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Magazine - Year 1940 - Version 2

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प्राण प्रत्यावर्तन अर्थात् प्राण चेतना का आदान प्रदान । यह आदान-प्रदान किसके साथ ? इसका उत्तर यही हो सकता है-लघु का महान के साथ-आत्मा का परमात्मा के साथप्राण का महाप्राण के साथ ।
आत्मा वस्तुतः महान परमात्मा का एक छोटा घटक है। बीज रूप से उसमें वे समस्त संभावनाएँ और क्षमताएं विद्यमान हैं जो उसकी मूल सत्ता में हैं। वृक्ष की समस्त विशेषताएं' बीज में भरी रहती हैं-छोटे से दाने के अन्दर पूरे पेड़ का स्वरूप और क्रिया-कलाप अन्तहित रहता है । अवसर पाते ही यह बीज विकासोन्मुख होता है और उसकी विभूतियाँ अव्यक्त से व्यक्त होती हैं। यों देखने में बीज की सत्ता और वृक्ष की स्वरूप सत्ता एक दूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर की मालूम पड़ती हैं। बीज का मूल्य कानी कौड़ी और पेड़ की कीमत मुहर, अशर्फी होती है, अन्तर स्पष्ट है। पर कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षण ऐसे भी आते हैं जब बीज. के भीतर एक विचित्र हलचल उत्पन्न होती है वह अपना दाने जैसा अकिंचन स्वरूप खोता है और गल बदल कर अंकुर-फिर पौधा फिर वृक्ष बनने के लिए विचित्र प्रकार के क्रिया-कलाप अपनाता है । यह परिवर्तन का काल थोड़ा ही होता है । बीज को डालने और अंकुर का रूप धारण करने की काया-कल्प जैसी प्रक्रिया कुछ ही दिनों की होती है। इसके बाद बीज की सत्ता समाप्त हो जाती है और वृक्ष का अस्तित्व अपने ढङ्ग से काम करने लगता है । इसी हलचल भरी उथल-पुथल को प्रत्यावर्तन कह सकते हैं।
प्राण उस इकाई का नाम है जो मनुष्य के काय कलेवर के अन्तर्गत काम करती है और चेतना की किया का रूप धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती है । जीव सत्ता चेतना युक्त है उसमें प्रेरणाओं का आलोक ज्योतिर्मय है। मस्तिष्क सहित शरीर काय कलेवर की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह निर्धारित क्रिया कलापों को कुशलता पूर्वक सम्पन्न कर सके । दोनों के संयोग से ही जीवन यात्रा चलती है। जीव की आकांक्षा और शरीर की क्रियाशीलता का समन्वय ही जीवन की विभिन्न हलचलों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जीव चेतना और शरीर जड़। दोनों का सम्मिश्रण जिस स्तर पर-जिस केन्द्र विन्दु पर होता है उसे 'प्राण' कहते हैं।
और भी स्पष्ट करें तो चेतना और क्रिया की सम्मिश्रित स्थिति को जड़ और चेतन के मिलन केन्द्र को प्राण तत्व कह सकते हैं। मोटे रूप से जीवधारी की भौतिक सत्ता को प्राण रूप में ही देखा जाता और समझा जा सकता है । सरल विश्लेषण की दृष्टि से जीवन तत्व का दूसरा नाम प्राण भी दिया जा सकता है। इसी सत्ता की प्रधनता देखते हुए जीवधारी को 'प्राणी' कहते हैं। प्राण जब अपना काम बन्द कर देता है तो जीव तथा शरीर की सत्ताए यथावत् विद्यमान रहते हुए भी मृत्यु हो जाती है और कहा जाता है प्राण निकल गये।
व्यक्ति के भीतर जो लघु एवं असीम प्राण है वह समष्टि में समाये हुए असीम महाप्राण का एक लघु अंश है जैसा कि परमात्मा का एक घटक आत्मा । विन्दु वस्तुतः सिन्धु का ही एक घटक है। बादल समुद्र से जल लाकर भूमि पर बरसाते हैं। जमीन पर गिरते ही वह इस उधेड़ बुन में लग जाते हैं कि किस प्रकार वह सिन्धु तक पहुंचे । भूमिगत तुच्छ नलिकाओं में होती हुई नदी सरोवरों को पार करती हुई वह अन्ततः इस प्रयास में सफल हो ही जाती है कि समुद्र में अपनी सत्ता मिलाकर असीम और अनन्त स्तर के आनन्द का उपभोग करे। जीव की स्थिति भी यही है, वह ब्रह्म का एक घटक है। तुच्छता एवं ससीमता में बेचनी रहना स्वाभाविक है समस्त संभावों और असन्तोषों का समाधान असीमता की स्थिति आने पर ही मिल सकता है। इसी प्रयास में जीवधारी लगा रहता है पर सही मार्ग मिलने से भटकाव की स्थिति उलझन भरी भूल-भुलैयों में धुमाती है।
