काटता है, वह केवल पहनने वाला ही समझता है। उसी तरह प्रशासन भी शास्त्रीय ज्ञान के दम्भ में रहता है। लोक तन्त्र में केवल ज्ञान के दम्भ की आवश्यकता नहीं वरन् उन लोगों की आवाज का अधिक महत्व है जो शासन और प्रशासन की नीतियों के परिणाम भोगते हैं।
रसेल सहयोगी-समाजवाद के सिद्धान्त को मानते थे। उनका कहना था कि उद्योगों की व्यवस्था तथा उत्पादन एवं वितरण में व्यवस्थापक और उपभोक्ता मिलकर यह निर्णय करें कि किन-किन वस्तुओं का कितना उत्पादन करना होगा और वे किस दाम पर जनता को उपलब्ध होंगी। पूंजी का स्वामित्व भी उस समाज में रहे जिससे संचित श्रम से उस पूंजी का निर्माण हुआ है और उपभोक्ताओं तथा उत्पादकों के प्रतिनिधि उसका संचालन और नियमन करें। यह धारणा बहुत कुछ सर्वोदय की उस कल्पना जैसी है जिसमें ‘सब सम्पत्ति रघुपति कै आही’ मानकर उस पर से व्यक्तिगत स्वामित्व का विसर्जन श्रेयस्कर बताया है और यह अपेक्षा रखी गयी है कि उत्पादकवर्ग उस पूंजी को समाज की धरोहर मानकर उसका ट्रस्टी मात्र बना रहेगा एवं उसका दुरुपयोग अपने ऐश्वर्य अथवा सत्ता संग्रह के लिए नहीं करेगा। यह साम्यवादी हिंसा और विकल्प का एक मात्र विकल्प है तथा रसेल इस विचार से पूर्णतः सहमत थे।
रसेल ने अपनी आंखों से स्तालिन और हिटलर की तानाशाही को देखा था और वे उस तानाशाही के दोषों के बारे में दुनिया को आगाह करना चाहते थे। उन्होंने लिखा है कि क्रांति के नाम पर परम्पराओं का निर्माण नहीं किया जा सकता विचार के नाम पर विचार को नहीं दबाया जा सकता और सर्वहारा वर्ग के अधिनायक वाद की आढ़ में नागरिक स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं किया जा सकता। रसेल ने संसार को अभय का मन्त्र दिया। अपने ग्रन्थ ‘प्रिंसिपल्स आफ शोशल रिकान्स्ट्रक्शन’ में वे कहते हैं कि जब तक लोग अपने मन से भय को नहीं निकालेंगे, तब तक वे स्वतन्त्र नहीं हो सकते। ठीक यही बात गांधीजी ने कही थी और हजारों साल पहले रणक्षेत्र में खड़े होकर अर्जुन को दैवी संपदा के लक्षण समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने ‘अभय’ का मंत्र दिया था। अभय पहला गुण है और सब गुणों की जड़ है। रसेल कहते हैं—किसी से मत डरो—सभा से, शासक से; सैनिक से किसी से भी मत डरो। चिन्तन और विचार के आधार पर निर्द्वन्द्व होकर अन्याय का डटकर मुकाबला करो। इस प्रतिरोध में ही सच्ची स्वतन्त्रता के बीज निहित हैं।
रसेल वास्तव में मानवतावादी विचारक थे। उनके मन में जीवन के प्रति गहरा प्रेम भरा हुआ था। इसलिए रसेल विश्व-शांति के पहरेदार बन गये थे। उनकी सीख थी कि राष्ट्रों को अपने आपसी विवाद निपटाने के लिए युद्धों का सहारा नहीं लेना चाहिए। रसेल साम्राज्यवाद के भी कट्टर आलोचक थे वे कहते थे कि केवल इतने से काम नहीं चलेगा कि शक्तिशाली राष्ट्र आपसी संबन्धों में शक्ति का प्रयोग बन्द करके संगठित हो जायें। इससे यह खतरा पैदा हो सकता है कि शक्ति सम्पन्न राष्ट्र कमजोर राष्ट्रों को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में बांट लें और उनका शोषण करते रहें।’’
विश्वशांति के लिए यह आवश्यक है कि शक्तिशाली राष्ट्रों को कमजोर राष्ट्रों के शोषण से रोका जाय।
परमाणु-अस्त्रों के निर्माण और प्रयोग ने रसेल के अन्तःकरण को झकझोर दिया था और उन्होंने अपने जीवन की आखिरी मंजिल पर 95 वर्ष की आयु में परमाणु-युद्ध के विरुद्ध जनमत को जागृत करने का बीड़ा उठाया था। इसके लिए ब्रिटिश संसद भवन के द्वार पर धरना दिया और बुढ़ापे में जेल गये। वे चाहते थे कि विश्व का लोकमत इस बारे में जागरुक बने और जनता अपनी-अपनी सरकारों की इस बात के लिए विवश करे कि परमाणु-अस्त्रों का निर्माण बन्द कर दिया जाय। इतना ही नहीं वे राष्ट्र संघ से यह भी मांग करते रहे कि वह परमाणु के वर्तमान संग्रह को अपने तत्वावधान में नष्ट कराये जिससे मानव जाति के सिर पर झूल रहा प्रलय का संकट दूर हो सके और वह अधिक आश्वासन के साथ सृजनात्मक कार्यों में अपनी शक्ति लगा सके।
ऐसे महान् मानवतावादी विचारक के 3 फरवरी 1970 को निधन से संसार की अभाव पीड़ित जनता का एक मसीहा तिरोहित हो गया।