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Magazine - Year 1948 - Version 2

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First 19 21 Last
(श्री विट्ठल शर्मा चतुर्वेदी)

मनुष्य इस संसार चक्र में घूमते हुए अपने परिभ्रमण पर क्या कभी गौर करके यह सोचता है कि हम कहाँ जा रहे है ? जबकि हम जा रहे हैं, परिभ्रमण कर रहे हैं, इसे वह स्पष्ट देखता है। इस प्रकार आँखों पर पट्टी बाँध कर चलते हुए क्या किसी लक्ष्य पर पहुँचने की कल्पना की जा सकती है।

लोगों का कहना है आज का युग मस्तिष्क प्रधान है। जितना जिसका दिमाग ज्यादा चलता है उसकी उतनी ही अधिक पूँछ होती है और इस दिमाग चलने में दूसरों को ज्यादा से ज्यादा मात देना शामिल है। सिर्फ अपनी सत्ता कायम करने के लिए दिमाग की अपेक्षा है। विज्ञान की जो उन्नति आज दिखाई दे रही है क्या उसमें अपनी सत्ता कायम करने की भावना नहीं है तब क्यों न मान लिया जावे कि इस परिभ्रमण का एक मात्र उद्देश्य अपनी सर्वोपरि सत्ता कायम करना है। इतने महाविनाश महायुद्ध का यही तो एक मात्र हेतु है। परमाणु बम जैसे बमों का आविष्कार और परमाणु शक्ति पर एकाधिकार की पुकार क्या इसका सबूत नहीं है ? और इसकी उपज का आदि स्थान है मस्तिष्क इसलिए यह युग मस्तिष्क प्रधान है ऐसा कहा और माना जाता है।

दूसरों को नष्ट करके अपनी सत्ता कायम करना किसी के भी जीवन का उद्देश्य नहीं माना जा सकता। इसे साधन तो माना जा सकता है क्योंकि किसलिए सत्ता कायम करना यह प्रश्न तो शेष रहता ही है और फिर दूसरों को नष्ट करके अपनी सत्ता कायम किस पर की जायगी इसे सोचने वाला भी तो चाहिए। यह काम भी तो इस मस्तिष्क के युग में नहीं हो रहा।

हमारा काम यह भूल जाने से नहीं चल सकता कि इस मनुष्य लोक को चलाने वाला अकेला मस्तिष्क ही नहीं हृदय भी है। हृदय और मस्तिष्क दोनों के ही योग से मनुष्य लोक संचालित हो रहा है। अकेला मस्तिष्क विनाश तो कर सकता है लेकिन सृजन नहीं कर सकता। सृजन के लिए हृदय की आवश्यकता होती है। हृदय को भुला देने के कारण ही दूसरों को अपने में मिला लेने की शक्ति समाप्त हो गयी है। लोग यह भूल गये हैं और भूलते जा रहे हैं कि प्रत्येक प्राणी में एक ही आत्मा है, एक ही हृदय है और उसे विनाश के द्वारा नहीं सेवा द्वारा, त्याग द्वारा एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। सर्वोच्च नहीं बल्कि सम्पूर्ण एकत्व कायम किया जा सकता है।

मस्तिष्क हमें और हमारी स्थिति को निरन्तर भुला रहा है, वह एक नया और काल्पनिक रूप अपने सामने रखता है जिसके कारण वास्तविकता दूर हटती जा रही है। स्वार्थपरता इतनी अधिक बढ़ गई है कि जो हमारे निकटवर्ती हैं और अत्यन्त अपने हैं उनसे भी हमें डर लगने लगा है हम जिसे उन्नति कहते हैं, विकास कहते हैं, वह हमें बड़ी तेजी से विनाश की ओर ले जा रही है। सहृदयता, सहानुभूति, दया, प्रेम सब ही तो लुप्त होते जा रहे हैं। जड़ता नित्य निरन्तर सघन होती जा रही है। इसलिए सर्वोच्च सत्ता कायम करने की बात तो अलग रही सामान्य सत्ता के लिए भी स्थान रहेगा इसमें भी सन्देह है।

आज मस्तिष्क रास्ता भूल गया है। अपने साथी को-हृदय को छोड़कर अन्धकार के मार्ग पर चल रहा है। आज की समस्त विषमताओं का श्रेय मस्तिष्क को है।

हमारा रास्ता गलत है और मस्तिष्क में इस गलती को समझने की भी शक्ति नहीं है। इसलिए हम प्रत्येक कदम पर गलती कर रहे हैं। अपनी सत्ता को मिटा रहे हैं। हम चले हैं अपनी सत्ता स्थापना के लिए, लेकिन खोद रहे हैं अपनी सत्ता की ही जड़ें।

आज समय है कि अपनी गलती को समझने के लिए हृदय का साथ लें। दूसरे का नाश करना नहीं, आत्मसात करना सीखें, दूसरे में मिलना सीखें, उसे देना सीखें। ग्रहण का रास्ता छोभ दें, त्याग का रास्ता पकड़ें। वह रास्ता ही हमें बतायेगा कि हमें कहाँ जाना चाहिए और क्या करना चाहिए। जब तक यह नहीं है तब तक हम कहाँ जा रहे हैं इसका सही उत्तर भी कौन देगा ? उत्तर देने वाले को तो आपने पहले ही भुला दिया है।

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