
आत्म निर्माण का मार्ग
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मनुष्य का अंतःकरण कुछ विश्वासों से आच्छादित रहता है। इन विश्वासों के आधार पर ही उसकी जीवन यात्रा संचालित होती रहती है। मन, बुद्धि और चित्त की प्रेरणा इन विश्वास बीजों से प्राप्त होती है। शरीर की क्रियाएं मन बुद्धि की इच्छानुसार होती हैं। इस प्रकार शरीर और मन दोनों की गतिविधि उन विश्वास बीजों पर अवलम्बित होती है।
कुछ विश्वास बीज तो प्राणी पूर्व जन्मों से संस्कार रूप में साथ लाता है पर अधिकाँश का, निर्माण इसी जीवन में होता है। माता पिता के, कुटुम्बियों के, पड़ौसियों के विचार व्यवहार का बहुत सा भाग बालक ग्रहण करता है। सामने घटित होने वाली घटनाओं का प्रभाव, वातावरण और परिस्थितियों का प्रभाव बच्चे पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। बड़े होने पर पुस्तकों से, मित्रों से, समाचारों से, प्रवचनों से तथा अपनी तर्क शक्ति से वह कुछ निष्कर्ष निकालता है। इन निष्कर्षों के विरोध में कोई जबरदस्त तर्क या कारण सामने न आवे तो वे विश्वास बीज की तरह मनोभूमि में गढ़ जाते हैं और वहाँ अपनी जड़ें गहराई तक जमा लेते हैं। इन बीजों के जो पौधे उगते हैं उन्हें हम विचार या कार्य के रूप में प्रकट होता हुआ देखते हैं।
मनुष्य अहंकार प्रधान प्राणी है। उसे ‘अहम’ सबसे अधिक प्रिय है। जिस वस्तु के साथ वह इस ‘अहम्’ को जोड़ लेता है वह वस्तुएं भी उसे प्रिय लगने लगती हैं। स्त्री, पुत्र, धन, वैभव, यश, अपने हो तो प्रिय लगते हैं, पर यदि वे ही दूसरे के हों तो उलटे ईर्ष्या, जलन, डाड तक होता है। अपने दोष सुनने का धैर्य बड़े बड़े धैर्यवानों को नहीं होता और अपनी प्रशंसा सुनने के लिए बड़े बड़े त्यागी अधीर हो जाते हैं। यही ‘अहम’ भाव अपने विश्वास बीजों के साथ संयुक्त हो जाता है तो वह अपने धन या स्त्री पुत्रों के समान प्रिय लगने लगते हैं। जैसे अपनी वस्तुओं की निन्दा या क्षति होते देखकर क्रोध उमड़ता है और निन्दा या क्षति करने वाले से संघर्ष करने को उठ पड़ते हैं वैसे ही अपने विश्वास बीजों के प्रतिकूल किसी विचार या कार्य को सामने आया देखकर मनुष्य अपनी सहिष्णुता खो बैठता है और विरोधी के प्रति आग बबूला हो जाता है।
यह विश्वास बीज दो काम करते हैं(1) मन और शरीर को एक नियत दिशा में कार्य करने को प्रेरित करते हैं (2) अपने से प्रतिकूल विश्वास बीज वालों के प्रति घृणा, विरोध या संघर्ष उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका मानव जीवन में बड़ा महत्व है। इनके थोड़े से फेर के कारण जीवन का रूप स्वर्ग से नरक में और नरक से स्वर्ग में परिणत हो जाता है।
आज झूठ बोलने, मनोभावों को छिपाने और पेट में कुछ रखकर मुँह से कुछ कहने की प्रथा खूब प्रचलित है। कई व्यक्ति मुख से धर्मचर्चा करते हैं पर उनके पेट में पाप और स्वार्थ बरतता है। यह पेट में बरतने वाली स्थिति ही मुख्य है। उसी के अनुसार जीवन की गति संचालित होती है। एक मनुष्य के मन में विश्वास जमा होता है कि “पैसे की अधिकता ही जीवन की सफलता है।” वह धन जमा करने के लिए दिन रात जुटा रहता है। “जिसके हृदय में यह धारणा है कि इन्द्रिय भोगों का सुख ही प्रधान है” वह भोगों के लिए बापदादों की जायदाद फूँक देता है। जिसका विश्वास है कि “ईश्वर प्राप्ति सर्वोत्तम लाभ है।” वह धन और भोगों को तिलांजलि देकर सन्त का जीवन बनाता है जिसे देशभक्ति की उत्कृष्टता पर विश्वास है वह अपने प्राणों की भी वलि देश के लिए देते हुए प्रसन्नता अनुभव करता है। जिसके हृदय में जो विश्वास जमा बैठा है वह उसी के अनुसार सोचता है, कल्पना करता है, योजना बनाता है, कार्य करता है और इस कार्य के लिए जो कठिनाईयाँ आ पड़ें उन्हें भी सहन करता है। दिखावटी बातों से, बकवास से, वाह्य विचारों से नहीं वरन् भीतरी विश्वास बीजों से जीवन दिशा का निर्माण होता है।
