
अमर- ज्योति (कविता)
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अमर- ज्योतिरचयिता- श्री पुरुषोत्तमदास विजयजल रही विश्व में अमर ज्योति,
छा रहा गगन तल में प्रकाश।मेरे मानव। तू उज्ज्वल बन,
मत हो निराश, मत हो उदास।।खिल रही कली, हँस रहे फूल,जग में छाया भ्रमरित बसन्त।
विहँसो, विकसों, मानव के तरू,
उमड़ा नव जीवन दिग्दिगन्त।प्राची के उज्ज्वल आँगन से,
छुट रहे ज्ञान के सतत् तीर।आलस विमूढ़ता तज मानव,
पहिचान कर्म- पथ की लकीर।।
मानव। तुम भूलों रोग शोक।
जय जय उस अमर ज्योति की जय,
हम लावे भू पर अमर लोक।।अखण्ड ज्योतिसुधा बीज बोने से पहले, काल कूट पीना होगा।
पहिन मौत का मुकुट, विश्व हित मानव को जीना होगा।।
छा रहा गगन तल में प्रकाश।मेरे मानव। तू उज्ज्वल बन,
मत हो निराश, मत हो उदास।।खिल रही कली, हँस रहे फूल,जग में छाया भ्रमरित बसन्त।
विहँसो, विकसों, मानव के तरू,
उमड़ा नव जीवन दिग्दिगन्त।प्राची के उज्ज्वल आँगन से,
छुट रहे ज्ञान के सतत् तीर।आलस विमूढ़ता तज मानव,
पहिचान कर्म- पथ की लकीर।।
मैं चला कुचल कर काँटों को,
कब रोक सका है मुझे काल।
मैं विश्व भाल पर छोड़ चला,
अपने ज्योतित पद चिन्ह लाल।।
मानव। तुम भूलों रोग शोक।
जय जय उस अमर ज्योति की जय,
हम लावे भू पर अमर लोक।।अखण्ड ज्योतिसुधा बीज बोने से पहले, काल कूट पीना होगा।
पहिन मौत का मुकुट, विश्व हित मानव को जीना होगा।।