जागृत हुई गाँव की सामूहिक शक्ति
यद्यपि मैंने कभी गुरुदेव के साक्षात् दर्शन नहीं किए और न ही दीक्षा ली। पर उनके साहित्य को पढ़कर क्रमशः उनके करीब आता चला गया। इन पुस्तकों के सहारे ही मैं वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की गहराई में उतर सका और इस आध्यात्मिक यात्रा के क्रम में मैंने आचार्यश्री का वरण गुरु के रूप में कर लिया। उन्हें गुरु मान लेने के बाद से मुझे सूक्ष्म जगत से कई तरह के संकेत मिलने लगे। इन्हीं संकेतों के आधार पर आचार्यश्री की पुस्तकों को लेकर मैंने एक पुस्तकालय की स्थापना की, जिसमें आज अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। पूज्य गुरुदेव ने स्वप्न में आकर मुझे लेखन कार्य के लिए प्रेरित किया। यह गुरुसत्ता की असीम अनुकम्पा का ही परिणाम है कि आज भी कृषि विज्ञान पर लिखी गयी मेरी पुस्तकों पर कृषि वैज्ञानिकों द्वारा शोध- कार्य किए जा रहे हैं। मेरे जीवन में पूज्य गुरुदेव के अनुदान की वर्षा इस प्रकार होती रही कि गाँव का एक साधारण- सा युवक होकर भी मैंने कई देशों की यात्रा सरकारी आमंत्रण पर की।
जीवन की छोटी- बड़ी अनेक विपत्तियों में मुझे पूज्य गुरुदेव का सहारा मिलता रहा। इन विपत्तियों के दौर में समाधान की ओर ले जाने वाले घटनाक्रम को देखकर यह बात साफ तौर से समझ में आ जाती थी कि यह समाधान किसी मानवीय प्रयासों से नहीं, अपितु सूक्ष्म चेतना के संरक्षण से मिला है।
इस तथ्य को मैंने पहली बार तब समझा, जब मेरे यहाँ डाका पड़ा। छोटी- मोटी चोरियाँ तो हमारे गाँव में हो जाया करती थीं लेकिन डकैती जैसे बड़ी वारदात से गाँव वाले उस वक्त तक परिचित नहीं हुए थे। जमींदार का परिवार होने के कारण डकैतों ने सबसे पहले मेरे ही घर पर हमला बोला। हट्टे- कट्टे शरीर वाले लगभग ४० डकैत, वह भी हथियारों से लैस। उन्हें देखते ही सभी के प्राण सूख गए। शिकार आदि के लिए शौकिया तौर पर पिताजी के पास एक बन्दूक थी, मगर अचानक हुए इस हमले के कारण पिताजी को बन्दूक तक पहुँचने का अवसर ही नहीं मिला। आते ही डकैतों ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया। घर के सभी लोग बुरी तरह घबरा गए।
डकैतों ने हम सभी को पूरी तरह से आतंकित करने के लिए घर के लोगों को बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। मेरे अन्दर बार- बार इनका विरोध करने की प्रेरणा जाग रही थी, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। उन्हें छुड़ाने के लिए आगे बढ़ने का तो प्रश्र ही नहीं था। उनकी बन्दूक कभी भी आग उगल सकती थी। डकैतों के इतने बड़े गिरोह से अकेला मैं मुकाबला करूँ तो कैसे करूँ। मैंने गुरुदेव का स्मरण किया और उनसे प्रार्थना की- हे प्रभु बताएँ, इस विपत्ति में मैं अपने परिवार की रक्षा कैसे करूँ।
मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव एक ही वाक्य बार- बार दुहरा रहे हैं- छत पर जा, छत पर जा....। पहले तो तनी हुई बन्दूक के सामने से भागने की हिम्मत नहीं पड़ी, पर तीसरी बार यह निर्देश मिलने के बाद मैं दौड़कर छत पर पहुँच गया। मन ही मन गुरु- गुरु, गायत्री- गायत्री जपता जा रहा था। एक छत से दूसरी छत पर कूदता हुआ मैं कई मकान आगे तक जा पहुँचा और जोर- जोर से शोर मचाने लगा। एक- एक कर लोग इकट्ठे होने लगे। सबके हाथों में लाठी- भाले आदि विभिन्न प्रकार के हथियार थे। सभी शोर मचाते हुए मेरे घर की ओर दौड़ पड़े। गाँव वालों की भारी भीड़ को पास आता देखकर डकैतों के हौसले पस्त हो गए। उस समय तक वे जो धन- संपत्ति समेट सके थे, उसे लेकर भाग खड़े हुए। गाँव वालों की सामूहिक शक्ति को मिली इस भारी जीत से सभी खुश थे। धन सम्पत्ति की तो काफी क्षति हुई थी, कई लोग घायल भी हो गए थे, लेकिन जान किसी की नहीं गई। खतरों से खेलकर मैंने जिस प्रकार पूरे गाँव को इकट्ठा किया, सभी बड़े- बूढ़े लोग उसकी सराहना कर रहे थे, मेरी उपस्थित बुद्धि को सराह रहे थे। एक ने पूछा- तुम्हें डर नहीं लगा? मैंने सच- सच बता दिया कि पहले तो डर रहा था, मगर गुरु- गुरु जपते ही सारा डर गायब हो गया।
