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Magazine - Year 1940 - Version 2

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देवताओं और राक्षसों में अन्तर

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देवताओं और राक्षसों में अन्तर

(ले. श्री गोविन्दराम जी महता एम.ए.)

किसी आदमी ने सर वाल्टर स्काट से कहा ‘दुनियाँ में सब से अधिक आदर विद्या का होता है।’ इस पर सर स्काट ने उत्तर दिया ‘भगवान ऐसा न करें, अन्यथा दुनियाँ की बड़ी दुर्गति होगी। मैंने अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं और विद्वानों से मिला हूँ और यह बात निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ कि विद्वानों की अपेक्षा गरीबों में मैंने सच्चाई, ईमानदारी, उदारता और न्याय निष्ठा अधिक देखी है।’

विद्या एक प्रकार का मुलम्मा है। उसे जिस चीज पर चढ़ा दिया जाय वही चमकने लगती है। सदाचार वह सुवर्ण है जो कभी काला नहीं पड़ता। कीचड़ में पड़ा हुआ सोना, सोना ही है। लोहे पर सुनहरी मुलम्मा कर दिया जाय तो चमकेगा तो सही, पर आँच लगने पर काला हो जायेगा। सोने पर मुलम्मा चढ़वा लिया जाय तो वह और भी अधिक चमकेगा।

विद्या शक्ति है। उसका उचित या अनुचित चाहे जैसा प्रयोग कर सकते हैं। चाकू फल काटने के लिए है, पर यदि उससे किसी की गरदन काटी जाय तो मामूली लकड़ी की अपेक्षा वह अच्छी तरह काम करेगा। अपढ़ और गँवार चोर मौका मिलने पर अपना काम बना सकता है। पर यदि एक एम. ए. पास ग्रेजुएट चोरी की तरकीबें निकालना चाहे तो वह आश्चर्यजनक तरीके निकाल सकता है। कुछ दिन हुए कलकत्ता में एक मुनीम पकड़ा गया था। वह हिसाब के कागजों में पाँच साल से विचित्र चालाकी के साथ इन्द्रराज करता रहा और सबकी आँखों में धूल झोंक कर लाखों रुपया गबन कर गया। औरत बेचने के व्यापार में दुनियाँ के हजारों सुशिक्षित लोगों का हाथ है और वे मालामाल बन रहे हैं। ठगी, जुआ, शराब, व्यभिचार, लूट, चोरी, जालसाजी, खून आदि एक भी कुकर्म ऐसा नहीं है जिसमें विद्वानों का प्रमुख हाथ न हो। केवल विद्या और शक्ति के बल से मनुष्य मनुष्य नहीं बन सकता। सच्चाई, ईमानदारी और उदारता मनुष्य के गुण हैं। बिना इनके मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं। विद्या और बहादुरी तो राक्षसों और देवताओं में प्रायः समान ही होती है। अन्तर एक सदाचार और न्याय परायणता का है। देवता उन शक्तियों को दूसरों की भलाई में लगाते हैं, राक्षस इनका उपयोग स्वार्थ और पर- पीड़न में करते हैं। रावण की विद्या, बुद्धि, शक्ति, चातुरी, कार्य- परायणता, मनोबल कम नहीं थे। वह अपने गुणों के कारण महा प्रतापी बना, पर उसने शक्ति का उपयोग बुरी तरह किया, स्वार्थ और दुर्गुणों को अपना साथी बनाया। अब राम को लीजिए, नीति निष्ठा और धर्म बुद्धि को छोड़कर अन्य बातों में शायद वे रावण से बढ़कर नहीं थे, पर उनकी विजय जिस कारण से हुई वह सत्याचार था। राम का पक्ष न्याय का देखकर वानरों की सेना निस्वार्थ भाव से उनके साथ हो गई और रावण का बुद्धिमान भाई भी विमुख हो गया। नेपोलियन और सिकन्दर ने लाखों आदमियों का खून बहाया। औरंगजेब ने राज्य के लिए अपने भाइयों का कत्ल करवाया, पिता को कैद में डाला, हिरण्यकश्यप, कंस, वेणु, जरासन्ध अपनी ताकत आजमाई कर गये, उन्होंने दुनियाँ को थर्रा दिया, लोगों पर भय का आतंक जमाया। परन्तु तब और अब वे लोगों के हृदयों में कितने घुस पाये? उनका नाम एक आतंक के साथ हम लेते हैं और यह आकाश उनकी मूर्खता पर एक हलकी हँसी हँस देता है। इसके विपरीत गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, कृष्ण, भर्तृहरि, व्यास, वाल्मीकि, नानक, ईसा, मुहम्मद को देखिये, विद्या के साथ सदाचार भी उनके पास था। उन्होंने अपनी शक्तियों का व्यय परोपकार में किया, ज्ञान का प्रकाश फैलाने में अपने को खपाया। आज भी उनके प्रकाश के नीचे हम अपना मार्ग ढूँढ़ लेते हैं। दुनियाँ इनके ऋण से दबी हुई खड़ी है।