सामाजिक रीतिरिवाज, जाति पाँति छूतछात, विवाह शादी, खान पान, मजहब, सम्प्रदाय, ईश्वर, धर्म, परलोक, भूत, प्रेत, देवी, देवता, तीर्थ, शास्त्र, संस्था, राजनीति, चिकित्सा, आचार, विचार, मनोरंजन एवं अपनी तथा दूसरों की आत्मस्थिति के संबंध में कुछ विश्वास जमे होते हैं। उनके आधार पर ही शरीर और मस्तिष्क के कलपुर्जे काम करते हैं। एक मनुष्य की इच्छा, आकाँक्षाएं, विचार धारा एवं कार्य प्रणाली दूसरे से भिन्न होती है। इसका कारण उनके विश्वास बीजों की भिन्नता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। शास्त्रों में आत्मा को निर्लिप्त, शुद्ध, पवित्र कहा है पर यह विश्वास बीज ही उसे एक दूसरे से पृथक, संकीर्ण, एवं भला बुरा बना देते हैं।
मस्तिष्क को बहुधा उसी दिशा में कार्य करना पड़ता है जो अंतर्मन की प्रेरणा होती है। जैसे एक व्यक्ति के अंतर्मन में “कामुकता का रस” विश्वास बीज के रूप में जमा हुआ है। अब बाहरी मस्तिष्क को ऐसी ऐसी तरकीबें सोचनी पड़ेंगी कि उस रस को कहाँ, किस प्रकार, कैसे, आस्वादन किया जा सकता है। इसी प्रकार धार्मिक, सामाजिक, व्यक्तिगत क्षेत्रों में जो जो विश्वास जमे होते हैं उन्हीं की पुष्टि और संतुष्टि करने के लिए बेचारे बाह्य मस्तिष्क को काम करते रहना पड़ता है।
एक वकील एक मुकदमे को अपने हाथ में लेता है। वह निश्चय करता है कि अपने मुवक्किल को मुझे जिताना है। जब यह धारणा उसने कर ली तो फिर उसकी शिक्षा एवं बुद्धि के आधार पर तैयार हुई बाह्य मस्तिष्क की मनोभूमि उसी दिशा में काम करने लगती है। फलस्वरूप वह अनेकों कानूनी बारीकियाँ बहस के लिए अनेक तर्क, एवं मुकदमे के अनेकों स्वपक्षीय आधार निकाल लेता है और अपनी विद्वता से इस प्रकार मुकदमा लड़ता है कि यदि केवल उसी की बात सुनी जाय तो साधारण व्यक्ति को यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि इस वकील का प्रतिपादन ही ठीक है। अब दूसरा पहलू लीजिए, यदि इसी वकील ने इसी मुकदमे के दूसरे पक्ष का वकील होना स्वीकार किया होता तो उसका मस्तिष्क बिलकुल दूसरी ही दिशा में काम करता। तब वह ऐसे ऐसे रास्ते निकालता जो आज के प्रतिपादन से बिलकुल विपरीत होते। उस समय वह कानूनी बारीकियाँ ऐसी ऐसी खोज लाता जिसके अनुसार आज के मुवक्किल का विरोधी प्रतिपक्षी-जीतता। जिस प्रकार वकील की मूलभूत धारणा-पक्ष ग्रहण-के आधार पर उसकी बुद्धि को दौड़ना पड़ता है उसी प्रकार प्रायः सभी मनुष्यों के बाह्य मस्तिष्क भीतर जमे हुए संस्कारों के पृष्ठ पोषण में नाना प्रकार के तर्क और विवाद के मुद्दे तलाश किया करते हैं। धन कमाने का विश्वास वकील के मस्तिष्क को उलटा चलने के लिए प्रेरित कर सकता है और सीधा चलने के लिए भी।