प्राण प्रत्यावर्तन का तात्पर्य है-काय कलेवर में काम करने वाली ससीम प्राणसत्ता का अनन्त असीम में संव्यास महाप्राण को महत्ता के साथ आदान-प्रदान । लघु का महान में समापन और महान का लघु पर आधि पत्य । महाप्राण को दूसरे शब्दों में अति मानुष्य या भतीन्द्रिय आलोक कह सकते हैं । लघु प्राण जव महाप्राण की सता में अपना समर्पण करता है तो स्वभावतः महा प्राण को उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए अपना कदम बढ़ाना पड़ता है। जीव जिस कदर परमेश्वर में घुलता है उसी अनुपात से ईश्वर का आलोक जीवधारी में जग मगाने लगता है । इसलिए पूर्णता की प्राप्ति और ईश्वर की उपलब्धि दोनों को एक ही तथ्य के दो पहलू माना जाता है । जितने अंश में हम अपनी स्वार्थ सङ्कीर्णता का परित्याग करते हैं ठीक उसी अनुपात में महान की महत्ता का आच्छादन हमें घेर लेता है।
आत्मा और परमात्मा के बीच का सम्बन्ध सूत्र भावनात्मक चुम्बकत्व के आधार पर जुड़ता है । दो घेतनाओं के बीच की कड़ी यही है। हम उत्कृष्टतम भावनाओं को अपने अन्तःकरण में स्थान देकर ही पर मात्मसत्ता को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं और उसके साथ आबद्ध हो सकते हैं। आमतौर से हमारा भावना स्तर मृत न सही तो मूछि स्थिति में ही पड़ा ' रहता है। पेट और प्रजनन-वासना और तृष्णा लोभ और मोह-स्वार्थ और अहङ्कार की सड़ी कीचड़ से एक कदम आगे अपना चिन्तन और कर्तृत्व बढ़ता ही नहीं। ऐसी दशा में अन्तःकरण को पोषण मिल ही नहीं पाता और वह भूख-प्यास से संत्रस्त मृत प्रायः स्थिति में ही पड़ा रहता है। शरीर की बुद्धि की-सम्पति की सत्ता की दृष्टि से कितने ही व्यक्ति बहुत बढ़े-चढ़े एवं सफल श्रेयाधिकारी पाये जाते हैं। भावना की दृष्टि से जिनमें अभीष्ट कोमलता जीवन्त रह रही हो ऐसे कोई विरले ही दीखते हैं। यंत्रवत जीवन जीने वालों को इसकी कुछ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । शरीरगत. सुदृढ़ता और बुद्धिगत कुशलता से ही उन्हें सांसारिक सुविधायें मिल जाती हैं। उत्कृष्टता, आनन्द का न उन्हें अनुभव होता है और न उस तरह के वातावरण का प्रोत्साहन मिलता है ऐसी दशा में भाव भूमिका का मृत प्रायः स्थिति में पड़ा रहना स्वाभाविक है।
कहना न होगा कि परमात्मा असीम शक्ति शान्ति का केन्द्र है उसके साथ सम्बद्ध होकर हम समस्त सीमाओं को लाँघ कर असीम और समस्त अभावों को परास्त कर अनन्त वैभववान बन सकते हैं । ऋषि और देवदूत वस्तुतः इसी स्तर के होते हैं । जन्म जात रूप से वे भी अन्य सब की भौति सामान्य ही होते हैं पर भावना को विकसित करके अपनी क्षुद्रता को असीम में जोड़ देते हैं । जुड़ी हुई दो वस्तु एक ही हो जाती हैं। ईश्वर के साथ जुड़ा हुआ जीव-महाप्राण के साथ जुड़ा हुआ प्राण लगभग एक ही समतुल्य हो जाते हैं। आत्मिक विकास की दिशा में बढ़ते हुए जीव सत्ता सिद्धियों और विभूतियों की दिव्य सम्पदाओं से लद जाती है।
विवेक सङ्गत और शास्त्र सम्मत सांधना पद्धतियाँ एक ही प्रयोजन पूरा करती हैं कि अन्तःकरण की प्रसुप्त उच्च भावनाओं को जगायें। उन्हें दिशा दें और इतना आत्मबल उत्पन्न करें जिसके सहारे लोभ और मोह के बन्धनों को तोड़ते हुए मनुष्य उत्कृष्ट चिन्तन को हृदयङ्गम और आदर्श कर्तृत्व को क्रियान्वित करने के लिए आन्तरिक और वाह्य अवरोधों को तोड़ता हुआ कटिबद्ध हो सके। उपासना के अनेकों विधि विधान प्रचलित हैं पर उनका एक मात्र उद्देश्य यही है। कर्मकाण्डों, साधना उपक्रमों की बाल पोथी के साथ भावनात्मक उत्कर्ष की उचस्तरीय शिक्षा व्यवस्था की जाती है। सीड़ियों के सहारे ऊपर चढ़ते हैं केवल मुंगदरों के सहारे पहलवान बनते हैं पुस्तकों के सहारे विद्या प्राप्त करते हैं ठीक इसी प्रकार साधना विधानों के सहारे भावनात्मक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा किया जाता है। जिन साधनाओं में भावोत्कर्ष का तथ्य अछुता छोड़ दिया जाता है और शारीरिक क्रिया कलाप अथवा वस्तुओं का हेरफेर भर जुड़ा रहता है वे प्रायः बाल क्रीड़ा बन कर ही रह जाती हैं उनसे कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