सर स्काट ने ठीक ही कहा था कि ‘दुनियाँ यदि विद्या की पूजा करने लगी तो उसकी बड़ी दुर्भिक्ष होगी।’ विद्या से लोग डरते तो हैं, पर उसकी पूजा नहीं होती। विद्वानों को देखकर हमें आश्चर्य और कौतूहल होता है उनके कार्य से प्रसन्नता प्राप्त होती है। पर सदाचारी को देखकर जो श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न होती है, वह क्या विद्वान को देखकर हो सकती है? नरसी मेहता, सुदामा, शबरी, विदुर, केवट, सूरदास आदि के चरित्रों के सामने बड़े- बड़े तख्त नशीन नाचीज हैं। सूरदास और तुलसी के सामने टकापन्थी लाखों कवि तुच्छ हैं। यवन राजा गुरु गोविन्दसिंह के नन्हे- नन्हे पुत्रों को अपने विद्याबल से नहीं झुका सका, किन्तु आततायी अशोक भगवान बुद्ध की शरण में दौड़ पड़ा। भर्तृहरि और मीराबाई ने राज सिंहासनों को ठुकरा दिया।

दुनियाँ समझदार है, उसे अपनी दुर्गति नहीं करानी है। विद्या शक्ति के ऊपर उसने विश्वास नहीं किया है। उसने चरित्रवानों के सामने ही श्रद्धा से अपना मस्तक झुकाया है और जब तक वह रहेगी, झुकाती रहेगी। अरबों-खरबों प्रतिभावान, अद्भुत बलशाली, तान्त्रिक, तार्किक, सिद्ध, साहसी और पराक्रमी इस दुनियाँ में हो चुके हैं। कहते है कि अब तक बहत्तर सौ काने (एक आँख के) राजा हो चुके हैं दोनों आँख वालों की तो शुमार की क्या हैं। पर दुनियाँ विद्वानों से अधिक विद्वान हैं। उसने विस्मृति के एक कोने में उन सबको ले जाकर पटक दिया है। उनके किसी को नाम भी याद नहीं, कोई टके सेर नहीं पूछता। सदाचारी और धर्म नैष्ठिकों को सदा शिर आँखों पर रखा जाता रहा हैं। प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर, शिव, दधीचि आदि को दुनियाँ भूल नहीं सकती।

सदाचार ही वह तत्व है, जिसे पाकर मनुष्य देवता बन जाता है और जिसे खोकर वह राक्षस कहलाता है। लोगों का खयाल है कि सदाचारी निर्धन रहते हैं और दुःख उठाते हैं यह दूर से देखने की बात है, पास जाकर देखने से कुछ और बात नजर आती है। जंगलों में मंगल करने वाले साधु क्या राजाओं से कम सुखी होते हैं? तृष्णा के मारे जब लोग हाय-हाय चिल्लाते हैं, तब सदाचारी संतोष की साँस लेता है और ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ अपनी रूखी रोटी को बड़े प्रेम से खाता है। तत्त्वज्ञानी एपिक्टेट्स ने एक धनी वकील की बात का उत्तर देते हुए कहा कि सच्ची बात तो यह है कि तुम मुझसे गरीब हो। तुम चिन्ता में डूबे हुए हो, मैं निर्द्वन्द्व हूँ। तुम्हारी सम्पत्ति से मुझे अपनी अधिक मालूम पड़ती है। क्योंकि तुम असंतुष्ट हो और मैं संतुष्ट रहता हूँ। भर्तृहरि ने कहा कि बड़ी तृष्णा वाला ही दरिद्र है।

हमारा तात्पर्य यह नहीं कि सदाचार दरिद्र बनाने वाला है। सदाचार तो वह पारस पत्थर है, जिसे जो छूता है वही सोना हो जाता है। अच्छे आचरण वाले, मुस्तैदी से काम करने वाले और अपनी जिम्मेदारी को समझने वाले ही आदर और उन्नति की ओर बढ़ते हैं। बुरे आचरण वाले अपनी कलई कुछ दिन भले ही चमका लें, पर एक दिन उनका नाश निश्चित है। जितने बड़े काम हुए हैं, उन सब की नींव में सदाचार, सद्व्यवहार और उदारता है। संभव है जुल्म के बल पर किसी ने महल खड़े कर लिये हों, पर वह कितने दिन ठहरते हैं? प्रकृति ने उन्हें एक दिन समूल नाश करने के लिए बढ़ाया होता है। एक महापुरुष का कथन है कि समाज का नेतृत्व सदैव सदाचारियों के हाथ में रहेगा। दुराचारियों के हाथ में कोई भी सत्ता ठहर नहीं सकती। सदाचारी गुलाब का फूल, चन्दन और स्वर्ण है। वह चाहे जैसी स्थिति में हो, लोगों की नजर में आदर का पात्र रहेगा। यह स्पष्ट है कि बल, विद्या देवता और राक्षस समान हैं अन्तर केवल सदाचार का है। अगर सच्चा धन दुनियाँ में कुछ है तो सदाचार, सद्विचार ही है।

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