फलित हुआ माँ का आश्वासन
बात उन दिनों की है जब अश्वमेध यज्ञों की श्रृंखला चल रही थी। इस श्रृंखला में पटना का अश्वमेध यज्ञ भी था। फरवरी, १९९४ का महीना था। चारों तरफ केवल यज्ञ की ही चर्चा हो रही थी। यज्ञ के बारे में लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। कोई कहता कि भगवान राम ने जिस प्रकार से अश्वमेध यज्ञ किया था और पहले घोड़ा छोड़ा था उसी प्रकार से इस यज्ञ में भी घोड़ा छोड़ा जाएगा।
प्रत्येक परिजन में भारी उत्साह था। मैं भी यज्ञ में जाने के लिए उत्साहित था। घर में पत्नी से यज्ञ की चर्चा की और मन बना लिया। यज्ञ की महिमा और उसका प्रभाव मैं जानता था, इसलिए यह अवसर मैं गँवाना नहीं चाहता था। मेरे छोटे बहनोई थे विश्वनाथ जी। छोटी कमाई, बड़ा परिवार। घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चलता था। ऊपर से उन्हें शराब की लत लगी हुई थी। सारा का सारा पैसा शराब पीने में चला जाता था। कई बार उनने कसम खाई लेकिन हर बार कसम तोड़ देते थे। मन में आया कि उनको भी यज्ञ में ले चलूँ, शायद कल्याण हो जाए।
मैं इसके पहले शानितकुञ्ज एवं मिशन के बारे में कुछ नहीं जानता था, केवल यज्ञ हवन से प्रभावित था कि इतना बड़ा यज्ञ हो रहा है तो इसमें शामिल होना चाहिए, यही भावना थी; और यह भी कि यदि बहनोई की शराब की आदत छूट जाय तो बच्चों का भविष्य बन जाएगा। यज्ञ में जाने की खबर सुनकर मेरा भतीजा अनिल, जिसकी उम्र केवल ७ वर्ष की थी, वह भी आ गया। अब मैं, मेरी, पत्नी बहनोई और भतीजा चारों लोग पटना के लिए गंगा-दामोदर एक्सप्रेस ट्रेन पर बैठे। साथ में और भी सैकड़ों परिजन थे। ट्रेन में भारी भीड़ थी। लगभग ८० प्रतिशत लोग यज्ञ में जाने वालों में से ही थे।
उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव जी थे। चर्चा का विषय बना था कि उन्होंने सभी ट्रेनें यज्ञ में जाने वालों के लिए निःशुल्क करा दी हैं। वे यज्ञ में पूरा सहयोग कर रहे हैं। यज्ञ स्थल के लिए भूमि की व्यवस्था भी लालू जी ने स्वयं करवाई थी।
यज्ञ में पहुँचे तो वहाँ की भीड़ देखकर हम दंग रह गए। यज्ञ की व्यवस्था बहुत ही अच्छी थी। सुरक्षा व्यवस्था के लिए बनी कार्यकर्ता टोली में मुझे भी शामिल कर लिया गया था। इस दायित्व को पाकर मैं फूला नहीं समा रहा था। यज्ञ के दौरान दिए गए सारगर्भित प्रवचनों को सुनकर आत्मा तृप्त हो गई। लालू जी ने भी मंच से लोगों को संबोधित किया। वे अपने अंदाज में कह रहे थे- यह वही स्थान है जहाँ हम भैंसे चराते थे और माँड़-भात खाते थे। आज बिहार में गायत्री परिवार जैसे मिशन की आवश्यकता है, जो अपने साथ-साथ सभी को लेकर चलते हैं।
माता जी से मिला, तो लगा हमें असली माँ मिल गई है। सभी परिजन उनकी बातों को सुनकर प्रसन्न हो रहे थे। माता जी का प्रवचन सुना। वे बोल रही थीं ‘‘बेटे हम तुम्हारी रक्षा वैसे ही करेंगे, जिस तरह से चिड़िया अपने अंडों को सेती है। हमारे डैने बहुत विशाल है। इन शब्दों को सुनकर मैं सोच रहा था कि ऐसा आश्वासन तो कोई बहुत बड़े ऋषि या भगवान ही दे सकते हैं। माता जी के इन शब्दों ने जैसे वहॉँ उपस्थित सभी लोगों में नवचेतना का संचार कर दिया था। मैं अपने-आपको बहुत सौभाग्यशाली मान रहा था कि ऐसी अवतारी सत्ता का सान्निध्य पा सका। यज्ञ में करीब ६०-६५ लाख व्यक्ति मौजूद थे। लेकिन व्यवस्था में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं। यही सोच-सोच कर मैं हैरान था।
यज्ञ समाप्त हुआ। हम सभी अपने-अपने घर जाने को तैयार हुए। फुलवारी शरीफ मेन रोड पर आकर देखा, सड़क पर भारी भीड़ थी। हमें सड़क पार कर उस तरफ जाना था। मेरे बहनोई सड़क पार कर गए, तो अनिल भी पीछे दौड़ पड़ा। इधर हम कुछ समझ पाते उससे पहले ही तेज गति से आ रही एक एम्बेसडर कार उसके ऊपर से गुजर गई। एकबारगी अन्तरात्मा काँप गई। अन्दर से एक विकल पुकार उठी-माता जी यह क्या हो गया? अब मैं किसको क्या मुँह दिखलाऊँगा? कई बातें मस्तिष्क में कौंध गईं। बच्चे को खोने का डर तो था ही, अन्तर को मथते हुए एक शंका यह भी उठ रही थी-लोग तरह-तरह की बातें करेंगे। माताजी के आश्वासन पर से सभी का विश्वास उठ जाएगा।
गाड़ी जाने के बाद हम लोग सहमते हुए आगे बढ़े। देखा बच्चा बेहोश पड़ा था। चारों ओर से सहानुभूति के स्वर सुनाई पड़ रहे थे; पर उधर ध्यान देने का वक्त नहीं था। बच्चे को गोद में उठाकर जल्दी से किनारे ले आया। बच्चे के शरीर पर एक खरोंच तक नहीं लगी थी। किसी ने इस तरफ ध्यान दिलाया तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सहसा यकीन ही नहीं हुआ। क्या ऐसा भी संभव है? फिर एक उम्मीद जगी शायद माताजी की कृपा से बच ही जाए। वहाँ उपस्थित एक भाई ने बताया कि पास ही डॉक्टर का क्लीनिक है, वहाँ ले जाइए। उन्होंने हाथ से इशारा करके दिखाया। करीब दस कदम की दूरी पर एक डॉक्टर की क्लीनिक थी। वहाँ ले जाकर बच्चे को बेंच पर बैठाया तो वह बैठ गया। डॉ० ने बच्चे को जाँच कर बताया- घबड़ाने की कोई बात नहीं। बच्चा डर गया है। इसे कुछ नहीं हुआ है। १५ मिनट बाद इसे आप ले जा सकते हैं। कोई १०-१५ मिनट बाद बच्चे ने आँखें खोल दीं और घबड़ाई नजरों से इधर-उधर देखने लगा। हमें देखकर आश्वस्त हुआ। हम सबकी आँखों में आँसू छलक आए। याद आ रहा था माताजी का आश्वासन ‘‘... हमारे डैने बहुत बड़े हैं।’’ तत्क्षण हमने अनुभव किया उनके डैनों का अमृततुल्य प्रभाव।
भरत प्रसाद सिन्दरी, धनबाद (झारखण्ड)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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