देश देश और जाति जाति में जो प्रथकताएं पाई जाती हैं, वह इस विश्वास पृथकता का ही चिह्न है। योरोप में कुमारी लड़कियाँ किसी पुरुष के साथ नृत्य कर सकती हैं, अपने तरुण मित्रों के साथ रात बिता सकती है, ऐसा होने पर कोई आश्चर्य की बात नहीं समझी जाती। क्योंकि यह प्रथा उनके व्यावहारिक रीति रिवाजों में शामिल है। परन्तु यदि भारतवर्ष के हिन्दू परिवार की लड़कियाँ ऐसा आचरण करें तो इससे तहलका मच सकता है। पाश्चात्य देशों में 70-80 वर्ष की स्त्रियाँ भी अपना विवाह करती हैं पर पूर्वीय देशों में ऐसा होना एक अचंभे की बात होगी। भारत वर्ष के विभिन्न प्रान्तों के पहनाव उढ़ाव और रहन सहन में काफी अन्तर है। महाराष्ट्र की महिलाएं सिर खुला रखती हैं धोती कंधे से ओढ़ती हैं और पुरुषों की तरह धोती की लाँग लगाती हैं पर यदि यू0 पी0 की स्त्रियाँ ऐसा पहनावा पहनें तो उन्हें पारिचारिक कोप का भाजन बनना पड़ेगा। काश्मीर में हिन्दुओं के घरों में मुसलमान रसोइए काम करते देखे गए हैं पर वैसी रिवाज को यू0 पी0 के हिन्दू स्वीकार नहीं करते। इस भिन्नता के साथ साथ एक विशेषता और है वह यह कि लोग अपने अपने स्थानों के रिवाजों को उचित, लाभदायक एवं धर्मं संगत मानते हैं तथा दूसरों के यहाँ के रिवाजों का विरोध करते हैं। उनके तर्क, अपने विश्वासों के समर्थन का ही प्रयत्न करते हैं।
साम्प्रदायिक, जातिगत, दलगत, प्रान्तीय, रीति रिवाजों एवं विचार धाराओं के संपर्क के कारण मनुष्य उन्हें ग्रहण कर लेता है। आमतौर से मनुष्य का स्वभाव नकल करने का है। तर्क एवं विवेक का वह कभी कभी और कहीं कहीं ही प्रयोग करता है। कारण यह है कि तर्क करने और दूरदर्शिता पूर्ण बारीकी से विचार करने में मस्तिष्क को विशेष भारी बोझ उठाना पड़ता है। जैसे भारी शारीरिक श्रम करने से सब लोग जी चुराते हैं वैसे ही तीक्ष्ण वेधक दृष्टि से सत्य के तथ्य तक पहुँचने का भारी मानसिक श्रम करने का लोगों को साहस नहीं होता। बहुतों में तो इस प्रकार की योग्यता भी नहीं होती, जिनमें होती है वे अपने परम प्रिय विषय को छोड़कर अन्य विषयों में गंभीर दृष्टि डालने का प्रयत्न नहीं करते। इस प्रकार आमतौर से देखा देखी नकल करने की परम्परा चल पड़ती है। यही परम्पराएं कालान्तर में विश्वास बीज बन जाती हैं।
अपनी बात को ही प्रधान मानने और ठीक मानने का अर्थ सबकी बातें झूठी मानना है। इस प्रकार का अहंकार अज्ञान का द्योतक है। इस असहिष्णुता से घृणा और विरोध बढ़ता है, सत्य की प्राप्ति नहीं होती। सत्य की प्राप्ति होनी, तभी संभव है जब हम अपनी भूलों, त्रुटियों और कमियों को निष्पक्ष भाव से देखें। अपने विश्वास बीजों का हमें निरीक्षण और परीक्षण करना चाहिए। जो हमारे शक्ति केन्द्र हैं, जिनकी प्रेरणा से हमारी जीवन दिशा संचालित होती है, उन विश्वास बीजों को हम निष्पक्ष भाव से, कठोर समालोचक की तरह भली प्रकार अपनी अन्तःभूमि का निरीक्षण करना चाहिए। जैसे चतुर किसान अपने खेत में उगे हुए झाड़ झंखाड़ों को अपना नहीं समझता, न उससे अपनेपन का मोह करता है वरन् उन्हें निष्ठुरतापूर्वक उखाड़ कर फेंक देता है, उसी प्रकार हमें भी अपने कुसंस्कारों को बीन बीन कर उखाड़ देना चाहिए। अब तक हम यह मानते रहे हैं, इसे बदलने में हमारी हेठी होगी, ऐसी झिझक व्यर्थ है। आत्म निर्माण के लिए, सत्य की प्राप्ति के लिए, हमें अपना पुनर्निर्माण करना होगा। जैसे-सिर के बाल घोटमघोट कराके ब्रह्मचारी गुरुकुल में प्रवेश करता है वैसे ही अपनी समस्त पूर्वमान्यताओं को हटाकर नये सिरे से उचित, उपयोगी एवं सच्ची मान्यताओं को हृदय भूमि में प्रतिष्ठित करना चाहिए। तभी हम आत्मनिर्माण के महा मन्दिर में पदार्पण कर सकते हैं। पक्षपाती और भ्रान्त धारणाओं के दुराग्रही के लिए सत्य का दर्शन असंभव ही है।
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