
भारतीय परंपरा के आधुनिक ऋषि- डॉ. राधाकृष्णन
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सन् 1947 में डॉ. राधाकृष्णन ने भगवद्गीता पर एक अद्वितीय टीका लिखी। पुस्तक को प्रेस में देने से पूर्व उन्होंने यह निश्चय किया कि यह ग्रन्थ धर्म, अध्यात्म और राजनीति के संगम व्यक्तित्व वाले महात्मा गांधी को समर्पित की जाय। समर्पण के लिए उन्होंने गांधी जी से अनुमति लेना भी आवश्यक समझा और पुस्तक लेकर पहुंचे उनके पास महात्मा गांधी ने भगवद्गीता पर लिखा गया ग्रन्थ देखे बिना ही कहा—मेरा विश्वास है कि आपने कोई अयुक्त बात नहीं लिखी होगी। लेकिन इसके लिए अनुमति लेने आये हैं तो मैं चाहता हूं कि आप मेरी कुछ जिज्ञासाओं का समाधान करें।
डॉक्टर साहब गांधीजी के मुख से ये वचन सुन कर जरा संकोच में पड़ने लगे। ऐसा देख कर बापू ने कहा—देखिये! आप संकोच मत कीजिए। दर-असल इस समय में अर्जुन की भूमिका में हूं और आप कृष्ण की तरह दिखाई दे रहे हैं। मेरी इन जिज्ञासाओं का समाधान आप ही कर सकते हैं।
किसी तरह डॉक्टर साहब गांधीजी की जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए तैयार हुए। और फिर दोनों में चर्चायें चलीं। डॉक्टर साहब के उत्तरों से गांधी जी संतुष्ट हुए और उन्होंने भगवद्गीता पर लिखा गया ग्रन्थ सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवद्गीता भाष्य से पूर्व भी उनकी अनेकों कृतियां प्रकाशित हो चुकी थीं। उन कृतियों ने केवल भारतीय बौद्धिक प्रतिभावों को ही सन्तुष्ट नहीं किया वरन् विदेशों में भी भारतीय दर्शन का ऐसा डंका बजाया कि विद्वान् और दार्शनिक बुद्धिजीवी सभी हतप्रभ रह गये।
उन्होंने भारतीय विचार भूमि पर खड़े होकर विश्व के सम्मुख भारतीय समतावाद को उद्घाटित किया। इस दृष्टि से उन्होंने न केवल दर्शन को एक नयी दिशा दी वरन् अशान्त विश्व को शान्ति का मार्ग दिखाने का प्रयत्न किया—एक विख्यात पत्रकार द्वारा कहे गये ये शब्द उनके कृतित्व की चिन्मय झांकी प्रस्तुत करते हैं। एक दार्शनिक के रूप में एक अध्यापक के रूप में, एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में और एक राजनेता के रूप में वे इस महान विभूतियों में सिरमौर कहे जा सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के बाद भारतीय दर्शन की कीर्ति पताका विश्व भर में फहराने वाला कोई व्यक्तित्व खोजा जाय तो अनायास ही दृष्टि डॉक्टर राधाकृष्णन की ओर केन्द्रित हो जाती है।
मद्रास शहर से चालीस मील दूर तिरुत्तरी गांव है। उसी गांव में उनके पूर्वज सर्वपल्लि से चलकर आये थे। चूंकि उनका पेशा पुरोहिताई था, सर्वपल्लि में इस पेशे से ठीक प्रकार निर्वाह नहीं हो पाता था इसलिए उनके पूर्वज आजीविका की खोज में तिरुपति की ओर चल दिये। तिरुपति से कुछ ही दूर इस गांव में आकर वे ठहर गये इसी ब्राह्मण वेश में वीर स्वामी उच्या पुरोहिताई के साथ अध्यापक का कार्य करते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने उनके परिवार में पुत्र बनकर 5 सितम्बर 1888 ई. को जन्म लिया।
कहा जा चुका है कि डॉ. राधाकृष्णन के पूर्वज आजीविका की खोज में सर्वपल्लि से चल कर तिरुत्तरी आये थे और वहीं बस गये थे। वहां उन्हें निर्वाहोपयोगी आवश्यक उपार्जन होने लगा। सन्तोषी ब्राह्मण परिवार ने और अधिक की आकांक्षा ले कर दौड़ न लगाई, जो मिला उसी में सन्तोष कर लिया। और इसी कारण उनका परिवार सम्पन्न और धनवान तो नहीं हो सका लेकिन अभावग्रस्त और सर्वथा निर्धन भी नहीं रहा।
बारह वर्ष की आयु तक वे अपने गांव में ही रहे। धर्मशास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान पिता के सान्निध्य में रहकर अक्षर ज्ञान प्राप्त किया तथा शास्त्रों का अध्ययन भी। परिवार ने उन्हें भले ही कोई भौतिक सम्पदा न दी हो, परन्तु धर्म, निष्ठा, जिज्ञासा, ईश्वर अनुरक्ति तथा धर्मानुराग की जो भावनायें विरासत में दीं वे ही उन्हें एक सामान्य बालक से महान् दार्शनिक और आदर्श राष्ट्रपति तक पहुंचा सकीं। वीरस्वामी अपने पुत्र को आवश्यक शास्त्राभ्यास और अक्षर ज्ञान प्राप्त करने के बाद आगे की शिक्षा का प्रबन्ध करने लगे। उन्हीं दिनों श्री वीर स्वामी ईसाई मिशनरियों के संपर्क में आये। मिशनरियों द्वारा चलाई जाने वाली पाठशालाओं और शिक्षालयों में प्रवेश दिलाना उन्होंने उपयुक्त समझा। इसका एक कारण यह भी था कि राधाकृष्णन भारतीय धर्म शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ ईसाई धर्म और पाश्चात्य जीवन दर्शन का परिचय भी प्राप्त कर सकें।
