आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग १)
‘आलस्य एक घोर पाप है’—ऐसा सुनकर कितने ही आश्चर्य में पड़कर सोच सकते हैं क्या अजीब-सी बात है! भला आलस्य किस प्रकार पाप हो सकता है? पाप तो चोरी, डकैती, लूट-खसोट, विश्वासघात, हत्या, व्यभिचार आदि कुकर्म ही होते हैं। इनसे मनुष्य का नैतिक पतन होता है और वह धर्म से गिर जाता है। आलस्य किस प्रकार पाप माना जा सकता है? आलसी व्यक्ति तो चुपचाप एक स्थान पर पड़ा-पड़ा जिन्दगी के दिन काटा करता है। वह न तो अधिक काम ही करता है और न समाज में घुलता-मिलता है, इसलिये उससे पाप हो सकने की सम्भावना नहीं के समान ही नगण्य रहती है।
पाप क्या है? वह हर आचार-व्यवहार एवं विचार पाप ही है जिससे किसी को अनुचित रीति से शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट अथवा हानि हो। आत्म-हिंसा अथवा आत्म-हानि एक जघन्य-पाप कहा गया है। आलसी सबसे पहले इसी पाप का भागी होता है। मनुष्य को शरीररूपी धरोहर मिली हुई है। निष्क्रिय पड़ा रहकर आलसी इसे बरबाद किया करता है जबकि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई समझदार व्यक्ति उससे इस अपराध का उपालम्भ करता है तो वह बड़े दम्भ से यही कहता है कि शरीर उसका अपना है। रखता है या बर्बाद करता है—इस बात से किसी दूसरे का क्या सम्बन्ध हो सकता है?
आलसी का यह अहंकार स्वयं एक पाप है। उसका यह कथन उसकी अनधिकारिक अहमन्यता को घोषित करता है। शरीर किसी की अपनी संपत्ति नहीं। वह ईश्वर-प्रदत्त एक साधन है जो भव बन्धन में बँधी आत्मा को इस शरीर रूपी साधन को उद्देश्य-दिशा में उपभोग करने क कर्तव्य भर ही मिला है। उसे अपना समझने अथवा बरबाद करने का अधिकार किसी को नहीं है। आलसी निरन्तर इस अनधिकार चेष्टा को करता हुआ पाप करता है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 23
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