
श्री शंकराचार्य : एक क्रान्तिकारी विचार—मनीषी
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आदि गुरु भी शंकराचार्य हिन्दू समाज के महानतम सामाजिक एवं धार्मिक नेता थे, जिनका जन्म आठवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कालड़ी (केरल) में नम्बूद्री ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम शिव गुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था।
श्री शंकराचार्य अपने जमाने के एक महान् क्रान्तिकारी धार्मिक नेता थे। उन्होंने न केवल एक नयी दर्शनशैली का प्रतिपादन तथा एक नये सिद्धान्त का ही प्रचार किया, अपितु वे वस्तुतः हिन्दुत्व के पुनरुत्थान के लिए अविरल प्रयत्नशील रहे। अपने धार्मिक एवं आध्यात्मिक आन्दोलन को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए उन्होंने संन्यासियों की प्राचीन व्यवस्था का दश उप-व्यवस्थाओं में पुनर्गठन किया। इनमें से प्रत्येक का सदस्य एक भिन्न नाम से जाना जाता था। इसलिए इसे दशनामी सम्प्रदाय कहा गया अर्थात् दस नामों वाली व्यवस्था। उन्होंने प्रत्येक व्यवस्था के लिए प्रतिज्ञाएं और नियम निर्धारित कर दिये तथा प्रत्येक के लिए लोक तन्त्रीय प्रशासन की स्थापना की। उन्होंने कुम्भ मेले का भी पुनर्गठन किया, जो प्रति बारह वर्ष में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में क्रमशः हुआ करता है। उन्होंने भारत में हिन्दू धर्म को संगठित करने के उद्देश्य से उत्तर में बद्रिकाश्रम, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में जगन्नाथपुरी तथा दक्षिण में श्रृंगेरी में चार मठों की स्थापना की। प्रत्येक मठ एक शंकराचार्य के आधीन रहता था। इस पद पर आसीन होने वाला व्यक्ति कोई प्रकाण्ड विद्वान होता था और वह संन्यास-धर्म की प्रतिज्ञाओं का कठोरता से पालन करता था तथा अपने गुरु की शिक्षाओं का निष्ठा पूर्वक प्रचार करता था। इन चार प्रमुख स्थलों के अतिरिक्त अन्य केन्द्रों में भी मठ स्थापित किये।
32 वर्ष की अल्प आयु में ही इस महान् गुरु का जीवन समाप्त हो गया। परम्परागत मान्यता के अनुसार यह कहा जाता है कि जब उनका अन्त समय समीप आ गया तो वे हिमालय में केदारनाथ की एक गुफा में प्रविष्ट हो गये और फिर वहां से नहीं लौटे।
धार्मिक पुनरुत्थान के लिए श्री शंकराचार्य की सफल यात्राओं का विस्तृत वर्णन ‘शंकर दिग्विजय’ नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। उन्होंने न केवल पूरे भारत में ही धर्म-प्रचार हेतु व्यापक पद यात्रा की, बल्कि बाली, जावा, सुमात्रा, हिन्देशिया, कम्बोडिया आदि सुदूर पूर्व के देशों की भी यात्रा कर हिन्दू धर्म का व्यापक प्रचार किया।
श्री शंकराचार्य के व्यापक समकालीन प्रभाव का प्रमाण कम्बोडिया में मिलता है। कम्बोज के राजा इन्द्र वर्धन ने प्रभात कंडोल में शिव की प्रतिमा स्थापित करते हुए अपने गुरु शिव सोम का वर्णन करते हुए कहा था कि उन्होंने सभी शास्त्रों की शिक्षा आदि गुरु शंकराचार्य से ग्रहण की थी, जिनके चरणों पर विद्वानों के सिर सदा झुक जाते थे। श्री शंकराचार्य ने आर्य धर्म के प्रथम और महानतम महर्षि व्यास द्वारा प्रदीप्त ज्योति का ही प्रसार किया।
श्री शंकराचार्य के मिशन के परिणाम स्वरूप तीन महान, धर्म ग्रन्थ— उपनिषद्, भगवद् गीता और ब्रह्मसूत्र जिन्हें प्रस्थानत्रयी भी कहा जाता है—हमारे अध्यात्मिक जीवन के सजीव स्रोत बन गये। परिणाम स्वरूप भयावह और आडम्बर पूर्ण कर्म काण्डों का स्थान वैराग्य, चित्तशुद्धि और ईश्वर परायण होने की भावना ने लेना शुरू किया।