वैल्लौर के वूरहीज कॉलेज में एफ. ए. की शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद वे मद्रास आये और वहां के क्रिश्चियन कॉलेज में भरती रहे। उन दिनों ईसाई शिक्षण संस्थाओं का एक मात्र उद्देश्य था छात्रों के मन में हिन्दू धर्म तथा भारतीय संस्कृति के प्रति घृणा वितृष्णा उपजाना तथा ईसाई धर्म और पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगना था। राधाकृष्णन जी के सामने भी ऐसी परिस्थितियां आई जब उनकी आस्थाओं पर चोट पहुंचती परन्तु उनका व्यक्तित्व उस पक्की मूर्ति के समान बन गया था जो कितनी ही आंधियां और कितनी ही तूफान आने पर भी निखरती है।
इन परिस्थितियों के साथ डॉक्टर राधाकृष्णन को आर्थिक समस्याओं ने भी परेशान रखा। बाहर का निवास शहर का खर्च और महंगी शिक्षा तथा परिवार की आर्थिक स्थिति में कहीं तालमेल नहीं बैठ रहा था, परन्तु उन्होंने फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए शिक्षा और ज्ञान साधना को भी एक पवित्र तपश्चर्या बना लिया। वो अपने से नीची कक्षाओं के छात्रों को ट्यूशन पर पढ़ाते। उन्हीं दिनों मद्रास में स्वामी विवेकानन्द का आगमन हुआ। उनके प्रवचनों ने युवक राधाकृष्णन को बड़ा प्रभावित किया और धर्म के प्रति उनकी निष्ठा जिज्ञासा व विचार पूर्ण हो गये। स्वामी विवेकानन्द के प्रवचनों का प्रभाव स्वीकार करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है—‘‘उनके अद्भुत साहस और अद्भुत वाग्मिता ने हिंदू धर्म के प्रति मेरे उस अभिभाव को जागृत किया जिस पर ईसाई मिशनरियों द्वारा बार-बार आघात किया जा रहा था।
स्वामी विवेकानन्द से ही प्रभावित हो कर उन्होंने बी. ए. के बाद भी दर्शन शास्त्र ही लिया। एम. ए. में शोध विषय के लिए उन्होंने वेदान्त को चुना और इस विषय पर उच्च कोटि का शोध निबन्ध लिख कर एम. ए. पास किया। जिस समय उन्होंने एम. ए. पास किया तब उनकी आयु मात्र 20 वर्ष की थी। इस निबन्ध को देख कर उनके अध्यापक श्री ए. जी. हाग ने अलग से एक प्रमाण पत्र भी दिया था।
उसी वर्ष सन् 1908 में उनकी नियुक्ति मद्रास प्रेसिडेन्ट कॉलेज में हो गयी। वे तर्कशास्त्र के उपाध्याय (असि. प्रोफेसर) बन कर छात्रों को यह विषय पढ़ाने लगे। पढ़ाने के साथ-साथ पढ़ने का क्रम भी जारी रहा—उन्होंने अपनी एक मंजिल बना ली थी-विश्व में भारतीय तत्वदर्शन का परिचय देना। यह लक्ष्य उन्होंने उसी समय निर्धारित कर लिया था जब वे शैशवा से किशोरावस्था को पार कर ही रहे थे। उस समय क्रिश्चयन मिशन के स्कूल कॉलेजों में हिन्दू धार्मिक धारणाओं तथा आस्थाओं पर आक्षेप तथा कुठाराघात किये जाते। सुनकर डॉक्टर राधाकृष्णन का हृदय दहल उठता था। यथावस्था वे अध्यापकों द्वारा किये गये प्रश्नों के समुचित उत्तर भी देते—उन उत्तरों को सुन कर अध्यापकों के मुंह बन्द हो जाते। परन्तु इससे क्या असर पड़ना था। समूची शिक्षण व्यवस्था ही हिन्दू आस्थाओं की जड़े खोदने के लिए विनिर्मित की गई थी। एक कॉलेज—एक कक्षा से—एक अकेले छात्र का प्रतिकार कोई विशेष प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता था। लेकिन इस वातावरण ने डॉ. राधाकृष्णन के हृदय में हिन्दू धर्म और भारतीय तत्वदर्शन के प्रति अटूट आस्थाएं तो जागृत कर ही दीं और वे कृत संकल्प हो उठे—उन आस्थाओं को साकार रूप देने के लिए।
मद्रास प्रेसिडेन्टी कॉलेज से डॉ. राधाकृष्णन ने ऐसी व्याख्यान शैली अपनायी कि कक्षाओं में आवारा कहे जाने वाले—प्रायः अनुपस्थित रहने वाले छात्र भी नियत रूप से कक्षाओं में देखे जाने लगे। उनके व्याख्यान प्रभावोत्पादक वाग्धारा में तो बहते ही थे, शब्दों के यथोचित समन्वय श्रोताओं को विषय से सम्बन्धित अनेकानेक जानकारियां देते चलते। यह क्षमता समय, श्रम, और साहस की थी, और इसे अर्जित करने में युवा प्रोफेसर को धैर्य पूर्वक अनवरत अध्यवसाय करना पड़ा होगा।
