
अनन्त शक्ति का मूल स्त्रोत
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अनन्त शक्ति का मूल स्त्रोत
ले. ठाकुर रामसिंह जी चौहान लोग सदैव किसी ऐसी शक्ति की तलाश में रहते हैं जिसके द्वारा सफलता प्राप्त कर सकें और अपनी कठिनाइयों को आसानी से हल कर सकें। इसकी ढ़ूँढ़ खोज में चाहे वर्षों लगा दीजिए, पर यह बात बाहर कहीं नहीं मिलेगी। यह हमारे अन्दर विद्यमान शक्ति को अपने अन्दर रखते हुए भी हम दुख और शोकों से खिन्न हो रहे हैं। दुख और विपत्ति मनुष्य के भाग्य में नहीं लिखी है।वास्तव में हमने इन चीजों को अपने आप पैदा किया है और मन की आकर्षण शक्ति द्वारा उन्हें खींच कर अपने से बाँध लिया है। मन के कषाय लाल मिर्चों के समान हैं, बुरी आदतों में ज्यों- ज्यों हम लीन होते जाते हैं, त्यों- त्यों दुखों की वृद्धि होती जाती है। लाल मिर्चों को शरीर पर जितना मलेंगे उतनी ही जलन बढ़ती जायेगी। भय और घबराहट के साथ काम करने और अपने को अभागा एवं दीन समझने वालों के सामने सदैव असफलता और दरिद्रता ही खड़ी रहेगी।पहाड़ से गिरते हुए छोटे झरने को देखिये, अनन्त काल से वह इसी प्रकार बह रहा है। किसी को यह पता भी नहीं है कि इसकी जलधारा में कोई शक्ति भरी हुई है। कोई बुद्धिमान मनुष्य वहाँ आता है और लोगों की दृष्टि में व्यर्थ बहने वाले उस झरने की शक्ति के रहस्य को समझ कर उससे लाभ उठाने की सोचता है। वह प्रयत्न करके जल धारा से चलने वाले पहिये वहाँ लगवाता है और आवश्यकीय यंत्र वहाँ बिठाता है। अब यह व्यर्थ कहलाने वाला झरना एक बड़ी भारी शक्ति का केन्द्र दिखाई देने लगता है। उस शक्ति से बिजली पैदा होती है और फिर सैकड़ों यंत्र चलते हैं जिनके जरिये वह बुद्धिमान मनुष्य अपने पड़ौसियों को पर्याप्त लाभ पहुँचता हुआ खुद धन और यश उपार्जित करता है।मनुष्य का शरीर भी उसी प्रकार का शक्ति केन्द्र है, पर वह जीवन रूपी पहाड़ी से गिरकर यों ही व्यर्थ बहता रहता है। वह झरना मानों अपने दुर्भाग्य पर रोता हुआ हमारी ओर संतृप्त नेत्रों से देखता हुआ यह कह रहा है कि मेरा यौवन नष्ट हुआ जा रहा है, मुझसे कुछ काम लेना है तो ले लो।पारस पत्थर कोई बाहरी चीज नहीं है। वह हमारे हृदय में छिपी हुई आत्मशक्ति है। उसी को छूने से लोहा सुवर्ण और मनुष्य देवता हो जाता है। पर कितने मनुष्य हैं जो उसे छूते हैं? संत कबीर ने जीवन भर यही रोना रोया कि लोग हीरे को फेंककर काँच बटोरने को क्यों पागल हो रहे हैं? ईश्वर ने अपने परिपूर्ण और अक्षय खजाने की ताली हमारी जेब में रख दी है। हमी अज्ञानी बालक का उदाहरण बन रहे हैं, और दर- दर भीख मांगते फिर रहे हैं, किन्तु यह नहीं समझते कि अतुल सम्पत्ति के खजाने की ताली हमारी जेब में रखी हुई है। उसे खोलकर हम राजाओं जैसा ऐश्वर्य प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य की आत्मशक्ति की महत्ता अतुलनीय है। झरना बिजली और पारस पत्थर जड़ है। पर हम चैतन्य और आनन्द स्वरूप है। शक्ति का भण्डार, ईश्वर का अंश होने के कारण मनुष्य में वह सब महा शक्तियाँ और चमत्कार निहित हैं, जो प्रकृति में कहीं भी गुप्त और प्रकट रूप से विद्यमान है। उस शक्ति की उन्नति होने पर क्या हो सकता है? इसकी तो कल्पना भी करना कठिन है। मनुष्य ईश्वर का पुत्र वह अपने पिता की सारी सम्पत्ति को प्राप्त कर सकता है, खुद ईश्वर बन सकता है।
