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Magazine - Year 1957 - Version 2

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हमको दैवी सहायता कहाँ से प्राप्त हो सकती है।

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(भारतीय योगी)

हमारे देश में चमत्कारी घटनायें प्रायः सुनने में आया करती हैं। अनेक बार आकस्मिक आपत्तियों, दुर्घटनाओं, शत्रुओं अथवा आतताइयों द्वारा आक्रमणों से मनुष्य की इस प्रकार रक्षा हो जाती है कि जिसकी कोई आशा या सम्भावना नहीं होती। अन्य घटनाओं की बात छोड़ भी दें, तो ‘अखण्ड ज्योति’ में प्रकाशित “गायत्री-साधना के अनुभवों” में भी पाठकों को ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते हैं, जिनको सिवाय दैवी सहायता के और कुछ नहीं कह सकते।

प्राचीन काल के लोग वायुमंडल और पृथ्वी के पास के अन्य लोकों में रहने वाली आत्माओं में पूर्ण विश्वास रखते थे और उनके द्वारा समय पड़ने पर सहायता भी प्राप्त किया करते थे। पर जब से अर्द्ध दग्ध ज्ञान ने मनुष्य का पल्ला पकड़ा है तब से वह पारलौकिक जीवन में तरह-तरह की शंका करने लगा है। पर इससे उसका कोई लाभ नहीं हुआ, वरन् वह अपने को अगले की अपेक्षा अधिक असहाय पाने लगा है। प्राचीन लोग यक्ष, गंधर्व, किन्नर, अप्सरा अथवा जंगल, पहाड़, नदी आदि के अधिष्ठाता देवों को केवल मनोरंजक कहानियों की चीज ही नहीं समझते थे, वरन् उनका इन अदृश्य-शरीरी शक्तियों की सत्ता में पूरा विश्वास था और समय पड़ने पर वे उनसे आत्मिक बल, श्रद्धा, साहस और समयोचित सूझ-बूझ भी प्राप्त किया करते थे। अब फिर कितने ही विद्वानों का ध्यान इस तरफ गया है और उन्होंने उसे विज्ञान से अनुकूल और स्पष्ट भाषा में तथा व्यवस्थित रीति से बताने का उपक्रम किया है। यद्यपि हमारे देश की साधारण जनता इन बातों पर अविश्वास तो नहीं करती, पर वह प्रत्येक विषय में अलौकिक शक्तियों पर इतना अधिक विश्वास करती है कि वह अन्ध विश्वास की कोटि में जा पहुँचता है। इसलिये आवश्यकता है कि इस विषय का विवेचन तर्क बुद्धि के द्वारा ऐसे विचार-संगत ढंग से किया जाय जिससे पाठक उसकी वास्तविकता को हृदयंगम कर सकें और उससे यथोचित लाभ उठा सकें।

आध्यात्म-जगत की खोज करने वाले विद्वानों का मत है कि मनुष्य-लोक से ऊपर वाले लोकों में कितनी ही श्रेणियों की उच्च और साधारण कोटि की आत्मायें रहती हैं जो पृथ्वी के निवासियों पर परिस्थिति के अनुसार शुभ या अशुभ प्रभाव डाला करती हैं। इनमें कुछ तो बहुत बड़े “महात्मा” हैं, जो व्यक्तिगत बातों की अपेक्षा संसार को नियंत्रित करने वाली शक्तियों का संचालन करते हैं। साधारण आत्माओं में से बहुत-सी मनुष्यों को सहायता दे सकती हैं, पर सर्वप्रथम उनका विचार अपनी अधिक आत्मिक उन्नति करके ईश्वर के किसी रूप में मिल जाना होता है। और वास्तव में आरम्भिक अवस्था में वे मनुष्यों की अधिक सहायता करने में समर्थ भी नहीं होतीं। इसलिये जब वे किसी उच्च श्रेणी को प्राप्त करके विशेष शक्ति-सम्पन्न हो जाते हैं तभी उनके द्वारा मनुष्यों को सहायता प्राप्त हो सकती है।