डॉ. राधाकृष्णन अपनी क्षमताओं के सम्बन्ध में आश्वस्त थे—उनके प्रति आत्मविश्वास भी पर्याप्त अर्जित कर चुके थे। और उन क्षमताओं के विकास पर भी उनका पूरा ध्यान था। क्षमताओं के अर्जन पूर्वक वे अपनी शक्तियों का यथाचेष्टा लाभ अन्य औरों के उठाने देने के लिए भी कम सतर्क नहीं थे। यही कारण है कि उन्होंने अध्ययन के साथ-साथ कार्य भी आरम्भ किया 1918 और 1920 में क्रमशः उनकी दो कृतियां प्रकाशित हुई ‘दि फिलॉसफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर’ तथा ‘दि रीजन ऑफ रिलीजन इन कोरेम्पथेरी फिलॉसफी’। इन पुस्तकों के प्रकाशन ने डॉक्टर राधाकृष्णन की प्रतिभा का परिचय दिया पूर्वी तथा पाश्चात्य दर्शन—दोनों में उनकी गहरी पैठ और गहन अध्ययन का निचोड़ इन पुस्तकों में उद्भूत हुआ। विदेशों में उनकी ये कृतियां काफी पसन्द की गयीं।
1926 ई. में हैदराबाद विश्व विद्यालय द्वारा आयोजित विश्व दर्शन शास्त्र सम्मेलन में उन्हें आमंत्रित किया गया। वहां देश विदेश के कई दार्शनिक उपस्थित थे। डॉ. राधाकृष्णन के व्याख्यानों को सुन कर सब उनका लोहा मान गये। यही कारण था कि उन्हें शिकागो के हसकल कॉलेज में भाषण देने के लिए भी आमंत्रित किया। तब तक उनकी तीन चार कृतियां और प्रकाशित हुईं। इण्डियन फिलॉसफी, तथा ‘दि हिन्दू व्यू आफ लाइफ’ ने तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर का व्यक्ति बना दिया था। दि हिन्दू व्यू आफ लाइफ 1926 को ऑक्सफोर्ड के मेंचेस्टर कॉलेज में जीवन का हिन्दू दृष्टिकोण विषय पर दिये गये व्याख्यानों के लिए उन्हें विशेष आग्रह पूर्वक निमंत्रित किया था।
धोती और पगड़ी पहनने, अत्यन्त सादा वेश-भूषा और सरल रहन सहन रखने वाले डॉ. राधाकृष्णन जब मेंचेस्टर कॉलेज में व्याख्यान देने जाते तो अनायास ही स्वामी विवेकानन्द की विजय यात्रा का स्मरण हो आता है। यह भी उल्लेखनीय है कि उस जमाने में विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना बड़े गौरव की बात मानी जाती थी। लेकिन डॉ. राधाकृष्णन को ऐसा अवसर तो नहीं मिला। फिर भी उन्हें विदेशों में जाकर पढ़ाने का ऐसा अवसर प्राप्त हुआ। जिसके लिए वहां के बुद्धि जीवी और प्राध्यापक विद्वान सभी नतमस्तक हो उठे। व्याख्यान माला में उनके व्याख्यानों को सुन कर प्रख्यात पत्रकार डॉ. जेम्स ने अपने पत्र दि हर्बटजर्नल में लिखा था—‘‘भारत से बाहर हमारे विद्यालय में सर्वप्रथम व्याख्यान देकर आपने हमारा गौरव बढ़ाया है।’’
केम्ब्रिज विश्व विद्यालय में भी उनके व्याख्यान हुए। वहां के प्रतिपादनों को सुन कर बुद्धि जीवियों ने एक मत से यह स्वीकार किया था कि—‘‘प्रो. राधाकृष्णन का ज्ञान अत्यन्त गम्भीर और विस्तृत है। भारतीय और पश्चिमी दोनों दर्शनों के वे महा पण्डित हैं। राधाकृष्णन हिन्दू धर्म के सर्व समर्थक प्रसिद्ध विद्वान् हैं। हम लोगों को हिन्दू धर्म के विषय में उनसे ज्यादा अच्छे ढंग से अन्य कोई और नहीं बता सकता। इन्हीं दिनों डॉ. राधाकृष्णन आक्सफोर्ड के मेंचेस्टर कॉलेज में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का विभागाध्यक्ष बनाने के लिए भी पेशकश की गयी अमेरिका के तथा ब्रिटेन की विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देने के साथ डॉ. राधाकृष्णन चर्च और गिरजाघरों में भी बुलाये जाते। वे वहां जाते और धर्म तथा अध्यात्म के गहन आधार भूत तथ्यों का उद्घाटन करते। जर्मनी के कई विश्वविद्यालयों में भी उनकी व्याख्यान मालाएं चलीं। और विदेशों में भारत का एक नया गौरव मण्डित स्वरूप उजागर हुआ।’’
