
जानी तथा ज्ञानी
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(स्वामी मनोहरदास ज्ञानतीर्थ, दीनवा)
मैं जानकर भी जानकार बनने का दंभ भरने वाले व्यक्तियों की संसार में कमी नहीं है। ऐसे व्यक्ति आम जनता को गुमराह करने में भी नहीं चूकते। देखा यह गया है कि जिनके पास तत्व की जितनी कम मात्रा होती है, दंभ में वे उतने ही अधिक बढ़े हुए रहते हैं पर जैसे जैसे तत्व की मात्रा बढ़ती जाती है, जानकारी और अनुभव बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे विनय, नम्रता आदि गुणों की भी वृद्धि होती जाती है।
जो ज्ञानी है उसे अहंकार छू भी नहीं जाता। “जब “मैं” था तब तू “तू” नहीं, जब “तू” है “मैं” नाँहि” जैसी सूक्ति उस पर फलितार्थ होती हैं। मैं या अहंकार तब ही तक रहता है जब तक ज्ञान नहीं रहता। सर्व खलु इदं ब्रह्म यह सब तो ब्रह्म ही है, आत्मा ही है, समझने वाला अपनी आत्मा से अन्य प्राणियों के शरीर में समाई हुई आत्मा में भिन्नता देख ही नहीं पाता तब अहंकार द्वारा वह किस पर अपनी सत्ता का आरोप करे, इसलिए ज्ञान के अनन्तर अहंकार अपने आप उससे दूर रहता है। इसी तरह उसे किसी प्रकार की आकाँक्षा भी नहीं रहती क्योंकि तब उसमें व्यापकता का प्रसार हो जाता है। ऐसे ज्ञानी में, अपने पुत्र स्त्री में और अन्य के पुत्र स्त्रियों में कोई मोह विषयक भेद नहीं रह जाता। संसार में समदृष्टि उसे प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार न उसमें एषणाओं-पुत्रैषणा वित्तैषणा, लोकेषणा-के लिए ही गुँजाइश रहती है, न उसे अपने लिए किसी विशेषता प्राथमिकता पाने के लिए लालच। अलबत्ते वह जहाँ जहाँ दुःख और दुःखी समुदाय देखता है, वही वह उस समुदाय को दुःख से मुक्त करने के लिए प्रयत्न करता है। उसे सिद्धि का लोभ नहीं रहता। न योगी, ज्ञानी, वैरागी कहलाने का वह अपने प्रभु को सर्वत्र देखने के कारण अपने को सब ही का अनुचर समझने लगता है।
वस्तुतः देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि अहंकार ही एक ऐसा तत्व है जिसने कि मूल तत्व के साथ मानव को पृथक कर रखा है और इसीलिए आज मानव जीवन दुःखों और विपत्तियों से घिरा हुआ है इसलिए जिन्होंने ज्ञान पूर्वक अहंकार को दिव्य बना लिया है वे ही ज्ञानी हैं, जिनके जीवन में क्षुद्र अहंकार की सत्ता मौजूद है, भले ही वे पंडित हों, पठित हों विद्वान और शिक्षित हों, वे ज्ञानी नहीं हो सकते। उनकी संज्ञा ‘जानी’ कही जायगी।
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