हमने आम शक्ति की स्वयं उपेक्षा की हैं, उसका जानबूझ कर कोई खस उपयोग नहीं करते हैं, फिर भी अनजान में उसके द्वारा जो कार्य होते हैं क्या वे कम आश्चर्य जनक हैं? दैनिक जीवन में दृढ़ इच्छा करते ही हमारी आकांक्षाऐं पूरी हो जाती हैं। इच्छा कर लीजिए कि आज रात को हमें सिनेमा जाना है। आपको उस लिए किसी न किसी प्रकार पैसा और फुरसत मिल जायेगी। दिल्ली जाना जरूरी समझ लीजिये कि आप अविलम्ब दिल्ली पहुँचेंगे। निश्चय कर लीजिये कि आज रात को हमें दो बजे उठ बैठना है ठीक समय पर आपकी आँख खुल जायेगी।जितने सुन्दर पदार्थ हमें दृश्यमान होते हैं, पहले वे किसी के विचार में बीज रूप से आये होंगे। शाहजहाँ ने सोचा कि ऐसा बड़ा ताज महल बनाना चाहिए, कुछ ही दिनों में ताज महल बन कर सामने आ गया। स्टीफन्सन के दिमाग की पटरी पर चलने वाली रेल आज लोहे की पटरियों पर दौड़ रही है। दूर की बात जाने दीजिए अपने घर की चीजों पर नजर डालिए। कुर्सी, मेज, दवात, कागज, कपड़े चारपाई, लालटेन, सन्दूक, बर्तन यह सब किस प्रकार बन गये? इसके बनाने वालों ने इच्छा की होगी कि हम ऐसी चीज बनावे, फलस्वरूप वह बन गई। आपने चाहा कि यह हमें मिल जाय फलस्वरूप ऐसी सुविधाऐं मिल गई, जिनसे यह सब आपके सामने आ गई। बढ़ई यदि आपकी मेज़ वाली लकड़ी से अलमारी बनाना चाहता तो वह बना सकता था, और आप यदि छोटी सन्दूकची से काम चलाना चाहते हैं तो चला सकते थे। तब यह मेज़ आपके घर में न आई होती। हमारी आत्म शक्ति कल्पवृक्ष है। उससे मिट्टी के खिलौने और गुड़िया हम मांगते हैं, फलतः वह हमें नित्य मिल जाती है जिस दिन महल और खजाना माँगेंगे उस दिन वह भी मिल जायेगा।जीवन की बुरी दशा, भय, दुख, निर्धनता तथा दुर्बलता हमारे लगातार विचारों के फल हैं। यदि कोई वास्तविक बाहरी दुख आ भी जाय तो उसे आसानी से हँसकर टाला जा सकता है। योगेश्वर शंकर ने कालकूट विष को हँस कर पी जिया और अपने गले से नीचे भी नहीं उतरने दिया। रोम- रोम बाणों से छिदा हुआ होने पर भी पितामह भीष्म बिना दुख माने बहुत दिनों तक शर- शय्या पर पड़े रहे और गहन धर्म शास्त्र की विवेचना करते रहे। हम तो झूठ भयों से डर- डर कर मरे जा रहें हैं। रात को चूहे भेड़िये दिखाई देते हैं, बिल्ली बाघ नजर आती है, हौवा यमराज का भाई बन जाता है। रस्सी साँप बन कर काट खाने को दौड़ पड़ती है।ईश्वर के पुत्रों, अपने को भूलों मत। तुम सत् चित आनन्द स्वरूप हो। अनन्त ऐश्वर्य के तुम अधिकारी हो। सफलता तुम्हारे लिये बनाई गई है। अपनी जेब को ढ़ूँढ़ों और पारस पत्थर को निकालो। जरा निकालो तो सही, यह काला कलूटा लोहा तेजमय सुवर्ण हो जायेगा। अपने हाथों को उठाने की आज्ञा तो दो सामने की थाली में रखा हुआ षट् रस भोजन तुम्हारे मुँह में होगा।