प्राण का महाप्राण के साथ आदान-प्रदान सम्भव हो सके, आत्मा और परमात्म के परस्पर मिलन की अनुभूति होने लगे; यही है प्रत्यावर्तन प्रक्रिया जिसकी व्यवस्था इन दिनों शान्ति कुन्ज हरिद्वार में चल रही है और उपयुक्त साधकों को क्रमशः थोड़ी-थोड़ी संख्या में बुलाया जा रहा है । यह प्रत्यावर्तन साधना क्रम यदि सही रीति से सम्पन्न हो सके तो तत्काल उसका प्रतिफल देखा जा सकता है। जीवन का जो कुछ भी भला बुरा स्वरूप है वह मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व की प्रतिक्रिया मात्र है । उत्थान और पतन की अन्तःस्थिति का प्रतिबिम्ब मात्र कहना चाहिए । विक्षोभ और उल्लास का तात्विक विवेचन किया जाय तो उन्हें चेतना के श्वासोच्छास भर कह सकते हैं और आन्तरिक स्तर में हेरफेर सम्भव हो सके तो परिस्थितियों के बदलने में एक क्षण भर की भी देर नहीं लगती। इतिहास के पृष्ठ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं कि मनुष्य की अन्तःनिष्ठा एवं आकांक्षा प्रवाह में परिवर्तन हुआ तो वाह्य जीवन का सारा ढाँचा ही उलट गया। भीतरी परिवर्तन का वाह्य जीवन पर परिवर्तन प्रभाव देखने को न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता आज का दुखी कल सुखी बन सकता है आज का पतित कल प्रातः स्मरणीय और अभिवंदनीय बन सकता है, आज का उलझन भरा व्यक्ति कल समुन्नत और सन्तोष जनक स्थिति का आनन्द ले सकता है। यह परिवर्तन सांसा रिक घटनाक्रम के हेर फेर से नहीं हो सकता जैसा कि आमलोग समझते हैं। इसके लिए एकमात्र अन्तःचेतना के स्तर में ही उलट पुलट होनी चाहिए।
शास्त्रीय साधनायें इसी प्रयोजन को पूरा करती हैं। देखने में उनमें भी तपश्चर्या, योग साधना, एवं विधि विधानों का ही वाह्य कलेवर गठित होता है पर उनके साथ-साथ भावोत्कर्ष को ध्यान धारणा अत्यन्त सघन रूप में जुड़ी रखी जाती है और यह प्रयत्न किया जाता है कि प्रत्येक साधना विधान की लकीर पीटने के लिए नहीं शारीरिक हलचल मात्र के रूप में नहीं वरन् भाव भरी मनःस्थिति में सम्पन्न किया जाय।
प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों में यों छ घन्टे तथा दस प्रकार के विभिन्न साधना विधान सम्पन्न करने पड़ते हैं पर उनके साथ-साथ यह तथ्य भली प्रकार हृदयङ्गम करा दिया जाता है कि क्रियाकृत्य को ही सब कुछ न मान बैठे उसके भीतर गहराई तक प्रवेश कर और जिस साधना के साथ जो भावना जुड़ी हुई है उसे आत्मसात् करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें। प्रयल इतना गहरा होना चाहिए कि क्रिया-प्रक्रिया अनुभूति के रूप में परिणित, प्रति विम्बित होने लगे। इस प्रकार भावोत्कर्ष का प्रयोजन सरलता पूर्वक सम्पन्न होता चला जाता है । इस अन्त: स्फुरण को व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार उतारा जा सकता और पिछले ढरें को बदलकर उपलब्ध आलोक के आधार पर किस प्रकार किस दिशा में क्या परिवर्तन किया जा सकता है तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं तो आध्यात्मिक जीवन का एक स्पष्ट ढाँचा सामने आ खड़ा होता है। कहना न होगा कि इस परिष्कृत प्रक्रिया में जब जिस क्षण भी प्राण प्रतिष्ठा होती है उसी क्षण मनुष्य की क्षुद्रता महानता में परिणत हुई दीखने लगती है। इस स्थिति में वह अपने लिए और दूसरों के लिए एक अनुपम वरदान बनकर सामने आता है। उसकी पिछली उलझन भरी जीवन चर्या और नवोदित प्रगतिशीलता की जब तुलना की जाती है, तो यह स्पष्ट अनुभव होता है कि वस्तुतः । व्यक्तित्व में भारी हेर फेर हुआ है और प्राण प्रत्यावर्तन ने एक तथ्यपूर्ण यथार्थता का रूप धारण किया है । लघु। से महान बनने के उपरान्त गुण कर्म स्वभाव में और तदनुरूप परिस्थितियों में जो अन्तर होना चाहिए वह जब प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा तो यह सन्देह करने का कोई कारण न रह जायगा कि साधना में सिद्धि न जाने मिलती। है या नहीं।

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