1918 तक वे विभिन्न विश्व विद्यालयों में उच्च पदों पर आसीन रहे। इस बीच उन्हें व्याख्यानों के लिए विदेशों से निमंत्रण मिलते थे। सन् 1913 से 35 तक वे आन्ध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। 1931 में ही वे इण्टर नेशनल इण्टैलैचुअ को ऑपरेशन कमेटी अन्तर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग समिति के सदस्य बने। यह समिति राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक सहयोग की स्थापना के लिए गठित की थी। इस समिति के सदस्य रहते हुए उनका परिचय कई विदेशी प्रतिभाओं से हुआ। प्रायः सभी लोक उनकी वाग्मिता और सहृदयता से प्रभावित होते थे।
वस्तुतः व्यवहार क्षेत्र में वाक् कौशल का ही प्रभाव नहीं होता वरन् प्रभाव तो उत्पन्न करती हैं व्यक्ति के हृदय में अपने उद्देश्यों के लिए कसक। डॉ. राधाकृष्णन का एक मात्र उद्देश्य था सन्तप्त मानवता को शान्ति की शीतलता प्रदान करना। इन उद्देश्य के लिए उनके हृदय में निरन्तर एक टीस सी उठा करती थी। इस टीस का प्रभाव कहना चाहिए कि लोह हृदय स्टालिन—हजारों खून जिसकी आंखों के सामने हो चुके थे—भी जब डॉ. राधाकृष्णन को रूस के राजदूत के रूप में विदा करने लगे तो उसकी भी आंखें नम उठीं।
वे 1949 से 52 रूस में भारत के राजदूत रहे थे। इससे पूर्व वे बनारस विश्वविद्यालय के मानद कुलपति तथा भारतीय विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष पदों को सुशोभित कर चुके थे। पीड़ित मानवता के प्रति वे इतने दुखित थे कि उस भावना ने उन्हें सर्वथा निर्भीक और स्पष्टवादी बना दिया था। यहां तक कि रूस के जनजीवन के सम्बन्ध में कई तथ्य बड़ी निर्भीकता के साथ रखे और अपनी सद्भावनायें भी प्रकट कीं। जिस समय राधाकृष्णन रूस से विदा होने लगे तो स्टालिन से उनकी अन्तिम मुलाकात का जिक्र करते हुए प्रत्यक्ष दर्शियों का कहना है कि स्टालिन की आंखें सूजी हुई और लाल थीं। राधाकृष्णन ने स्टालिन के गालों पर हाथ फेरा और उनकी पीठ को थपथपाया। स्टालिन ने कहा—‘आप पहले व्यक्ति हैं जिसने मुझे मनुष्य समझकर व्यवहार किया आप हम सबको छोड़ कर जा रहे हैं—इसका मुझे भारी दुख है।’’ यह कहते स्टालिन की आंखें सजल हो उठी थीं।
1959 में भारतीय संविधान के अधीन वयस्क मताधिकार के आधार पर पहला आम चुनाव हुआ। इसी वर्ष डॉ. राधाकृष्णन् निर्विरोध उपराष्ट्रपति चुने गये तथा बाबू राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति। पांच वर्ष बाद वे पुनः उपराष्ट्रपति चुने गये। 1962 में बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने रुग्णावस्था के कारण राष्ट्रपति पद से अवकाश ले लिया—और उनके स्थान पर डॉ. राधाकृष्णन् राष्ट्रपति बने। यद्यपि इससे पूर्व ही वे राष्ट्रपति का सारा काम काज सम्भालने लगे थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 1956 में ही भयंकर रूप से बीमार हो गये थे। उनकी अक्षमता की दशा में सारा काम काज डॉ. राधाकृष्णन् ही चलाते, यद्यपि वे रहे पुराने स्थान पर ही।
1962 में राष्ट्रपति होते ही देश पर चीनी आक्रमण हुआ। इस समय डॉ. राधाकृष्णन् को एक अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। इस अग्नि परीक्षा से गुजरने के बाद उन्होंने अफगानिस्तान, ईरान, अमेरिका, इंग्लैंड, सोवियत रूस और आयरलैण्ड की यात्रायें की और ये यात्रायें पर्याप्त सफल रहीं। डॉ. राधाकृष्णन् का राष्ट्रपतित्व काल निस्सन्देह रूप से अनेक चुनौतियों से घिरा हुआ था। चीनी आक्रमण, लज्जा-जनक पराजय, जनता पर सरकार का क्षीण होता प्रभाव शासन तंत्र की फूट देश के विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ते उत्पात आदि कई समस्यायें खड़ी हुईं लेकिन डॉ. राधाकृष्णन् ने बड़े धैर्य पूर्वक उन समस्याओं से उभरने के भरसक प्रयत्न किये।
1967 में डॉ. राधाकृष्णन् ने पुनः राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने से इन्कार कर दिया। वे भारतीय राजनिति और व्यवस्था से क्षुब्ध हो उठे थे। उनकी यह व्यथा 25 फरवरी 1967 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में व्यक्त हुए हैं लेकिन वे फिर भी हताश नहीं हुए। उन्होंने आशा व्यक्त की कि—‘‘वर्तमान संकट का सामना करने के लिए पूर्ण अन्तिम परिवर्तन अनिवार्य है। हमें आवश्यकता है ऐसे नैतिक जागरण की, जिससे अधिक से अधिक लोगों का सहयोग हम प्राप्त कर सकें।
