
बल की उपासना कीजिए
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(आचार्य बिनोवा भावे)
‘बलं बलवतामस्मि काम राग विवर्जितम’ वाक्य गीता में कहा गया है। काम और राग से रहित बल भगवान की अपनी शक्ति है अपनी विभूति है। जब भगवान की उपासना करनी है तो भगवान के ऐसे ही बल की उपासना करनी चाहिए। वैराग्य युक्त निष्काम बल की मूर्ति हनुमान जी हैं, इसीलिए हर एक व्यायाम शालाओं में उनकी मूर्ति स्थापित की जाती है। हनुमानजी वैराग्य युक्त और निष्काम बल के पुतले थे। रावण भी बलवान था लेकिन न वह निष्काम था और न वैराग्य युक्त। उसका बल भोगने के लिए था, दूसरों को दुःख देने के लिए था। वह पहाड़ उठा लेता था, वज्र तोड़ डालता था, इतना बलवान होते हुए भी उसका सारा बल धूल में मिल गया। लेकिन हनुमान जी अजर हैं, अमर हैं। रावण के बल में भोग वासना थी, वह बल के द्वारा भोग प्राप्त करना चाहता था, हनुमानजी बल के द्वारा सेवा करना चाहते थे। जिस बल का उपयोग सेवा के लिए किया जाता है, वह टिकता है, अमर होता है पर भोग के लिए अर्पण किया हुआ बल जहाँ अपना नाश करता है वहाँ संसार के नाश का भी कारण होता है।
सीता की खोज में संलग्न हनुमान जी समुद्र के किनारे बैठे हैं और भी प्रमुख 2 बन्दर हैं। सब ही लंका पार करने के लिए अपनी 2 बल बुद्धि का वर्णन कर रहे हैं। परन्तु हनुमान जी मौन हैं भगवान के स्मरण में मग्न हैं। जाम्बवन्त जी हनुमान जी से कहते हैं, लंका के पार जाओगे। हनुमान जी कहते हैं, जैसी आपकी आज्ञा होगी, आपका आशीर्वाद होगा, तो जाऊंगा। जितने विनय के शब्द हैं, कितने वीतराग हैं वे । वे कहते हैं “मैं राम के भरोसे यहाँ आया हूँ, मेरी भुजाओं में बल है या नहीं, यह नहीं जानता पर राम का बल अवश्य मेरे पास है।
भुजाओं के बल का अर्थ है शारीरिक, श्रम करने की शक्ति। इसी के लिए तो हाथ होते हैं। सेवा करने के लिए ही तो मनुष्यों को हाथ दिए हैं। पशु के हाथ नहीं होते। हमारी कलाइयों में जो सेवा करने की शक्ति है। वह किसकी शक्ति है, हनुमान जी इसे जानते हैं तभी तो वे कहते हैं, राम का बल अवश्य मेरे पास है। यह क्या है राम की शक्ति, आत्मा की शक्ति।
जिस बल की आत्मा में श्रद्धा न हो, राम में श्रद्धा न हो, वह बेकार है। वह बल सेवा के लिए नहीं हो सकता वह तो भोग के लिए है। ऐसा भुजाओं का बल तुच्छ है, वह निराधार है, वह पशु बल है। बल को तो आत्म श्रद्धा पर प्रतिष्ठित होना चाहिए। निर्बल भी आत्म श्रद्धा के बल पर बलवान हो जाते हैं। उपनिषदों में कहा गया है कि जिसमें श्रद्धा का बल है वह दूसरे सौ आदमियों को कँपा देगा। हनुमान में यही श्रद्धा का बल था। उनकी स्तुतिपरक जितने भी ध्यान हैं उनमें शारीरिक बल का कहीं कोई वर्णन नहीं है। बल्कि उन्हें कहा गया है कि वे मन और पवन के समान वेगवान थे। जितेन्द्रिय थे। बुद्धि मान थे, नायक थे और थे रामदूत। यह है बल के देवता की मूर्ति। इसीलिए तो बल की उपासना करने वाले में वेग चाहिए। स्फूर्ति चाहिए, सामने कार्य देखते ही आनन्द से छलाँग मारने का उत्साह होना चाहिए। मन में सेवा की भावना है, शरीर आलस्य में लोट पोट हो रहा है ऐसा शरीर किस काम का। सेवक को तो ऐसा होना चाहिए कि सेवा करने के लिए बात मन में उठे पीछे, शरीर पहले ही चल पड़े।
शरीर में इस प्रकार का वेग होने के लिए जितेन्द्रिय होना चाहिए। उसके लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। इन्द्रियों पर काबू होना ही सच्चा ब्रह्मचर्य है। संयम के बिना कभी किसी को सच्चा बल नहीं मिलता। वेग और संयम के साथ बुद्धि भी होना चाहिए तथा कर्म कुशलता भी होनी चाहिए। कल्पना और प्रतिभा भी चाहिए। इसके अतिरिक्त चाहिये राम की सेवा करने की भावना । राम की श्रद्धा भक्ति। यह श्रद्धा और भक्ति मन को शुद्ध करेगी, भीतरी शुद्धि से-बलवान और भक्तिवान बनकर सेवा के लिए तत्परता आवेगी। तभी तो सच्चा बल मिलेगा, ऐसा बल जो कभी क्षीण नहीं होता जो हमेशा अजर और अमर रहता है। जो कभी निष्फल नहीं जाता जैसा कि श्री हनुमान जी का। इसी बल की उपासना करना हनुमान जी की सच्ची उपासना करना है। देश को ऐसे ही उपासकों की आज आवश्यकता है।
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