प्रतिरोध के युग में जब विदेशी शक्तियों ने उत्तर भारत को रौंदना तथा हिंदुत्व का दमन करना प्रारम्भ किया, तो श्री शंकराचार्य के दशनामी सम्प्रदाय ने ही इस गुण्डागर्दी के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए समस्त धार्मिक एवं सांस्कृतिक आक्रमणों का दृढ़ता पूर्वक मुकाबला किया। उस समय संन्यासी धर्म के आध्यात्मिक संरक्षक बने। योगियों ने रहस्यवाद की मशाल को प्रज्ज्वलित किया। नागाओं ने अपने विशिष्ट संन्यास धर्म द्वारा हठयोग को कायम रखा तथा अस्त्रधारी योद्धा-समूह के सदस्यों ने मन्दिरों, मठों, महिलाओं, गायों की रक्षा करते हुए सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित रखा।
19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ब्रिटिश शासन ने भारत में दृढ़ता पूर्वक अपने पैर जमा लिये थे। धार्मिक स्वतन्त्रता नये विदेशी शासन का एक मान्य सिद्धान्त था ताकि धर्म की रक्षा के लिए सशस्त्र प्रतिकार की आवश्यकता समाप्त हो जाय। परन्तु इससे एक अन्य खतरा भी भीषण रूप से प्रकट हो गया। अंग्रेजों की छत्र-छाया में ईसाई पादरियों द्वारा धर्म-परिवर्तन की गतिविधियां जोर पकड़ने लगीं तथा भारतीय युवकों में पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण आरम्भ हो गया। वे भारत के अतीत की महानता को भूल गये तथा कट्टर पन्थी रूढ़िवादियों में इतनी क्षमता शेष नहीं रह गई थी कि वे अपने धर्म एवं संस्कृति पर होने वाले इस आक्रमण की वीरता पूर्वक सामना कर अपने धार्मिक सिद्धान्तों का लोक मंगलकारी भावना से प्रचार कर सकें।
श्री शंकराचार्य के अनुयायियों ने इस नये संकट के लिए स्वयं को तैयार करना शुरू किया। संन्यासियों ने देश का भ्रमण कर रूढ़िवादियों को शिक्षित एवं प्रेरित किया तथा उन्हें अपनी आस्था पुनः जाग्रत करने एवं नई पीढ़ियों को धर्म का अर्थ समझने में समर्थ बनाया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में मथुरा के विरजानन्द नामक एक प्रज्ञा चक्षु संन्यासी के हृदय में धर्म-रक्षा की आग धधक रही थी। गुजरात के उनके नवयुवक शिष्य मूलशंकर ने, जो आगे चलकर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए, गुरु के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु के इस अग्निमय उत्साह को ग्रहण कर अपना समस्त जीवन धार्मिक एवं सामाजिक पतन तथा राजनैतिक दासता के विरुद्ध प्रबल विद्रोह संगठित करने में लगा दिया। उनके ध्येय की पूर्ति पहले आर्य समाज के रूप में और फिर उसके प्रभाव से जाग्रत हिन्दुओं की व्यापक भावनाओं के रूप में हुई। पचास वर्ष बाद गांधी जी ने उस कार्यक्रम को पूर्ण किया, जिसकी योजना सर्व प्रथम स्वामी दयानंद ने तैयार की थी।
स्वामी तोतापुरी विरजानंद सरस्वती के एक समकालीन महात्मा थे। उनके शिष्य श्री रामकृष्ण परमहंस ने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप को पुनः स्थापित किया तथा उसकी संकीर्णता का निवारण किया। उनकी प्रेरणा से अनेक धार्मिक, शैक्षणिक और धर्मादा संस्थाएं स्थापित हुईं। उनके धर्म-प्रचारकों में सर्वाधिक ख्याति स्वामी विवेकानंद को प्राप्त हुई। विश्व भ्रमण कर अपनी विद्वता की धाक जमा दी। धर्म का सार्वभौम स्वरूप भी उनके प्रवचनों एवं श्री अरविंद के उपदेशों से पुनः व्यक्त हुआ।
इस प्रकार श्री शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय की परम्परा सतत सक्रिय रही।
इस प्रकार श्री शंकराचार्य सर्व काल के एक महान् धार्मिक नेता के रूप में जिये और मरे। वे एक प्रेरित आदर्श संन्यासी, दार्शनिक, धार्मिक सुधारक तथा सामाजिक एवं नैतिक संगठन थे, जिसने सब पर अपने व्यक्तित्व एवं शिक्षाओं की छाप छोड़ी तथा हिंदुत्व को एक नया जीवन और नई दिशा प्रदान की। उन्होंने 32 वर्ष के अपने संक्षिप्त जीवन में एक महानतम मानवीय संगठन निर्मित कर दिया। उन्होंने मानव जाति को शिक्षा दी कि अस्तित्व की अपेक्षा यह है कि मानव भौतिक आवश्यकताओं से ऊपर उठे तथा क्रमिक पग एवं सजग आत्मानुशासन के द्वारा सर्वोच्च तृप्ति अर्थात् जीवन में पूर्ण साक्षात्कार का अनुपम अनुभव प्राप्त करे।