भारतीय राजनीति से संन्यास लेने के बाद वे अपने घर—मद्रास ही रहने लगे। जीवन के अन्तिम दिनों में उनका हृदय देश में घटने वाली घटनाओं के बारे में सुन कर रो उठा था। 17 अप्रैल 1975 को पक्षाघात से उनका देहान्त हो गया। वे भले ही न रहे हों परन्तु मानवता के लिए उनकी सेवायें भारतीय संस्कृति का तुमुल घोष और उनका चिन्तन साहित्य उन्हें अमर बनाये रहने में समर्थ है।
डॉक्टर साहब गांधीजी के मुख से ये वचन सुन कर जरा संकोच में पड़ने लगे। ऐसा देख कर बापू ने कहा—देखिये! आप संकोच मत कीजिए। दर-असल इस समय में अर्जुन की भूमिका में हूं और आप कृष्ण की तरह दिखाई दे रहे हैं। मेरी इन जिज्ञासाओं का समाधान आप ही कर सकते हैं।
किसी तरह डॉक्टर साहब गांधीजी की जिज्ञासाओं का समाधान करने के लिए तैयार हुए। और फिर दोनों में चर्चायें चलीं। डॉक्टर साहब के उत्तरों से गांधी जी संतुष्ट हुए और उन्होंने भगवद्गीता पर लिखा गया ग्रन्थ सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवद्गीता भाष्य से पूर्व भी उनकी अनेकों कृतियां प्रकाशित हो चुकी थीं। उन कृतियों ने केवल भारतीय बौद्धिक प्रतिभावों को ही सन्तुष्ट नहीं किया वरन् विदेशों में भी भारतीय दर्शन का ऐसा डंका बजाया कि विद्वान् और दार्शनिक बुद्धिजीवी सभी हतप्रभ रह गये।
उन्होंने भारतीय विचार भूमि पर खड़े होकर विश्व के सम्मुख भारतीय समतावाद को उद्घाटित किया। इस दृष्टि से उन्होंने न केवल दर्शन को एक नयी दिशा दी वरन् अशान्त विश्व को शान्ति का मार्ग दिखाने का प्रयत्न किया—एक विख्यात पत्रकार द्वारा कहे गये ये शब्द उनके कृतित्व की चिन्मय झांकी प्रस्तुत करते हैं। एक दार्शनिक के रूप में एक अध्यापक के रूप में, एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में और एक राजनेता के रूप में वे इस महान विभूतियों में सिरमौर कहे जा सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के बाद भारतीय दर्शन की कीर्ति पताका विश्व भर में फहराने वाला कोई व्यक्तित्व खोजा जाय तो अनायास ही दृष्टि डॉक्टर राधाकृष्णन की ओर केन्द्रित हो जाती है।
मद्रास शहर से चालीस मील दूर तिरुत्तरी गांव है। उसी गांव में उनके पूर्वज सर्वपल्लि से चलकर आये थे। चूंकि उनका पेशा पुरोहिताई था, सर्वपल्लि में इस पेशे से ठीक प्रकार निर्वाह नहीं हो पाता था इसलिए उनके पूर्वज आजीविका की खोज में तिरुपति की ओर चल दिये। तिरुपति से कुछ ही दूर इस गांव में आकर वे ठहर गये इसी ब्राह्मण वेश में वीर स्वामी उच्या पुरोहिताई के साथ अध्यापक का कार्य करते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने उनके परिवार में पुत्र बनकर 5 सितम्बर 1888 ई. को जन्म लिया।
कहा जा चुका है कि डॉ. राधाकृष्णन के पूर्वज आजीविका की खोज में सर्वपल्लि से चल कर तिरुत्तरी आये थे और वहीं बस गये थे। वहां उन्हें निर्वाहोपयोगी आवश्यक उपार्जन होने लगा। सन्तोषी ब्राह्मण परिवार ने और अधिक की आकांक्षा ले कर दौड़ न लगाई, जो मिला उसी में सन्तोष कर लिया। और इसी कारण उनका परिवार सम्पन्न और धनवान तो नहीं हो सका लेकिन अभावग्रस्त और सर्वथा निर्धन भी नहीं रहा।
बारह वर्ष की आयु तक वे अपने गांव में ही रहे। धर्मशास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान पिता के सान्निध्य में रहकर अक्षर ज्ञान प्राप्त किया तथा शास्त्रों का अध्ययन भी। परिवार ने उन्हें भले ही कोई भौतिक सम्पदा न दी हो, परन्तु धर्म, निष्ठा, जिज्ञासा, ईश्वर अनुरक्ति तथा धर्मानुराग की जो भावनायें विरासत में दीं वे ही उन्हें एक सामान्य बालक से महान् दार्शनिक और आदर्श राष्ट्रपति तक पहुंचा सकीं। वीरस्वामी अपने पुत्र को आवश्यक शास्त्राभ्यास और अक्षर ज्ञान प्राप्त करने के बाद आगे की शिक्षा का प्रबन्ध करने लगे। उन्हीं दिनों श्री वीर स्वामी ईसाई मिशनरियों के संपर्क में आये। मिशनरियों द्वारा चलाई जाने वाली पाठशालाओं और शिक्षालयों में प्रवेश दिलाना उन्होंने उपयुक्त समझा। इसका एक कारण यह भी था कि राधाकृष्णन भारतीय धर्म शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ ईसाई धर्म और पाश्चात्य जीवन दर्शन का परिचय भी प्राप्त कर सकें।
