गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 6)
किसी भी कार्य को उपयुक्त विधि-विधान के साथ किया जाय, तो यह उत्तम ही है। इसमें शोभा भी है, सफलता की सम्भावनाएँ भी हैं। चूक से यदि अपेक्षित लाभ नहीं मिलता तो किसी प्रकार के विपरीत प्रतिफल की या उल्टा- अशुभ होने की कोई आशंका नहीं है। पूजा-उपासना कृत्यों पर, विशेषकर गायत्री उपासना पर भी यह बात लागू होती है। भगवान सदैव सत्कर्मों का सत्परिणाम देने वाली सन्तुलित विधि-व्यवस्था को ही कहा जाता रहा है। दुष्परिणाम तो दुष्कृतों के निकलते हैं। यदि उपासना में भी चिन्तन और कृत्य को भ्रष्ट और बाह्योपचार को प्रधानता दी जाती रही तो प्रतिफल उस चिन्तन की दुष्टता के ही मिलेंगे। उन्हें बाह्योपचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इन्हीं उपचारों में मुँह से जप लेना, जल्दी-जल्दी या उँघते-उँघते माला घुमा लेना, किसी तरह संख्या पूरी कर लेना, मात्र कृत्य तक ही सीमित रहना भी आता है। इतना अन्तर तो सभी को समझना चाहिए और तथ्यों को भली-भाँति हृदयंगम करना चाहिए। उपासना यदि लाभ न दे तो नुकसान भी कभी नहीं पहुँचाती।
गीता में भगवान ने कहा है-
“नेहाभिक्रम नाशोस्ति प्रत्ययवयो न विद्यते।
स्वल्प मप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो मयात्।”
(40, अध्याय 2 गीता)
अर्थात्- “इस मार्ग (भक्ति उपासना) पर कदम बढ़ाने वाले का भी पथ अवरुद्ध नहीं होता। उल्टा परिणाम भी नहीं निकलता। थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर भी भय से त्राण ही मिलता है।”
वस्तुतः गायत्री के तीन पक्ष हैं। एक उपासनात्मक कर्मकाण्ड। दूसरा- धर्मधारणा का अनुशासन। तीसरा उत्कृष्टता का पक्षधर तत्व दर्शन। इन तीनों ही क्षेत्रों का अपना-अपना महत्व है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों से शरीर और मनःक्षेत्र में सन्निहित दिव्य शक्तियों को उभारा जाता है। इस मन्त्र में सार्वभौम धर्म के सभी तथ्य विद्यमान हैं। इसे संसार का सबसे छोटा किन्तु समग्र धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। गायत्री के शब्दों और अक्षरों में वे संकेत भरे पड़े हैं जो दृष्टिकोण और व्यवहार में उदार शालीनता का समावेश कर सकें।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 47
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