पिताजी ने कहा- तुमने तो अभी तक दीक्षा भी नहीं ली है, फिर गुरु- गुरु क्यों कर रहे थे? मैंने उन्हें बताया कि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की किताबों से मुझे वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का जो गहरा ज्ञान मिला है उसी के कारण मैंने मानसिक रूप से गुरु के रूप में आचार्यश्री का वरण कर लिया है।
इस घटना के दौरान मुझे जिस प्रकार की आन्तरिक अनुभूति हुई थी उसे देखते हुए मेरे मन में यह विश्वास पूरी तरह से जम चुका था कि उन्होंने भी मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया है। इसके बाद भी कई बार अलग- अलग रूपों में उनके दर्शन होते रहे- कभी स्वप्न में, कभी प्रत्यक्ष।
कृष्णमुरारी किसान शेखपुरा (बिहार)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
Recent Post
आत्मचिंतन के क्षण
आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत...
आत्मचिंतन के क्षण
आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवाद...
आत्मचिंतन के क्षण
मनुष्य अपनी वरिष्ठता का कारण अपने वैभव- पुरुषार्थ, बुद्धिबल- धनबल को मानता है, जबकि यह मान्यता नितान्त मिथ्या है। व्यक्तित्व का निर्धारण तो अपना ही स्व- अन्त:करण करता है। निर्णय, निर्धारण यहाँ...
आत्मचिंतन के क्षण
ईश्वर उपासना मानव जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मिक स्तर को सुविकसित, सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए हमारी मनोभूमि में ईश्वर के लिए समुचित स्थान रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब उसक...
आत्मचिंतन के क्षण
जो अपनी पैतृक सम्पत्ति को जान लेता है, अपने वंश के गुण, ऐश्वर्य, शक्ति,सामर्थ्य आदि से पूर्ण परिचित हो जाता है, वह उसी उच्च परम्परा के अनुसार कार्य करता है, वैसा ही शुभ व्यवहार करता ...
रचनात्मक आन्दोलनों के प्रति जन-जन में उत्साह जगाए
यह यज्ञभाव को जनजीवन में उतारने का चुनौतीपूर्ण समय है
विगत आश्विन नवरात्र के बाद से अब तक का समय विचार क्रान्ति ...
मनुष्य अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है
मनुष्य अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है। ये शक्तियाँ ही जीवन के उत्कर्ष का आधार हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक क्षमताओं का विकास, सफलता, सिद्धि, सुख और आनन्द की प्राप्ति सब इन्हीं आत्मशक्तियों के जागरण...
आत्मचिंतन के क्षण
जीवन का लक्ष्य खाओ पीओ मौज करो के अतिरिक्त कुछ और ही रहा होगा यदि हमने अपना अवतरण ईश्वर के सहायक सहयोगी के रूप में उसकी सृष्टि को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए हुआ अनुभव किया होता पर किया क्या जाय बु...
आत्मचिंतन के क्षण
एकाँगी उपासना का क्षेत्र विकसित कर अपना अहंकार बढ़ाने वाले व्यक्ति , ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं कहे जा सकते। परमात्मा सर्व न्यायकारी है। वह, ऐसे भक्त को जो अपना सुख, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना च...
आत्मचिंतन के क्षण
किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते हैं। किसी एक वर्ग का आहार -विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, मान्यतायें आदि दूसरे से टकरा सकती हैं। इसी विविधता, व...