
बीमारी का आधा इलाज-व्याकुलता रोकना
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( श्री इन्द्रचन्द्र भूरा सिवनी)
बीमार की घबड़ाहट जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे ही खून की गर्मी बढ़ती जाती है और दिल की धड़कन भी। घबड़ाया हुआ बीमार औषधि का पूरा पूरा उपयोग नहीं ले पाता, इसलिए बीमार को ठीक करने का सबसे अच्छा और प्रारंभिक उपचार है उसकी घबड़ाहट दूर करना।
रोग की तेजी, रोग की असाध्यता, चंचल वातावरण और रोगी की कमजोरी से सब ऐसी बातें हैं जो रोगी में घबड़ाहट पैदा कर देती हैं इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसा प्रयत्न किया जावे जिससे रोगी जहाँ रहे, सोवे, उठे बैठे वहाँ का वातावरण अत्यन्त शान्त एवं आनन्दवर्धक हो। उसके कमरे में और आसपास धूप, गूगुल या लोमान की धुनी दी जावे उसके पास जो आदमी आवें, बैठे उठे वे रोगी को साहस बंधावे और उसके दिमाग में रोग की परेशानियों को बढ़ाने वाली बात चीत बन्द रखें, न परिवार संबंधी परेशानियों का ही उसके सामने जिक्र करें। यदि रोग की तेजी हो और रोगी बातूनी हो तो उसे बातों में लगाये रहकर रोग की तेजी का उसे अनुभव न होने दें और यदि रोगी खामोशी पसन्द हो तो वहाँ ऐसे किसी कार्य को न होने देना चाहिए ताकि वहाँ की खामोशी और शान्ति भंग हो जावे।
डॉक्टर के व्यवहार का रोगी के स्वास्थ्य पर और मन पर अच्छा खास प्रभाव होता है। इसलिए रोगी को ढाढ़स बंधाने के लिए डॉक्टर से भी ऐसी बातें उसे समझवानी या उससे कहलवा देनी चाहिए जिससे उसकी उद्विग्नता न बड़े।
औषधियों को समय पर दिये जाने एवं उचित समय पर निश्चित खानपान सेवा सुश्रूषा के मिलने से भी रोगी को विश्राम मिलता है। इसलिए इन सारी चीजों का सख्ती से पालन होना चाहिए।
कभी कभी देखा जाता है कि रोगी बहुत दिनों तक रोग ग्रस्त रहने के कारण चिड़चिड़ा हो जाता है इसलिए परिचारक को चाहिए कि वह रोगी के चिड़चिड़ेपन को बर्दाश्त करे और रोगी से कभी भी झल्लाकर न बोले, न उसके किसी कार्य से उत्तेजित हो और न भला−बुरा कहे। अधिक दिनों के रोगी के प्रति कभी-2 लोगों में उपेक्षा भी आ जाती है, यह भी बुरी बात है। लोगों की यह उपेक्षा बीमार को आसानी से घबड़ा देती है और ऐसे समय बीमारी के बढ़ने का खतरा रहता है। इसलिए परिचारक को तथा मिलने जुलने वालों को व्यवहार में शिष्टता और सौम्यता का व्यवहार करने की अत्यन्त आवश्यकता है। तात्पर्य यही है कि बीमार को जितना धैर्य मिलेगा, सान्त्वना मिलेगी, आराम मिलेगा उतना जल्दी अच्छा होगा, और उतनी दवाई का असर होगा।
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