
भीष्म की इच्छा मृत्यु कैसे हुई?
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(पं. निरंजनप्रसादजी गौतम, पटलौनी)
अब यह विचार करना है कि उत्तरायण सूर्य होने पर ही महर्षि भीष्म ने अपना शरीर क्यों छोड़ना चाहा क्योंकि दिग्वाची शब्द तो आपेक्षिक है। जैसा उत्तरायण वैसा दक्षिणायन भी, फिर उत्तरायण ही श्रेष्ठतम क्यों? और यदि उत्तरायण सूर्य में प्राण विसर्जन करने वाले को ही सद्गति मिलती है तो क्या भीष्म के अतिरिक्त सभी ऋषि महाऋषि को सद्गति से वंचित रहना पड़ा होगा जिन्होंने अपनी मृत्यु में अयन की अपेक्षा नहीं समझी?
वेद, उपनिषद् आदि अनेक शास्त्रों में मानव जीवन व्यतीत करने के दो मार्गों का वर्णन मिलता है 1-देवयान, 2-पितृयान, जैसा कि ऋग्वेद में उल्लेख है-
द्वे सृती अश्रृणंव पितृणाम
अंह देवानामुत मर्त्यानाम
ताभ्यामिदं विश्वमेतत समेति
यदन्तरा पितरं मातरं च
कठोपनिषद् के अनुसार इन दोनों को श्रेय और प्रेय कहा है, यथा-
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्य मेतस्
तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः
श्रेयोहि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते
प्रेयो मन्दो योग क्षेमाद् वृणीते
जिनमें श्रेय को मोक्ष मार्ग और प्रेय को भोग मार्ग ठहराया है। प्रथम श्रेय मार्ग अर्थात् मोक्ष मार्ग का सम्बन्ध उत्तर से है, और इसी प्रकार प्रेय मार्ग अर्थात् भोग मार्ग का दक्षिण से। साथ ही ‘विश्वस्माद इन्द्र उत्तरः’ आदि अनेक वेद वाक्यों से यह भी स्पष्ट है कि इन्द्रलोक अर्थात् देवलोक भी उत्तर में ही है तथा ‘दक्षिणावृत हि पितृ लोकम्’ इस (तैत्तरीय 1/6/8/5) वाक्याधार पर दक्षिण में पितृलोक भी प्रसिद्ध है।
वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा-ये तीन ऋतुयें उत्तरायण सूर्य होने पर ही आती हैं तथा शेष शरद, हेमन्त और शिशिर-ये दक्षिणायन सूर्य में
इसलिए हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि उत्तर दिशा तथा पूर्वोक्त तीन ऋतुएं-ये देव स्थान है। इससे स्पष्ट है कि सूर्य के उत्तरायण होने पर देवों में, और दक्षिणायन होने पर पितरों में स्थान मिलता है।
सूर्य का उत्तरायण होना-
यशोदाँ त्वा तेजोदाँ त्वा
तैत्तरीय सं0
इस वाक्यानुसार उत्तरायण सूर्य का यशस्वी और तेजस्वी होना कहा है- इसके अतिरिक्त दक्षिण दिशा में यम का आधिपत्य भी कहा है।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि पितामह ने मोक्ष मार्ग तथा देवलोक आदि की कामना से दक्षिणायन में प्राण परित्याग श्रेष्ठ न समझा
वह मृत्यु पर विजयी कैसे हुए-
शतपथ में ज्योति स्वरूप सूर्य को च्रेतोदेवताज् के नाम से पुकारा है। इस शब्द के अनुसार सूर्य का देवतात्व भी रेतस अर्थात् वीर्य में होना चाहिये। उत्तरायण और दक्षिणायन इन दोनों नामों के भेदानुसार वीर्य को भी दो भेद हुए 1-ऊर्ध्वरेतस्, 2-अधोरेतस
ऊर्ध्वरेतस् का सरलार्थ है वीर्य को ऊपर की ओर ले जाना अर्थात् उसको नीचे की ओर जाने से निरोध करना । दूसरे शब्दों में इसे ब्रह्मचर्य भी कहते हैं।
भीष्म ने अपना पूरा जीवन ब्रह्मचर्य को दे डाला यह सर्वमान्य है फिर मृत्युकाल में ही वे ऊर्ध्वरेतस् न रह कर-इसलिए देवलोक और श्रेयमार्ग से वंचित रह कर पितृ-लोक और यमपुराभिमुखी क्यों बनते ?