जीवित मनुष्यों में से भी अनेक व्यक्ति साधना करके ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेते हैं जिससे वे स्वयं भी दूसरों के जीवन पर प्रभाव डाल सकते हैं और इन अदृश्य आत्माओं द्वारा भी कार्य करा सकते हैं। भारतीय योगियों के लिये तो यह बात साधारण मानी गयी थी और हमको इस सम्बन्ध में अपने ऋषि-मुनियों के इतने अधिक उदाहरण मिलते हैं कि उन सबको एकाएक असत्य बतला देना अथवा सब पर अविश्वास कर सकना कठिन होता है। ऐसे साधक प्रायः ध्यान की अवस्था में अथवा निद्रा की अवस्था में सूक्ष्म-शरीर द्वारा ऐसे कार्यों को सम्पन्न किया करते हैं। उस समय वे अन्य लोकों में ऐसे विचरण करते हैं और वहाँ के निवासियों से बात-चीत और व्यवहार करते हैं मानो वहीं के स्थायी रहने वाले हों। उस समय वे पृथ्वी पर रहने वाले किसी भी जागृत व्यक्ति पर इच्छानुसार प्रभाव डाल सकते हैं और उसे प्रेरणाएं दे सकते हैं। वे उसके दुखित और अशान्त मन में शान्तिदायक आराम देने वाली धारायें भेज सकते हैं। जिससे वह शाँतिदायिनी निद्रा की गोद में सो सकें। वे उसकी आपत्तियों को हल्का करने वाले विचार उसके मन में उत्पन्न करके उसे बहुत कुछ आश्वासन दे सकते हैं।

अनेक लोक ऐसी सब प्रकार की दैवी सहायताओं को ईश्वर की ओर से प्राप्त ही मानते हैं। एक ईश्वर में ऐसी बातों को मानने से उस पर तरफदारी का दोषारोपण किया जा सकता है। उसके नियम तो सबके लिए एक से रहते हैं। वह एक–सी परिस्थिति में एक की रक्षा करें और दूसरे को छोड़ दें, ऐसा संभव नहीं। इसलिये इस प्रकार की दैवी सहायताएं, जिनसे अनेक समय हमारी बड़ी-बड़ी आपत्तियों से रक्षा हो जाती है, इन महापुरुषों और अन्य लोक निवासी भली आत्माओं (जिनको लोग दैव, पितर या प्रेत आदि के नाम से भी पुकारा करते हैं) द्वारा ही सम्पन्न हुआ करती हैं। नीचे ऐसे कुछ उदाहरण दिये जाते हैं, जिनका खुलासा केवल भौतिक विज्ञान से किसी प्रकार नहीं हो पाता। ये उदाहरण विशेषतः योरोपियन देशों के हैं, क्योंकि वहीं के लोग परलोक की बातों पर अधिक अविश्वास करते हैं और इसलिये वहाँ नियमानुकूल खोज और जाँच-पड़ताल भी की गई है-

कुछ वर्ष पूर्व लन्दन की ‘हालवर्न रोड’ पर भयंकर आग लग गई थी। जिसमें दो घर बिल्कुल भस्म हो गये। आग लगने की सूचना मिलने से पहले ही ज्वाला का इतना विस्तार हो गया था कि आग बुझाने वालों का दल मकानों को तो न बचा सका, पर दो को छोड़कर शेष सब आदमियों को बाहर निकाल लाया। एक बुढ़िया, सहायता पहुँचने के पूर्व ही, धुँए से दम घुटने के कारण मर गयी थी दूसरा एक पाँच वर्ष का बच्चा था जिसका मकान में होना उस समय की जल्दी और घबराहट के मारे लोग भूल गये थे। बात यह हुई कि उस बच्चे की माँ मकान की मालकिन की मित्र थी और उस दिन बच्चे को रात भर के लिये उसी की निगरानी में छोड़कर किसी कार्यवश ‘कालचेस्टर’ नामक स्थान को चली गयी थी। जब सब लोग बचाकर बाहर ले आये गये तो मकान मालकिन को उस बच्चे की याद आई और वह बड़ा शोक करने लगी। बच्चा ऊपर की अटारी में सुलाया हुआ था, और इस समय वहाँ पहुँचना असंभव जान पड़ता था। तो भी एक आग बुझाने वाले ने वीरता के साथ इसके लिए प्रयास करने का निश्चय किया और उस कमरे का ठीक-ठाक पता लेकर वह धुँआ और ज्वाला में जा घुसा।

