गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 2)
हर धर्म का एक प्रतीक बीज मन्त्र होता है। इस्लाम में कलमा, ईसाई में वपतिस्मा, जैन धर्म में नमोंकार मन्त्र आदि का प्रचलन है। भारतीय धर्म का आस्था केन्द्र- गायत्री को माना गया है। इसे इसके अर्थ की विशिष्टता- सन्निहित प्रेरणा के कारण विश्व आचार संहिता का प्राण तक माना जा सकता है। वेदों की सार्वभौम शिक्षा लगभग सभी धर्म सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुई है।
गायत्री रूपी बीज के तने, पल्लव ही वेद शास्त्रों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इसी कारण उसे ‘वेदमाता’ कहा गया है। वेदमाता अर्थात् सद्ज्ञान की गंगोत्री। इसे देवमाता कहा गया है- अर्थात् जनमानस में देवत्व का अभिवर्धन करने वाली। विश्वमाता भी इसे कहते हैं अर्थात् “वसुधैव कुटुम्बकम्” के तत्व दर्शन तथा नीति-निर्धारण का पोषण करने वाली। ये विशेषण इसकी प्रमुखता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
एक अन्य चर्चा इस उपासना के सम्बन्ध में की जाती है कि गायत्री मन्त्र गुप्त है। इसका उच्चारण निषिद्ध है। यह प्रचार वर्ण के नाम पर स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले धर्म मंच के दिग्गजों ने अधिक किया है। विशेषकर दक्षिण भारत में यह भ्रान्ति तो सर्वाधिक है। वस्तुतः गुप्त तो मात्र दुरभि सन्धियों को रखा जाता है। श्रेष्ठ निर्धारणों को खुले में कहने में कोई हर्ज नहीं।
गायत्री में सदाशयता की रचनात्मक स्थापनाएँ हैं। उन्हें जानने-समझने का सबको समान अधिकार है ऐसे पवित्र प्रेरणायुक्त उपदेश को उच्चारणपूर्वक कहने-सुनने में भला क्या हानि हो सकती है? पर्दे के पीछे व्यभिचार, अनाचार जैसे कुकर्म ही किये जाते हैं। षड्यन्त्रों में काना-फूसी होती है। किसी को पता न चलने देने की बात वहीं सोची जाती है जहाँ कोई कुचक्र रचा गया हो। सद्ज्ञान का तो उच्च स्वर से उच्चारण होना चाहिए। कीर्तन-आरती जैसे धर्म कृत्यों में वैसा होता भी है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 46
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