श्री शंकराचार्य अपने जमाने के एक महान् क्रान्तिकारी धार्मिक नेता थे। उन्होंने न केवल एक नयी दर्शनशैली का प्रतिपादन तथा एक नये सिद्धान्त का ही प्रचार किया, अपितु वे वस्तुतः हिन्दुत्व के पुनरुत्थान के लिए अविरल प्रयत्नशील रहे। अपने धार्मिक एवं आध्यात्मिक आन्दोलन को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए उन्होंने संन्यासियों की प्राचीन व्यवस्था का दश उप-व्यवस्थाओं में पुनर्गठन किया। इनमें से प्रत्येक का सदस्य एक भिन्न नाम से जाना जाता था। इसलिए इसे दशनामी सम्प्रदाय कहा गया अर्थात् दस नामों वाली व्यवस्था। उन्होंने प्रत्येक व्यवस्था के लिए प्रतिज्ञाएं और नियम निर्धारित कर दिये तथा प्रत्येक के लिए लोक तन्त्रीय प्रशासन की स्थापना की। उन्होंने कुम्भ मेले का भी पुनर्गठन किया, जो प्रति बारह वर्ष में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में क्रमशः हुआ करता है। उन्होंने भारत में हिन्दू धर्म को संगठित करने के उद्देश्य से उत्तर में बद्रिकाश्रम, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में जगन्नाथपुरी तथा दक्षिण में श्रृंगेरी में चार मठों की स्थापना की। प्रत्येक मठ एक शंकराचार्य के आधीन रहता था। इस पद पर आसीन होने वाला व्यक्ति कोई प्रकाण्ड विद्वान होता था और वह संन्यास-धर्म की प्रतिज्ञाओं का कठोरता से पालन करता था तथा अपने गुरु की शिक्षाओं का निष्ठा पूर्वक प्रचार करता था। इन चार प्रमुख स्थलों के अतिरिक्त अन्य केन्द्रों में भी मठ स्थापित किये।
32 वर्ष की अल्प आयु में ही इस महान् गुरु का जीवन समाप्त हो गया। परम्परागत मान्यता के अनुसार यह कहा जाता है कि जब उनका अन्त समय समीप आ गया तो वे हिमालय में केदारनाथ की एक गुफा में प्रविष्ट हो गये और फिर वहां से नहीं लौटे।
धार्मिक पुनरुत्थान के लिए श्री शंकराचार्य की सफल यात्राओं का विस्तृत वर्णन ‘शंकर दिग्विजय’ नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। उन्होंने न केवल पूरे भारत में ही धर्म-प्रचार हेतु व्यापक पद यात्रा की, बल्कि बाली, जावा, सुमात्रा, हिन्देशिया, कम्बोडिया आदि सुदूर पूर्व के देशों की भी यात्रा कर हिन्दू धर्म का व्यापक प्रचार किया।
श्री शंकराचार्य के व्यापक समकालीन प्रभाव का प्रमाण कम्बोडिया में मिलता है। कम्बोज के राजा इन्द्र वर्धन ने प्रभात कंडोल में शिव की प्रतिमा स्थापित करते हुए अपने गुरु शिव सोम का वर्णन करते हुए कहा था कि उन्होंने सभी शास्त्रों की शिक्षा आदि गुरु शंकराचार्य से ग्रहण की थी, जिनके चरणों पर विद्वानों के सिर सदा झुक जाते थे। श्री शंकराचार्य ने आर्य धर्म के प्रथम और महानतम महर्षि व्यास द्वारा प्रदीप्त ज्योति का ही प्रसार किया।
श्री शंकराचार्य के मिशन के परिणाम स्वरूप तीन महान, धर्म ग्रन्थ— उपनिषद्, भगवद् गीता और ब्रह्मसूत्र जिन्हें प्रस्थानत्रयी भी कहा जाता है—हमारे अध्यात्मिक जीवन के सजीव स्रोत बन गये। परिणाम स्वरूप भयावह और आडम्बर पूर्ण कर्म काण्डों का स्थान वैराग्य, चित्तशुद्धि और ईश्वर परायण होने की भावना ने लेना शुरू किया।
प्रतिरोध के युग में जब विदेशी शक्तियों ने उत्तर भारत को रौंदना तथा हिंदुत्व का दमन करना प्रारम्भ किया, तो श्री शंकराचार्य के दशनामी सम्प्रदाय ने ही इस गुण्डागर्दी के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए समस्त धार्मिक एवं सांस्कृतिक आक्रमणों का दृढ़ता पूर्वक मुकाबला किया। उस समय संन्यासी धर्म के आध्यात्मिक संरक्षक बने। योगियों ने रहस्यवाद की मशाल को प्रज्ज्वलित किया। नागाओं ने अपने विशिष्ट संन्यास धर्म द्वारा हठयोग को कायम रखा तथा अस्त्रधारी योद्धा-समूह के सदस्यों ने मन्दिरों, मठों, महिलाओं, गायों की रक्षा करते हुए सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित रखा।