वैल्लौर के वूरहीज कॉलेज में एफ. ए. की शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद वे मद्रास आये और वहां के क्रिश्चियन कॉलेज में भरती रहे। उन दिनों ईसाई शिक्षण संस्थाओं का एक मात्र उद्देश्य था छात्रों के मन में हिन्दू धर्म तथा भारतीय संस्कृति के प्रति घृणा वितृष्णा उपजाना तथा ईसाई धर्म और पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगना था। राधाकृष्णन जी के सामने भी ऐसी परिस्थितियां आई जब उनकी आस्थाओं पर चोट पहुंचती परन्तु उनका व्यक्तित्व उस पक्की मूर्ति के समान बन गया था जो कितनी ही आंधियां और कितनी ही तूफान आने पर भी निखरती है।
इन परिस्थितियों के साथ डॉक्टर राधाकृष्णन को आर्थिक समस्याओं ने भी परेशान रखा। बाहर का निवास शहर का खर्च और महंगी शिक्षा तथा परिवार की आर्थिक स्थिति में कहीं तालमेल नहीं बैठ रहा था, परन्तु उन्होंने फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए शिक्षा और ज्ञान साधना को भी एक पवित्र तपश्चर्या बना लिया। वो अपने से नीची कक्षाओं के छात्रों को ट्यूशन पर पढ़ाते। उन्हीं दिनों मद्रास में स्वामी विवेकानन्द का आगमन हुआ। उनके प्रवचनों ने युवक राधाकृष्णन को बड़ा प्रभावित किया और धर्म के प्रति उनकी निष्ठा जिज्ञासा व विचार पूर्ण हो गये। स्वामी विवेकानन्द के प्रवचनों का प्रभाव स्वीकार करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है—‘‘उनके अद्भुत साहस और अद्भुत वाग्मिता ने हिंदू धर्म के प्रति मेरे उस अभिभाव को जागृत किया जिस पर ईसाई मिशनरियों द्वारा बार-बार आघात किया जा रहा था।
स्वामी विवेकानन्द से ही प्रभावित हो कर उन्होंने बी. ए. के बाद भी दर्शन शास्त्र ही लिया। एम. ए. में शोध विषय के लिए उन्होंने वेदान्त को चुना और इस विषय पर उच्च कोटि का शोध निबन्ध लिख कर एम. ए. पास किया। जिस समय उन्होंने एम. ए. पास किया तब उनकी आयु मात्र 20 वर्ष की थी। इस निबन्ध को देख कर उनके अध्यापक श्री ए. जी. हाग ने अलग से एक प्रमाण पत्र भी दिया था।
उसी वर्ष सन् 1908 में उनकी नियुक्ति मद्रास प्रेसिडेन्ट कॉलेज में हो गयी। वे तर्कशास्त्र के उपाध्याय (असि. प्रोफेसर) बन कर छात्रों को यह विषय पढ़ाने लगे। पढ़ाने के साथ-साथ पढ़ने का क्रम भी जारी रहा—उन्होंने अपनी एक मंजिल बना ली थी-विश्व में भारतीय तत्वदर्शन का परिचय देना। यह लक्ष्य उन्होंने उसी समय निर्धारित कर लिया था जब वे शैशवा से किशोरावस्था को पार कर ही रहे थे। उस समय क्रिश्चयन मिशन के स्कूल कॉलेजों में हिन्दू धार्मिक धारणाओं तथा आस्थाओं पर आक्षेप तथा कुठाराघात किये जाते। सुनकर डॉक्टर राधाकृष्णन का हृदय दहल उठता था। यथावस्था वे अध्यापकों द्वारा किये गये प्रश्नों के समुचित उत्तर भी देते—उन उत्तरों को सुन कर अध्यापकों के मुंह बन्द हो जाते। परन्तु इससे क्या असर पड़ना था। समूची शिक्षण व्यवस्था ही हिन्दू आस्थाओं की जड़े खोदने के लिए विनिर्मित की गई थी। एक कॉलेज—एक कक्षा से—एक अकेले छात्र का प्रतिकार कोई विशेष प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता था। लेकिन इस वातावरण ने डॉ. राधाकृष्णन के हृदय में हिन्दू धर्म और भारतीय तत्वदर्शन के प्रति अटूट आस्थाएं तो जागृत कर ही दीं और वे कृत संकल्प हो उठे—उन आस्थाओं को साकार रूप देने के लिए।
मद्रास प्रेसिडेन्टी कॉलेज से डॉ. राधाकृष्णन ने ऐसी व्याख्यान शैली अपनायी कि कक्षाओं में आवारा कहे जाने वाले—प्रायः अनुपस्थित रहने वाले छात्र भी नियत रूप से कक्षाओं में देखे जाने लगे। उनके व्याख्यान प्रभावोत्पादक वाग्धारा में तो बहते ही थे, शब्दों के यथोचित समन्वय श्रोताओं को विषय से सम्बन्धित अनेकानेक जानकारियां देते चलते। यह क्षमता समय, श्रम, और साहस की थी, और इसे अर्जित करने में युवा प्रोफेसर को धैर्य पूर्वक अनवरत अध्यवसाय करना पड़ा होगा।