भगवान् कृष्ण ने गीता में, अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, वर्ष के प्रथम 6 मास और उत्तरायण सूर्य-इन में मरने वाले को पुनः लौट के नहीं आना पड़ता, यह कहा है तथा इसके प्रतिकूल धूम्र, रात्रि, कृष्णपक्ष और वर्ष का उत्तरार्ध भाग इस काल में जो प्राण छोड़ता है, वह फिर से संसार में लौटता है, यह भी कहा है।
गीता के अनुसार यह निश्चय है कि मरने समय मनुष्य की जैसी विचार धारा होती उसी के अनुसार गति भी होती है। भीष्म पितामह ने पूरे जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन कर मरते समय भी उनके विचार ब्रह्म की ओर ही रहे क्योंकि साँसारिक ऐषणाओं को चाहने वाले, पुत्र-पौत्रादि पैदा कर उन्हीं के द्वारा अमर होने वाले की भाँति उनकी आकाँक्षायें नहीं थीं उन्हें तो पितृलोक और भोग मार्ग की अभिलाषा न होकर देवयान और ज्ञान मार्गियों के मार्ग का अनुसरण कर स्वर्ग की कामना थी।
उन्हें उत्तरायण की प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी? इसका उत्तर है यदि वे अन्य गृहस्थियों की भाँति पितृमान में ले जाने वाले कार्यों से सदा अलग रहे तो फिर वे क्यों कर दक्षिणायन में मृत्यु होने से जनसाधारण की भाँति यमातिथि बनते? क्या भीष्म जैसे आजन्म ब्रह्मचारी, तपस्वी और त्यागी ने भी अपने जीवन में भोग को स्थान दिया था? इसका उत्तर यही है भीष्म अनेक गुणों से युक्त तो थे साथ ही कुछ दोषी भी थे। तभी तो उन्होंने पांडवों का धर्म युक्त पक्ष छोड़कर कुरुओं का साथ दिया। किन्तु यह जानते हुए भी कि पाण्डवों के कार्य न्याय संगत और उचित हैं उनका साथ छोड़कर कौरवों का साथ पकड़ा। इसका कारण यही था कि कौरवों द्वारा उन्हें धन, धान्य आदि मिलता था और इसलिए कि मैं जिसका अन्न खाता हूँ उसी का साथ दूँगा यह युधिष्ठिर से स्पष्ट कह भी दिया था-
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित
इति सत्यं महाराज्! बद्वोस्मयर्थेन कौरवैः?
पुरुष धन का गुलाम है न कि धन किसी का , इसी नियम के अनुसार युधिष्ठिर? मैं कौरवों के साथ बँधा हुआ हूँ।
क्योंकि भीष्म के जीवन में ईश्वर का स्मरण छोड़ कर धन धान्य की उपासना का दोष आ गया था, यही कारण था कि महर्षि होते हुए भी वह साँसारिक ऐषणाओं के वशी हो चुके थे और इसीलिए भीष्म को उत्तरायण की प्रतीक्षा करनी पड़ी क्योंकि उनकी वृत्ति योग रहित थी और शक्तियों का आत्मा में केन्द्रीकरण नहीं किया गया था। अतः उनके धराशायी होते समय आकाशवाणी गूँजी कि-
‘भीष्म ! त्वं स्वच्छन्दमरणोसि।
तस्माद् योगमास्थाय उत्तरायणकालं प्रतीक्ष्स्वं।’
भीष्म! तुम्हें वरदान मिला कि जब चाहो प्राण परित्याग करो इसलिए योग के आश्रयी होकर उत्तरायणकाल की ही प्रतीक्षा करो।