इस प्रयत्न के फलस्वरूप बालक उसे मिला और वह उसे सकुशल बाहर ले आया, परन्तु अपने साथियों में आकर उसने एक बड़ी विचित्र कथा कही। उसने कहा कि जब मैं कमरे में पहुँचा तो वह जल रहा था और फर्श का बहुत-सा भाग गिर पड़ा था। पर अग्नि कमरे में गुलाई खाकर अस्वाभाविक और समझ में न आने लायक तरीके से जल रही थी और खिड़की की तरफ निकल गई थी। ऐसा उदाहरण उस अग्नि बुझाने वाले ने अपने अनुभव में कभी नहीं देखा था। इसका फल यह हुआ कि वह कोना, जिसमें बच्चा सो रहा था, बिल्कुल बच गया, हालाँकि वे ही पटिये जिन पर उसकी छोटी खाट रखी थी आधे-आधे जल गये थे। बच्चा भयभीत हो गया था, पर उस आग बुझाने वाले ने बार-बार स्पष्ट रीति से वर्णन किया कि जैसे ही बड़ी जोखिम उठाकर बच्चे की तरफ पहुँचा तो वहाँ मैंने एक दिव्य-रूप देखा- जो “बिल्कुल दिव्य, श्वेत और चाँदी सरीखा था और बिस्तर के ऊपर झुककर ओढ़ने के कपड़े की गुड़ी को दूर कर रहा था ये शब्द ठीक उसी के मुँह के हैं। उसका कहना कि मैं इस विषय में भूल नहीं कर सकता, क्योंकि आकाश की चमक से वह दिव्य रूप कुछ क्षण तक दीखता रहा, और जब मैं उससे कुछ फीट पर पहुँचा तो वह अदृश्य हो गया।

इस घटना की दूसरी विचित्र बात बाद को मालूम हुई, जब अगले दिन उस बच्चे की माँ वापस आई। उस रात्रि को उसे निद्रा बिल्कुल न आई, और उसे बार-बार ऐसा अनुभव होता था कि मेरे बच्चे की कुशलता में कुछ बाधा है। इसलिये वह उठकर बड़ी श्रद्धा से यह प्रार्थना करती रही कि मेरा बच्चा उस भय से रक्षित होवे, जिस भय की आशंका उसे अपने अन्तःकरण में बार-बार हो रही है। इससे प्रकट होता है कि उसके प्रेम के प्रगाढ़ प्रवाह से एक ऐसा बल उत्पन्न हुआ जिससे कोई दैवी शक्ति उस बालक की सहायता को वहाँ पहुँच सकी।

उपर्युक्त घटना के कुछ वर्ष पूर्व ‘भेडिनहेठ’ नामक गाँव में टेम्स नदी के किनारे भी एक असाधारण घटना हुई वह आग की न थी, वरन् पानी की थी। तीन छोटे-छोटे बच्चों को, जो संभवतः ‘साटेस ब्रुक’ ग्राम में रहते थे, उनकी दाई हवा खिलाने नदी के किनारे उस रास्ते में ले गई जहाँ से गायों को रस्सी से खींच कर जल में उतारा जाता है। वे बच्चे एक मोड़ के बाद अचानक एक घोड़े के पास पहुँच गये जो नाव खींचे ले जा रहा था, और उस समय की घबड़ाहट में दो बच्चे रस्सी के दूसरी तरफ चले गये और उसका झटका खाकर पानी में गिर पड़े।

