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Magazine - Year 1940 - Version 2

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अचूक वशीकरण मन्त्र

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अचूक वशीकरण मन्त्र

(ले. श्री विनोद शंकर जी विद्यालंकार)

एक कवि का कथन है वशीकरण इक मन्त्र है, तज दे वचन कठोर। वास्तव में प्रिय भाषण की ऐसी ही शक्ति है इससे पराये अपने हो जाते हैं। सर्वत्र मित्र ही मित्र दृष्टिगोचर होते हैं, शत्रु कोई दिखाई नही पड़ता। बड़े- बड़े कठिन कार्य मधुर भाषण के द्वारा आसानी से सिद्ध हो जाते हैं। मधुर वाणी एक दैवी वरदान है, मोहनास्त्रों में इसे शिरोमणि कह सकते हैं।

कई प्रकार के प्रिय भाषी हमें दुनियाँ में दिखाई पड़ते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनका हृदय तो दूषित और कठोर होता है, किन्तु लोगों को धोखा देने के लिये मीठी- मीठी बातें बनाते हैं। एक ही लोगों पर बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा। खांहि महा अहि हृदय कठोरा।। वाली चौपाई लागू होती है। पर ऐसी वार्ता का भेद तुरन्त ही खुल जाता है। बनावटी चीज में कुछ ऐसी अस्वाभाविकता और मिलावट होती है कि झूंठ और संदेह उसमें से टपकता है। स्वार्थ और दम्भ की गन्ध उन बातों में से उड़ती रहती है। किसी को इन चिकनी चुपड़ी बातों से कुछ समय के लिये धोखा भले ही हो जाय, पर स्थायी असर नहीं हो सकता। प्रिय भाषण की जड़ में प्रेम और सत्य होना चाहिए। इसी के बल पर वाणी में ओज आता है जिसका दूसरों पर असर पड़ता हैं। प्रेम से सद्भावना की उत्पत्ति होती है और सद्भावना में वह जादू है कि रूखा और सीधी सादी भाषा में कहे हुए शब्द भी बड़ी- बड़ी लच्छेदार बातों से अधिक मूल्यवान साबित होते हैं। मिलनसार सद्भावना का दूसरा रूप है। सद्भावना युक्त वाणी शत्रुओं के घर में भी अपना स्थान बना देती है।

यह बात अच्छी तरह समझ रखने की है कि खुशामद, चापलूसी, हाँ में हाँ मिलाना प्रिय भाषण नहीं हैं। खरी और हितकर बात जो मीठी भाषा में कही जाय वही सत्य भाषण है। जो यह कहते है कि सच्ची बात कड़वी होती है वे भ्रम में हैं। सच्चाई के चारों ओर अमृत ही अमृत भरा हुआ है फिर उसमें कड़वापन कहाँ से आ सकता है? जो कड़वा बोलता है उसके मन में दूसरों के प्रति पराया पन और क्रोध होता है। जब कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ अभिन्न हृदय होकर बातचीत करती है, तब चाहे वह प्रेमी को उसके दोष ही बता रही हो उसकी वाणी में कड़वापन नहीं हो सकता। यदि कोई शब्द कड़वा भी मुँह से निकल जाता है तो उसका कोई खराब असर नहीं होता। फिर सत्य और प्रेम से सनी हुई वाणी कडुई कैसे हो सकती है? अपने काने पिता को क्या आप काना कह कर पुकारेंगे? जिसके प्रति हमारे मन में श्रद्धा होती है उनसे दुर्वचन नहीं कहते। अपने पूज्य सम्बन्धी से जिनके प्रति हम आदर रखते हैं, कोई कड़ुवी बात कहते हुए भी मीठी भाषा का प्रयोग करते हैं। यदि हमारे विचार प्रेम युक्त हैं, तो दूसरों के साथ भी यही बात होनी चाहिए। किसी के नाम को भद्दी तरह से लेकर या तू जैसे अपमान जनक संबोधन से पुकारने में पराया पन और घमंड टपकता है। इस प्रकार के संबोधन असत्य नहीं समझे जाते पर पराया पन और घमंड क्या सत्य की शाखा है। जहाँ सत्य होगा वहाँ यह दुर्गुण नहीं पहुँच सकते। वाणी में हलकापन, ओछापन, चिड़चिड़ापन, पराया पन यह सब असत्य और अप्रेम का परिणाम है। इन दुर्गुणों युक्त वाणी में खटाई और कषाय होता है जिससे दूसरे का हृदय दुग्ध फट जाता है।