19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ब्रिटिश शासन ने भारत में दृढ़ता पूर्वक अपने पैर जमा लिये थे। धार्मिक स्वतन्त्रता नये विदेशी शासन का एक मान्य सिद्धान्त था ताकि धर्म की रक्षा के लिए सशस्त्र प्रतिकार की आवश्यकता समाप्त हो जाय। परन्तु इससे एक अन्य खतरा भी भीषण रूप से प्रकट हो गया। अंग्रेजों की छत्र-छाया में ईसाई पादरियों द्वारा धर्म-परिवर्तन की गतिविधियां जोर पकड़ने लगीं तथा भारतीय युवकों में पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण आरम्भ हो गया। वे भारत के अतीत की महानता को भूल गये तथा कट्टर पन्थी रूढ़िवादियों में इतनी क्षमता शेष नहीं रह गई थी कि वे अपने धर्म एवं संस्कृति पर होने वाले इस आक्रमण की वीरता पूर्वक सामना कर अपने धार्मिक सिद्धान्तों का लोक मंगलकारी भावना से प्रचार कर सकें।
श्री शंकराचार्य के अनुयायियों ने इस नये संकट के लिए स्वयं को तैयार करना शुरू किया। संन्यासियों ने देश का भ्रमण कर रूढ़िवादियों को शिक्षित एवं प्रेरित किया तथा उन्हें अपनी आस्था पुनः जाग्रत करने एवं नई पीढ़ियों को धर्म का अर्थ समझने में समर्थ बनाया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में मथुरा के विरजानन्द नामक एक प्रज्ञा चक्षु संन्यासी के हृदय में धर्म-रक्षा की आग धधक रही थी। गुजरात के उनके नवयुवक शिष्य मूलशंकर ने, जो आगे चलकर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए, गुरु के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु के इस अग्निमय उत्साह को ग्रहण कर अपना समस्त जीवन धार्मिक एवं सामाजिक पतन तथा राजनैतिक दासता के विरुद्ध प्रबल विद्रोह संगठित करने में लगा दिया। उनके ध्येय की पूर्ति पहले आर्य समाज के रूप में और फिर उसके प्रभाव से जाग्रत हिन्दुओं की व्यापक भावनाओं के रूप में हुई। पचास वर्ष बाद गांधी जी ने उस कार्यक्रम को पूर्ण किया, जिसकी योजना सर्व प्रथम स्वामी दयानंद ने तैयार की थी।
स्वामी तोतापुरी विरजानंद सरस्वती के एक समकालीन महात्मा थे। उनके शिष्य श्री रामकृष्ण परमहंस ने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप को पुनः स्थापित किया तथा उसकी संकीर्णता का निवारण किया। उनकी प्रेरणा से अनेक धार्मिक, शैक्षणिक और धर्मादा संस्थाएं स्थापित हुईं। उनके धर्म-प्रचारकों में सर्वाधिक ख्याति स्वामी विवेकानंद को प्राप्त हुई। विश्व भ्रमण कर अपनी विद्वता की धाक जमा दी। धर्म का सार्वभौम स्वरूप भी उनके प्रवचनों एवं श्री अरविंद के उपदेशों से पुनः व्यक्त हुआ।
इस प्रकार श्री शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय की परम्परा सतत सक्रिय रही।
इस प्रकार श्री शंकराचार्य सर्व काल के एक महान् धार्मिक नेता के रूप में जिये और मरे। वे एक प्रेरित आदर्श संन्यासी, दार्शनिक, धार्मिक सुधारक तथा सामाजिक एवं नैतिक संगठन थे, जिसने सब पर अपने व्यक्तित्व एवं शिक्षाओं की छाप छोड़ी तथा हिंदुत्व को एक नया जीवन और नई दिशा प्रदान की। उन्होंने 32 वर्ष के अपने संक्षिप्त जीवन में एक महानतम मानवीय संगठन निर्मित कर दिया। उन्होंने मानव जाति को शिक्षा दी कि अस्तित्व की अपेक्षा यह है कि मानव भौतिक आवश्यकताओं से ऊपर उठे तथा क्रमिक पग एवं सजग आत्मानुशासन के द्वारा सर्वोच्च तृप्ति अर्थात् जीवन में पूर्ण साक्षात्कार का अनुपम अनुभव प्राप्त करे।