
अखण्ड ज्योति क्यों?
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अखण्ड ज्योति क्यों?आज हम लोग ऐसी कंटकाकीर्ण झाड़ियों में भटक पड़े हैं जहाँ तरह- तरह के दुखों से आक्लिन्त बन जाना पड़ा है। गरीबी और गुलामी रूपी डायनें पीछे पड़ गई हैं। अज्ञान का अन्धकार छाया हुआ है। चिन्ता और अशान्ति की दुधारी तलवारें हमारी गरदन पर चल रही हैं। फलस्वरूप आज के मनुष्य का शरीर एवं मन रुग्ण और जर्जरित हो गया है। भले ही किसी के शरीर में कुछ बल प्रतीत होता हो, कुछ फूला और मोटा दीखता हो पर उसमें स्फूर्ति, छरहरापन और निरोगता कहाँ है? भले ही किसी के पास घोड़ा, गाड़ी, मोटर, रुपया, महल, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेवक आदि हों, पर सुख और संतोष कहाँ है? हमारी बुद्धि व्यभिचारिणी हो गई है। पैसे के बल पर अच्छे से अच्छे दिमाग को खरीद कर बुरे से बुरे काम में लगाया जा सकता है। स्वार्थ के लिए पुण्य और पाप में कोई भेद नहीं किया जाता। तृष्णा इतनी बढ़ गई है कि हम जीभ निकाल कर हाँफते हुए हाय प्यास, हाय प्यास चिल्ला रहे हैं। यह अतृप्त प्यास दावानल की तरह चारों ओर धधक रही है। मनुष्य इस तृष्णा नल में जला जा रहा है। चारों ओर जल दुर्भिक्ष पीड़ितों की तरह शुष्क- तालु मनुष्य मारे- मारे फिर रहे हैं। हाहाकार इतना बढ़ गया है कि भाई- भाई की देह में मुँह गड़ाकर उसकी धमनियों में से रक्त चूस रहा है। किसान, मजूर, स्त्रियाँ, अशिक्षित, असहाय, इस चर्वण की चर्खी में पड़े हुए करुण स्वर से चिल्ला रहे हैं। पर क्या यह प्यास तृप्त होती है? नहीं, वह दिन-दिन बढ़ती ही जाती है। महायुद्धों का राक्षस असंख्य निरपराध प्राणियों को क्यों खाये जाता है? बम और गैस की मार से चारों ओर क्रन्दन क्यों मचा हुआ है? सबल निर्बलों को क्यों पीट रहे हैं? मानव अपनी अतृप्त प्यास को बुझाने के लिए यह नरमेध रच रहा है। पर ज्यों- ज्यों आहुतियाँ पड़ती जाती हैं, यह तृषा अधिकाधिक वेग से उग्र रूप धारण करती जाती है। भगवान का पुण्य लीला उद्यान अब मरघट बन कर धू धू जल रहा है। नवीन सभ्यता ने हमारी प्यास बढ़ाई है यह कहाँ पहुँच कर शान्त होगी, कोई नहीं जानता।आइये, विचार करें कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों मनुष्य की प्यास इतनी अधिक है कि उसे भेड़िया बनना पड़े। दाल, रोटी और कपड़ों का खर्च आदमी आसानी से पैदा कर सकता है। ईश्वर ने भूमि में उर्वरा शक्ति देकर दुधारू पशुओं से हमारा निकट सम्बन्ध बनाकर हमारी दैनिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के सभी उपकरण जुटा कर जीवन निर्वाह की समस्या इतनी आसान कर दी है कि हम सरलता पूर्वक जीवित रह सकते है और मानवता की उपासना कर सकते हैं। भ्रातृ भाव, करुणा, प्रेम, उदारता, परोपकार, दया, न्याय प्रियता, सत्यनिष्ठा, सदाचार प्रभृति दिव्य गुण ही मानवता के प्रतीक है अन्यथा भेड़िया और मनुष्य में क्या अन्तर रह जाता है? मानवता की उपासना हमारा कर्तव्य पथ राज मार्ग है। इसी पर चल कर हम सुख, शान्ति और सन्तोष की सांस ले सकते हैं। मानवता ही वह अमृत है, जिसे पीकर प्यास बुझती है। शैतान की उपासना से हमने तृष्णा का अभिशाप प्राप्त किया है। वह मानवता की पूजा से ही शान्त होगा। कंकरीली झाड़ियों से निकलकर आदमी जब तक अपने राजमार्ग पर न आवेगा, तब तक वह भेड़िया ही बना रहेगा और जीभ निकाल कर हाय प्यास, हाय प्यास चिल्लाता रहेगा। योगशास्त्र, अध्यात्म विद्या और कुछ नहीं, केवल मनुष्यता के राजमार्ग की चहार दीवारी है। योग के आठ अंगों में से यम- नियम, सदाचार और पवित्रता के सूचक हैं। आसन, प्राणायाम, शारीरिक स्वास्थ्य का विधान है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, मन और बुद्धि का व्यभिचार दूर करने के लिए हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शरीर और मन को स्वस्थ और पवित्र