
सत्य की महिमा
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(पं0 श्यामलाल गुप्ता, ‘प्रेम’ भरथना)
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्ययोनिं निहतं च सत्ये
सत्यस्य सत्यमृतं सत्यनेत्रं,
सत्यात्मकं त्वाँ शरणं प्रपन्नः
(भागवत पूर्वार्ध देवस्तुति)
हे भगवान! सत्य ही आपका व्रत एवं नियम है तथा आप सत्य स्वरूप हैं तथा तीनों कालों में आप सत्य से स्थित रहते हैं। सत्य से आप की उत्पत्ति है तथा आप सत्य ही में विराजमान हैं सत्य स्वरूप आप सत्य के नेत्र से सर्व प्राणी वर्गों की रक्षा करते हैं अतः मैं आप की शरण हूँ।
सत्यमूलं जगर्त्सवं लोकाः सर्वे प्रतिष्ठिताः।
सत्येन सिद्धि प्राप्तोहि ऋषयो ब्रहावादिनः।।
(बाल्मीकि अयो0का0सर्ग 139 श्लो050)
सम्पूर्ण प्राणिमात्र का मूल कारण सत्य है तथा सम्पूर्ण लोक सत्य ही में स्थित है। सत्य ही के धारण करने से ऋषि मुनि व ब्रह्मवेत्ता लोग सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म
(तैत्तिरियोपनिषद)
वह अनन्त ब्रह्म सत्य तथा ज्ञान स्वरूप है। ?
सत्य ज्ञानमानन्दं ब्रह्म।
(उपनिषद्)
यह सर्व व्यापक ब्रह्म, सत्य व ज्ञान तथा आनन्द स्वरूप वाला है।
दिव्योह्यमूर्ता पुरुषा स बाह्यभ्यन्तराह्यजा।
अप्राणो ह्यमनाशुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः।।
( अर्थव॰ द्वि0 मु0 प्र0 ख॰ 2)
निश्चय ही वह सत्य ब्रह्म दीप्ति वाला है अमूर्त है सर्व व्यापक है वह बाहर और प्रत्येक पदार्थ के मध्य में है। इसलिये निश्चय करके उत्पत्ति से रहित तथा मन से रहित है अतः प्रकाश स्वरूप है पर अक्षर और प्रकृति से भी परे है।
यदर्चि मद्यपुभ्यौ अणु,
च अस्मिन लोका निहता लोकिनश्च
सदेतदक्षर ब्रह्म स प्राणस्तदु तद्वोद्धव्यं सौम्य विद्धि
(अथ॰ द्वि0 मु0 द्वि0 ख॰ 2)
वह सत्य रूप ब्रह्म प्रकाश वाला है और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है जिनमें सम्पूर्ण लोक तथा उनके निवास करने वाले जीव स्थित हैं। वहाँ सत्य रूप अक्षर ईश है। वह सबका प्राण शक्ति देने वाला वही वाणी तथा मन का प्रेरक है, वह सत्य है, मृत्यु से रहित है, वह जानने योग्य है। अतः है सौम्य ? तू उस सत्य को जान, सत्य ही सबका मूल कारण है।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुः ज्योतिरापः पृथ्वी विश्वस्य धारिणी।।
(अथ॰ द्वि0 मु0 द्वि0 ख॰ 3)
उस सत्य ब्रह्म से प्राण मन व सर्व इंद्रियां और उसके विषय आकाश वायु अग्नि जल व विश्व को धारण करने वाली पृथ्वी उत्पन्न हुई है।
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्ता पावकाद्विस्फुलिंग।
सहस्रशः प्रभवन्ते स्वरूप । तथा अक्षरात्।।
विविधा सोम्यगावः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।
(अथ॰ द्वि0 मु0 द्वि0 ख॰ 2)
यह बात प्रसिद्ध है कि वह अक्षर ब्रह्म (सत्य है) सो जैसे प्रदीप्त हुई अग्नि से उसके समान रूप वाले सहस्रों विस्फुल्लिंग (चिनगारियाँ ) उत्पन्न होती है। वैसे ही हे सौम्य ? सत्य अक्षर ब्रह्म से बहुत प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं और उसी में लय होते हैं।
एकेनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम।
क्रियते भास्करेणव स्फारस्फुरिततेजसा।।
एक ही अकेला शूरवीर पुरुष सारी पृथ्वी को पाँव तले दबाकर वश में कर लेता है जैसे कि अकेला सूर्य सारे जगत को प्रकाशित कर देता है इसलिये मनुष्यों का जन्म धन्य है।
सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिन्सा,
दयान्वितं चानृतमेव सत्यम्।
हित्रं नराणाँ च भक्तीहयेन,
तदेव सत्यं न तथान्यथैव।।
(देवी भागवत अ॰ 3 श्लो0 36)
वह सत्य सत्य नहीं है जो कि हिंसा से युक्त हो, वह (अनृत) झूठ दया से युक्त होता हुआ सत्य ही है। पुरुष का कल्याणकारी एक सत्य के सिवा कुछ नहीं।
तदेतत्सत्यं मंत्रेषु कर्म्माणि कवयो यान्यः
पश्यंस्तानि त्रेतायाँ बहुधा संन्ततान।
तान्यचरितनियतं सत्यकामा एव पंथा सुकृतस्य लोके।
(अथ उप॰ प्र0 खं0 मु0 द्वि0 बल्ली 1)
यह बात सत्य है कि मन्त्रों में जिन अग्निहोत्रादि कर्मों को वेदवेत्ता लोग देखते थे वह त्रेता में अनेक प्रकार विस्तृत थे। उन कर्मों से हे सत्य कामनाओं वाले लोगों! नियम पूर्वक सत्य का आचरण करो। क्योंकि यही तुम्हारी इस मानव देह के पुण्य रूपी कर्म मार्ग है और सत्य ही से सर्व लोकों में सर्व कार्य सिद्ध होते हैं।
अश्वमेधसहस्रंच सत्यंच तुलयाधृतम।
अश्वमेधसहस्रद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।
(महा आ॰ प॰ अ॰ 74 श्लो0 109)
हजार अश्वमेध करने का जो फल तथा एक सत्य बोलने का जो फल है दोनों को तुला (तराजू) पर रख कर तौलने से सत्य ही श्रेष्ठ निकलेगा।
यस्यवाड़ मनसीशुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा।
सवै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपंगत फलम्।।
(मनु अ॰ 2 श्लोक 160)
जो पुरुष सर्वदा मन वाणी के शुद्ध भाव से सम्यक् सत्य का अवगाहन करता है वह सम्पूर्ण लोकों के सुख का भागी बनता है। तथा सम्पूर्ण वेदान्त के रहस्य के फल का भागी होता है।
सत्यरुपं परंब्रह्म सत्यं हि परमं तपः।
सत्यमूला क्रिया सर्वाः सत्यात्परतरं नहि।।
(शिव पु उमा0 सं0 5 अ012 श्लो013)
वह सत्य का पालन कर्ता परमात्मा सत्य रूप है तथा सत्य ही भाषण करना श्रेष्ठ तपस्या है। सत्य ही सबका मूल कारण है। सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।
यो धर्मान शब्दान् गृणात्युपाधिशतसः गुरुः।
सा पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानुवच्छेदात्।।
(योग सूत्र समाधिपादे सूत्र 26)
जो (सत्य)धर्म प्रतिपादक सृष्टि के आदि में अंगिरादि ऋषियों का गुरु था। वही सृष्टि के अन्त तक सबको यथोचित कर्मानुसार समय-2 पर वृद्धि देता है इसलिये वही सब विश्व का सदगुरु है।
सत्यं र्स्वगस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।
न पावनतमं किच्चित्सत्यादर्ध्यगमं क्वाचित।।
( महाभा0 शाँति0 पर्व0 अ॰ 299 श्लो0 31)
सत्य ही स्वर्ग यानी ऊंचे उठने की सीढ़ी है तथा सत्य ही इस संसार रूपी भवसागर की नौका है। सत्य से बढ़ कर पवित्र और कुछ नहीं सत्य को धारण करने वाला पुरुष सर्वत्र गमन कर सकता है।
गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः
अलुब्धैर्दान शूरैश्च सप्तभिर्धार्यते मही।
(स्कं0 मराडू0 पु0 मोह॰ खं0 1 कौस्तुक॰ खं0 2 अ॰ 2 श्लो0 71)
गौवों से, ब्राह्मणों से वेदों के द्वारा सती (पतिव्रता स्त्रियों ) द्वारा तथा सत्य भाषण करने वाले पुरुषों से तथा (अलुब्ध) यानी दूसरों को पीड़ा न देने वाले व दान में श्र अर्थात् परोपकारी पुरुषों से यह पृथ्वी हमेशा स्थिर रहती है अर्थात् ये ही पृथ्वी को धारण करते हैं।
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