डॉ. राधाकृष्णन अपनी क्षमताओं के सम्बन्ध में आश्वस्त थे—उनके प्रति आत्मविश्वास भी पर्याप्त अर्जित कर चुके थे। और उन क्षमताओं के विकास पर भी उनका पूरा ध्यान था। क्षमताओं के अर्जन पूर्वक वे अपनी शक्तियों का यथाचेष्टा लाभ अन्य औरों के उठाने देने के लिए भी कम सतर्क नहीं थे। यही कारण है कि उन्होंने अध्ययन के साथ-साथ कार्य भी आरम्भ किया 1918 और 1920 में क्रमशः उनकी दो कृतियां प्रकाशित हुई ‘दि फिलॉसफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर’ तथा ‘दि रीजन ऑफ रिलीजन इन कोरेम्पथेरी फिलॉसफी’। इन पुस्तकों के प्रकाशन ने डॉक्टर राधाकृष्णन की प्रतिभा का परिचय दिया पूर्वी तथा पाश्चात्य दर्शन—दोनों में उनकी गहरी पैठ और गहन अध्ययन का निचोड़ इन पुस्तकों में उद्भूत हुआ। विदेशों में उनकी ये कृतियां काफी पसन्द की गयीं।
1926 ई. में हैदराबाद विश्व विद्यालय द्वारा आयोजित विश्व दर्शन शास्त्र सम्मेलन में उन्हें आमंत्रित किया गया। वहां देश विदेश के कई दार्शनिक उपस्थित थे। डॉ. राधाकृष्णन के व्याख्यानों को सुन कर सब उनका लोहा मान गये। यही कारण था कि उन्हें शिकागो के हसकल कॉलेज में भाषण देने के लिए भी आमंत्रित किया। तब तक उनकी तीन चार कृतियां और प्रकाशित हुईं। इण्डियन फिलॉसफी, तथा ‘दि हिन्दू व्यू आफ लाइफ’ ने तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर का व्यक्ति बना दिया था। दि हिन्दू व्यू आफ लाइफ 1926 को ऑक्सफोर्ड के मेंचेस्टर कॉलेज में जीवन का हिन्दू दृष्टिकोण विषय पर दिये गये व्याख्यानों के लिए उन्हें विशेष आग्रह पूर्वक निमंत्रित किया था।
धोती और पगड़ी पहनने, अत्यन्त सादा वेश-भूषा और सरल रहन सहन रखने वाले डॉ. राधाकृष्णन जब मेंचेस्टर कॉलेज में व्याख्यान देने जाते तो अनायास ही स्वामी विवेकानन्द की विजय यात्रा का स्मरण हो आता है। यह भी उल्लेखनीय है कि उस जमाने में विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना बड़े गौरव की बात मानी जाती थी। लेकिन डॉ. राधाकृष्णन को ऐसा अवसर तो नहीं मिला। फिर भी उन्हें विदेशों में जाकर पढ़ाने का ऐसा अवसर प्राप्त हुआ। जिसके लिए वहां के बुद्धि जीवी और प्राध्यापक विद्वान सभी नतमस्तक हो उठे। व्याख्यान माला में उनके व्याख्यानों को सुन कर प्रख्यात पत्रकार डॉ. जेम्स ने अपने पत्र दि हर्बटजर्नल में लिखा था—‘‘भारत से बाहर हमारे विद्यालय में सर्वप्रथम व्याख्यान देकर आपने हमारा गौरव बढ़ाया है।’’
केम्ब्रिज विश्व विद्यालय में भी उनके व्याख्यान हुए। वहां के प्रतिपादनों को सुन कर बुद्धि जीवियों ने एक मत से यह स्वीकार किया था कि—‘‘प्रो. राधाकृष्णन का ज्ञान अत्यन्त गम्भीर और विस्तृत है। भारतीय और पश्चिमी दोनों दर्शनों के वे महा पण्डित हैं। राधाकृष्णन हिन्दू धर्म के सर्व समर्थक प्रसिद्ध विद्वान् हैं। हम लोगों को हिन्दू धर्म के विषय में उनसे ज्यादा अच्छे ढंग से अन्य कोई और नहीं बता सकता। इन्हीं दिनों डॉ. राधाकृष्णन आक्सफोर्ड के मेंचेस्टर कॉलेज में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का विभागाध्यक्ष बनाने के लिए भी पेशकश की गयी अमेरिका के तथा ब्रिटेन की विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देने के साथ डॉ. राधाकृष्णन चर्च और गिरजाघरों में भी बुलाये जाते। वे वहां जाते और धर्म तथा अध्यात्म के गहन आधार भूत तथ्यों का उद्घाटन करते। जर्मनी के कई विश्वविद्यालयों में भी उनकी व्याख्यान मालाएं चलीं। और विदेशों में भारत का एक नया गौरव मण्डित स्वरूप उजागर हुआ।’’
1918 तक वे विभिन्न विश्व विद्यालयों में उच्च पदों पर आसीन रहे। इस बीच उन्हें व्याख्यानों के लिए विदेशों से निमंत्रण मिलते थे। सन् 1913 से 35 तक वे आन्ध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। 1931 में ही वे इण्टर नेशनल इण्टैलैचुअ को ऑपरेशन कमेटी अन्तर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग समिति के सदस्य बने। यह समिति राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक सहयोग की स्थापना के लिए गठित की थी। इस समिति के सदस्य रहते हुए उनका परिचय कई विदेशी प्रतिभाओं से हुआ। प्रायः सभी लोक उनकी वाग्मिता और सहृदयता से प्रभावित होते थे।
