आत्मचिंतन के क्षण

जो अपनी पैतृक सम्पत्ति को जान लेता है, अपने वंश के गुण, ऐश्वर्य, शक्ति,सामर्थ्य आदि से पूर्ण परिचित हो जाता है, वह उसी उच्च परम्परा के अनुसार कार्य करता है, वैसा ही शुभ व्यवहार करता है, उसी उत्कृष्ट भूमि में निवास करता है। जब तक किसी को अपने शील गुण और वंश का ज्ञान नहीं होता, तभी तक वह दीन स्थिति में रहता है।
ईश्वर हमको पिता होने के कारण कभी नहीं भूलता, हम ही उनको मूढ़तावश भूल बैठते हैं, यही दुःख का कारण है। वह पानी जैसी चीजों में रस की तरह है, सूर्य और चन्द्र में प्रकाश है, वेदों में ॐ है, आकाश में विस्तार है, मनुष्य में उनकी हिम्मत है, जमीन में खुशबू की तरह है, आग में उसकी दमक है और तपस्वियों में उनका तप है।
गीता के शब्दों में, “जो मुझे (ईश्वर को) सब जगह और सब चीजों को मेरे अन्दर देखता है, वह न कभी मुझसे पृथक होता है और न मैं उससे पृथक होता हूँ” जो मनुष्य एक मन एकाग्र होकर जानदारों के अन्दर सब घर में रहने वाले ईश्वर की पूजा करता है, वह योगी चाहे कहीं भी हो ईश्वर के अन्दर है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
Recent Post
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 90): शान्तिकुञ्ज में गायत्री तीर्थ की स्थापना
मथ...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 89): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
हरिद्वार रहकर हमें क्या करना है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? यह हमें ऊपर बताए निर्देशों के अनुसार हमसे विस्तारपूर्वक बता दिया गया। सभी बातें ...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 88): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
&l...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 87): तीसरी हिमालययात्रा— ऋषिपरंपरा का बीजारोपण
&n...
.jpg)
.jpg)
.gif)