नाव वाला यह घटना देख कर उनको बचाने के लिये पानी में कूद पड़ा। उसने देखा कि वे पानी में ऊँचे उठे हुए बिल्कुल गैर मामूली तरीके से तैर रहे हैं और शाँत रीति से किनारे की तरफ जा रहे हैं। उस दाई ने और उस नाविक ने तो केवल इतना ही देखा, परन्तु उन दोनों बालकों ने यह कहा कि “एक सुन्दर दिव्य रूप” पानी में हमारे पास खड़ा था और हमें ऊँचा उठाकर किनारे की तरफ ला रहा था। उनकी इस कथा का पुष्टिकरण उस नाविक की छोटी कन्या ने भी किया जो दाई के चिल्लाने पर नाव की कोठरी से बाहर निकल आयी थी। उसने भी कहा कि एक सुन्दर स्त्री उन दोनों बच्चों को किनारे की तरफ खींच रही थी।

एक और घटना में एक मनुष्य अपने दो बच्चों को लेकर, जिनकी माँ का कुछ ही दिन पहले देहान्त हो गया था, देहात में अपने मित्र से मिलने गया। उसके मित्र का घर बड़े पुराने ढंग का था, जिसके नीचे के भाग में लम्बे-लम्बे अंधेरे रास्ते थे, जिनमें बच्चे मनोविनोद के लिये खेलते फिरते थे। परन्तु कुछ ही देर बाद वे गम्भीर होकर ऊपर चले आये और कहने लगे कि एक अंधेरे रास्ते में हमारी माता हमें मिली और यह कह कर कि ‘ऊपर चले जाओ’ फिर गायब हो गई। जाँच करने से मालूम हुआ कि अगर बच्चे कुछ ही कदम और आगे जाते तो एक गहरे खुले मुँह के कुँए में गिर पड़ते जो ठीक उनके रास्ते में पड़ता था। इससे मालूम होता है कि उनकी माँ प्रेत-लोक से भी अपने बच्चों की प्रेम भरी रखवाली करती थी और इस भय के अवसर पर बच्चों को मरने से बचाने के लिये, उन्हें सूचना देने की प्रचंड इच्छा के कारण उसमें इतनी शक्ति आ गई कि वह अपने को एक क्षण के लिये दृश्यमान और कर्ण गोचर बना सकी। अथवा उसने उन बच्चों के मन पर ऐसा प्रभाव डाला जिससे उन्हें ख्याल हुआ कि हमने अपनी माता को देखा और सुना।

इस प्रकार की घटनायें देश और विदेशों में प्रायः होती रहती हैं। यह भी अनुभव में आया है कि इस प्रकार की घटनायें प्रायः बच्चों और निर्दोष व्यक्तियों की रक्षा के लिये ही हुआ करती हैं और ऐसी दिव्य-आत्मायें दिखलाई तो बच्चों को ही देती हैं। कुछ भी हो इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जो लोग अपना चरित्र और हृदय शुद्ध रखते हैं और अन्तःकरण में भगवान का ध्यान किया करते हैं, उनको संकट के समय कुछ न कुछ दैवी-प्रेरणा और सहायता प्रायः मिल जाती है। इसमें ऐसी कोई बात नहीं कि ऐसे प्रत्येक अवसर पर दैवी सहायता अनिवार्य रूप से आवे। बहुत से शोक और संकट ऐसे भी होते हैं, जो ईश्वरीय-विधान के अनुसार ही आते हैं और प्रकट में दुःखदायी जान पड़ने पर भी वास्तव में हमारा हित करने वाले होते हैं। क्योंकि दुख-सुख का भाव तो मनुष्य के नीचे दर्जे के काम-संकल्पयुक्त मन का होता है। पर आत्मिक-सुख काम-संकल्प रहित ऊँचे मन का होता है। इसलिये किसी भी दुःख या संकट के लिये हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते हैं कि हमारे लिये केवल भयजनक और अनिष्टकारक ही है। इसलिये किसी भी विचार से मनुष्य को सत्पथ और ईश्वरीय मार्ग से टलना नहीं चाहिये और विश्वास रखना चाहिये कि यदि हमारी साधना और उपासना सच्चे मन से होगी तो हमारा हर तरह से कल्याण ही होगा।

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