रखना ही अध्यात्म विद्या है। इस विद्या के अन्तर्गत जितनी क्रियाऐं हैं उनमें से अधिकांश चित्त को एकाग्र करने की विधियाँ हैं। एकाग्रता से ही वह दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है, जिनसे मनुष्य देवता बना करता है। इस राजपथ पर चलते- चलते जहाँ हम पहुँचते हैं वह अनन्त आनन्द शास्वत शान्ति समाधि है। योग के साधनों की विभिन्नता कोई वास्तविक विभिन्नता नहीं है। मनुष्य के रुचि वैचित्र्य को ध्यान में रखकर आचार्यों ने उनको कई रूपों में हमारे सामने रख दिया है कि उसमें से अपनी रुचि के अनुसार चीज चुन सकें। आज तक जितने भी मानवता के महान आचार्य हुए हैं, उनने एक स्वर से चिल्ला- चिल्लाकर कहा है। असली आनन्द सुख, सन्तोष और शान्ति मनुष्यता की उपासना में है। इस समय जितनी गुत्थियाँ दुनियाँ के सामने हैं, उनकी जड़ में एक ही कारण है- मनुष्यता का अभाव। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, आर्थिक, शारीरिक, कौटुम्बिक, मानसिक जितनी भी उलझनें हैं, उनका पूरी तरह तब तक निराकरण नहीं हो सकता जब तक हमारे आचरण पवित्र न हो, जब तक हम सच्चे नागरिक न बनें। सच्चा योगी बनाने का एक ही मार्ग हो सकता है और वह है सदाचार। सदाचार और अध्यात्म विद्या को एक ही चीज के दो पहलू कहना चाहिए। अखण्ड ज्योति इसी अध्यात्म विद्या की चर्चा करने को अवतीर्ण हुई है। इस पत्र में तन्त्र शास्त्र मैस्मरेजम, प्रेतवाद, मनोविज्ञान आदि की चर्चा में कुछ विलक्षणता और अटपटापन देखकर किसी को न तो भ्रम में पड़ना चाहिए और न आश्चर्य करना चाहिए। यह सब मनोविज्ञान और अध्यात्म विद्या द्वारा सामयिक रोगों की चिकित्सा विधि मात्र है। यह रोते हुए बच्चों को खिलौने देना हैं। इसमें अन्ध- विश्वास या भ्रम जाल को तनिक भी स्थान नहीं, यह विशुद्ध वैज्ञानिक मानसिक क्रियाऐं हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अंकों में पढ़कर पाठक भली प्रकार समझ सकेंगे। ‘वादे वादे जायते तत्व बोधः’ वाद-विवाद में भी किसी दिन तत्व का बोध हो जायेगा। ज्ञान चर्चा के उद्यान में मनुष्य का विकाश ही होता है। सत्संग में अनेक बातें सामने आती हैं उनमें कुछ अनुपयोगी और भ्रमपूर्ण भी होती है, पर अन्त में सत्य पक्ष का निर्णय हो जाता है और भ्रान्ति मिट जाती है। तब अध्यात्म विद्या की चर्चा करते करते एक दिन हम सब क्या सत्य तत्व को प्राप्त नहीं कर सकेंगे? जनता जनार्दन के सामने ‘अखण्ड ज्योति’ लेकर उपस्थित होते हुए मुझे अपनी अयोग्यता का संकोच अवश्य है। पर जिस सदुद्देश्य से इसका प्रकाशन हो रहा है वह लोक हितकारी होगा, ऐसा मुझे विश्वास है और इसी विश्वास के आधार पर एक आशा और उत्साह की लहर आज मुझमें दौड़ रही है। अगला अंक हमने ‘अखण्ड ज्योति’ को ठीक समय पर निकालने का निश्चित प्रबन्ध कर लिया है। वह बिना एक दिन के भी अन्तर के सदैव अपनी तारीख पर निकल जाया करेगी। किन्तु आगामी अंक में सम्भवतः कुछ देर हो जाय। कारण यह है कि पोस्ट ऑफिस वाले रजिस्टर नम्बर देने में बहुत देर लगा लेते हैं। जिन पत्रों के आरम्भ से ही सैकड़ों ग्राहक हों उनके लिये भी ग्राहकों के बारे में खोज बीन होती हैं और इस कार्य में कभी कभी तो वे महीनों लगा देते हैं। ‘अखण्ड ज्योति’ के प्रथम मास से ही इतने ग्राहक हैं, जो डाकखाने की निश्चित संख्या से कई गुने होते हैं। फिर भी रजिस्टर नम्बर मिलने में देर न लगने की आशा नहीं है। सम्भव है वे इस कार्य में एक महीना से भी अधिक समय लगा लें। हम अगला अंक भी निश्चित तिथि पर ही छपाकर तैयार रख लेंगे और रजिस्टर नम्बर आते ही पाठकों की सेवा में भेजेंगे। बिना नम्बर आये पत्र भेजने में तिगुना पोस्टेज लगेगा, इसलिए अगले अंक के लिये पूरी फरवरी प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि फिर भी नम्बर न आया तो २८ फरवरी को तिगुना पोस्टेज लगाकर भी ‘ज्योति’ अवश्य भेज देंगे।