वस्तुतः व्यवहार क्षेत्र में वाक् कौशल का ही प्रभाव नहीं होता वरन् प्रभाव तो उत्पन्न करती हैं व्यक्ति के हृदय में अपने उद्देश्यों के लिए कसक। डॉ. राधाकृष्णन का एक मात्र उद्देश्य था सन्तप्त मानवता को शान्ति की शीतलता प्रदान करना। इन उद्देश्य के लिए उनके हृदय में निरन्तर एक टीस सी उठा करती थी। इस टीस का प्रभाव कहना चाहिए कि लोह हृदय स्टालिन—हजारों खून जिसकी आंखों के सामने हो चुके थे—भी जब डॉ. राधाकृष्णन को रूस के राजदूत के रूप में विदा करने लगे तो उसकी भी आंखें नम उठीं।
वे 1949 से 52 रूस में भारत के राजदूत रहे थे। इससे पूर्व वे बनारस विश्वविद्यालय के मानद कुलपति तथा भारतीय विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष पदों को सुशोभित कर चुके थे। पीड़ित मानवता के प्रति वे इतने दुखित थे कि उस भावना ने उन्हें सर्वथा निर्भीक और स्पष्टवादी बना दिया था। यहां तक कि रूस के जनजीवन के सम्बन्ध में कई तथ्य बड़ी निर्भीकता के साथ रखे और अपनी सद्भावनायें भी प्रकट कीं। जिस समय राधाकृष्णन रूस से विदा होने लगे तो स्टालिन से उनकी अन्तिम मुलाकात का जिक्र करते हुए प्रत्यक्ष दर्शियों का कहना है कि स्टालिन की आंखें सूजी हुई और लाल थीं। राधाकृष्णन ने स्टालिन के गालों पर हाथ फेरा और उनकी पीठ को थपथपाया। स्टालिन ने कहा—‘आप पहले व्यक्ति हैं जिसने मुझे मनुष्य समझकर व्यवहार किया आप हम सबको छोड़ कर जा रहे हैं—इसका मुझे भारी दुख है।’’ यह कहते स्टालिन की आंखें सजल हो उठी थीं।
1959 में भारतीय संविधान के अधीन वयस्क मताधिकार के आधार पर पहला आम चुनाव हुआ। इसी वर्ष डॉ. राधाकृष्णन् निर्विरोध उपराष्ट्रपति चुने गये तथा बाबू राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति। पांच वर्ष बाद वे पुनः उपराष्ट्रपति चुने गये। 1962 में बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने रुग्णावस्था के कारण राष्ट्रपति पद से अवकाश ले लिया—और उनके स्थान पर डॉ. राधाकृष्णन् राष्ट्रपति बने। यद्यपि इससे पूर्व ही वे राष्ट्रपति का सारा काम काज सम्भालने लगे थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 1956 में ही भयंकर रूप से बीमार हो गये थे। उनकी अक्षमता की दशा में सारा काम काज डॉ. राधाकृष्णन् ही चलाते, यद्यपि वे रहे पुराने स्थान पर ही।
1962 में राष्ट्रपति होते ही देश पर चीनी आक्रमण हुआ। इस समय डॉ. राधाकृष्णन् को एक अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। इस अग्नि परीक्षा से गुजरने के बाद उन्होंने अफगानिस्तान, ईरान, अमेरिका, इंग्लैंड, सोवियत रूस और आयरलैण्ड की यात्रायें की और ये यात्रायें पर्याप्त सफल रहीं। डॉ. राधाकृष्णन् का राष्ट्रपतित्व काल निस्सन्देह रूप से अनेक चुनौतियों से घिरा हुआ था। चीनी आक्रमण, लज्जा-जनक पराजय, जनता पर सरकार का क्षीण होता प्रभाव शासन तंत्र की फूट देश के विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ते उत्पात आदि कई समस्यायें खड़ी हुईं लेकिन डॉ. राधाकृष्णन् ने बड़े धैर्य पूर्वक उन समस्याओं से उभरने के भरसक प्रयत्न किये।
1967 में डॉ. राधाकृष्णन् ने पुनः राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने से इन्कार कर दिया। वे भारतीय राजनिति और व्यवस्था से क्षुब्ध हो उठे थे। उनकी यह व्यथा 25 फरवरी 1967 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में व्यक्त हुए हैं लेकिन वे फिर भी हताश नहीं हुए। उन्होंने आशा व्यक्त की कि—‘‘वर्तमान संकट का सामना करने के लिए पूर्ण अन्तिम परिवर्तन अनिवार्य है। हमें आवश्यकता है ऐसे नैतिक जागरण की, जिससे अधिक से अधिक लोगों का सहयोग हम प्राप्त कर सकें।
भारतीय राजनीति से संन्यास लेने के बाद वे अपने घर—मद्रास ही रहने लगे। जीवन के अन्तिम दिनों में उनका हृदय देश में घटने वाली घटनाओं के बारे में सुन कर रो उठा था। 17 अप्रैल 1975 को पक्षाघात से उनका देहान्त हो गया। वे भले ही न रहे हों परन्तु मानवता के लिए उनकी सेवायें भारतीय संस्कृति का तुमुल घोष और उनका चिन्तन साहित्य उन्हें अमर बनाये रहने में समर्थ है।