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कौन कहता इस जगत से अब नहीं सम्बन्ध तेरा?
मुक्त तू तो बन्धनों से क्या मरण क्या जन्म तेरा??
पाप से बोझिल धरा पर तू सदा अवतार लेता।
मूर्ख नश्वर प्राणियों को प्राण का उपचार देता।
तू कभी बनकर मसीहा सत्य की ज्योति जलाता।
तो कभी बन बुद्ध तू ही शान्ति का सन्देश लाता।
है सदा से ही यही क्रम, कब हुआ क्रम बन्द तेरा?
कौन कहता इस जगत से अब नहीं सम्बन्ध तेरा?
इस घनी काली निशा में तू बना बापू उजाला।
दुखित पीड़ित मानवों में रक्त का संचार डाला।
वे अहिंसा सत्य के दे शस्त्र था विजयी बनाया।
आज सब जग जगमगाता तू अमर आलोक लाया।
था सबों का बन्धु तू और सब जगत था बन्धु तेरा।
कौन कहता इस जगत से अब नहीं सम्बन्ध तेरा?
यदि कभी नरसिंह बनकर भक्त वत्सलता दिखाई
तो कभी श्री कृष्ण होकर सुप्त मानवता जगाई।
राम हो संसार में मर्याद की दृढ़ पंक्ति बाँधी।
दान कलि को शाँति सुख का दे गया वन ‘संतगाँधी’
है इसी से तो कहाता नाम कृपा सिन्धु तेरा।
कौन कहता इस जगत से अब नहीं सम्बन्ध तेरा?
देख जकड़े दासता की बेड़ियों में पुत्र अपने
मुक्ति का वरदान देकर कर दिये साकार सपने
प्रेम की दुनिया बसाई प्रेम के मधुकण पिलाये।
विष्णु ब्रह्म हारते फिर कौन तुझको जान पाये।
सृष्टि सारी को रुलाता प्रेम बन्धन आज तेरा।
कौन कहता इस जगत से अब नहीं सम्बन्ध तेरा?
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*समाप्त*