आपको कुछ सत्यनिष्ठ मृदु भाषियों के साथ रहने का कभी न कभी थोड़ा बहुत अवसर अवश्य प्राप्त हुआ होगा। उनकी बातचीत में कैसा आनन्द आता है, यही इच्छा होती है कि इन्हीं के पास बैठे रहे और बातें सुनते रहे। लोग खानपान की सुधि बुधि भूल कर उनका वचनामृत पान करते हैं। उनका एक एक शब्द हृदय के अन्तर में घुल जाता है। जिन बातों को हम हर किसी के मुँह सुनते हैं और छपे हुये कागजों में पढ़ते हैं, उन्हीं बातों को यदि कोई महापुरुष कहता है तो अपूर्व असर होता है। इसका एक ही कारण है सद्भावना। सद्भावना वाणी द्वारा जब झलकती है तब अचूक वशीकरण मन्त्र का काम करती है। सम्राट अशोक और भर्तृहरि राज सिंहासन छोड़कर भिखारी क्यों बन गये थे? गुरुओं की सद्भावना पूर्ण वाणी उनके अन्तर में इतनी गहरी उतर गई थी कि वे अन्य सुख साधनों को व्यर्थ समझने लगे थे। प्रेम में आकर्षण की अलौकिक शक्ति है। जिसके पास यह शक्ति आई उसके सब अपने हो जाते हैं। न तो कोई उससे घृणा करता है और न द्वेष। जंगलों में तपस्या करने वाले महात्माओं के पास सिंहादि हिंसक जानवर बैठे रहते हैं और उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाते। प्रेमियों के दरबार में जाकर गाय और शेर एक घाट पानी पीते हैं। छोटा बालक जो किसी से विशेष पहचान नहीं रखता, आँखों को देखकर मनुष्य की भावना ताड़ जाता है। जिसमें उसे प्रेम दिखाई देता है उसकी तरफ जाता है, जिस तरफ उपेक्षा या निरादर देखता है, कदम भी नहीं रखता। ठगों को देखिये वे केवल सद्भावना और प्रेम की नकल बनाते हैं और लोगों को बहकाकर अपने पंजे में फँसा लेते हैं। जब नकल में इतना असर है तो असल की तो बात ही अलग है।

मीठी बोली केवल भाषा में गति कर लेने और कूटनीति को जान लेने से नहीं आ सकती है। इनकी सहायता से आदमी हाथ पाँव फेंकता है पर थक जाता है। उसका मन डरता रहता है कि कहीं कोई ताड़ न ले, इसलिये बार- बार यह सिद्ध करने की चेष्टा करता है कि मैं सच बोल रहा हूँ। उसकी बातें और व्यवहार एक दूसरे से मेल नहीं खाते। यद्यपि वह यही समझता रहता है कि मैं सबको चकमा देकर लोगों को मूर्ख बना रहा हूँ, पर असल में वह खुद ही धोखा खाता है। असली रूप प्रकट होने में देर नहीं लगती और तब वह लोगों की निगाहों में बहुत ही गिर जाता है। कपट व्यवहार और झूठी बातों की सहायता से दूसरों पर असर डालने का जितना प्रयत्न किया जाता है यदि उतना ही या उससे भी कम श्रम करने, अपने को ईमानदार बनाने में किया जाय तो अधिक सफलता मिल सकती है। कुछ लोगों को बात का बतंगड़ बनाने की और व्यर्थ कतरनी की तरह जबान चलाते रहने की आदत होती है। यह वाणी का असंयम और दुराचार है जिससे असत्य भाषण की आदत पड़ जाती है।

सत्य भाषण, हितकर भाषण, प्रिय भाषण वाणी की सिद्धियाँ हैं, यह आत्म संयम, स्वार्थ त्याग और प्रेम भावना से आती है। जिसका सब लोगों में आत्मभाव हो गया उसने वशीकरण मन्त्र की साधना पूरी कर ली। मनुष्य नहीं पशु पक्षी और देवता भी उसके वश में हैं। पर्वत उसे रास्ता देंगे और कटीली झाड़ियाँ उस पर छाया करेंगी। व्याघ्र और सर्पादि उसके मित्र होंगे एवं उसे सर्वत्र प्रेम का सागर लहराता नजर आवेगा।

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